प्रमद्वरा को सर्पदंश – महाभारत का आठवाँ अध्याय (पौलोमपर्व)
“प्रमद्वरा को सर्पदंश” नामक यह कथा महाभारत का अष्टम अध्याय है। यह कथा आदिपर्व के अन्तर्गत पौलोम पर्व में आती है। इसमें पिछली कथा “अग्नि के शाप का मोचन” के आगे का घटनाक्रम वर्णित है। इस अध्याय में कुल २७ श्लोक हैं। कथानक के अनुसार प्रमति के पुत्र रुरु मेनका अप्सरा की पुत्री प्रमद्वरा से प्रेम करने लगते हैं।
उन दोनों का विवाह भी तय हो जाता है, लेकिन वन में विचरण करते समय प्रमद्वरा को एक साँप काट लेता है। इस सर्पदंश से वह चेतना-शून्य होकर गिर पड़ती है। उसकी मृत्यु हो जाती है। उसके सभी सगे-संबंधियों को प्रमद्वरा को सर्पदंश की बात जब पता चलती है, तो वे रोते-बिलखते उसके समीप जा बैठते हैं। महाभारत के शेष अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – हिंदी में महाभारत।
सौतिरुवाच
स चापि च्यवनो ब्रह्मन् भार्गवोऽजनयत् सुतम्।
सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम् ॥ १ ॥
प्रमतिस्तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत्।
रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत् ॥ २ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—ब्रह्मन्! महर्षि भृगु के पुत्र च्यवन ने अपनी पत्नी सुकन्या के गर्भ से एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था। महात्मा प्रमति बड़े तेजस्वी थे। फिर प्रमति ने घृताची अप्सरा से रुरु नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रुरु के द्वारा प्रमद्वरा के गर्भ से शुनक का जन्म हुआ ॥ १-२ ॥
(शौनकस्तु महाभाग शुनकस्य सुतो भवान्।
शुनकस्तु महासत्त्वः सर्वभार्गवनन्दनः।
जातस्तपसि तीव्रे च स्थितः स्थिरयशास्ततः ॥ ३ ॥
महाभाग शौनकजी! आप शुनक के ही पुत्र होने के कारण ‘शौनक’ कहलाते हैं। शुनक महान् सत्त्व गुण से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भृगुवंश का आनन्द बढ़ाने वाले थे। वे जन्म लेते ही तीव्र तपस्या में संलग्न हो गये। इससे उनका अविचल यश सब ओर फैल गया ॥ ३ ॥
तस्य ब्रह्मन् रुरोः सर्वं चरितं भूरितेजसः।
विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छृणु त्वमशेषतः ॥ ४ ॥
ब्रह्मन्! मैं महातेजस्वी रुरु के सम्पूर्ण चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। वह सब-का-सब आप सुनिये ॥ ४ ॥
ऋषिरासीन्महान् पूर्वं तपोविद्यासमन्वितः।
स्थूलकेश इति ख्यातः सर्वभूतहिते रतः ॥ ५ ॥
पूर्वकाल में स्थूलकेश नाम से विख्यात एक तप और विद्या से सम्पन्न महर्षि थे; जो समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे ॥ ५ ॥
एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान्।
गन्धर्वराजो विप्रर्षे विश्वावसुरिति स्मृतः ॥ ६ ॥
विप्रर्षे! इन्हीं महर्षि के समय की बात है—गन्धर्वराज विश्वावसु ने मेनका के गर्भ से एक संतान उत्पन्न की ॥ ६ ॥
अप्सरा मेनका तस्य तं गर्भं भृगुनन्दन।
उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति ॥ ७ ॥
भृगुनन्दन! मेनका अप्सरा ने गन्धर्वराज द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भ को समय पूरा होने पर स्थूलकेश मुनि के आश्रम के निकट जन्म दिया ॥ ७ ॥
उत्सृज्य चैव तं गर्भं नद्यास्तीरे जगाम सा।
अप्सरा मेनका ब्रह्मन् निर्दया निरपत्रपा ॥ ८ ॥
ब्रह्मन्! निर्दय और निर्लज्ज मेनका अप्सरा उस नवजात गर्भ को वहीं नदी के तट पर छोड़कर चली गयी ॥ ८ ॥
कन्याममरगर्भाभां ज्वलन्तीमिव च श्रिया।
तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषिः ॥ ९ ॥
स्थूलकेशः स तेजस्वी विजने बन्धुवर्जिताम्।
स तां दृष्ट्वा तदा कन्यां स्थूलकेशो महाद्विजः ॥ १० ॥
जग्राह च मुनिश्रेष्ठः कृपाविष्टः पुपोष च।
ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभे ॥ ११ ॥
तदनन्तर तेजस्वी महर्षि स्थूलकेश ने एकान्त स्थान में त्यागी हुई उस बन्धुहीन कन्या को देखा, जो देवताओं की बालिका के समान दिव्य शोभा से प्रकाशित हो रही थी। उस समय उस कन्या को वैसी दशा में देखकर द्विजश्रेष्ठ मुनिवर स्थूलकेश के मनमें बड़ी दया आयी; अतः वे उसे उठा लाये और उसका पालन-पोषण करने लगे। वह सुन्दरी कन्या उनके शुभ आश्रम पर दिनोदिन बढ़ने लगी ॥ ९—११ ॥
जातकाद्याः क्रियाश्चास्या विधिपूर्वं यथाक्रमम्।
स्थूलकेशो महाभागश्चकार सुमहानृषिः ॥ १२ ॥
महाभाग महर्षि स्थूलकेश ने क्रमशः उस बालिका के जात-कर्मादि सब संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये ॥ १२ ॥
प्रमदाभ्यो वरा सा तु सत्त्वरूपगुणान्विता।
ततः प्रमद्वरेत्यस्या नाम चक्रे महानृषिः ॥ १३ ॥
वह बुद्धि, रूप और सब उत्तम गुणों से सुशोभित हो संसार की समस्त प्रमदाओं (सुन्दरी स्त्रियों) से श्रेष्ठ जान पड़ती थी; इसलिये महर्षि ने उसका नाम ‘प्रमद्वरा’ रख दिया ॥ १३ ॥
तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्ट्वा प्रमद्वराम्।
बभूव किल धर्मात्मा मदनोपहतस्तदा ॥ १४ ॥
एक दिन धर्मात्मा रुरु ने महर्षि के आश्रम में उस प्रमद्वरा को देखा। उसे देखते ही उनका हृदय तत्काल कामदेव के वशीभूत हो गया ॥ १४ ॥
पितरं सखिभिः सोऽथ श्रावयामास भार्गवम्।
प्रमतिश्चाभ्ययाचत् तां स्थूलकेशं यशस्विनम् ॥ १५ ॥
तब उन्होंने मित्रों द्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमति को अपनी अवस्था कहलायी। तदनन्तर प्रमति ने यशस्वी स्थूलकेश मुनि से (अपने पुत्रके लिये) उनकी वह कन्या माँगी ॥ १५ ॥
ततः प्रादात् पिता कन्यां रुरवे तां प्रमद्वराम्।
विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते ॥ १६ ॥
तब पिता ने अपनी कन्या प्रमद्वरा का रुरु के लिये वाग्दान कर दिया और आगामी उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में विवाह का मुहूर्त निश्चित किया ॥ १६ ॥
ततः कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते।
सखीभिः क्रीडती सार्धं सा कन्या वरवर्णिनी ॥ १७ ॥
तदनन्तर जब विवाह का मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई वन में घूमने लगी ॥ १७ ॥
नापश्यत् सम्प्रसुप्तं वै भुजङ्गं तिर्यगायतम्।
पदा चैनं समाक्रामन्मुमूर्षुः कालचोदिता ॥ १८ ॥
मार्ग में एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था। प्रमद्वरा ने उसे नहीं देखा। वह काल से प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्प को पैर से कुचलती हुई आगे निकल गयी ॥ १८ ॥
स तस्याः सम्प्रमत्तायाश्चोदितः कालधर्मणा।
विषोपलिप्तान् दशनान् भृशमङ्गे न्यपातयत् ॥ १९ ॥
उस समय कालधर्म से प्रेरित हुए उस सर्प ने उस असावधान कन्या के अंग में बड़े जोर से अपने विष भरे दाँत गड़ा दिये ॥ १९ ॥
सा दष्टा तेन सर्पेण पपात सहसा भुवि।
विवर्णा विगतश्रीका भ्रष्टाभरणचेतना ॥ २० ॥
निरानन्दकरी तेषां बन्धूनां मुक्तमूर्धजा।
व्यसुरप्रेक्षणीया सा प्रेक्षणीयतमाभवत् ॥ २१ ॥
उस सर्प के डँस लेने पर वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसके शरीर का रंग उड़ गया, शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी। उसके बाल खुले हुए थे। अब वह अपने उन बन्धुजनों के हृदय में विषाद उत्पन्न कर रही थी। जो कुछ ही क्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एवं दर्शनीय थी, वही प्राणशून्य होने के कारण अब देखने योग्य नहीं रह गयी ॥ २०-२१ ॥
प्रसुप्ते वाभवच्चापि भुवि सर्पविषार्दिता।
भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा ॥ २२ ॥
वह सर्प के विष से पीड़ित होकर गाढ़ निद्रा में सोयी हुई की भाँति भूमि पर पड़ी थी। उसके शरीर का मध्यभाग अत्यन्त कृश था। वह उस अचेतनावस्थामें भी अत्यन्त मनोहारिणी जान पड़ती थी ॥ २२ ॥
ददर्श तां पिता चैव ये चैवान्ये तपस्विनः।
विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम् ॥ २३ ॥
उसके पिता स्थूलकेश ने तथा अन्य तपस्वी महात्माओं ने भी आकर उसे देखा। वह कमल की-सी कान्ति वाली किशोरी धरती पर चेष्टा-रहित पड़ी थी ॥ २३ ॥
ततः सर्वे द्विजवराः समाजग्मुः कृपान्विताः।
स्वस्त्यात्रेयो महाजानुः कुशिकः शङ्खमेखलः ॥ २४ ॥
उद्दालकः कठश्चैव श्वेतश्चैव महायशाः।
भरद्वाजः कौणकुत्स्य आर्ष्टिषेणोऽथ गौतमः ॥ २५ ॥
प्रमतिः सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिनः।
तदनन्तर स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शंखमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी श्वेत, भरद्वाज, कौणकुत्स्य, आर्ष्टिषेण, गौतम, अपने पुत्र रुरु सहित प्रमति तथा अन्य सभी वनवासी श्रेष्ठ द्विज दया से द्रवित होकर वहाँ आये ॥ २४-२५ ॥
तां ते कन्यां व्यसुं दृष्ट्वा भुजङ्गस्य विषार्दिताम् ॥ २६ ॥
रुरुदुः कृपयाविष्टा रुरुस्त्वार्तो बहिर्ययौ।
ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठास्तत्रैवोपाविशंस्तदा ॥ २७ ॥
वे सब लोग उस कन्या को सर्प के विष से पीड़ित हो प्राणशून्य हुई देख करुणावश रोने लगे। रुरु तो अत्यन्त आर्त होकर वहाँ से बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय वहीं बैठे रहे ॥ २६-२७ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वरासर्पदंशेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत पौलोमपर्व में प्रमद्वरा को सर्पदंश से सम्बन्ध रखने वाला आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठ का श्लोक मिलाकर कुल २७ श्लोक हैं)