गरुड का जन्म – महाभारत का तेईसवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“गरुड का जन्म” नामक यह महाभारत कथा आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। पढ़ें समुद्र के दर्शन के पश्चात कद्रू की चाल से किस तरह विनता बाजी हार गयी तथा किस प्रकार महापराक्रमी गरुड का जन्म हुआ। साथ ही जानें कि किस तरह देवताओं और ऋषियों ने उन्हें शांत किया। पढ़ें गरुड का जन्म नामक यह कथा। महाभारत के अन्य अध्याय हिंदी में पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत कथा।
सौतिरुवाच
तं समुद्रमतिक्रम्य कद्रूर्विनतया सह ।
न्यपतत् तुरगाभ्याशे नचिरादिव शीघ्रगा ॥ १ ॥
ततस्ते तं हयश्रेष्ठं ददृशाते महाजवम् ।
शशाङ्ककिरणप्रख्यं कालवालमुभे तदा ॥ २ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—शौनक! तदनन्तर शीघ्रगामिनी कद्रू विनता के साथ उस समुद्र को लाँघकर तुरंत ही उच्चैःश्रवा घोड़े के पास पहुँच गयीं। उस समय चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत वर्ण वाले उस महान् वेगशाली श्रेष्ठ अश्व को उन दोनों ने काली पूँछ वाला देखा ॥ १-२ ॥
निशम्य च बहून् बालान् कृष्णान् पुच्छसमाश्रितान् ।
विषण्णरूपां विनतां कद्रूर्दास्ये न्ययोजयत् ॥ ३ ॥
पूँछ के घनीभूत बालों को काले रंग का देखकर विनता विषाद की मूर्ति बन गयी और कद्रू ने उसे अपनी दासी के काम में लगा दिया ॥ ३ ॥
ततः सा विनता तस्मिन् पणितेन पराजिता ।
अभवद् दुःखसंतप्ता दासीभावं समास्थिता ॥ ४ ॥
पहले की लगायी हुई बाजी हार कर विनता उस स्थान पर दुःख से संतप्त हो उठी और उसने दासीभाव स्वीकार कर लिया ॥ ४ ॥
एतस्मिन्नन्तरे चापि गरुडः काल आगते ।
विना मात्रा महातेजा विदार्याण्डमजायत ॥ ५ ॥
इसी बीच में समय पूरा होने पर महातेजस्वी गरुड माता की सहायता के बिना ही अण्डा फोड़कर बाहर निकल आये ॥ ५ ॥
महासत्त्वबलोपेतः सर्वा विद्योतयन् दिशः ।
कामरूपः कामगमः कामवीर्यो विहंगमः ॥ ६ ॥
वे महान् साहस और पराक्रम से सम्पन्न थे। अपने तेज से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति थी। वे जहाँ जितनी जल्दी जाना चाहें जा सकते थे और अपनी रुचि के अनुसार पराक्रम दिखला सकते थे। उनका प्राकट्य आकाशचारी पक्षी के रूप में हुआ था ॥ ६ ॥
अग्निराशिरिवोद्भासन् समिद्धोऽतिभयंकरः ।
विद्युद्विस्पष्टपिङ्गाक्षो युगान्ताग्निसमप्रभः ॥ ७ ॥
वे प्रज्वलित अग्नि-पुंज के समान उद्भासित होकर अत्यन्त भयंकर जान पड़ते थे। उनकी आँखें बिजली के समान चमकने वाली और पिंगल वर्ण की थीं। वे प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे ॥ ७ ॥
प्रवृद्धः सहसा पक्षी महाकायो नभोगतः ।
घोरो घोरस्वनो रौद्रो वह्निरौर्व इवापरः ॥ ८ ॥
उनका शरीर थोड़ी ही देर में बढ़कर विशाल हो गया। पक्षी गरुड आकाश में उड़ चले। वे स्वयं तो भयंकर थे ही, उनकी आवाज भी बड़ी भयानक थी। वे दूसरे बड़वानल की भाँति बड़े भीषण जान पड़ते थे ॥ ८ ॥
तं दृष्ट्वा शरणं जग्मुर्देवाः सर्वे विभावसुम् ।
प्रणिपत्याब्रुवंश्चैनमासीनं विश्वरूपिणम् ॥ ९ ॥
उन्हें देखकर सब देवता विश्वरूपधारी अग्नि देव की शरण में गये और उन्हें प्रणाम करके बैठे हुए उन अग्नि देव से इस प्रकार बोले— ॥ ९ ॥
अग्ने मा त्वं प्रवर्धिष्ठाः कच्चिन्नो न दिधक्षसि ।
असौ हि राशिः सुमहान् समिद्धस्तव सर्पति ॥ १० ॥
‘अग्ने! आप इस प्रकार न बढ़ें। आप हम लोगों को जलाकर भस्म तो नहीं कर डालना चाहते हैं? देखिये, वह आपका महान्, प्रज्वलित तेजःपुंज इधर ही फैलता आ रहा है’ ॥ १० ॥
अग्निरुवाच
नैतदेवं यथा यूयं मन्यध्वमसुरार्दनाः ।
गरुडो बलवानेष मम तुल्यश्च तेजसा ॥ ११ ॥
अग्नि देव ने कहा—असुर विनाशक देवताओ! तुम जैसा समझ रहे हो, वैसी बात नहीं है। ये महाबली गरुड हैं, जो तेज में मेरे ही तुल्य हैं ॥ ११ ॥
जातः परमतेजस्वी विनतानन्दवर्धनः।
तेजोराशिमिमं दृष्ट्वा युष्मान् मोहः समाविशत् ॥ १२ ॥
विनता का आनन्द बढ़ाने वाले ये परम तेजस्वी गरुड इसी रूप में उत्पन्न हुए हैं। तेज के पुंज रूप इन गरुड को देखकर ही तुम लोगों पर मोह छा गया है ॥ १२ ॥
नागक्षयकरश्चैव काश्यपेयो महाबलः ।
देवानां च हिते युक्तस्त्वहितो दैत्यरक्षसाम् ॥ १३ ॥
कश्यपनन्दन महाबली गरुड नागों के विनाशक, देवताओं के हितैषी और दैत्यों तथा राक्षसों के शत्रु हैं ॥ १३ ॥
न भीः कार्या कथं चात्र पश्यध्वं सहिता मम ।
एवमुक्तास्तदा गत्वा गरुडं वाग्भिरस्तुवन् ॥ १४ ॥
ते दूसदभ्युपेत्यैनं देवाः सर्षिगणास्तदा ।
इनसे किसी प्रकार का भय नहीं करना चाहिये। तुम मेरे साथ चलकर इनका दर्शन करो। अग्नि देव के ऐसा कहने पर उस समय देवताओं तथा ऋषियों ने गरुड के पास जाकर अपनी वाणी द्वारा उनका इस प्रकार स्तवन किया (यहाँ परमात्मा के रूप में गरुड की स्तुति की गयी है) ॥ १४ ॥
देवा ऊचुः
त्वमृषिस्त्वं महाभागस्त्वं देवः पतगेश्वरः ॥ १५ ॥
देवता बोले—प्रभो! आप मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं; आप ही महाभाग देवता तथा आप ही पतगेश्वर (पक्षियों तथा जीवों के स्वामी) हैं ॥ १५ ॥
त्वं प्रभुस्तपनः सूर्यः परमेष्ठी प्रजापतिः ।
त्वमिन्द्रस्त्वं हयमुखस्त्वं शर्वस्त्वं जगत्पतिः ॥ १६ ॥
आप ही प्रभु, तपन, सूर्य, परमेष्ठी तथा प्रजापति हैं। आप ही इन्द्र हैं, आप ही हयग्रीव हैं, आप ही शिव हैं तथा आप ही जगत् के स्वामी हैं ॥ १६ ॥
त्वं मुखं पद्मजो विप्रस्त्वमग्निः पवनस्तथा ।
त्वं हि धाता विधाता च त्वं विष्णुः सुरसत्तमः ॥ १७ ॥
आप ही भगवान् के मुख स्वरूप ब्राह्मण, पद्मयोनि ब्रह्मा और विज्ञानवान् विप्र हैं, आप ही अग्नि तथा वायु हैं, आप ही धाता, विधाता और देवश्रेष्ठ विष्णु हैं ॥ १७ ॥
त्वं महानभिभूः शश्वदमृतं त्वं महद् यशः ।
त्वं प्रभास्त्वमभिप्रेतं त्वं नस्त्राणमनुत्तमम् ॥ १८ ॥
आप ही महत्तत्त्व और अहंकार हैं। आप ही सनातन, अमृत और महान् यश हैं। आप ही प्रभा और आप ही अभीष्ट पदार्थ हैं। आप ही हम लोगों के सर्वोत्तम रक्षक हैं ॥ १८ ॥
बलोर्मिमान् साधुरदीनसत्त्वः
समृद्धिमान् दुर्विषहस्त्वमेव ।
त्वत्तः सृतं सर्वमहीनकीर्ते
ह्यनागतं चोपगतं च सर्वम् ॥ १९ ॥
आप बल के सागर और साधु पुरुष हैं। आपमें उदार सत्त्वगुण विराजमान है। आप महान् ऐश्वर्यशाली हैं। युद्ध में आपके वेग को सह लेना सभी के लिये सर्वथा कठिन है। पुण्यश्लोक! यह सम्पूर्ण जगत् आप से ही प्रकट हुआ है। भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ आप ही हैं ॥ १९ ॥
त्वमुत्तमः सर्वमिदं चराचरं
गभस्तिभिर्भानुरिवावभाससे ।
समाक्षिपन् भानुमतः प्रभां मुहु-
स्त्वमन्तकः सर्वमिदं ध्रुवाध्रुवम् ॥ २० ॥
आप उत्तम हैं। जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आप इस सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करते हैं। आप ही सबका अन्त करने वाले काल हैं और बारम्बार सूर्य की प्रभा का उपसंहार करते हुए इस समस्त क्षर और अक्षर रूप जगत् का संहार करते हैं ॥ २० ॥
दिवाकरः परिकुपितो यथा दहेत्
प्रजास्तथा दहसि हुताशनप्रभ ।
भयंकरः प्रलय इवाग्निरुत्थितो
विनाशयन् युगपरिवर्तनान्तकृत् ॥ २१ ॥
अग्नि के समान प्रकाशित होने वाले देव! जैसे सूर्य क्रुद्ध होने पर सबको जला सकते हैं, उसी प्रकार आप भी कुपित होने पर सम्पूर्ण प्रजा को दग्ध कर डालते हैं। आप युगान्तकारी काल के भी काल हैं और प्रलयकाल में सबका विनाश करनेके लिये भयंकर संवर्तकाग्नि के रूप में प्रकट होते हैं ॥ २१ ॥
खगेश्वरं शरणमुपागता वयं
महौजसं ज्वलनसमानवर्चसम् ।
तडित्प्रभं वितिमिरमभ्रगोचरं
महाबलं गरुडमुपेत्य खेचरम् ॥ २२ ॥
आप सम्पूर्ण पक्षियों एवं जीवों के अधीश्वर हैं। आप का ओज महान् है। आप अग्नि के समान तेजस्वी हैं। आप बिजली के समान प्रकाशित होते हैं। आपके द्वारा अज्ञान पुंज का निवारण होता है। आप आकाश में मेघों की भाँति विचरने वाले महापराक्रमी गरुड हैं। हम यहाँ आकर आपके शरणागत हो रहे हैं ॥ २२ ॥
परावरं वरदमजय्यविक्रमं
तवौजसा सर्वमिदं प्रतापितम् ।
जगत्प्रभो तप्तसुवर्णवर्चसा
त्वं पाहि सर्वांश्च सुरान् महात्मनः ॥ २३ ॥
आप ही कार्य और कारण रूप हैं। आप से ही सबको वर मिलता है। आपका पराक्रम अजेय है। आपके तेज से यह सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो उठा है। जगदीश्वर! आप तपाये हुए सुवर्ण के समान अपने दिव्य तेज से सम्पूर्ण देवताओं और महात्मा पुरुषों की रक्षा करें ॥ २३ ॥
भयान्विता नभसि विमानगामिनो
विमानिता विपथगतिं प्रयान्ति ते ।
ऋषेः सुतस्त्वमसि दयावतः प्रभो
महात्मनः खगवर कश्यपस्य ह ॥ २४ ॥
पक्षिराज! प्रभो! विमान पर चलने वाले देवता आपके तेज से तिरस्कृत एवं भयभीत हो आकाश में पथभ्रष्ट हो जाते हैं। आप दयालु महात्मा महर्षि कश्यप के पुत्र हैं ॥ २४ ॥
स मा क्रुधः कुरु जगतो दयां परां
त्वमीश्वरः प्रशममुपैहि पाहि नः ।
महाशनिस्फुरितसमस्वनेन ते
दिशोऽम्बरं त्रिदिवमियं च मेदिनी ॥ २५ ॥
चलन्ति नः खग हृदयानि चानिशं
निगृह्यतां वपुरिदमग्निसंनिभम् ।
तव द्युतिं कुपितकृतान्तसंनिभां
निशम्य नश्चलति मनोऽव्यवस्थितम् ।
प्रसीद नः पतगपते प्रयाचतां
शिवश्च नो भव भगवन् सुखावहः ॥ २६ ॥
प्रभो! आप कुपित न हों, सम्पूर्ण जगत् पर उत्तम दया का विस्तार करें। आप ईश्वर हैं, अतः शान्ति धारण करें और हम सबकी रक्षा करें। महान् वज्र की गड़गड़ाहट के समान आपकी गर्जना से सम्पूर्ण दिशाएँ, आकाश, स्वर्ग तथा यह पृथ्वी सब-के-सब विचलित हो उठे हैं और हमारा हृदय भी निरन्तर काँपता रहता है। अतः खगश्रेष्ठ! आप अग्नि के समान तेजस्वी अपने इस भयंकर रूप को शान्त कीजिये। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान आपकी उग्र कान्ति देखकर हमारा मन अस्थिर एवं चंचल हो जाता है। आप हम याचकों पर प्रसन्न होइये। भगवन्! आप हमारे लिये कल्याण स्वरूप और सुखदायक हो जाइये ॥ २५-२६ ॥
एवं स्तुतः सुपर्णस्तु देवैः सर्षिगणैस्तदा ।
तेजसः प्रतिसंहारमात्मनः स चकार ह ॥ २७ ॥
ऋषियों सहित देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर उत्तम पंखों वाले गरुड ने उस समय अपने तेज को समेट लिया ॥ २७ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुड चरित्र विषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥