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पंचतंत्र की कहानी – बुद्धिमान ही महान

बुद्धिमान ही महान कहानी कथानक को पंचतंत्र की पिछली कहानी एकता की जीत से आगे बढ़ाती है। इसमें बताया गया है कि प्रत्येक कार्य को बुद्धिमानी और चतुराई से करने की कोशिश करनी चाहिए, न कि ज़ोर-ज़बरदस्ती से। अन्य कथाएँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ देखें – पंचतंत्र की कहानियां

किसी जंगल में एक भयंकर शेर रहता था। चतुरक और त्रयमुख नामक शृंगाल, एक भेड़िया, एक गीदड़ उसके ही सेवक थे।

एक दिन एक ऊंटनी उस जंगल में अपने काफिले से बिछड़ कर भटकती हुई आ निकली। उसके बच्चा पैदा होने वाला था। उस शेर ने ऊंटनी का पेट फाड़कर उसके बच्चे को जीवित ही निकाल लिया और ऊंटनी को खाकर खूब आनन्द लेने लगा। बच्चे को उसने अपने घर में रख लिया था।

इस प्रकार यह चारों मित्र बनकर उस जंगल में रहने लगे थे। ऊंट का बच्चा शेर के साथ ही पलकर जवान हुआ था। इसलिए उससे उसका प्रेम भी बहुत था। शेर ने उसका नाम शंकुकर्ण रखा था।

एक बार शेर का किसी मस्त हाथी के साथ युद्ध हुआ। हाथी ने उसे इतना घायल कर दिया था कि वह चल भी नहीं सकता था। तब भूख से दुखी होकर उसने तड़पते हुए कहा कि मेरे खाने के लिए कोई शिकार लेकर आओ। जिससे मैं यहीं बैठे-बैठे मार कर उससे अपना और तुम्हारा पेट भर सकूं।

तीनों ही शेर के लिए शिकार ढूंढ़ने निकले। वे सारा दिन जंगल में घूमते रहे, किन्तु उन्हें कोई भी शिकार न.मिला। उधर शेर भूखा था। उसके लिए भोजन बहुत जरूरी था। निराश होकर चतुरक ने सोचा, क्यों न इस शंकुकर्ण को ही मार दिया जाए। इससे मालिक की भूख तो मिट जाएगी। हो सकता है ऐसा करने से मालिक नाराज भी हो जाए। पर बुद्धि से काम लेकर मालिक की नाराजगी से भी बचा जा सकता है।

यह विचार कर चतुरक ने शंकुकर्ण से कहा – भाई, देखो, भूख के मारे हमारा मालिक भूखा मर रहा है। शिकार का कहीं से भी प्रबन्ध नहीं हो सका, इसलिए मालिक के लिए ही तुमसे कुछ कहना चाहूंगा।

“कहो भाई, जल्दी कहो।”

देखो मित्र, बड़ों ने कहा कि भूखे मरते मालिक को बचाने के लिए अपना शरीर भी उसको अर्पण कर दो। इससे तुम्हारा शरीर दुगना हो जाएगा।

अरे भाई, यदि ऐसी बात है तो मैं हाजिर हूं। मालिक से चलकर कहो कि वह मेरा शिकार करके अपना पेट भर ले। आखिर उसने ही तो मुझे पाला है।

ऊंट के बच्चे की बात सुन चतुरक बहुत खुश हुआ और वह तीनों इकट्ठे होकर शेर के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने कहा – देखो मालिक, कोई शिकार तो हमें मिला नहीं। इसलिए यह ऊंट का बच्चा खुशी से आपकी भूख मिटाने के लिए तैयार हो गया है।

भूखा शेर बोला, “ठीक है। यदि इसकी यही इच्छा है तो इसे मार डालो।” बस, फिर क्या था। देखते-ही-देखते उस ऊंट को फाड़ डाला गया। शेर ने चतुरक से कहा – देखो भाई, मैं जरा नदी में मुंह-हाथ साफ करके आता हूँ। तब तक तुम इसका ध्यान रखना।

शेर के जाने के पश्चात सामने पड़े शिकार को देखकर दोनों के दिल में पाप पैदा हुआ, क्योंकि भूख तो इन्हें पहले ही लग रही थी। शेर जा चुका था। चतुरक ने भेड़िये से कहा–

“भाई, पहले इसे तुम खा लो। मैं मालिक का ध्यान देता हूं।”

भेड़िया तो पहले से ही भूखा था। गीदड़ का इशारा पाते ही वह शिकार को खाने ही लगा था कि गीदड़ झट से बोल उठा – “अरे… अरे… शेर आ गया है।”

भेड़िये बेचारे के मुंह से मांस का टुकड़ा निकल कर गिर पड़ा। वह डर के मारे दूर हट कर खड़ा हो गया। इस बीच शेर भी आ गया था। उसने जैसे हो अपने शिकार पर दांत गड़े हुए देखे, तो क्रोध के मारे बोला – मेरा शिकार किसने जूठा किया है। अब पहले मैं उसी को खाऊंगा।

शेर को गुस्से से देख दोनों डर गये थे। गीदड़ ने भेड़िये से कहा, “अरे बोल यार, क्या अब मुझे भी मरवाएगा?”

भेड़िया समझ गया कि अब तो मेरी मौत आ चुकी है। अब शेर मुझे नहीं छोड़ेगा। ठीक उसी समय एक ऊंटों का काफिला जंगल से गुजर रहा था। उस काफले के सरदार ने ऊंट के गले में बहु बड़ा घंटा बांधा हुआ था, जिसकी आवाज सारे जंगल में गूंज रही था।

शेर ने घबराकर कहा, “अरे, यह कैसी आवाज है। कौन आ रहा है इस जंगल में? जाओ, जरा देखकर आओ। शेर की बात सुनकर चतुरक उस जंगल की ओर चला, जहां से घंटा बजने की आवाज आ रही थी। थोड़ी ही देर में चतुरक उन ऊंटों को देख वापस आकर बोला–

मालिक! यह तो गजब हो गया। मुझे तो ऐसा जान पड़ा है स्वयं धर्मराज इस जंगल में हमसे युद्ध करने आ रहे हैं। शायद धर्मराज को इस बात पर क्रोध आ गया है कि आपने इस ऊंट के बच्चे को बेगुनाह मारा है। तभी तो इस ऊंट के मां-बाप और दादा भी धर्मराज के साथ आ रहे हैं।

शेर तो पहले से ही घायल था। उसने दूर से आते ऊंटों को देखा। समझ गया कि धर्मराज आ गए हैं। अब उसे जीवित नहीं छोड़ेंगे। डर के मारे शेर उस शिकार को वहीं पर छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

चतुरक की चाल सफल रही थी। शेर भाग गया। अब उनका रास्ता साफ था। दोनों ने मिलकर उस शिकार को खूब पेट भरकर खाया।


दूसरी ओर जैसे ही दमनक बैल के पास से गया था, तब से ही वह बेचारा सोचने लगा था कि यह मैंने क्या भूल की जो घासाहारी होते हुए भी मांसाहारी शेर से मित्रता कर ली। अब मेरा क्या होगा?

मैं कहां जाऊं? क्या मुझे उस दमनक के पास जाकर ही कोई रास्ता पूछना पड़ेगा? किसी ने ठीक ही कहा है कि आग से जले अंग का इलाज आग से ही होता है। अब यदि मैं यहां से कहीं और भी जाऊंगा, तो कोई दूसरा मांसाहारी जानवर मुझे मारकर खा जाएगा। इसलिए कहीं और जाकर मरने से अच्छा है कि इसी मित्र शेर के हाथों ही मरा जाए। किसी ने कहा है कि बड़ों के हाथों मरने से भी प्रशंसा होती है।

यह सोचकर बैल बेचारा धीरे-धीरे उस शेर के पास जाने लगा।

वह शेर के पास जाकर बिना प्रणाम किए ही एक ओर बैठ गया।

शेर को तो पहले ही दमनक सब कुछ बता चुका था। बैल के बारे में पूरी नफरत और घृणा उसने शेर के मन में भर दी थी। शेर की नजरों में अब वह उसका शत्रु था और शत्रु को सामने देखकर शेर उस पर टूट पड़ा था।

बैल के मन में वही घृणा थी, जो शेर के मन में। बस फिर क्या था, दोनों में जमकर युद्ध होने लगा। शेर ने अपने पंजे बैल के शरीर में गाढ़ दिये।

बैल ने अपना लम्बा सींग शेर के पेट में घोंप दिया। दोनों के शरीर से खून निकल रहा था।

दमनक और करकट वहां पहुंच गए थे। करकट ने दो मित्रों को इस प्रकार लड़ते देखकर कहा – अरे यार दमनक, तूने इन दोनों को लड़वाकर अच्छा नहीं किया। अच्छा मंत्री तो वही होता है, जो प्यार से अपना कार्य करे। यदि स्वामी ही मार डाले गए, तो तू मंत्री किसका बनेगा? सामादि की जो चार नीतियां हैं, उनमें दंड नीति का प्रयोग तो सबसे आखिर में करना चाहिए। यदि मीठा देने से शत्रु मर जाए, तो जहर देने की क्या जरूरत है। तुम चाहो तो अब भी इन दोनों में संधि करवा सकते हो।

“नहीं… मैं यहीं नहीं करूंगा। मेरी भलाई इन दोनों की लड़ाई में है”, दमनक बोला।

मैं समझता हूं भाई। इसमें तो बुरा कोई दोष नहीं। यह दोष तो केवल उस मालिक का है, जिसने तुम पर विश्वास किया। मगर याद रखना मालिक के साथ धोखा करने वाले लोग कभी-न-कभी ऐसी मुसीबत में फंसते हैं कि वहां से कभी निकल नहीं पाते। बुद्धिमान ही महान है। किन्तु मूर्ख को उपदेश देने से क्या लाभ?

सूखी लकड़ी की आग बुझती नहीं, पत्थर का छुरा काम नहीं करता और सूचीमुख की भांति अपात्र चेले को उपदेश नहीं दिया जाता। बुद्धिमान महान है, लेकिन मूर्ख से सदैव दूर रहो।

“यह कैसे भाई? जरा मुझे भी तो बताओ।”

लो सुनो–

मूर्ख को शिक्षा मत दो

किसी पहाड़ पर बन्दरों का एक झुंड रहता था। एक बार पहाड़ों पर काफी वर्षा और बर्फ पड़ने के कारण ठण्ड बहुत ही अधिक हो गई। इस ठण्ड से बचने के लिए बन्दरों ने एक ऐसे फल को आग समझकर इकट्ठा कर लिया, जिसकी शक्ल आग से मिलती थी। इस आग को सुलगाने के लिए सभी बन्दर फूंक मारने लगे। बाकी के बन्दर उसे आग समझ चारों ओर तापने के लिए बैठ गये। इन बन्दरों को देखकर एक पक्षी बोला–

अरे, तुम सब पागल हो गए हो। यह अंगारी नहीं, यह तो उससे मिलता-जुलता फल है। इससे भला सर्दी कहां दूर होगी। तुम लोग किसी पहाड़ी गुफा में छुपने की बात सोचो, क्योंकि अभी तो बर्फ और गिरेगी।

बन्दरों का सरदार बोला, “अरे, तू हमें क्या बताएगा। हम सब समझते हैं। हम सब जानते हैं।”

पक्षी ने एक बार फिर कहा – अरे भैया, मैं तुम्हारे ही हित की बात कह रहा हूं। तुम इस भयंकर ठण्ड से बचने के लिए कहीं पर भी छिप जाओ, नहीं तो मारे जाओगे।

उस पक्षी की बात सुनकर एक बन्दर को क्रोध आ गया। उसने उस पक्षी के पर नोंचकर उसे पत्थर पर दे मारा। यह मिला था उस बेचारे को फल भलाई का और शिक्षा देने का। मैंने तुम्हें कहा न कि मूर्ख को शिक्षा देने का कोई लाभ नहीं। देखो, एक मूर्ख बन्दर ने सुन्दर घर वाले को बेघर कर दिया।

“यह कैसे?”, दमनक बोला।

करकट ने कहा, सुनो–

बन्दर की उपेक्षा

एक जंगल में किसी घने वृक्ष पर घोंसला बनाए हुए गौरया का जोड़ा रहता था। वर्षा के दिनों में एक बार थोड़ा-थोड़ा पानी बरसने लगा, उसी समय एक बन्दर वर्षा में भीगा हुआ, ठण्ड के मारे कांपता हुआ उस वृक्ष के नीचे आकर बैठ गया। उसकी यह हालत देखकर गौरैये की पत्नी ने कहा–

अरे भाई, तुम तो मनुष्य जैसे ही लगते हो, फिर इस ठण्ड में क्यों मर रहे हो। कहीं छप्पर छाया का प्रबन्ध करो।

उसकी बात सुनकर बन्दर को क्रोध आ गया। वह आंखें लाल करता हुआ बोला – अरी ओ, तू मेरी हंसी उड़ा रही है। इसीलिए कहा गया है – कोई खुशी से बात पूछे, तो बतानी चाहिए। मूर्ख से कहना तो व्यर्थ होता है।

अभी गौरैया कुछ और कहने ही जा रही थी कि बन्दर झट से उस पेड़ पर चढ़ गया और उसके पास जाते ही घौंसले के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।

इसीलिए तो मैं कहता हूं भाई, किसी को व्यर्थ में अकल मत सिखाओ। सदा बुद्धिमान और भले व्यक्ति को ही अच्छी बात सिखाओ, क्योंकि बुद्धिमान महान है। नहीं तो पापबुद्धि नामक पुत्र के व्यर्थ कार्य से जैसे उसका पिता धुएं से मर गया, वही हालत होती है।

“कैसे हालत?” दमनक ने पुछा।

लो सुनो उनकी भी राम कथा–

चालाकी

किसी शहर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो व्यक्ति रहते थे। एक बार पापबुद्धि वाले व्यक्ति ने सोचा कि मैं तो पागल हूं और गरीब भी हूं। इसलिए मुझे धर्मबुद्धि वाले को अपने साथ लेकर किसी दूसरे देश में जाना चाहिए। वहां पर इसी सहारे मैं भी अमीर बन जाऊंगा। बस फिर क्या, धन कमाने के पश्चात् मैं इसे भी धक्का दे दूंगा।

यही सोचकर वह धर्मबुद्धि के पास गया। जाते ही उसने कहा – अरे भाई, यहां बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? चलो, हम लोग यहां से किसी दूसरे देश में चलकर घूमें-फिरें, कारोबार करें, धन कमाएं। एक ही स्थान पर बैठे रहने से आदमी कभी बड़ा नहीं बन सकता।

धर्मबुद्धि ने उसकी बातें सुनीं, तो वास्तव में ही उसे महसूस हुआ कि यहां पर बैठे-बैठे जीवन बेकार हो रहा है। यदि इन्सान को धन कमाना है, कुछ सीखना है, तो उसे परदेस में जाना होगा। यही सोचकर उसने अपने माता-पिता से परदेश जाने की आज्ञा ली। इस प्रकार दोनों मित्र परदेश चले गए।

दोनों मित्र परदेश में जाकर दिन-रात काम करते रहे। जिससे उन्होंने काफी धन कमा लिया। इस धन कमाने में सारा ही धर्मबुद्धि का हाथ था।

उन्होंने सोचा कि चलो, अब घर वापस जाया जाए। यह सोचकर दोनों वापस चल पड़े।

जैसे ही वे लोग अपने शहर के बाहर पहुंचे तो पापबुद्धि ने कहा – अरे भाई! यह सारा धन घर ले जाना ठीक नहीं है। क्योंकि धन को देखते ही रिश्तेदार, मित्र आदि उधार मांगने लगते हैं। इसलिए हम थोड़ा-सा धन अपने साथ ले चलते हैं। बाकी का धन इस जंगल में गड्ढा खोदकर उसमें दबा देते हैं। जब हमें जरूरत पड़ेगी, आकर निकाल लेंगे। बड़ों ने कहा है–

बुद्धिमान महान है और होशियार भी। इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि थोड़ा-सा धन भी किसी दूसरे को न दिखाए। इससे उसके मन में पाप आ जाता है। जैसे मांस जल में मछलियों द्वारा, पृथ्वी पर कुत्तों द्वारा, आकाश में पक्षियों द्वारा खाया जाता है, वैसे धन वाला व्यक्ति भी इसे किसी-न-किसी प्रकार से खा ही जाता है।

धर्मबुद्धि के मन को पापबुद्धि की बात लग गयी। उसने कहा – हां यार, बात तो तुम ठीक ही कहते हो। चलो इस धन को यहीं पर दबा दें।

इस प्रकार इन दोनों मित्रों ने मिलकर जंगल में एक गड्ढा खोदा और उसमें धन दबाकर स्वयं अपने शहर आ गये। कुछ ही दिनों पश्चात् पापबुद्धि ने सोचा कि क्यों न यह सारा धन में ही मार लूं। धर्मबुद्धि से चोरी… बस फिर क्या था, पापबुद्धि इस शुभ काम में देरी कहां करता। उसने एक रात में उस जंगल में जा उस गड्ढे से सारा धन निकालकर उसे वैसे-का-वैसा ही बन्द कर दिया।

दूसरे दिन वह धर्मबुद्धि के पास गया और जाकर बोला – मेरे मित्र, आज हमें यह धन निकालकर बांट लेना चाहिए। क्योंकि मेरे घर वालों को धन की आवश्यकता है।

“भला मुझे क्या एतराज है भाई, चलो चलकर यह शुभ काम कर लेते हैं – धर्मबुद्धि हंसकर बोला।

इसके पश्चात् दोनों ही उस जंगल में गये और उस गड्ढे को खोदा। वहां क्या था? केवल खाली, धन तो पहले से ही गायब हो गया था।

किन्तु पापबुद्धि तो बड़ा ही होशियार था। उसने झट से कहा – देखो भाई धर्मबुद्धि, यह धन तुम ही निकालकर ले गये हो। तुम्हारे बिना इस धन का किसी को पता नहीं था।

धर्मबुद्धि बेचारा निर्दोष था। वह क्रोध से भरा हुआ बोला – नहीं, यह झूठ है। मैं चोर नहीं। मैंने तो जीवन में कभी झूठ नहीं बोला, कभी चोरी नहीं की।

इस प्रकार दोनों में झगड़ा बढ़ गया। बात न्याय के लिए किसी न्यायाधीश के पास जाने तक पहुंच गई। फैसले के लिए गवाह की जरूरत पड़ी, तो उस वृक्ष को गवाही के लिए चुना गया, जिसके नीचे धन दबाया गया था। जज ने यही निर्णय दिया कि सुबह होते ही हम सब उस वृक्ष के पास चलेंगे। वही यह बताएगा कि दोनों में से चोर कौन है।

पापबुद्धि के मन में तो चोर था ही। उसने घर आकर अपने पिता से सारी बात बताई। दोनों बाप बेटों ने मिलकर फैसला किया कि पिता उस वृक्ष के पास एक गड्ढे में छुपकर बैठ जाएगा जहां उससे पूछा जाएगा कि चोर कौन है, तब झट से बोल देगा, “धर्मबुद्धि”।

बस, सुबह उठते ही पंचायत के लोगों के साथ धर्मबुद्धि और पापबुद्धि दोनों ही चले। पापबुद्धि के पिता तो सबसे पहले वहां पहुंच चुके थे। जाते ही जज ने वृक्ष की ओर देखकर पूछा, “हे वन देवता, तुम ही बताओ कि इन दोनों में से चोर कौन है – पापबुद्धि अथवा धर्मबुद्धि?” वृक्ष ने तो क्या बोलना था, पापबुद्धि के पिता ने वृक्ष की जड़ वाले गड्ढे में बैठे-बैठे झट कह दिया–

“धर्मबुद्धि चोर है।”

धर्मबुद्धि भले ही चोर साबित हो चुका था, किन्तु किसी को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। स्वयं धर्मबुद्धि हैरान था कि आखिर यह कहानी क्या है? फिर उसकी तीव्र बुद्धि ने काम किया।

उसने वृक्ष के चारों ओर सूखी लकड़ियां इकट्ठी करके उनमें आग लगा दी।

जैसे ही आग लगी, पापबुद्धि का पिता आग में झुलसता हुआ उस गड्ढे में से बाहर निकला। वह आग में जल रहा था, दर्द के मारे चीखें मार रहा था।

पंचायत के लोग उसे इस हालत में देखकर हैरान रह गये। उनकी समझ में कुछ भी तो नहीं आ रहा था। अन्त में पापबुद्धि के पिता ने तड़पते हुए अपने बेटे की चोरी की सारी बात बता दी और स्वयं उसी समय मर गया।

जज ने पापबुद्धि को दण्ड के रूप में उस वृक्ष पर ही लटका दिया और कहा–

बुद्धिमान ही महान है। इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि उपाय सोचे, पर साथ ही बाधा को भी सोचे। क्योंकि मूर्ख वक के देखते-देखते नेवले ने सारे वक मार डाले।

“वह कैसे?”, धर्मबुद्धि ने पूछा।

लो सुनो– बाधा को पहले सोचो

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