चाणक्य नीति सूत्र संग्रह – Chanakya Niti Sutra in Hindi
चाणक्य नीति सूत्र वस्तुतः चाणक्य नीति से ही संकलित किए गए हैं। सूत्र याद रखने में सरल होते हैं। वे गहराई से दिमाग़ पर असर करते हैं। यही वजह है कि प्राचीन काल में अनेक ग्रंथों की रचना सूत्रों के संकलन के रूप में की गयी।
आचार्य चाणक्य द्वारा रचित ये चाणक्य नीति सूत्र देखने में छोटे लगते हैं, लेकिन इनका प्रभाव गहन है। इनका अध्ययन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे जाने के लिए आवश्यक है। पढ़ें आचार्य चाणक्य के ये सूत्र–
सुखस्य मूलं धर्मः।
धर्म ही सुख देने वाला है।
धर्मस्य मूलमर्थः।
धन से ही धर्म संभव है।
अर्थस्य मूलं राज्यम्।
राज्य का वैभव धन से संभव है।
राज्यमूलमिन्द्रियजमः।
राज्य की उन्नति इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने से है।
इंद्रियजयस्य मूलं विनयः।
इंद्रियों पर विजय तभी संभव है जब विनय रूपी संपदा हो।
विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा।
वृद्धों की सेवा से ही विनय भाव जाग्रत होता है।
वृद्धसेवया विज्ञानत्।
चाणक्य नीति सूत्र के अनुसार वृद्ध-सेवा से सत्य ज्ञान प्राप्त होता है।
विज्ञानेनात्मानं सम्पादयेत्।
विज्ञान (सत्य ज्ञान) से राजा अपने को योग्य बनाए।
सम्पादितात्मा जितात्मा भवति।
अपने कर्तव्यों को जानने वाला राजा ही इंद्रियों को जीतने वाला होता है।
जितात्मा सर्वार्थे संयुज्येत।
इंद्रियों को वश में रखने वाला मनुष्य सभी सम्पत्तियों को प्राप्त करता है।
अर्थसम्पत् प्रकृतिसम्पदं करोति।
राजा के सम्पन्न होने पर प्रजा भी सम्पन्न हो जाती है।
प्रकृतिसम्पदा ह्यनायकमपि राज्यं नीयते।
प्रजा के सम्पन्न होने पर राजा के बिना भी राज्य चलता है।
प्रकृतिकोपः सर्वकोपेभ्यो गरीयान्।
प्रजा का क्रोध (नाराजगी) सभी क्रोधों से भयंकर होता है।
अविनीतस्वामिलाभादस्वामिलाभः श्रेयान्।
नीच (दुराचारी) राजा के होने से राजा न होना अच्छा है।
सम्पद्यात्मानमविच्छेत् सहायवान्।
राजा स्वयं योग्य बनकर योग्य सहायकों की सहायता से शासन चलाए।
न सहायस्य मन्त्रनिश्चयः।
सहायकों के बिना राजा कोई निर्णय नहीं कर पाता।
नैकं चक्रं परिभ्रमयति।
केवल एक पहिया रथ को नहीं चला पाता।
सहायः समसुखदुःखः।
जो सुख और दुःख में बराबर साथ देने वाला होता है सच्चा सहायक होता है।
मानी प्रतिमानीनामात्मनि द्वितीयं मन्त्रमुत्पादयेत्।
अभिमानी राजा जटिल समस्याओं में अभिमान त्याग कर निष्पक्ष विचारों द्वारा निष्कर्ष पर पहुंचे।
अविनीतं स्नेहमात्रेण न मंत्रे कुर्वीत।
दुराचारी को स्नेह मात्र से मंत्रणा में न रखे।
श्रुतवन्तमुपधाशुद्धं मन्त्रिणं कुर्वीत।
बात सुनने वाले तथा उच्च विचार करने वाले मनुष्य को ही राजा अपना मंत्री बनाए।
मन्त्रमूलाः सर्वारम्भाः।
सभी कार्य विचार-विमर्श व सलाह से ही आरंभ होते हैं।
मन्त्ररक्षणे कार्यसिद्धिर्भवति।
उचित सलाह के पालन से कार्य में सफलता शीघ्र मिलती है।
मन्त्रविस्रावी कार्यं नाशयति।
हितकारी व गोपनीय बातों का प्रचार कर देने से इच्छित कार्य शीघ्र नष्ट हो जाता है।
प्रमादाद् द्विषितां वशमुपयास्यति।
घमंडी होने से गोपनीय रहस्य शत्रु को ज्ञात हो जाता है।
सर्वद्वारेभ्यो मन्त्रो रक्षयितव्यः।
सभी प्रकार से गोपनीय विचारों / सलाहों की रक्षा की जानी चाहिए।
मन्त्रसम्पदा राज्यं वर्धते।
योजना रूपी सम्पदा राज्य की वृद्धि करती है।
(i) श्रेष्ठतमं मन्त्रगुप्तिमाहुः।
अग्रिम योजनाओं की गोपनीयता श्रेष्ठतम कही गई है।
(ii) कार्यन्धस्य प्रदीपो मन्त्रः।
अधिकार रूपी कार्य के लिए सलाह ही दीपक है।
मन्त्रचक्षुषा परछिद्राण्यव लोकयन्तिः।
उचित सलाह रूपी आँखों से राजा शत्रु की दुर्बलताओं को देखता है।
मन्त्रकाले न मत्सरः कर्तव्यः।
सलाह-मशवरा के समय कोई जिद नहीं करनी चाहिए।
त्रयाणामेकवाक्ये सम्प्रत्ययः।
तीनों (राजा, मंत्री, और विद्वान) का एक मत होना सबसे अच्छी सफलता है।
कार्यकार्यतत्त्वार्थदर्शिनो मन्त्रिणः।
कार्य-अकार्य के रहस्य को ठीक-ठीक जानने वाले ही मंत्री होने चाहिए।
षट्कर्णाद् भिद्यते मन्त्रः।
छह कानों से सलाह-मशवरा का खुलासा हो जाता है।
आपत्सु स्नेहसंयुक्तं मित्रम्।
विपत्ति के समय भी स्नेह रखने वाला ही मित्र है।
मित्रसंग्रहेण बलं सम्पद्यते।
अच्छे और योग्य मित्रों की अधिकता से बल प्राप्त होता है, ऐसा कहना है आचार्य चाणक्य का चाणक्य नीति सूत्र में।
बलवान् अलब्धलाभ प्रयतते।
बलवान राजा जो प्राप्त न की जा सके उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।
अलब्धलाभो नालसस्य।
आलसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
आलसस्य लब्धमपि रक्षितुं न शक्यते।
आलसी प्राप्त वस्तु की भी रक्षा नहीं कर सकता।
न आलसस्य रक्षितं विवर्धते।
आलसी के बचाए हुए किसी भी वस्तु की बढ़ोत्तरी नहीं होती।
न भृत्यान् प्रेषयति।
आलसी राजा सेवकों से भी काम नहीं लेते।
अलब्धलाभादिचतुष्टयं राज्यतन्त्रम्।
न प्राप्त होने वाले को प्राप्त करना, उसकी रक्षा करना, उसकी वृद्धि करना तथा उसका उचित उपयोग करना, ये चार कार्य राज्य के लिए आवश्यक हैं।
राज्यतन्त्रायत्तं नीतिशास्त्रम्।
नीति शास्त्र राज्य व्यवस्था के अधीन है।
राज्यतन्त्रेष्वायत्तौ तन्त्रावापौ।
स्वराष्ट्र नीति तथा विदेश नीति राज्य-व्यवस्था के अंग हैं।
तन्त्र स्वविषयकृत्येष्वायत्तम्।
तंत्र (स्वराष्ट्र नीति) केवल राष्ट्र के आंतरिक मामलों से सम्बद्ध है।
अवापो मण्डलनिविष्टः।
परराष्ट्र नीति सभी राष्ट्रों से सम्बद्ध होनी चाहिए।
सन्धिविग्रहयोनिर्मण्डलः।
अन्य देशों से सन्धि या विच्छेद चलते रहते हैं।
नीतिशास्त्रानुगो राजा।
नीति शास्त्र का पालन करना राजा की योग्यता है।
अनन्तरप्रकृतिः शत्रुः।
हर समय सीमा-संघर्ष होने वाले देश शत्रु बन जाते हैं।
एकान्तरितं मित्रमिष्यते।
एक जैसे ही देश मित्र बन जाते हैं।
हेतुतः शत्रुमित्रे भविष्यतः।
किसी कारण से ही शत्रु या मित्र बनते हैं।
हीयमानः सधिं कुर्वीत।
कमजोर राजा शीघ्र सन्धि कर ले।
तेजो हि सन्धानहेतुस्तदर्थानाम्।
संधि करने वालों का उद्देश्य ही संधि करना रहता है।
नातप्तलौहो लौहेन सन्धीयते।
बिना गर्म किए लोहा लोहे से नहीं जुड़ता।
बलवान हीनेन विग्रह्णीयात्।
बलवान कमजोर पर ही आक्रमण करे।
न ज्यायसा समेन वा।
अधिक बलवान या बराबर बल वाले से युद्ध न करें।
गजपादयुद्धमिव बलवद्विग्रहः।
बलवान से युद्ध करना हाथियों की सेना से पैदलों का लड़ना है।
आमपात्रमामेन सह विनश्यति।
कच्चा पात्र कच्चे पात्र से टकराकर फूट जाता है।
अरिप्रयत्नमभिसमीक्षेत।
चाणक्य नीति सूत्र की सीख है कि शत्रु के प्रयासों पर ध्यान देते रहें।
सन्धायैकतो वा।
पड़ोसी देश के साथ सन्धि भी हो तो उसकी गतिविधि की उपेक्षा न करें।
अमित्रविरोधात्मरक्षामावसेत।
शत्रु देश के गुप्तचरों पर सदैव ध्यान रखना चाहिए।
शक्तिहीनो बलवन्तमाश्रयेत्।
शक्तिहीन राजा बलवान राजा का आश्रय लें।
दुर्बलाश्रयो दुःखमावहति।
दुर्बल का आश्रय दुःख देता है।
अग्निवद्राजानमाश्रयेत्।
जैसे अग्नि का आश्रय लिया जाता है, वैसे ही राजा का भी आश्रय लें।
राज्ञः प्रतिकूलं नाचरेत्।
राजा के विपरीत आचरण न करें।
उद्धतवेशधरो न भवेत्।
मनुष्य की वेश-भूषा उटपटांग नहीं होनी चाहिए।
न देवचरितं चरेत्।
देवों के चरित्र का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
द्वयोरपीर्ष्यतोद्वैधीभावं कुर्वीत।
अपने से ईर्ष्या करने वाले दो व्यक्तियों में कूटनीति से फूट डाल देनी चाहिए।
नव्यसनपरस्य कार्यावाप्तिः।
बुरी आदतों में लगे हुए मनुष्य को कार्य की प्राप्ति नहीं होती।
इन्द्रियवशवर्ती चतुरंगवानपि विनश्यति।
इंद्रियों के अधीन रहने वाला राजा चतुरंगिनी सेना होने पर भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
नास्ति कार्यं द्यूतप्रवर्तस्य।
जुए में लगे हुए का कोई कार्य नहीं होता।
मृगयापरस्य धर्मार्थौ विनश्यतः।
शिकार में लगे हुए का धर्म और अर्थ दोनों नष्ट हो जाते हैं।
अर्थेषणा न व्यसनेषु गण्यते।
धन की अभिलाषा रखना कोई बुराई नहीं मानी जाती।
न कामासक्तस्य कार्यनुष्ठानम्।
विषय-वासनाओं से घिरा हुआ मनुष्य कोई कार्य नहीं कर सकता।
अग्निदाहादपि विशिष्टं वाक्पारुष्यम्।
वाणी की कठोरता अग्निदाह से भी बढ़कर है।
दण्डपारुष्णात् सर्वजनद्वेष्यो भवति।
निरपराधी को कठोर दंड देने पर उसे बदला लेने वाला शत्रु बना देता है।
अर्थतोषिणं श्रीः परित्यजति।
धन से संतुष्ट राजा को लक्ष्मी त्याग देती है।
अमित्रो दण्डनीत्यामायत्तः।
दुश्मन दंड नीति का भागी होता है।
दण्डनीतिमधितिष्ठन् प्रजाः संरक्षति।
दंडनीति के उचित प्रयोग से प्रजा की रक्षा होती है।
दण्डसम्पदा योजयति।
न्याय-व्यवस्था राजा को सम्पत्ति वाला बनाता है।
दण्डाभावे मन्त्रिवर्गाभावः।
दंडनीति न लगाने पर मंत्रियों में भी कमियां आ जाती हैं।
न दण्डादकार्याणि कुर्वन्ति।
दंड विधान न लगाने पर बुरे कार्य बढ़ जाते हैं।
दण्डनीत्यामायत्तमात्मरक्षणम्।
आत्मरक्षा दंडनीति पर ही निर्भर है।
आत्मनि रक्षिते सर्वं रक्षितं भवति।
आत्मरक्षा होने पर ही सबकी रक्षा होती है।
आत्मायत्तौ वृद्धिविनाशौ।
वृद्धि और विनाश अपने हाथ में है।
दण्डो हि विज्ञाने प्रणीयते।
दंड का प्रयोग विवेक से करना चाहिए।
दुर्बलोऽपि राजा नावमन्तव्यः।
दुर्बल राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिए।
नास्त्यग्नेर्दौर्बल्यम्।
अग्नि में दुर्बलता नहीं होती।
दण्डे प्रतीयते वृत्तिः।
राजा की आय दंडनीति से प्राप्त होती है।
वृत्तिमूलमर्थलाभः।
आय प्राप्ति का मतलब लाभ पाना है।
अर्थमूलौ धर्मकामौ।
धर्म और काम का मूल धन है।
अर्थमूलं कार्यम्।
धन ही सभी कार्यों का मूल है, यह कथन है चाणक्य नीति सूत्र का।
यदल्पप्रयत्नात् कार्यसिद्धिर्भवति।
धन होने से कम प्रयास से ही कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
उपायपूर्वं न दुष्करं स्यात्।
उपाय से कार्य कठिन नहीं होता।
अनुपायपूर्वं कार्यं कृतमपिविनश्यति।
अनुपायपूर्वक किया हुआ कार्य भी नष्ट हो जाता है।
कार्यार्थिनामुपाय एव सहायः।
उद्यमियों के लिए उपाय ही सहायक है।
कार्य पुरुषकारेण लक्ष्यं सम्पद्यते।
निश्चय कर लेने पर कार्य पूर्ण हो जाता है।
पुरुषकारमनुवर्तते दैवम्।
भाग्य पुरुषार्थ के पीछे-पीछे चलता है।
दैवं विनाऽति प्रयत्नं करोति यत्तद्विफलम्।
भाग्य पुरुषार्थी का ही साथ देता है।
असमाहितस्य वृतिर्न विद्यते।
भाग्य के भरोसे बैठे रहने पर कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
पूर्वं निश्चित्य पश्चात् कार्यमारभेत्।
पहले निश्चय करें, फिर कार्य आरंभ करें।
कार्यान्तरे दीर्घसूत्रता न कर्तव्या।
कार्य के बीच में आलस्य न करें।
न चलचित्तस्य कार्यावाप्तिः।
चंचल चित्त वाले को कार्यसिद्धि नहीं होती।
हस्तगतावमानात् कार्यव्यतिक्रमो भवति।
अपने हाथ में साधन नहीं रहने पर कार्य ठीक नहीं होता।
दोषवर्जितानि कार्याणि दुर्लभानि।
बिना कमी रहे कार्य होना बहुत दुर्लभ है।
दुरनुबन्धं कार्यं नारभेत्।
जो कार्य हो न सके उस कार्य को प्रारंभ ही न करें।
कालवित् कार्यं साधयेत्।
समय के महत्त्व को समझने वाला निश्चय ही अपना कार्य सिद्धि कर पाता है। चाणक्य नीति का यह सूत्र गाँठ बांधने लायक़ है।
कालातिक्रमात् काल एव फलं पिबति।
समय से पहले कार्य करने से समय ही कार्य-फल को पी जाता है।
क्षण प्रति कालविक्षेपं न कुर्यात् सर्वं कृत्येषु।
सभी प्रकार के कार्यों में एक क्षण की भी उपेक्षा न करें।
देशफलविभागौ ज्ञात्वा कार्यमारभेत्।
स्थान एवं परिणाम के अंतर को जानकर कार्य आरंभ करें।
दैवहीनं कार्यं सुसाध्यमपि दुःसाध्यं भवति।
भाग्यहीन वाले के सभी कार्य होने वाला भी बहुत कठिन हो जाता है।
नीतिज्ञो देशकालौ परीक्षेत।
नीति जानने वाले देश-काल की परीक्षा करें।
परीक्ष्यकारिणी श्रीश्चिरं तिष्ठति।
परीक्षण करके कार्य करने से लक्ष्मी दीर्घकाल तक रहती है।
सर्वाश्च सम्पतः सर्वोपायेन परिग्रहेत्।
सभी सम्पत्तियों का सभी उपायों से संग्रह करना चाहिए।
भाग्यवन्तमपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति।
बिना विचारे कार्य करने वाले भाग्यशाली को भी लक्ष्मी त्याग देती है।
ज्ञानानुमानैश्च परीक्षा कर्तव्या।
ज्ञान और अनुमान से परीक्षा करनी चाहिए।
यो यस्मिन् कर्मणि कुशलस्तं तस्मिन्नैव योजयेत्।
जो मनुष्य जिस कार्य में निपुण हो, उसे वही कार्य सौंपना चाहिए।
दुःसाध्यमपि सुसाध्यं करोत्युपायज्ञः।
उपायों का ज्ञाता कठिन को भी आसान बना देता है।
अज्ञानिना कृतमपि न बहु मन्तव्यम्।
अज्ञानियों द्वारा किए कार्य को महत्त्व नहीं देना चाहिए।
यादृच्छिकत्वात् कृमिरपि रूपान्तराणि करोति।
संयोग से कीट भी लकड़ी को कतरते-कतरते चित्रनुमा बना देता है। इसका मतलब यह नहीं कि वह चित्रकार है।
सिद्धस्यैव कार्यस्य प्रकाशनं कर्तव्यम्।
कार्य सिद्ध होने पर ही कहीं कहना चाहिए।
ज्ञानवतामपि दैवमानुषदोषात् कार्याणि दुष्यन्ति।
ज्ञानवान लोगों के कार्य भी भाग्य से या मनुष्यों द्वारा दूषित हो जाते हैं।
दैवं शान्तिकर्मणा प्रतिषेधव्यम्।
प्राकृतिक विपत्ति को शांतिकर्म से टालने का प्रयास करना चाहिए।
मानुषीं कार्यविपत्ति कौशलेन विनिवारयेत्।
मनुष्य द्वारा पैदा की गई कार्य-विपत्ति का कुशलता से निवारण करना चाहिए।
कार्यविपत्तौ दोषान् वर्णयन्ति बालिशाः।
मूर्ख लोग कार्य-विपत्ति पर दोष देखने लगते हैं।
कार्यार्थिना दाक्षिण्यं न कर्तव्यम्।
हानि पहुंचाने वालों के प्रति उदारता न करें।
क्षीरार्थी वत्सो मातुरुधः प्रतिहन्ति।
दूध के लिए बछड़ा माँ के थनों पर प्रहार करता है।
अप्रयत्नात् कार्यविपत्तिर्भवति।
प्रयास न करने से कार्य का नाश होता है।
न दैवप्रमाणानां कार्यसिद्धिः।
भाग्य भरोसे रहने वालों को कार्यसिद्धि नहीं होती।
कार्यबाह्यो न पोषयत्याश्रितान्।
कर्तव्य से भागने वाला आश्रितों का पोषण नहीं कर सकता।
यः कार्यं न पश्यति सोऽन्धः।
जो कार्य को नहीं देखता वह अंधा है। चाणक्य नीति सूत्र की यह याद रखने वाली बात है।
प्रत्यक्षपरोक्षानुमानैः कार्याणि परीक्षेत्।
प्रत्यक्ष, परोक्ष साधनों तथा अनुमान से कार्यों की परीक्षा करें।
अपरीक्ष्यकारिणं श्रीः परित्यजति।
बिना विचारे कार्य करने वाले को लक्ष्मी त्याग देती हैं।
परीक्ष्य तार्या विपत्तिः।
कार्य-विपत्ति का परीक्षा से निराकरण करें।
स्वशक्तिं ज्ञात्वा कार्यमारंभेत्।
अपनी शक्ति को जानकर ही कार्य आरंभ करें।
स्वजनं तर्पयित्वा यः शेषभोजी सोऽमृतभोजी।
स्वजनों को तृप्त करके शेष भोजी अमृत भोजी होता है।
सर्वानुष्ठानादायमुखानि वर्धन्ते।
सभी अनुष्ठानों से आय के साधन बढ़ते हैं।
नास्ति भीरोः कार्यचिन्ता।
कायर को कार्य की चिन्ता नहीं होती।
स्वामिनः शीलं ज्ञात्वा कार्यार्थी कार्यं साधयेत्।
स्वामी के शील को जानकर काम करने वाले कार्य-साधना करते हैं।
धेनोः शीलज्ञः क्षीरं भुङ्क्ते।
गाय के सीधेपन जानने वाला दूध का उपभोग करता है।
क्षुद्रे गुह्यप्रकाशनमात्मवान् न कुर्यात्।
नीच व्यक्ति से अपनी गोपनीय बातें कभी नहीं करनी चाहिए।
आश्रितैरप्यवमनसते मृदुस्वभावः।
मृदु स्वभाव वाला व्यक्ति आश्रितों से भी अपमानित होता है।
तीक्ष्णदण्डः सर्वेरुद्वेदनीयो भवति।
कठोर दंड देने वाले राजा से प्रजा घृणा करती है।
यथार्हं दण्डकारी स्यात्।
राजा यथोचित दंड का उपयोग करे।
अल्पसारं श्रुतवन्तमपि न बहुमन्यते लोकः।
गंभीर न रहने वाले विद्वान को समाज सम्मान नहीं देता।
अतिभारः पुरुषमवसादयति।
अधिक दबाव पुरुष को दुःखी करता है।
यः संसदि परदोषं शंसति स स्वदोषं प्रख्यापयति।
जो भरी सभा में दूसरे का दोष दिखाता है, वह अपने ही दोषों को उजागर करता है।
आत्मनमेव नाशयत्यनात्मवातां कोपः।
मूर्खों का क्रोध उन्हीं का नाश करता है।
नास्त्यप्राप्यं सत्यवताम्।
सत्य-सम्पन्न लोगों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
साहसेन न कार्यसिद्धिर्भवति।
केवल साहस से कार्य-सिद्धि नहीं होती।
व्यसानार्तो विरमत्यप्रवेशेन।
बुरी आदतों में लगा हुआ व्यक्ति लक्ष्य तक पहुंचे बिना रुक जाता है।
नास्त्यनन्तरायः कालविक्षेपे।
समय की उपेक्षा करने से कार्य में बाधा आ जाती है। इसलिए चाणक्य नीति सूत्र की मानें, तो समय का सदैव सदुपयोग करें।
असंशयविनाशात् संशयविनाशः श्रेयान्।
भविष्य में होने वाला विनाश से हो रहा विनाश श्रेष्ठ है।
परधनानि निक्षेप्तुः केवलं स्वार्थम्।
दूसरे की धरोहर के प्रति भेदभाव स्वार्थ है।
दानं धर्मः।
दान करना धर्म है।
नार्यागतोऽर्थवत् विपरीतोऽनर्थभावः।
संस्कारहीन समाज में प्रचलित धन का उपयोग मानव जीवन नाशक होता है।
यो धर्मार्थौ न विवर्धयति स कामः।
जो धर्म और अर्थ की वृद्धि नहीं करता वह वासना है।
तद्विपरीतोऽर्थाभासः।
धर्म के विपरीत प्रकार से आया हुआ धन मात्र महसूस करा सकता है।
ऋजुस्वभावपरो जनेषु दुर्लभः।
निष्कपट व्यवहार वाला व्यक्ति बहुत दुर्लभ होता है।
अवमानेनागतमैश्वर्यमवमन्यते साधुः।
अन्याय से आया हुआ धन को उपेक्षित कर देने वाला ही साधु है।
बहूनपि गुणानेक दोषो ग्रसति।
बहुत से गुणों को भी एक दोष चौपट कर देता है।
महात्मना परेण साहसं न कर्तव्यम्।
महात्मा लोग दूसरों के साहस पर भरोसा न करें।
कदाचिदपि चरित्रं न लंघेत्।
चरित्र का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए।
क्षुधार्तो न तृणं चरति सिंहः।
भूखा हुआ शेर कभी घास नहीं खाता।
प्राणदपि प्रत्ययो रक्षितव्यः।
प्राण से भी अधिक विश्वास की रक्षा करनी चाहिए।
पिशुनः श्रोता पुत्रदारैरपि त्यज्यते।
चुगलखोर की बात सुनने वाले को पुत्र-पत्नी भी त्याग देते हैं।
बालादप्यर्थजातं शृणुयात्।
बालकों को भी अत्यंत उपयोगी बातें सुननी चाहिए।
सत्यमप्यश्रद्धेयं न वदेत्।
सत्य भी यदि प्रिय न हो, तो भी उसे नहीं कहना चाहिए। जिन्हें यशलाभ की इच्छा हो, उन्हें चाणक्य नीति सूत्र की यह बात याद रखनी चाहिए।
नाल्पदोषाद् बहुगुणस्त्यज्यन्ते।
अल्प दोष से अधिक गुण नहीं त्यागे जाते।
विपश्चित्स्वपि सुलभा दोषः।
ज्ञानी पुरुषों में भी दोष हो सकता है।
नास्ति रत्नमखण्डितम्।
बिना दोषयुक्त रत्न (हीरा-जवाहरात) भी नहीं मिलता।
मर्यादातीतं न कदाचिदपि विश्वसेत्।
चरित्रहीन का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
अप्रियेण कृतं प्रियमपि द्वेष्यं भवति।
शत्रु द्वारा किया जा रहा उपकार भी घातक होता है।
नमन्त्यपि तुलाकोटिः कूपोदकक्षयं करोति।
नमस्कार करने पर ही ढेकुली कुएं से पानी निकालता है।
सतां मतं नातिक्रमेत्।
सज्जनों के विचारों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
गुणवदाश्रयन्निर्गुणोऽपि गुणी भवति।
गुणवान के सहारे बिना गुण वाला भी गुणी हो जाता है।
क्षीराश्रितं जलं क्षीरमेव भवति।
दूध में मिला हुआ जल दूध ही हो जाता है।
मृत्पिण्डोऽपि पाटलिगन्धमुत्पादयति।
मिट्टी भी फूलों के संपर्क में रहने पर सुगंध पैदा करती है।
रजतं कनकसंगात कनकं भवति।
चांदी सोने के संपर्क में आकर सोना ही बन जाती है।
उपकर्तर्यपकर्तुमि-छत्यबुधः।
मूर्ख व्यक्ति भलाई के बदले बुराई करता है।
न पापकर्मणामाक्रोशभयम्।
पाप करने वाले को निन्दा का भय नहीं होता।
उत्साहवतां शत्रवोऽपि वशीभवन्ति।
हिम्मत वालों के शत्रु भी वश में हो जाते हैं।
विक्रमधना राजानः।
राजा पराक्रम (वीरता) से धनी होते हैं।
नास्त्यलसस्यैहिकामुष्मिकम्।
आलसी व्यक्ति का वर्तमान और भविष्य नहीं होता।
निरुत्साहाद् दैवं पतति।
उत्साह के अभाव में भाग्य भी नष्ट हो जाता है।
मत्स्यार्थीव जलमुपयुज्यार्थ गृह्णीयात्।
मछुआरे के समान जल में डूबकर लाभ ले लें।
अविश्वस्तेषु विश्वासो न कर्तव्यः।
जिनका विश्वास न हो, उन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
विषं विषमेव सर्वकालम्।
जहर कभी भी जहर ही है।
अर्थ समादाने वैरिणां संग एव न कर्तव्यः।
धन बचाना हो तो दुश्मनों का साथ छोड़ दें।
अर्थसिद्धौ वैरिणं न विश्वसेत्।
उद्देश्य प्राप्ति के लिए भी शत्रुओं पर विश्वास न करें।
अर्थाधीन एव नियतसम्बन्धः।
कोई भी सम्बन्ध उद्देश्य से जुड़ा रहता है।
शत्रोरपि सुतः सखा रक्षितव्यः।
शत्रु का पुत्र यदि मित्र हो, तो उसकी रक्षा करें।
यावच्छत्रोश्छिद्रं तावद् बद्धहस्तेन वा स्कन्धेन वा बाह्यः।
शत्रु की कमजोरी जानने तक उसे बनावटी आडंबरों में रखें।
शत्रुछिद्रे प्रहरेत्।
शत्रु के कमजोरी पर ही चोट पहुंचानी चाहिए।
आत्मछिद्रं न प्रकाशयेत।
अपनी कमजोरी किसी से न बताएं। चाणक्य नीति सूत्र की यह बहुत महत्वपूर्ण बात है।
छिद्रप्रहारिणः शत्रवः।
शत्रु कमजोरी पर ही अक्सर चोट पहुंचाते हैं।
हस्तगतमपि शत्रुं न विश्वसेद्।
हाथ में आए हुए शत्रु पर भी भूलकर विश्वास न करें।
स्वजनस्य दुर्वृृत्तं निवारयेत।
अपने हितैषियों की कमियों (दोषों) को दूर करना चाहिए।
स्वजनावमानोऽपि मनस्विनां दुःखमावहति।
मनस्वियों को अपने लोगों का अपमान दुःख देता है।
एकांगदोषः पुरुषमवसादयति।
एक अंग का दोष भी व्यक्ति को दुःखी करता है।
शत्रुं जयति सुवृत्तता।
अच्छी आदत ही शत्रुओं को जीतती है।
निकृतिप्रिया नीचाः।
नीच व्यक्ति सज्जनों के लिए दुखदायी होता है।
नीचस्य मतिर्न दातव्या।
दुष्ट व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिए।
तेषु विश्वासो न कर्तव्यः।
दुष्ट व्यक्ति पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
सुपूजितोऽपि दुर्जनः पीडयत्येव।
सम्मान पाया हुआ दुर्जन दुःख ही देता है।
चन्दनानपि दावोऽग्निर्दहत्येव।
चन्दन आदि को भी दावानल (जंगल में लगने वाली आग) जलाता ही है।
कदाऽपि पुरुषं नावमन्येत्।
कभी भी पुरुष का अपमान न करें।
क्षन्तव्यमिति पुरुषं न बाधेत्।
क्षमा करने योग्य पुरुष को दुःखी न करें।
भर्त्राधिकं रहस्ययुक्तं वक्तुमिच्छन्त्यबुद्धयः।
मालिक द्वारा कहे गए गोपनीय बातों को भी मूर्ख व्यक्ति कह देना चाहते हैं।
अनुरागस्तु फलेन सूच्यते।
सच्चा प्रेम कहने से नहीं अपितु कार्य रूप में दिखने लगता है।
आज्ञाफलमैश्वर्यम्।
ऐश्वर्य का परिणाम आज्ञा है।
दातव्यमपि बलिशः क्लेशेन दास्यति।
देने योग्य व्यक्तियों (दानियों) को भी मूर्ख व्यक्ति कष्ट (पीड़ा) देता है।
महदैश्वर्यं प्राप्याप्यधृतिमान् विनश्यति।
धैर्यहीन व्यक्ति अधिक सुख-सुविधा पाकर नष्ट हो जाता है।
नास्त्यघृतेरैहिकाममुष्मिकम्।
धैर्यहीन व्यक्ति का वर्तमान और भविष्य नहीं होता।
न दुर्जनैः सह संसर्गः कर्तव्यः।
दुष्टों की संतति से सदा दूर ही रहना चाहिए।
शौण्डहस्तगतं पयोऽप्यवमन्यते।
शराबी के हाथ का दूध भी त्याग देना चाहिए।
कार्यसंकटेष्वर्थव्यवसायिनी बुद्धिः।
कठिन समय में बुद्धि ही राह दिखाती है।
मितभोजनं स्वास्थ्यम्।
थोड़ा भोजन करना ही स्वास्थ्य लाभ है।
पथ्यमपथ्यं वाऽजीर्णे नाश्नीयात्।
नहीं पचने वाली वस्तु से कब्ज हो जाए तो पचने वाली वस्तु भी नहीं खानी चाहिए।
जीर्णभोजिनं व्याधिर्नोपि सर्पितः।
पच जाने पर भोजन करने वाले को बीमारी नहीं होती।
जीर्णशरीरे वर्धमानं व्याधिं नोपेक्ष्येत्।
बुढ़ापे में बढ़ रहे छोटे रोग को भी अनदेखा न करें।
अजीर्णे भोजनं दुःखम्।
बदहजमी होने पर भोजन कष्ट पहुंचाता है।
शत्रोरपि विशिष्यते व्याधिः।
शत्रु से भी रोग बड़ा है।
दानं निधानमनुगामि।
दान अपनी हैसियत के अनुसार देना चाहिए।
पदुतरे तृष्णापरे सुलभमतिसन्धानम्।
चालाक और लोभी व्यक्ति बेकार ही स्वार्थवश घनिष्ठता बढ़ाता है।
तृष्णया मतिश्छाद्यते।
लोभ बुद्धि को ढंक लेता है।
कार्यबहुत्वे बहफलमायतिकं कुर्यात्।
बहुत-से कार्यों में अधिक फल देने वाला कार्य पहले करें।
स्वयमेवावस्कन्नं कार्यं निरीक्षेत्।
स्वयं बिगाड़े या अन्यों के बिगाड़े कार्यों का स्वयं निरीक्षण करें।
मूर्खेषु साहसं नियतम्।
मूर्खों में साहस होता ही है।
मूर्खेषु विवादो न कर्तव्यः।
मूर्खों से विवाद नहीं करना चाहिए।
मूर्खेषु मूर्खवत् कथ्येत्।
मूर्ख से मूर्ख की ही भाषा में बोलें।
आयसैरावसं छेद्यम्।
लोहे से लोहा काटना चाहिए।
नास्त्यधीमतः सखा।
मूर्ख का मित्र नहीं होता।
धर्मेण धार्यते लोकः।
धर्म ही मानव को धारण करता है।
प्रेतमपि धर्माधर्मावनुगच्छतः।
धर्म और अधर्म प्रेत योनि में भी साथ नहीं छोड़ते।
दया धर्मस्य जन्मभूमिः।
दया धर्म की जन्मभूमि है।
धर्ममूले सत्यदाने।
धर्म ही सत्य और दान का मूल है।
धर्मेण जयति लोकान्।
व्यक्ति धर्म से ही लोकों को जीतता है।
मृत्युरपि धर्मिष्ठं रक्षति।
धार्मिक व्यक्ति मृत्यु के बाद भी अमर रहता है।
तद्विपरीतं पापं यत्र प्रसज्यते तत्र धर्मावमतिर्महती प्रसज्यते।
जहां पाप फैल जाता है, वहां धर्म का घोर अपमान होने लगता है।
उपस्थितविनाशानां प्रकृत्याकारेण लक्ष्यते।
उपस्थित विनाश प्रकृति के व्यवहार से सूचित होते हैं।
आत्मविनाशं सूचयत्यधर्मबुद्धिः।
अधर्म बुद्धि खुद का विनाश कर देती है।
पिशुनवादिनो न रहस्यम्।
चुगलखोर को गोपनीय बातें कभी न बताएं।
पर रहस्यं नैव श्रोतव्यम्।
दूसरों की गोपनीय बातें न सुनें।
वल्लभस्य कारकत्वधर्म युक्तम्।
मालिक अपने सेवकों को मुंह न लगाए, ऐसा करने से वे उद्दंड हो जाते हैं और प्रजा को दुःखी करते हैं।
स्वजनेष्वतिक्रमो न कर्तव्यः।
अपने परिजनों का अपमान नहीं करना चाहिए।
माताऽपि दुष्टा त्याज्या।
माता भी दुष्ट हो, तो त्याग कर देने योग्य है।
स्वहस्तोऽपि विषदग्धश्छेद्यः।
विषैले हाथ को काट देना चाहिए।
परोऽपि च हितो बन्धुः।
अनजान व्यक्ति यदि शुभ चिन्तक हो तो उसे अपना भाई समझना चाहिए।
कक्षादत्यौबधं गृह्यते।
सूखे जंगल से भी औषधि लाई जा सकती है।
नास्ते चौरेषु विश्वासः।
चोरों पर कभी विश्वास न करें।
अप्रतीकारेष्वनादरो न कर्तव्यः।
शत्रु को दुःखी देखकर कभी उपहास न करें।
व्यसनं मनागपि बाधते।
छोटी बुराई भी दुख देने वाली होती है।
अमरवदर्थजातमर्जयेत्।
अपने को अमर मानकर धन-संचय करना चाहिए।
अर्थवानम् सर्वलोकस्य बहुमतः।
धनी को सारा लोक इज्जत करता है।
महेन्द्रयष्यर्थहीनं न बहु मन्यते लोकः।
महान राजा यदि धनहीन हो तब भी लोक-सम्मान नहीं प्राप्त कर पाता।
दारिद्र्यं खलु पुरुषस्य जीवितं मरणम्।
गरीबी तो जीते-जी मरने के समान है।
विरूपोऽर्थवान् सुरूपः।
कुरूप व्यक्ति के पास यदि धन हो तो वह सुंदर रूप वाला हो जाता है।
अदातारमप्यर्थवन्तर्थिनो न त्यजन्ति।
मांगने वाले तो कंजूस धनवान को भी नहीं छोड़ते।
अकुलीनोऽपि धनी कुली कुलीनाद्विशिष्टः।
जिसका कुल कलंकित हो और भरपूर धन-संपदा हो वह कुलीन से भी श्रेष्ठ है।
नास्त्यवमानभयमनार्यस्य।
नीच को अपमान का भय नहीं होता।
न चेतनवतां वृत्तिर्भयम्।
कुशल लोगों को रोजी-रोटी का भय नहीं रहता।
न जितेन्द्रियाणां विषयभयम्।
जिनकी इंन्द्रियां वश में होती हैं, उनको विषय-वासना का भय नहीं रहता।
न कृतार्थानां मरणभयम्।
भला करने वालों को मृत्यु का भय नहीं रहता।
कस्यचिदर्थं स्वमिव मन्यते साधुः।
किसी के भी धन को सज्जन अपनी वस्तु जैसा ख्याल रखता है।
परविभवेष्वादरो न कर्तव्यः।
दूसरों की सुख-सुविधाओं का लोभ नहीं करना चाहिए।
परविभवेष्वादरोऽपि नाशमूलम्।
दूसरों के धन का लोभ नाश का कारण है।
अल्पमपि पर द्रव्यं न हर्तव्यम्।
दूसरों की छोटी-से-छोटी वस्तु भी कभी चुरानी नहीं चाहिए।
परद्रव्यापहरणमात्मद्रव्यनाशहेतुः।
दूसरों के धन की चोरी करना अपने धन का नाश करना है।
न चौर्यात्परं मृत्युपाशः।
चोरी करने से तो मर जाना अच्छा है।
यवागूरपि प्राणधारणं करोति लोके।
सत्तू से भी लोक में प्राण की रक्षा होती है।
न मृतस्यौषधं प्रयोजनम्।
मरे हुए व्यक्ति को औषधि से क्या लेना।
समकाले स्वयमपि प्रभुत्वस्य प्रयोजनं भवित।
प्रत्येक समय जागरूक रहना ही उद्देश्य प्राप्ति का कारण बन जाता है।
नीचस्य विद्याः पापकर्मणि योजयन्ति।
दुराचारी की विद्याएं पाप कर्मों को बढ़ाने वाली होती हैं।
पयःपानमपि विषवर्धन भुजंगस्य नामृतं स्यात्।
सांप को दूध पिलाना भी उसका विष बढ़ाना है, न कि अमृत।
न हि धान्यसमो ह्यर्थः।
अन्न के समान दूसरा कोई धन नहीं है।
न क्षुधासमः शत्रुः।
भूख के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है।
अकृतेर्नियताक्षुत्।
आलसियों का भूखों मरना भाग्य में है।
नास्त्यभक्ष्यं क्षुधितस्य।
भूखे के लिए कुछ भी अभक्ष्य नहीं है।
इन्द्रियाणि जरावशं कुर्वन्ति।
इन्द्रियां बुढ़ापे के अधीन में कर देती हैं।
सानुक्रोशं भर्तारमाजीवेत्।
जो सेवकों के दुख-दर्द को समझता हो वही सेवा योग्य है।
लुब्धसेवी पावकेच्छया खद्योतं धमति।
कठोर व्यवहार वाले मालिक के सेवक आग के लिए जुगनू को फूंकते हैं।
विशेषज्ञ स्वामिनमाश्रयेत्।
योग्य स्वामी का ही सहारा लेना चाहिए।
पुरुषस्य मैथुनं जारा।
अधिक मैथुन करने से पुरुष शीघ्र ही वृद्ध हो जाता है।
स्त्रीणां अमैथुनं जरा।
स्त्रियां मैथुन न करने से शीघ्र वृद्ध हो जाती हैं।
न नीचोत्तमयोर्विवाहः।
दुष्ट और अच्छे का विवाह नहीं होना चाहिए।
अगम्यागमनादायुर्यशश्च पुण्यानि क्षीयन्ते।
न भोगी जाने वाली स्त्री या बालिका के साथ सहवास करने से आयु, यश व पुण्य क्षीण हो जाते हैं।
नास्त्यहंकार समः शत्रुः।
अहंकार से बड़ा दूसरा कोई शत्रु नहीं।
संसदि शत्रु न परिक्रोशेत्।
सभा में शत्रु पर क्रोध नहीं करना चाहिए।
शत्रुव्यसनं श्रवणसुखम्।
शत्रुव्यसन सुनने से सुख मिलता है।
अधनस्य बुद्धिर्न विद्यते।
निर्धन को बुद्धि नहीं होती।
हितमप्यधनस्य वाक्य न शृणोति।
निर्धन का हितकारक वाक्य भी नहीं सुना जाता।
अधनः स्वभार्ययाप्यवमन्यते।
निर्धन अपनी भार्या से भी अपमानित होता है।
पुष्पहीनं सहकारमपि नोपासते भ्रमराः।
पुष्पहीन छोटे आम को भी भंवरे त्याग देते हैं।
विद्या धनमधनानाम्।
विद्या गरीबों का धन है।
विद्या चौरैरपि न ग्राह्या।
विद्या को चोर भी नहीं चुरा सकते।
विद्या ख्यापिता ख्यातिः।
विद्या ख्याति को फैलाती है।
यशः शरीरं न विनश्यति।
यश रूपी शरीर का कभी नाश नहीं होता।
यः परार्थमुपसर्पति स सत्पुरुषः।
जो परोपकार आगे बढ़ाता है, वही सत्पुरुष है।
इन्द्रियाणां प्रशम शास्त्रम्।
इन्द्रियों को शांत रखना ही बुद्धिमानी है।
अशास्त्रकार्यवृत्तौ शास्त्राकुशं निवारयति।
बुराइयों को हावी होने पर शास्त्र का अंकुश उसे रोकता है।
नीचस्य विद्या नोपेतव्या।
दुष्ट की विद्या नहीं लेनी चाहिए।
म्लेच्छभाषण न शिक्षेत्।
म्लेच्छों की भाषा न सीखें।
म्लेच्छानामपि सुवृत्तं ग्राह्यम्।
म्लेच्छों की भी अच्छी बातें ग्रहण योग्य होती हैं।
गुणे न मत्सरः कार्यः।
गुण सीखने में आलस नहीं करना चाहिए।
शत्रोरपि सुगुणो ग्राह्यः।
शत्रु के भी सद्गुण ले लेने चाहिए।
विषादप्यमृतं ग्राह्यम्।
विष से भी अमृत ले लेना चाहिए।
अवस्थया पुरुषः सम्मान्यते।
योग्यता से ही पुरुष सम्मान पाता है।
स्थान एव नरा पूज्यन्ते।
अपने गुणों से ही पुरुष पूजित होते हैं।
आर्यवृत्तमनुतिष्ठेत।
श्रेष्ठ स्वभाव को बनाए रखें।
कदापि मर्यादां नातिमेत्।
मर्यादा का कदापि उल्लंघन न करें।
नास्त्यर्ध पुरुष रत्नस्य।
पुरुष रूपी रत्न का कोई मूल्य नहीं आंका जा सकता।
न स्त्रीरत्नसमं रत्नम्।
स्त्री रत्न के समान अन्य रत्न नहीं है।
सुदुर्लभं रत्नम्।
रत्न प्राप्त करना बहुत कठिन होता है।
अयशो भयं भयेषु।
बदनामी सभी भयों से बड़ा भय है।
नास्त्यलसस्य शास्त्रगमः।
आलसी शास्त्र का अध्ययन कभी नहीं कर सकता।
न स्त्रैणस्य स्वर्गाप्तिर्धर्मकृत्यं च।
स्त्रैण (वह पुरुष जो स्त्रियों के जैसा व्यवहार करता है) से सुख चाहने वाले से स्वर्ग प्राप्ति और धर्म-कर्म की अपेक्षा रखना बेकार है।
स्त्रियोऽपि स्त्रैणमवमन्यते।
स्त्री भी ऐसे स्त्रैण पुरुष का अपमान करती है।
न पुष्पार्थी सिञ्चति शुष्कतरुम्।
फूलों को चाहने वाला मनुष्य सूखे वृक्ष को नहीं सींचता।
अद्रव्यप्रयत्नो बालुकाक्वथानादनन्यः।
बिना धन का कार्य मतलब बालू से तेल निकालना है।
न महाजनहासः कर्तव्यः।
महान लोगों का अनादर नहीं करना चाहिए।
कार्यसम्पदं निमित्तानि सूचयन्ति।
किसी कार्य के लक्षण ही उसकी सिद्धि-असिद्धि की सूचना देते हैं।
नक्षत्रादपि निमित्तानि विशेषयन्ति।
नक्षत्रों से भी भावी सिद्धि या असिद्धि की सूचना मिलती है।
न त्वरितस्य नक्षत्रपरीक्षा।
अपने कार्य की सिद्धि चाहने वाला नक्षत्र से भाग्य की परीक्षा नहीं करता।
परिचये दोषा न छाद्यन्ते।
परिचय में दोष छिपे नहीं रहते।
स्वयमशुद्धः परानाशङ्कते।
स्वयं अशुद्ध व्यक्ति दूसरों की शुद्धता पर संदेह करता है।
स्वभावो दुरतिक्रमः।
स्वभाव को बदला नहीं जा सकता।
अपराधानुरूपो दण्डः।
अपराध के अनुरूप ही दंड देना चाहिए।
कथानुरूपं प्रतिवचनम्।
जैसा पूछा जाए, उसी के अनुरूप ही उत्तर होना चाहिए।
विभवानुरूपमाभरणम्।
वैभव के अनुरूप ही आभूषण होने चाहिए।
कुलानुरूपं वृत्तम्।
कुल के अनुरूप ही चरित्र होना चाहिए।
कार्यानुरूपः प्रयत्नः।
कार्य के अनुरूप ही प्रयास करना चाहिए।
पात्रानुरूपं दानम्।
व्यक्तित्व के अनुरूप ही दान देना चाहिए।
वयोऽनुरूपः वेषः।
उम्र के अनुरूप ही वेश होना चाहिए।
स्वाम्यनुकूलो भृत्यः।
सेवक को स्वामी के अनुकूल ही चलना चाहिए।
गुरुवशानुवर्ती शिष्यः।
शिष्य को गुरु के अनुकूल आचरण होना चाहिए।
भर्तृशानुवर्तिनी भार्या।
पत्नी को पति के अनुकूल आचरण (व्यवहार) होना चाहिए।
पितृवशानुवर्ती पुत्रः।
पुत्र को पिता के अनुकूल आचरण होना चाहिए।
अत्युपचारः शंकितव्यः।
अधिक औपचारिकता में शंका करनी चाहिए।
स्वामिनमेवानुवर्तेत।
सेवक सदा स्वामी की आज्ञाओं का पालन करे।
मातृताडितो वत्सो मातरमेवानुरोदिति।
माँ द्वारा पीटा गया बच्चा माँ के आगे रोता है।
स्नेहवत स्वल्पो हि रोषः।
गुरुजनों का गुस्सा भी स्नेहवत होता है।
आत्मछिद्रं न पश्यति परिछिद्रमेव पश्यति बालिशः।
मूर्ख व्यक्ति दूसरों के ही दोष देखता है, कभी अपने नहीं।
सोपचारः कैतवः।
धूर्त दूसरों के कपटी सेवक बनते हैं।
काम्यैर्विशेषैरूपचरणमुपचारः।
स्वामी को विशेष चाहने वाली वस्तु की भेंट देना ही धूर्तों की सेवा है।
चिरपरिचितानामत्युपचारः शंकितव्यः।
पुराने परिचितों द्वारा अधिक सम्मान देना शंका योग्य होता है।
गौर्दुष्करा श्वसहस्रादेकाकिनी श्रेयसी।
बिगड़ैल गाय भी हजार कुत्तों से श्रेष्ठ है।
श्वो मयूरादद्य कपोतो वरः।
कल के मोर से आज का कबूतर भला।
अतिसंगो दोषमुत्पादयति।
अधिक लगाव दोष उत्पन्न करता है।
सर्व जयत्यक्रोधः।
बिना क्रोध करने वाला सबको जीत लेता है।
यद्यपकारिणि कोपः कोपे कोप एवं कर्तव्यः।
दुष्ट व्यक्ति के क्रोध करने पर ही अपना क्रोध प्रकट करें।
मतिमत्सु मूर्खमित्रगुरुवल्लभेषु विवादो न कर्तव्यः।
बुद्धिमान, मूर्ख, मित्र, गुरु तथा स्वामी से विवाद न करें।
नस्त्यपिशाचमैश्वर्यम्।
ऐश्वर्य बिना बुराइयों का नहीं होता।
नास्ति धनवतां शुभकर्मसु श्रमः।
धनवानों का परिश्रम शुभ कार्यों में नहीं होता। होता है तो समझो कोई न कोई स्वार्थ है।
नास्ति गतिश्रमो यानवताम्।
वाहनों पर निर्भर रहने वाले पैदल चलने का कष्ट नहीं करते।
अलौहमयं निगडं कलत्रम्।
पत्नी बिना लोहे की बेड़ी है।
यो चरित्रकुशलः सतस्मिन् योक्तव्यः।
जो व्यक्ति जिस कार्य में निपुण है, उसे उसी कार्य में लगाना चाहिए।
दुष्टकलत्रं मनस्विनां शरीरकर्शनम्।
विद्वानों की नजर में दुष्ट पत्नी दुःख का कारण है।
अप्रमत्तो दारान्निरीक्षेत्।
सावधानी से पत्नी का निरीक्षण करें।
स्त्रीषु किञ्चिदपि न विश्वसेत्।
स्त्रियों पर बिलकुल भी विश्वास नहीं करना चाहिए।
न समाधि स्त्रीषु लोकज्ञता च।
स्त्रियों में विवेक एवं लोक-व्यवहार का ज्ञान नहीं होता।
गुरुणां माता गरीयसी।
गुरुओं में माता श्रेष्ठ है।
सर्वावस्थासु माता भर्तव्या।
सभी परिस्थितियों में माता का भरण-पोषण करें।
वैदुष्यमलंकारेणाच्छाद्यते।
अधिक योग्यता अलंकारों से ढक जाती है।
स्त्रीणां भूषणं लज्जा।
स्त्रियों का आभूषण ही लज्जा है।
विप्राणां भूषणं वेदः।
वेद ही विप्रों के आभूषण हैं।
सर्वेषां भूषणं धर्मः।
धर्म सभी का अलंकार है।
अनुपद्रवं देशभावसेत।
जहां आतंकवादी न हों, उसी देश में रहना चाहिए।
साधु जल बहुलो देशः।
जहां सज्जनों की अधिकता हो वही अच्छा देश है।
राज्ञो भेतव्यं सार्वकालम्।
राजा से सदा डरना चाहिए।
न राज्ञः परं दैवतम्।
राजा से बढ़कर परम देवता नहीं है।
सुदूरमपि दहति राजवह्नि।
राजा के क्रोध की आग बड़ी तेज होती है और दूर तक की बुराइयों को जला देती है।
रिक्तहस्तो न राजानमभिगच्छेत्।
राजा के पास खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।
गुरुं च दैवं च।
मन्दिर तथा गुरु के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।
कुटुम्बिनो भेतव्यम्।
राज परिवार से कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
गन्तव्यं च सदा राजकुलम्।
राजकुल में बराबर जाते रहना चाहिए।
राजपुरुषैः सम्बन्धं कुर्यात्।
राज पुरुषों से अच्छे सम्बन्ध रखना चाहिए।
राजदासी न सेवितव्या।
राजमहलों में रहने वाली से मेल-जोल कभी न बढ़ाएं।
न चक्षुषाऽपि राजातं निरीक्षेत्।
राजा से आँख से आँख मिलाकर कभी बात नहीं करनी चाहिए।
पुत्रे गुणवति कुटुम्बिनः स्वर्गः।
पुत्र के गुणी होने पर परिवार वालों को हमेशा सुख ही सुख है।
पुत्राः विद्यानां पारं गमयितव्या।
पुत्र को सभी विद्याओं में पारंगत बनाना चाहिए।
जनपदार्थं ग्रामं त्यजेत्।
जनपद के लिए गांव का त्याग कर देना चाहिए।
ग्रामार्थं कुटुम्बं त्यजेत्।
गांव के लिए परिवार का त्याग कर देना चाहिए।
अतिलाभः पुत्रलाभः।
पुत्र रत्न की प्राप्ति सभी सुखों से बढ़कर है।
दुर्गतेः पितरौ रक्षित स पुत्रः।
माता-पिता की परेशानियां दूर करने वाला ही पुत्र है।
कुलं प्रख्यापयति पुत्रः।
उत्तम पुत्र कुल गौरव होता है।
नानपत्यस्य स्वर्गः।
पुत्रहीन व्यक्ति को स्वर्ग नहीं मिलता है।
या प्रसूते सा भार्या।
सुन्दर सन्तान को जन्म देने वाली ही पत्नी है।
तीर्थसमवाये पुत्रवतीमनुगच्छेत्।
कई रानियों के एक साथ रजस्वला होने के बाद राजा प्रथम पुत्रवती रानी के पास जाए।
सतीर्थगमनाद् ब्रह्मचर्यं नश्यति।
मासिक धर्म काल में सहवास करने पर ब्रह्मचर्य का नाश होता है।
न परक्षेत्रे बीजं विनिक्षिपेत।
दूसरे स्त्री के साथ कभी सहवास न करें।
पुत्रार्था हि स्त्रियः।
स्त्रियां पुत्र रत्न देने वाली होती हैं।
स्वदासी परिग्रहो हि दासभावः।
अपनी दासी से सहवास करना उसी का दास बनने के बराबर है।
उपस्थितविनाशः पथ्यवाक्यं न शृणोति।
जिसका विनाश होने वाला हो उसे अच्छी बात नहीं सूझती।
नास्ति देहिनां सुखदुःखभावः।
प्राणियों को सुख-दुःख तो लगा रहता है।
मातरमिव वत्साः सुखदुःखानि कर्तारमेवानुगच्छन्ति।
माँ के पीछे चलते बच्चे के समान सुख-दुःख मनुष्य के पीछे चलते हैं।
तिलमात्रप्युकारं शैलषन्मन्यते साधुः।
सज्जन तिलवत उपकार को भी पर्वत के समान मानता है।
उपकारोऽनार्येष्वकर्तव्यः।
दुष्ट का कभी भला नहीं करना चाहिए।
प्रत्युपकारभयादनार्यः शत्रुर्भवति।
दुष्ट के साथ उपकार करने पर वह उपकार न मानकर शत्रु बन जाता है।
स्वल्पमप्युपकारकृते प्रत्युपकार कर्तुमार्यो स्वपिति।
छोटे उपकार के बदले उपकार करने के लिए सज्जन हमेशा जागरूक रहता है।
न कदाऽपि देवताऽवमन्तव्या।
देवताओं का कभी अपमान नहीं करना चाहिए।
न चक्षुषः समं ज्योतिरस्ति।
आँख के समान ज्योति नहीं है।
चक्षुर्हि शरीरिणां नेता।
आँख ही प्राणियों के मार्गदर्शक हैं।
अपचक्षुः किं शरीरेण।
बिना आँख वाले शरीर से क्या करना।
नाप्सु मूत्रं कुर्यात्।
जल में पेशाब न करें।
न नग्नो जलं प्रविशेत्।
नग्न होकर जल में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
यथा शरीरं तथा ज्ञानम्।
जैसा शरीर होता है, वैसा ही ज्ञान होता है।
यथा बुद्धिस्तथा विभवः।
जैसी बुद्धि होती है, वैसा ही वैभव भी होता है।
अग्न्वाग्निं न निक्षिपेत।
आग में आग न डालें।
तपस्विनः पूजनीया।
तपस्वी पूजनीय होते हैं।
परदारान् न गच्छेत।
पराई स्त्री के साथ संभोग नहीं करना चाहिए।
अन्नदानं भ्रूणहत्यामपि मार्ष्टि।
अन्नदान करना भ्रूणहत्या जैसे पापों से मुक्त करा देता है।
न वेदबाह्यो धर्मः।
धर्म वेद से अलग नहीं है।
कदाचिदपि धर्मं निषेवेत।
कभी-न-कभी तो धर्म का पालन करना ही चाहिए।
स्वर्गं नयति सुनृतम्।
सत्य आचरण से स्वर्ग मिलता है।
नास्ति सत्यात्परं तपः।
सत्य से बढ़कर तप नहीं है।
सत्यं स्वर्गस्य साधनम्।
सत्य ही स्वर्ग का साधन है।
सत्येन धार्यते लोकः।
सत्य द्वारा ही समाज में रहा जा सकता है।
सत्याद् देवो वर्षति।
सत्य से ही देवता प्रसन्न होते हैं।
नानृतात्पातकं परम्।
झूठ से बढ़कर पाप नहीं है।
न मीमांसयः गुरवः।
गुरुजनों की आलोचना नहीं करनी चाहिए।
खलत्वं नोपेयात्।
बुरे विचार कभी न अपनाएं।
नास्ति खलस्य मित्रम्।
दुष्ट का कोई मित्र नहीं होता।
लोकयात्रा दरिद्रं बाधते।
सामाजिक व्यवहार में कमी दरिद्र मनुष्य को दुःखी करती है।
अतिशूरो दानशूरः।
दानवीर ही सच्चा वीर है।
गुरुदेवब्राह्मणेषु भक्तिर्भूषणम्।
गुरु, देवता तथा ब्राह्मणों के प्रति भक्ति ही भूषण है।
सर्वस्य भूषणं विनयः।
विनय सबका भूषण है।
अकुलीनोऽपि विनीतः कुलीनाद्विशिष्टः।
विनीत अकुलीन भी कुलीन से श्रेष्ठ है।
आचारादायुर्वर्धते कीर्तिश्च।
अच्छे आचरण से आयु और कीर्ति बढ़ती है।
प्रियमप्यहितं न वक्तव्यम्।
प्रिय होते हुए भी हितकारी न हो उसे नहीं बोलना चाहिए।
बहुजनविरुद्धमेकं नानुवर्तेत्।
बहुत लोगों को छोड़कर एक के पीछे न जाएं।
न दुर्जनेषु भाग्धेयः कर्तव्यः।
दुर्जनों के साथ कभी साझेदारी नहीं करनी चाहिए।
न कृतार्थेषु नीचेषु सम्बन्धः।
भाग्यशाली होने पर भी नीचों से सम्बन्ध न रखें।
ऋणशत्रु व्याधिर्निविशेषः कर्तव्यः।
ऋण, शत्रु तथा व्याधि को जड़ से नष्ट कर देना चाहिए।
भूत्यादुर्तनं पुरुषस्य रसायनम्।
सम्पन्न जीवन बिताना ही व्यक्ति के लिए लाभदायक है।
नार्थिष्वज्ञा कार्या।
मांगने वालों का कभी अपमान नहीं करना चाहिए।
दुष्करं कर्म कारयित्वा कर्तारवमवमन्यते नीचः।
कठिन कार्य कराके भी नीच व्यक्ति काम करने वाले को अपमानित करता है।
नाकृतज्ञस्य नरकान्निवर्तनम्।
पापी पुरुष के लिए नरक के सिवाय कोई जगह नहीं।
जिह्वाऽऽयत्ततौ वृद्धिविनाशौ।
वृद्धि और विनाश जिह्वा के अधीन है।
विषामृतयोराकरो जिह्वा।
जीभ विष और अमृत की खान है।
प्रियवादिनो न शत्रुः।
प्रिय बोलने वाले का कोई शत्रु नहीं होता।
स्तुता अपि देवतास्तुस्यन्ति।
स्तुति किए जाने पर देवता भी संतुष्ट होते हैं।
अनृतमपि दुर्वचनं चिरं तिष्ठति।
निराधार दुर्वचन भी लम्बे समय तक भूलते नहीं हैं।
राजद्विष्टं न च वक्तव्यम्।
राजा पर आरोप भरे शब्द नहीं बोलने चाहिए।
श्रुतिसुखात् कोकिलालापातुष्यन्ति।
सुनने का तो सुख कोयलों की कूह-कूह से मिलता है।
स्वधर्महेतुः सत्पुरुषः।
सत्पुरुष स्वधर्म हेतु होते हैं।
नास्त्यर्थिनो गौरवम्।
धन से अधिक मोह होने पर सम्मान नहीं मिलता।
स्त्रीणां भूषणं सौभाग्यम्।
सौभाग्य स्त्रियों का भूषण है।
शत्रोरपि न पातनीया वृत्तिः।
शत्रु की भी जीविका नष्ट नहीं करनी चाहिए।
अप्रयत्नोदकं क्षेत्रम्।
बिना प्रयास के जलीय स्रोत मिल जाए उसे ही अपना क्षेत्र समझें। अर्थात् जहां सर्व सुलभ वस्तुएं उपलब्ध हो जाएं।
एरण्डमवलम्व्य कुञ्जरं न कोपयेत।
कमजोर का सहारा लेकर बलशाली से न भिड़ें। एरण्ड का सहारा लेकर हाथी को कुपित न करें।
अतिप्रवृद्धा शाल्मली वारणस्तम्भो न भवति।
अति पुराना शाल वृक्ष हाथी का खम्भा नहीं होता।
अतिदीर्घोपि कर्णिकारी न मुसली।
कनेर का वृक्ष बहुत बड़ा भी हो तो भी मूसल बनाने के काम नहीं आता।
अति दीप्तोऽपि खद्योतो न पावकः।
अत्यधिक चमकने पर भी जुगनू आग नहीं होता।
न प्रवृद्धत्व गुणहेतुः।
निपुणता कोई जरूरी नहीं कि अच्छे गुणों का कारण है।
सुजीर्णोऽपि पिचमुन्दो न शकुलायते।
अति पुराना भी नीम सरोता नहीं बन सकता।
यथाबीजं तथा निष्पत्तिः।
जैसा बीज वैसा ही कार्य।
यथा शृणुतं तथा बुद्धिः।
जैसा सुना जाता है वैसी ही बुद्धि हो जाती है।
यथा कुलं तथाऽऽचारः।
जैसा कुल होता है, वैसा ही चरित्र होता है।
संस्कृत पिचमन्दो सहकारनवति।
पका हुआ नीम आग नहीं बनता।
न चागतं सुखं त्यजेत्।
आए हुए सुख का परित्याग नहीं करना चाहिए।
स्वयमेव दुःखमधिगच्छति।
मनुष्य स्वयं ही दुःखों को बुलाता है।
रात्रि चारणं न कुयति।
रात के समय व्यर्थ न घूमें।
न चार्ध रात्रं स्वपेत।
आधी रात्रि को न सोएं।
तद्विद्वदिम परीक्षेत।
विद्वानों के समक्ष ब्रह्म की चर्चा करें।
पर गृहं कारण न प्रविशेत्।
दूसरे के घर में अकारण न जाएं।
ज्ञात्वापि दोषमेव करोति लोकः।
लोग जानबूझकर अपराध करते हैं।
शास्त्रप्रधाना लोकवृत्तिः।
लोक-व्यवहार शास्त्र प्रधान है।
शास्त्राभावे शिष्टाचारमनुगच्छेत्।
शास्त्र के अभाव में शिष्टाचार का पालन करना चाहिए।
ना चरिताच्छास्त्रां गरीयः।
शिष्टाचार से शास्त्र बड़े नहीं हैं।
दूरस्थमपि चारचक्षुः पश्यति राजा।
अपने विवेक तथा गुप्तचरों द्वारा राजा दूर की वस्तु को भी देखता है।
गतानुगतिको लोको।
एक दूसरे की देखा-देखी लोग अपना व्यवहार करते हैं।
यमनुजीवेत्तं नापवदेत्।
जिस पर आश्रित हो, उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए।
तपः सारः इन्द्रियनिग्रहः।
इंद्रियों को वश में रखना ही तप का सार है।
दुर्लभः स्त्रीबन्धनान्मोक्षः।
स्त्रियों के मोह में लगे रहने से मोक्ष नहीं मिलता।
स्त्रीनामं सर्वाशुभानां क्षेत्रम्।
स्त्रियां सभी बुराइयों की जड़ हैं।
न च स्त्रीणां पुरुष परीक्षा।
स्त्री पुरुष के गुणों की परीक्षा नहीं कर सकती।
स्त्रीणां मनः क्षणिकम्।
स्त्रियों का मन बहुत चंचल होता है।
अशुभ द्वेषिणः स्त्रीषु न प्रसक्ता।
बुरे कर्मों से दूर रहने वाले पुरुष स्त्रियों के चक्कर में नहीं पड़ते।
यशफलज्ञास्त्रिवेदविदः।
तीनों वेदों को जानने वाले ही यज्ञ के महत्त्व व परिणाम को जानते हैं।
स्वर्गस्थानं न शाश्वततं यावत्पुण्य फलम्।
स्वर्ग-स्थान सदैव नहीं है।
न च स्वर्ग पतनात्परं दुःखम्।
स्वर्ग से पतन होने पर असाधारण दुःख होता है।
देही देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं न वाञ्छति।
प्राणी शरीर को छोड़कर इन्द्रपद भी नहीं चाहता।
दुःखानामौषधं निर्वाणम्।
दुःखों की औषधि निर्वाण (मोक्ष) है।
अनार्यसम्बन्धाद् वरमार्यशत्रुता।
बुरे मित्र से तो समझदार शत्रु ही ठीक है।
निहन्ति दुर्वचनं कुलम्।
अप्रिय बातें कुल का नाश करती हैं।
न पुत्रसंस्पर्शात् परं सुखम्।
पुत्र स्पर्श से बड़ा कोई सुख नहीं है।
विवादे धर्ममनुस्मरेत्।
विवाद में धर्म का स्मरण करना चाहिए।
निशान्ते कार्यं चिन्तयेत्।
रात्रि के अंत में यानी प्रातःकाल में दिन भर कार्यों पर विचार करना चाहिए।
प्रदोषे न संयोगः कर्तव्यः।
प्रातःकाल सहवास नहीं करना चाहिए।
उपस्थित विनाशो दुर्नयं मन्यते।
जिसका विनाश होता है, वह अन्याय पर उतर आता है।
क्षीरार्थिनः किं करिष्यः।
दूध का इच्छुक हथिनी से क्या करेगा?
न दानसमं वश्यं वश्यम।
दान के समान कोई उपकार नहीं है।
पराय तेषूत्कण्ठा न कुर्यात्।
दूसरे के हाथ में चली गई वस्तु को पाने के लिए उतावले मत बनो।
असत्समृद्धिरसद्भिरेव भुज्येत।
बुरे तरीके से कमाया हुआ धन बुरे लोगों द्वारा ही भोगी जाती है।
निम्बफलं काकैरेव भुज्यते।
नीम का फल कौओं द्वारा खाया जाता है।
नाम्भोधिस्तृष्णामपोहति।
समुद्र प्यास नहीं बुझाता।
बालुका अपि स्वगुणमाश्रयन्ते।
बालू भी अपने गुण का अनुसरण करती है।
सन्तोऽसत्सु न रमन्ते।
सन्तों को असन्तों के बीच में आनन्द नहीं आता।
न हंसः प्रेतवने रमन्ते।
हंसों को श्मशान में अच्छा नहीं लगता।
अर्थार्थं प्रवर्तते लोकः।
मनुष्य धन के लिए बदल जाता है।
आशया बध्यते लोकः।
संसार आशा द्वारा बांधा जाता है।
न चाशापरेः श्री सह तिष्ठति।
केवल आशा रखने वाले के साथ लक्ष्मी नहीं ठहरती।
आशापरे न धैर्यम्।
अधिक उम्मीद वाला होने मात्र से धैर्यशील नहीं हो सकते।
दैन्यान्भरणमुत्तमम्।
गरीबी से मृत्यु अच्छी है।
आशा लज्जां व्यपोहति।
आशा लज्जा को दूर कर देती है।
न मात्रा सह वासः कर्तव्यः।
एकान्त में माता के साथ भी न रहें।
आत्मा न स्तोत्वयः।
अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।
न दिवा स्वप्नं कुर्यात्।
दिन में नहीं सोना चाहिए।
न चासन्नमपि पश्येत्यैश्वर्यान्ध न ऋणोतीष्टं वाक्यम्।
धन से अंधा व्यक्ति ज्ञानियों की बात नहीं सुनता।
स्त्रीणां न भर्तुः परं दैवतम्।
पति ही स्त्रियों का परम देवता है।
तदनुवर्तनमुभयसुखम्।
पति के अनुकूल व्यवहार करना दोनों को सुखी बनाता है।
अतिथिमभ्यागतं पूजये यथाविधिः।
घर आए हुए अतिथि को जितना हो सके उतना सम्मान देना चाहिए।
नास्ति हव्यस्य व्याघातः।
यज्ञ में दी गई हवन सामग्री कभी बेकार नहीं होती।
शत्रुर्मित्रवत् प्रतिभाति।
बुद्धि भ्रष्ट होने पर शत्रु मित्र जैसा दिखाई देने लगता है।
मृगतृष्णा जलवत् भाति।
लालची बुद्धि होने पर रेगिस्तान भी जल जैसा दिखाई देने लगता है।
दुर्मेधसामसच्छास्त्रं मोहयति।
बुद्धिहीनों को निकम्मेपन की शिक्षा देने वाली पुस्तकें अच्छी लगती हैं।
सत्संगः स्वर्गवासः।
सत्संग स्वर्ग में रहने के समान है।
आर्यः स्वमिव परं मन्यते।
आर्य लोग दूसरों को भी अपने ही समान मानते हैं।
रूपानुवर्ती गुणः।
गुण रूप के ही अनुसार होते हैं।
यत्र सुखेन वर्तते देव स्थानम्।
जहां सुख मिले वही अच्छा स्थान है।
विश्वासघातिनो न निष्कृतिः।
विश्वासघाती की मुक्ति कभी नहीं होती।
दैवायत्तं न शोचयेत।
दुर्भाग्य पर दुःख नहीं करना चाहिए।
आश्रित दुःखमात्मन इव मन्यते साधुः।
सज्जन दूसरों के दुःखों को अपना ही जैसा मानते हैं।
हृद्गतमाच्छाद्यान्यद् वदत्यनार्यः।
दुष्ट व्यक्ति हृदय की बात को छिपाकर कुछ और ही बोलता है।
बुद्धिहीनः पिशाच तुल्यः।
बुद्धिहीन व्यक्ति पिशाच के समान होता है।
असहायः पथि न गच्छेत्।
मार्ग में अकेले नहीं जाना चाहिए।
पुत्रो न स्तोतव्यः।
पुत्र की स्तुति नहीं करनी चाहिए।
स्वामी स्तोतव्योऽनुजीविभिः।
सेवकों को स्वामी की प्रशंसा करनी चाहिए।
धर्मकृत्येष्वपि स्वामिन एवं घोषयेत्।
धार्मिक कार्यों में भी स्वामी को ही श्रेय देना चाहिए।
राजाज्ञां नातिलंघेत्।
राजा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
यथाऽऽज्ञप्तं तथा कुर्यात्।
जैसी आज्ञा हो वैसा ही करना चाहिए।
नास्ति बुद्धिमतां शत्रुः।
बुद्धिमानों का कोई शत्रु नहीं होता।
आत्मछिद्रं न प्रकाशयेत्।
अपनी कोई गुप्त बात कभी प्रकट न करें।
क्षमानेव सर्वं साधयति।
क्षमाशील व्यक्ति अपनी प्रशंसा प्राप्त कर लेता है।
आपदर्थ धनं रक्षेत्।
आपत्ति से बचने के लिए धन की रक्षा करें।
साहसवतां प्रियं कर्तव्यम्।
साहसी पुरुषों को कार्य प्रिय होता है।
श्व कार्यमद्य कुर्वीत्।
कल का कार्य आज ही कर लेना चाहिए।
आपराह्निकं पूर्वाहत एवं कर्तव्यम्।
दोपहर के कार्य को प्रातःकाल ही कर लें।
व्यवहारानुलोभो धर्मः।
व्यवहार के अनुसार ही धर्म है।
सर्वज्ञता लोकज्ञता।
जो सांसारिकता का अनुभवीय ज्ञात होता है, वही सर्वत्र होता है।
शास्त्रोऽपि लोकज्ञो मूर्ख तुल्यः।
शास्त्र जानने वाला यदि लोक-व्यवहार नहीं जानता तो वह मूर्ख के समान होता है।
शास्त्र प्रयोजनं तत्त्व दर्शनम्।
समस्त वस्तुओं का यथार्थ ज्ञान कराना ही शास्त्र का उद्देश्य होता है।
तत्त्वज्ञानं कार्यमेव प्रकाशयति।
कार्य ही तत्त्वज्ञान मार्ग प्रकाशित करते हैं।
व्यवहारे पक्षपाते न कार्यः।
व्यवहार में पक्षपात नहीं करना चाहिए।
धर्मादपि व्यवहारो गरीयान्।
धर्म से भी व्यवहार बड़ा है।
आत्मा हि व्यवहारस्य साक्षी।
आत्मा व्यवहार की साक्षी है।
सर्वसाक्षी ह्यात्मा।
आत्मा सर्वसाक्षी है।
न स्यात् कूटसाक्षी।
झूठी साक्षी (गवाह) नहीं होना चाहिए।
कूटसाक्षिणो नरके पतन्ति।
झूठी गवाही देने वाले नरक में गिरते हैं।
प्रच्छन्नपापानां साक्षिणो महाभूतानि।
छिपकर किए गए पापों के पंच महाभूत हैं।
आत्मनः पापमात्मैव प्रकाशयति।
अपने किए हुए पाप को व्यक्ति की आत्मा बता देती है।
व्यवहारेऽन्तर्गतमाचारः सूचयति।
व्यवहार से ही आचरण जाना जाता है।
आकारसंवरणं देवानामशक्यम्।
आचरण के अनुसार ही मुखमंडल हो जाता है।
चोर राजपुरुषेेभ्यो दित्तं रक्षते।
चोरों एवं राज पुरुष से अपने धन की रक्षा करो।
दुर्दर्शना हि राजानः प्रजाः नाशयन्ति।
अपनी प्रजा की खोज-खबर न लेने वाला राजा उस प्रजा को नष्ट कर देता है।
सुदर्शना हि राजानः प्रजाः रञ्जयन्ति।
खोज-खबर लेने वाले राजा प्रजा को प्रसन्न रखते हैं।
न्याययुक्तं राजानं मातरं मन्यते प्रजाः।
न्यायी राजा को प्रजा माँ समझती है।
तादृशः स राजा इह सुखं ततः स्वर्गमाप्नोति।
प्रजा का ख्याल रखने वाले राजा इस लोक में सुख भोगकर स्वर्ग प्राप्त करता है।
अहिंसा लक्षणो धर्मः।
अहिंसा ही धर्म का लक्षण है।
शरीराणाम् एव पर शरीरं मन्यते साधुः।
साधु पुरुष अपने शरीर को दूसरों की भलाई में लगा देते हैं।
मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम्।
मांस-भक्षण सभी के लिए बुरा है।
न संसार भयं ज्ञानवताम्।
ज्ञानियों को संसार का भय नहीं होता।
विज्ञान दीपेन संसार भयं निवर्तते।
विज्ञान के दीप से संसार का भय भाग जाता है।
सर्वमनित्यं भवति।
सब कुछ नश्वर है।
कृमिशकृन्मूत्रभाजनं शरीरं पुण्यपपजन्महेतुः।
पाप पुण्य का हेतु शरीर कृमि मल-मूत्र का पात्र है।
जन्ममरणादिषु दुःखमेव।
जन्म-मरण आदि में दुःख ही है।
सतेभ्यस्तुर्तुं प्रयतेत।
अतः जन्म-मृत्यु से पार होने का प्रयत्न करना चाहिए।
तपसा स्वर्गमाप्नोति।
तप से स्वर्ग प्राप्त होता है।
क्षमायुक्तस्य तपो विवर्धते।
क्षमा करने वाले का तप बढ़ता है।
सक्ष्मात् सर्वेषां कार्यसिद्धिर्भवति।
क्षमा करने से सभी कार्यों में सफलता मिलती है।