पंचतंत्र की कहानी – न राजा बिना सेवक, न सेवक बिना राजा
“न राजा बिना सेवक, न सेवक बिना राजा” कथा पंचतंत्र की पिछली कहानी धोखेबाज मित्र से आगे शुरू होती है। इसमें दमनक पिंगलक सिंह को विश्वास-योग्य सेवकों या मित्रों की ज़रूरत को समझाता है।
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एक नगर के समीप किसी व्यापारी का नया मकान बन रहा था। वहां पर लकड़ी का काम करने वाले कारीगरों ने दो बड़े-बड़े तख्ते बनाए थे। उन दो तख्तों के बीच में लकड़ी को पकड़कर काटा जाता था। वहां से बंदरों का एक काफिला गुजर रहा था। उनमें से एक बन्दर–जो बहुत शरारती था–उन दो तख्तों के बीच में खड़ा हो मजे से झूलने लगा। उसे झूलने में बड़ा आनन्द आ रहा था। एक बार उसने पूरे जोर से छलांग लगाई।
बस!
दोनों लकड़ी के तख्ते पूरी ताकत से उठे और बंदर तो उन दोनों के बीच में ऐसा जकड़ गया कि निकलने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। बस उसके साथियों ने उसकी अंतिम चीख ही सुनी।
इस प्रकार वह बन्दर अपनी ही मूर्खता से मर गया। जो दूसरों के काम में अपनी टांग अड़ाता है, भाई उसका यही हाल होता है। इसलिए कहता हूं कि इस सिंह को भूल जाओ और अपनी चिंता करो। हम इस झंझट में क्यों फंसें?
दमनक उसको बात से चिढ़कर बोला–
तो क्या आप भोजन भट्टहां हैं, यह ठीक नहीं, मित्रों का भला और शत्रुओं को हानि करने के लिए ही बुद्धिमान जन राजा का सहारा लेते हैं। पेट कौन नहीं भर लेता? जिनके जीते रहने से अन्य बहुत से लोग भी जीवित रह सकें, उसी को जिंदा रहना चाहिए । अन्यथा क्या पक्षी भी चोंच से अपना पेट नहीं भर लेता? जो प्राणी न अपने पर, न पराए पर, न बंधुवर्ग पर, न दुःखी पर दया करता है, उसका इस दुनिया में जीना बेकार है।
माता की जवानी हरण करने वाले उस पुत्र के उत्पन्न होने का क्या लाभ, जो सदैव चोटी पर लहराने वाले झंडे के समान वंश में अग्रणी नहीं होता। न ही तट पर उपजे उस घास झुंड का भी जन्म सार्थक है, जिसको पकड़कर डूबता प्राणी किनारे नहीं आ लगता है। नीचे ऊपर संचरण करते हुए मनुष्य के संताप को दूर करने वाले व्यादलों में कुछ ही भले पुरुष होते हैं।
मनुष्य चाहे कितना ही ताकतवर हो, पर यदि उसकी ताकत प्रकट नहीं है तो लोग उसका अपमान करते हैं। क्योंकि लकड़ी के अन्दर व्याप्त आग को सब लोग लांघ जाते हैं, पर जब यह आग बाहर निकली हुई होती है उसके पास जाने की हिम्मत कोई नहीं करता।
करटक ने अपने भाई की बातों को बड़े धैर्य से सुना और फिर बोला, यह सब ठीक है किन्तु हम लोग सिंह की नगरी में अप्रधान अर्थात गौण हैं, फिर हमें इस बात से क्या प्रयोजन? देखो, कहा गया है–
राजा के सामने जो अप्रधान बिगड़े दिमाग वाला बिना पूछे बोलता है, उसकी न केवल अवहेलना ही होती है, साथ ही वह अपमानित भी होता है। इसलिए अपनी बात वहां कहनी चाहिए जहां कुछ फल हो। क्योंकि ऐसी जगह बात कहने का ऐसा प्रभाव होता है जैसे सफेद कपड़े पर रंग का।
दमनक ने करटक की बात सुनते ही कहा – नहीं भाई, ऐसा न कहो। क्योंकि अप्रधान भी यदि राजा की सेवा करे तो प्रधान बन जाता है। जो प्रधान राजा की सेवा न करे, वह अप्रधान बन जाता है। इस प्रकार कोई व्यक्ति चाहे अनपढ़ ही क्यों न हो, यदि वह राजा के निकट है तो उसी को राजा मानता है। जो नौकर राजा के क्रोध को सहन कर लेते हैं, वे नाराज राजा को भी खुश करने में सफल हो जाते हैं। विद्वानों, बुद्धिजीवियों, बहादुरों का सम्मान राजा के सिवा और कोई नहीं कर सकता। जो मनुष्य अपनी उच्च जाति आदि के अभिमान में डूबकर राजाओं के पास नहीं जाते, वे असफलता और निराशा के सिवा कुछ भी नहीं पाते। राजा का सहारा लेकर ही बुद्धिमान लोग उचित स्थान पाते हैं, इज्जत पाते हैं। फिर बुद्धिमान लोगों के लिए राजा को वश में करना कौन-सा कठिन है?
“भाई दमनक, आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?”
मैं तुमसे केवल यह कहना चाहता हूं कि आज हमारा मालिक और उसका परिवार डरा हुआ है। उसके पास जाकर भय का कारण जानना, फिर संधि, विरोध, लड़ाई, हमला करना, या चुप रहकर मौके की तलाश करना, किसी ताकतवर का सहारा लेना – राजनीति के ये दांव-पेंच हैं, मेरे भाई। इनमें से कोई भी दांव लगाया जा सकता है।
मगर भाई, तुमने यह कैसे जाना कि हमारा मालिक डरा हुआ है – करटक ने पूछा।
“मेरे भाई, कही हुई बात को तो पशु भी भांप लेते हैं। परन्तु जो बुद्धिमान हैं वे बिना कही बात को भी चेहरे से जान जाते हैं। जैसा कि मनु जी ने कहा है–
आकार, मुख की बनावट, इशारा, चाल-ढाल, बोल-चाल, आंख द्वारा मन के अन्दर की बात जानी जा सकती है। इसलिए मैंने यह सब जान लिया है। मैं निडर होकर सिंह के पास जाऊंगा और उसकी पूरी-पूरी सहायता करूंगा।
मगर भाई, आपको तो अभी राज-दरबार में जाना ही नहीं आता, तो आप सेवा कैसे करेंगे? – करटक बोला।
दमनक ने हंसकर उत्तर दिया–वाह! मैं क्या राजा की सेवा करना नहीं जानता। पिताजी की गोद में खेलते हुए मैंने घर में आने वाले साधू, संन्यासियों और विद्वानों से जो ज्ञान की बातें सुनीं थीं, वे सब-की-सब मैंने अपने दिल में बैठा ली थीं। उनका सार इस प्रकार है–
“इस सुन्दर पृथ्वी को ‘शूर’, ‘विद्वान’ और जो ‘सेवा’ धर्म जानते हैं, ये तीन प्रकार के मनुष्य ही ढूंढा करते हैं।
सेवा वही है जो स्वामी का हित करने वाली हो। इस प्रकार की सेवा समझ ही ली जाती है। इसलिए विद्वानों को चाहिए कि सेवा द्वारा ही राजा को खुश रखकर उसका सहारा लें, किसी दूसरे तरीके से नहीं।
पंडित को चाहिए कि अपने गुणों को न जानने वाले की सेवा न करे। जिस प्रकार बंजर धरती पर हल जोतने और फसल बोने का कोई लाभ नहीं, वैसे ही मंद बुद्धि वाले प्राणी से विद्या एवं गुण की बात करना बेकार है।
गरीब एवं छोटे वर्ग के लोग यदि गुणवान हों तो उनकी सेवा अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि जीवन में कभी-न-कभी ऐसा समय आ ही जाता है जब ऐसे लोग काम आ ही जाते हैं।
चाहे इंसान भूखा-प्यासा बैठा रहे लेकिन कभी भी विचारहीन धनवान से सहायता न मांगे। जिसका सहारा लेकर भूखा नौकर पेट न भर सके, उस राजा को त्याग दें।
राजमाता, राजकुमार, मुख्यमंत्री और राजपाल से भी राजा के समान बर्ताव करें।”
अपने कर्तव्य का पालन करने वाला सेवक सदा राजा को अच्छा लगता है।
अपने मालिक द्वारा दिए गए धन से जो दास खुश होता है और अपने मालिक का धन्यवाद करता है, वह नौकर सदा अपने मालिक की नजरों में अच्छा और गुणवान गिना जाता है।
जो वीर युद्ध के समय आगे-आगे, नगर में पीछे-पीछे और राजमहल के द्वार पर रहता है, वही राजा को अच्छा लगता है।
जो सेवक जुआ को अपराध, शराब को जहर और पराई औरत को बेकार समझता है, वह राजा का अत्यन्त प्रिय होता है।
जो प्राणी यह जानते हुए भी कि मैं राजा की नजरों में अच्छा हूं और राजा मेरी बात मानते हैं, फिर भी वह विधान और नियमों का उल्लंघन नहीं करता, वही बुद्धिमान होता है।
जो पुरुष मालिक की अनुचित बात का बुरा न माने और निडर होकर युद्ध में लड़ता है। परदेस को भी अपना देश मानता है, वह राजा को सदा अच्छा लगता है।
“वाह… वाह… भाई, बहुत खूब। ये बातें तो सब ठीक हैं। अब यह बताओ कि वहां जाकर पहले क्या पूछेंगे?”, करटक ने हंसते हुए पूछा।
“यह सब बातें बातों से ही निकलती हैं, जैसे अच्छी वर्षा होने पर एक बीज से दूसरा बीज पैदा होता है। किसी के मन में पाप होता है उसकी जबान मीठी होती है, किसी की जबान कड़वी होती है मन मीठा और किसी की बात भी अच्छी होती है और मन भी साफ, इसलिए मैं ऐसी कोई बात नहीं करूंगा जिससे कोई बुरा प्रभाव पड़े।”
करटक कुछ देर सोच में डूबा रहने के पश्चात् बोला, “भाई राजा लोग बड़ी कठिनाई से ही काबू आते हैं, क्योंकि वे सदा चापलूसी, खुशामदी और बड़े-बड़े लोगों से घिरे रहते हैं। जो उन्हें नीचे वाले लोगों से मिलने ही नहीं देते, उन तक पहुंचना भी कठिन हो जाता है।”
“हां, भैया ! मैं यह बात जानता हूं और साथ में यह भी जानता हूं कि मनुष्य अपनी तीव्र बुद्धि से ही इन सबको जीत सकता है, वह अपना रास्ता स्वयं बनाता है। बुद्धिमान व्यक्ति जब राजा तक पहुंच जाते हैं तो यह पापी, खुशामदी लोग राजा की नजरों से गिर जाते हैं।
यह राज वह बड़ी ही कठिनाई से प्राप्त होता है क्योंकि जरा-सी बुराई पर भी ब्राह्मण के क्रोध का शिकार होकर दंड का भागी बनता है।”
दमनक ने कहा यह ठीक है, किन्तु जिसकी जैसी करनी वैसी भरनी। बुद्धिमान पुरुष अपना स्थान स्वयं बनाते हैं, सेवक का अच्छा आचरण यही है कि वे अपने स्वामी की हर आज्ञा का पालन करें, मीठी बोली से तो पत्थर भी पिघल जाते हैं। राजा के क्रोधित होने पर प्यार से उसका मन जीतें, उसकी मनपसंद वस्तुओं से प्यार करे बिना तंत्र-मंत्र के ही बुद्धिमान लोग दूसरे का मन जीत सकते हैं।
करटक ने अपनी हार मानते हुए कहा, ठीक है। यदि भाई तुम्हारे यही विचार हैं तो तुम अवश्य यही करो, जो तुमने ने सोचा है ।
फिर दमनक हंसा और उस शेर की ओर चल दिया। शेर (सिंह) ने जैसे ही दमनक को अपनी ओर आते देखा तो अपने मंत्री से कहा, “देखो, वह हमारे पुराने मित्र का पुत्र आ रहा है। इसे आदर से हमारे पास लाओ।”
जैसे ही दमनक जंगल के राजा (शेर) के सामने गया तो उसने अपना सिर झुकाकर प्रणाम किया। जंगल का राजा अपने पुराने मंत्री के पुत्र को देखकर बहुत खुश हुआ और अपने पास बिठाकर प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछने लगा– “कहो मित्र, कैसे हो, बहुत दिनों के पश्चात् मिले हो।”
दमनक बड़े प्यार से बोला, “महाराज! भले ही आप हमें भूल गए हैं किन्तु हम आपको कैसे भूल सकते हैं, क्योंकि हम आपके पुराने वफादार साथी हैं। आज जब हमने आपको दुःख में घिरे उदास देखा तो हमसे नहीं रहा गया। ऐसी कठिनाई के समय तो इंसान को अपने पराये का पता चलता है। अपने कर्तव्य का पालन करना हमारा फर्ज है। महाराज, आप तो जानते ही हैं यदि कोई राजा अपने सेवकों के गुणों की कद्र नहीं करता तो सेवक उसका साथ नहीं देते। ऐसे ही जब कोई राजा अपने बुद्धिमान सेवक को नीचे फेंकता है तो उसके मन में नफरत पैदा हो जाती है, इसमें उस सेवक का कोई दोष नहीं होता। जैसे सोने के गहनों में जड़ा जाने वाला हीरा पीतल में जड़ दिया जाए तो वह हीरा न तो होता है, न शोभा देता है। किन्तु देखने वाले ही उसे जड़ने वाले से नफरत करते हैं।
आपने जो मुझसे पूछा कि बहुत दिनों बाद आये हो, इसका उत्तर तो यही है कि जहां पर दांयें-बायें में कोई अन्तर न समझ पाए, वहां पर बुद्धिमान रुके भी तो कैसे?
जिस देश में जौहरी न हों वहां पर सागर से निकले मोतियों की कीमत नहीं लग सकती। जिनकी बुद्धि कांच को मणि और मणि को कांच समझती है, उनके पास नौकर नाममात्र को भी नहीं ठहरता। जहां लाल मणि और वैद्य मणि में कोई भेद नहीं समझा जाता वहां रत्नों की दुकानदारी कैसे की जा सकती है?
जहां मालिक सब नौकरों से उनकी योग्यता और अयोग्यता आदि का विचार न करके एक-सा बरताव करता है, वहां पर बुद्धिमान सेवकों के दिल टूट जाते हैं। न बिना सेवकों के राजा और न राजा बिना सेवक रह सकते हैं। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
जो राजा प्रजा का मन न जीत सके, जनहित के काम न करे, उसे किरणों के बिना सूर्य ही कहा जा सकता है।
राजा खुश होकर अपने वफादार बहादुर नौकरों को इनाम ही देता है, वही नौकर समय आने पर राजा के लिए अपनी जान तक नौछावर कर देते हैं।
जो नौकर भूख, गर्मी, सर्दी आदि से नहीं घबराता वही वफादार हो सकता है।”
दमनक की ज्ञान-भरी बातें सुनकर पिंगलक बोला, “अच्छा, ऐसा ही हो! तुम कुछ करने योग्य हो अथवा नहीं, आखिर हमारे मंत्री के पुत्र हो। इसलिए जो कुछ भी कहना चाहते हो निडर होकर कहो।”
“मैं तो केवल निवेदन ही करना चाहता हूं, देव !”
“तो फिर संकोच क्यों? जो कहना है कहो।”, पिंगलक ने हँसकर कहा।
देखो मित्र, राजा का जो भी काम हो उसे सबके सामने नहीं गुप्त में कहना चाहिए। क्योंकि गुप्त बात छः कानों में जाने से किसी भी मुसीबत का कारण बन सकती है।
पिंगलक ने दमनक को बात को बड़े ध्यान से सुना और बात उसके दिल को लगी। फिर उसने अपनी आंख के इशारे से वहां पर बैठे सब जानवरों को जाने का इशारा किया।
सारे जानवर जैसे ही वहां से गए तो दमनक ने शेर की ओर देखकर कहा–
“हे जंगल के राजा, अब आप बताओ कि जब नदी किनारे पानी पीने गए थे तो वापस क्यों आ गए?”
शेर ने हंसकर कहा, “वैसे ही।”
देखिए महाराज, इस बात को छुपाओ मत, यदि यह कहने योग्य नहीं है तो रहने दो, वैसे इस विषय में कहा गया है–
औरत से, मित्रों से, युवा मित्रों से गुप्त विचार कुछ न कुछ छुपा लेना चाहिए, परन्तु यह उचित है अथवा नहीं, ऐसा सोच कर बुद्धिमान को चाहिए कि बड़ों के अनुरोध पर गुप्त से गुप्त बात भी समय आने पर कह डालें।
दमनक की बात सुनकर शेर सोच में पड़ गया, क्योंकि उसकी बात में वजन था। फिर वह सच्चा मित्र लग रहा था। मित्रों के बारे में कहा गया है – सच्चे मित्र, वफादार नौकर, बुद्धिमान स्त्री, दयालु कोमल हृदय मालिक के आगे अपना रोना रोकर आदमी अपने दिल का बोझ हल्का कर लेता है। इसलिए शेर ने अपने मन की बात होंठों पर लाते हुए कहा – “भद्र, मैं इस जंगल से जाना चाहता हूं।”
“क्यों, जंगल का राजा होकर आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं?”
मेरे पुराने मित्र, मैं आपसे क्या छुपाऊं। वास्तव में इस जंगल में अद्भुत जन्तु आ गया है, जिसकी गर्ज ही इतनी भयंकर है कि डर के मारे कलेजा हिल आता है। सोचो, उसकी शक्ति कितनी होगी।
दमनक ने हँसकर शेर की ओर देखा, फिर बड़े अन्दाज़ से कहने लगा–
महाराज, आप उसकी गर्ज से ही डर गए, यह बात ठीक नहीं है। कहा गया है, जल से बांध टूट जाता है, चौकस न रहने से गुप्त विचार प्रकट हो जाता है, चुगली करने से प्रेम टूट जाता है और दुःखी जन कठोर वचनों से अलग हो जाते हैं। अपने पूर्वजों द्वारा उपार्जित इस वन को छोड़ना आपके लिए ठीक नहीं। यह बात याद रखने योग्य है कि अत्यन्त उग्र और भयंकर शत्रु से मुठभेड़ होने पर भी जिसका धीरज नहीं छूटता, वह राजा कभी भी हार का मुंह नहीं देखता। गर्मी के दिनों में तालाब तो सूख जाते हैं किन्तु सागर कभी नहीं सूखता।
जो मुसीबतों से नहीं डरता, सुख में खुश नहीं होता, युद्ध में डरता नहीं, ऐसा वीरपुत्र तो कोई-कोई मां ही पैदा कर सकती है।
ताकत न होने से नम्र, निस्सारता होने से लघु एवं मान-रहित पुरुष का जन्म लेना जैसे तिनका, जैसे सुन्दर होते हुए भी लाख का गहना बेकार होता है, यह सब समझकर आपको को धैर्य रखना चाहिए। इस प्रकार डरकर भागने से तो आपकी बदनामी होगी। पहले मैं भी समझा था कि वहां पर कोई भयंकर जानवर है, पर जब देखा तो धोखा था–
“वह कैसे?”, शेर ने हैरान होकर पूछा।
शेर के प्रश्न के उत्तर में दमनक ने कहानी सुनाई – बुजदिल मत बनो।
पढ़ें यह कहानी और जानें भयंकर गरजन करने वाले जानवर का रहस्य।