हमारे ऊँचे-नीचे गाँव
“हमारे ऊँचे-नीचे गाँव” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” द्वारा ब्रज भाषा में रचित गाँव की सुंदरता का वर्णन करती कविता है। आनंद लें इस कविता का–
हमें प्राननि ते प्यारे लगें हमारे ऊँचे-नीचे गाँव,
छाँड़ि कैं अनत कहूँ नहिं जाँउ हमारे ऊँचे नीचे गाँव।
द्वार-द्वार पै नीम खड़े हैं, घर-घर तुलसी रानी,
लिपे पुते घर सुघर सलोने कहुँ छप्पर कहुँ छानी।
पुरवैया के चलत नीम झुकि झुकि झूमें हरषावें,
पीरी पीरी पकी निबौरी लरिकन कों बरषावें।
कि जिनि के रमुआँ धनुआँ नाँउ।
धूरि भरे दगरे में खेलें रमुआँ औ रमजनियाँ,
सीता कौं सलमा लै गोदी, धरैं फिरति है कनियाँ।
जाति-पाँति, पूजा नमाज में भेद-भाव ना सूझै,
इक दूजे की मदद करत सब, ऊँच-नीच ना बूझै ।
कपट-छल के ना सीखे दाँव।
राजनीति कछु जानत नाहीं गामन के रहवैया,
बड़े प्रेम सौं मिलिकैं बैठें, लगें सगे ही भैया।
छोरीं छोरनि के सँग खेलें, कछु कुभाव मन नाहीं,
देवर भौजाई हँसिं हँसिकैं बतरावै घर माहीं।
छुयें बहुयें बूढ़िन के पाँव।
बड़े भुरहारें मठा विलोमे, गावै रई-मथानी,
संग-संग पानी भरि ल्यावैं ननदी और जिठानी।
दूध-दही कछुमठा-महेरी, रोटी मोटी करिकैं,
निधड़क जाय खेत पै दैवे सिर पैडलिया धरिकैं।
बुलावैं नीबरिया की छाँव।
कृत्रिमता को काम कछू ना सादा लहँगा-धोती,
राधा निज साँवरिया के सँग सिर पै बोझा ढोती।
कारी घटा देखि अम्बर में, हँसे मैंड़ पै ठाड़ी,
कहिबे की ना बात प्रीति दोउन में कितनी गाढ़ी।
कि टैरै बरगदिया लै नाँउ–
द्वार-द्वार घर-घर में झूला सावन में दीखत हैं
राहगीर हू सुनि-सुनि कैं ढोला-मल्हार सीखत हैं।
बित फागुन में हुरहारिन के बीच में नचै गुजरिया,
पाँच घड़ा सिर ऊपर धरि लेइ दूखै नाँय कमरिया।
बतावै अपनौ ऊँचौ गाँव–
ननदी के सँग होरी खेलै भावी गौने आई,
ढिंग भैया ते पकरि खैंचि के आँगन में लै आई।
मलि रही लाल गुलाल रंग सौं भिजइ दई है चोली,
हँसि मुसिक्याइ इशारे करि-करि, करि रही खूब ठिठोली।
ननद सौं पूछे पति को नाँउ–
आँगन में कोऊ स्यामा सोवै पिया नाहिं घर आए
बिरमाये का हू सौतिन नें या फिर हैं भरमाये।
आहट सुनिकैं उठि उठि बैठे, विरह आगि है तन में
है विश्वास लौटि आवेंगे, लगी आश है मन में।
सकारे सुनि कौआ की काँव–
चौपारिन में रोज होतु है छाँटि-छाँटि कैं न्याउ,
करतु नाहिं कोऊ काहू सौं चुगली और चबाउ।
नगरनि कैसी तड़क-भड़क, झूठौ दिखाइबौ नाहीं
मोटो झोटो खाँय तौऊ कोऊ लटौ-दूबरौ नाहीं।
न गन्दी नालिन हू कौ नाँउ–
खेत पके गेंहूँ की बालें सोने जैसी रि दरसैं,
शहरनि वारे सच मानो वा सुख के काजें तरसैं।
घूमि घूमि के चन्दा-सूरज बिनें देखिवे आवैं
नगरनि की सँकरी गलियनु में कबहूँ नाहीं जावें
बसन्त सबके मन कौं ललचाव–
खेत ही मंदिर, खेत ही मस्जिद, खेत ही हैं गुरुद्वारे,
सुखी रहें श्रम की पूजा सौं, उनके लरिका-वारे।
रक्त-पसीना सौं सींचत हैं अपनी खेती बारी,
करै मौज इनके बलबूते पै ही दुनियाँ सारी।
देउ उनकों हू ऊँचौ ठाँव,
हमारे ऊँचे नीचे गाँव॥
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।