पुलोमा और अग्नि का संवाद – महाभारत का पाँचवाँ अध्याय (पौलोमपर्व)
पुलोमा और अग्नि का संवाद महाभारत की आरंभिक कहानी है। यह कथा बड़ी ही रोचक है। यह आदि पर्व के अन्तर्गत पौलोम पर्व का दूसरा अध्याय है। इसमें महर्षि भृगु के आश्रम में आया पुलोमा नामक राक्षस भृगु की पत्नी पर मोहित हो जाता है। संयोग से राक्षस और भृग-पत्नी दोनों का नाम ही पुलोमा है।
पुलोमा राक्षस का दावा है कि महर्षि भृगु से पूर्व ही पुलोमा को उसने वरण किया था, अतः वह उसकी है। इसी विषय को लेकर पुलोमा और अग्नि का संवाद आरम्भ होता है। पढ़ें भृगु के आश्रम में पुलोमा और अग्नि का संवाद। महाभारत की अन्य कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत।
शौनक उवाच
पुराणमखिलं तात पिता तेऽधीतवान् पुरा।
कच्चित् त्वमपि तत् सर्वमधीषे लौमहर्षणे ॥ १ ॥
शौनक जी ने कहा—तात लोमहर्षणकुमार! पूर्व काल में आपके पिता ने सब पुराणों का अध्ययन किया था। क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है? ॥ १ ॥
पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम्।
कथ्यन्ते ये पुरास्माभिः श्रुतपूर्वाः पितुस्तव ॥ २ ॥
पुराण में दिव्य कथाएँ वर्णित हैं। परम बुद्धिमान् राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों के आदिवंश भी बताये गये हैं। जिनको पहले हमने आपके पिता के मुख से सुना है ॥ २ ॥
तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम्।
कथयस्व कथामेतां कल्याः स्म श्रवणे तव ॥ ३ ॥
उनमें से प्रथम तो मैं भृगु वंश का ही वर्णन सुनना चाहता हूँ। अतः आप इसी से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहिये। हम सब लोग आपकी कथा सुनने के लिये सर्वथा उद्यत हैं ॥ ३ ॥
सौतिरुवाच
यदधीतं पुरा सम्यग् द्विजश्रेष्ठैर्महात्मभिः।
वैशम्पायनविप्राग्र्यैस्तैश्चापि कथितं यथा ॥ ४ ॥
सूतपुत्र उग्रश्रवाने कहा—भृगुनन्दन! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्मा द्विजवरों ने पूर्वकाल में जो पुराण भलीभाँति पढ़ा था और उन विद्वानों ने जिस प्रकार पुराण का वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है ॥ ४ ॥
यदधीतं च पित्रा मे सम्यक् चैव ततो मया।
तावच्छृणुष्व यो देवैः सेन्द्रैः सर्षिमरुद्गणैः ॥ ५ ॥|
पूजितः प्रवरो वंशो भार्गवो भृगुनन्दन।
इमं वंशमहं पूर्वं भार्गवं ते महामुने ॥ ६ ॥
निगदामि यथा युक्तं पुराणाश्रयसंयुतम्।
भृगुर्महर्षिर्भगवान् ब्रह्मणा वै स्वयम्भुवा ॥ ७ ॥
वरुणस्य क्रतौ जातः पावकादिति नः श्रुतम्।
भृगोः सुदयितः पुत्रश्च्यवनो नाम भार्गवः ॥ ८ ॥
मेरे पिता ने जिस पुराण विद्या का भलीभाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हीं के मुख से पढ़ी और सुनी है। भृगुनन्दन! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भृगु वंश का वर्णन सुनिये, जो देवता, इन्द्र, ऋषि और मरुद्गणों से पूजित है। महामुने! आपके इस अत्यन्त दिव्य भार्गव वंश का परिचय देता हूँ। यह परिचय अद्भुत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणों के आश्रय से भी संयुक्त होगा। हमने सुना है कि स्वयम्भू ब्रह्मा जी ने वरुण के यज्ञ में महर्षि भगवान् भृगु को अग्नि से उत्पन्न किया था। भृगु के अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गव भी कहते हैं ॥ ५—८ ॥
च्यवनस्य च दायादः प्रमतिर्नाम धार्मिकः।
प्रमतेरप्यभूत् पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत ॥ ९ ॥
च्यवन के पुत्र का नाम प्रमति था, जो बड़े धर्मात्मा हुए। प्रमति के घृताची नामक अप्सरा के गर्भ से रुरु नामक पुत्रका जन्म हुआ ॥ ९ ॥
रुरोरपि सुतो जज्ञे शुनको वेदपारगः।
प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामहः ॥ १० ॥
रुरु के पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रमद्वरा के गर्भ से हुआ था। शुनक वेदों के पारंगत विद्वान और धर्मात्मा थे। वे आपके पूर्व पितामह थे ॥ १० ॥
तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान् ब्रह्मवित्तमः।
धार्मिकः सत्यवादी च नियतो नियताशनः ॥ ११ ॥
वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। धर्मात्मा, सत्यवादी और मन-इन्द्रियों को वशमें रखनेवाले थे। उनका आहार-विहार नियमित एवं परिमित था ॥ ११ ॥
शौनक उवाच
सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मनः।
च्यवनत्वं परिख्यातं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ १२ ॥
शौनक जी बोले—सूतपुत्र! मैं पूछता हूँ कि महात्मा भार्गव का नाम च्यवन कैसे प्रसिद्ध हुआ? यह मुझे बताइये ॥ १२ ॥
सौतिरुवाच
भृगोः सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता।
तस्यां समभवद् गर्भो भृगुवीर्यसमुद्भवः ॥ १३ ॥
उग्रश्रवा जी ने कहा—महामुने! भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था। वह अपने पति को बहुत ही प्यारी थी। उसके उदरमें भृगु जी के वीर्य से उत्पन्न गर्भ पल रहा था ॥ १३ ॥
तस्मिन् गर्भेऽथ सम्भूते पुलोमायां भृगूद्वह।
समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विनः ॥ १४ ॥
अभिषेकाय निष्क्रान्ते भृगौ धर्मभृतां वरे।
आश्रमं तस्य रक्षोऽथ पुलोमाभ्याजगाम ह ॥ १५ ॥
भृगु-वंश-शिरोमणे! पुलोमा यशस्वी भृगु की अनुकूल शील-स्वभाव वाली धर्मपत्नी थी। उसकी कुक्षि में उस गर्भ के प्रकट होने पर एक समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगु जी स्नान करने के लिये आश्रम से बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उनके आश्रम पर आया ॥ १४-१५ ॥
तं प्रविश्याश्रमं दृष्ट्वा भृगोर्भार्यामनिन्दिताम्।
हृच्छयेन समाविष्टो विचेताः समपद्यत ॥ १६ ॥
आश्रम में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृगु की पतिव्रता पत्नी पर पड़ी और वह कामदेव के वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा ॥ १६ ॥
अभ्यागतं तु तद्रक्षः पुलोमा चारुदर्शना।
न्यमन्त्रयत वन्येन फलमूलादिना तदा ॥ १७ ॥
सुन्दरी पुलोमा ने उस राक्षस को अभ्यागत अतिथि मानकर वन के फल-मूल आदि से उसका सत्कार करने के लिये उसे न्योता दिया ॥ १७ ॥
तां तु रक्षस्तदा ब्रह्मन् हृच्छयेनाभिपीडितम्।
दृष्ट्वा हृष्टमभूद् राजन् जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् ॥ १८ ॥
ब्रह्मन्! वह राक्षस काम से पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमा को अकेली देख बड़े हर्ष का अनुभव किया, क्योंकि वह सती-साध्वी पुलोमा को हर ले जाना चाहता था ॥ १८ ॥
जातमित्यब्रवीत् कार्यं जिहीर्षुर्मुदितः शुभाम्।
सा हि पूर्वं वृता तेन पुलोम्ना तु शुचिस्मिता ॥ १९ ॥
मन में उस शुभलक्षणा सती के अपहरण की इच्छा रखकर वह प्रसन्नता से फूल उठा और मन-ही-मन बोला, ‘मेरा तो काम बन गया।’ पवित्र मुसकान वाली पुलोमा को पहले उस पुलोमा नामक राक्षस ने वरण1 किया था ॥ १९ ॥
तां तु प्रादात् पिता पश्चाद् भृगवे शास्त्रवत्तदा।
तस्य तत् किल्बिषं नित्यं हृदि वर्तति भार्गव ॥ २०॥
किंतु पीछे उसके पिता ने शास्त्रविधि के अनुसार महर्षि भृगु के साथ उसका विवाह कर दिया। भृगुनन्दन! उसके पिता का वह अपराध राक्षस के हृदय में सदा काँटे-सा कसकता रहता था ॥ २० ॥
इदमन्तरमित्येवं हर्तुं चक्रे मनस्तदा।
अथाग्निशरणेऽपश्यज्ज्वलन्तं जातवेदसम् ॥ २१ ॥
यही अच्छा मौका है, ऐसा विचार कर उसने उस समय पुलोमा को हर ले जाने का पक्का निश्चय कर लिया। इतने ही में राक्षसने देखा, अग्निहोत्र-गृह में अग्नि देव प्रज्वलित हो रहे हैं ॥ २१ ॥
तमपृच्छत् ततो रक्षः पावकं ज्वलितं तदा।
शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृच्छे ऋतेन वै ॥ २२ ॥
तब पुलोमा ने उस समय उस प्रज्वलित पावक से पूछा—‘अग्निदेव! मैं सत्य की शपथ देकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है?’ ॥ २२ ॥
मुखं त्वमसि देवानां वद पावक पृच्छते।
मया हीयं वृता पूर्वं भार्यार्थे वरवर्णिनी ॥ २३ ॥
‘पावक! तुम देवताओं के मुख हो। अतः मेरे पूछनेपर ठीक-ठीक बताओ। पहले तो मैंने ही इस सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने के लिये वरण किया था ॥ २३ ॥
पश्चादिमां पिता प्रादाद् भृगवेऽनृतकारकः।
सेयं यदि वरारोहा भृगोर्भार्या रहोगता ॥ २४ ॥
तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम्।
स मन्युस्तत्र हृदयं प्रदहन्निव तिष्ठति।
मत्पूर्वभार्यां यदिमां भृगुराप सुमध्यमाम् ॥ २५ ॥
‘किंतु बाद में असत्य व्यवहार करने वाले इसके पिता ने भृगु के साथ इसका विवाह कर दिया। यदि यह एकान्त में मिली हुई सुन्दरी भृगु की भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; क्योंकि मैं इसे इस आश्रम से हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदय को दग्ध-सा कर रहा है; इस सुमध्यमा को, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगु ने अन्यायपूर्वक हड़प लिया है’ ॥ २४-२५ ॥
सौतिरुवाच
एवं रक्षस्तमामन्त्र्य ज्वलितं जातवेदसम्।
शङ्कमानं भृगोर्भार्यां पुनः पुनरपृच्छत ॥ २६ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—इस प्रकार वह राक्षस भृगु की पत्नी के प्रति, यह मेरी है या भृगु की—ऐसा संशय रखते हुए, प्रज्वलित अग्नि को सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा— ॥ २६ ॥
त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तश्चरसि नित्यदा।
साक्षिवत् पुण्यपापेषु सत्यं ब्रूहि कवे वचः ॥ २७ ॥
‘अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियों के भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने! तुम पुण्य और पाप के विषय में साक्षी की भाँति स्थित रहते हो; अतः सच्ची बात बताओ ॥ २७ ॥
मत्पूर्वापहृता भार्या भृगुणानृतकारिणा।
सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमर्हसि ॥ २८ ॥
‘असत्य बर्ताव करने वाले भृगु ने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्या का अपहरण किया है। यदि यह वही है, तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो ॥ २८ ॥
श्रुत्वा त्वत्तो भृगोर्भार्यां हरिष्याम्याश्रमादिमाम्।
जातवेदः पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम ॥ २९ ॥
‘सर्वज्ञ अग्नि देव! तुम्हारे मुख से सब बातें सुनकर मैं भृगु की इस भार्या को तुम्हारे देखते-देखते इस आश्रम से हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो’ ॥ २९ ॥
सौतिरुवाच
तस्यैतद् वचनं श्रुत्वा सप्तार्चिर्दुःखितोऽभवत्।
भीतोऽनृताच्च शापाच्च भृगोरित्यब्रवीच्छनैः ॥ ३० ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—राक्षस की यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिह्वाओं वाले अग्निदेव बहुत दुःखी हुए। एक ओर वे झूठ से डरते थे तो दूसरी ओर भृगु के शाप से। पुलोमा और अग्नि का संवाद प्रारम्भ हुआ और अग्निदेव धीरे से इस प्रकार बोले ॥ ३० ॥
अग्निनरुवाच
त्वया वृता पुलोमेयं पूर्वं दानवनन्दन।
किन्त्वियं विधिना पूर्वं मन्त्रवन्न वृता त्वया ॥ ३१ ॥
अग्निदेव बोले—दानवनन्दन! इसमें संदेह नहीं कि पहले तुम्हीं ने इस पुलोमा का वरण किया था, किंतु विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए इसके साथ तुमने विवाह नहीं किया था ॥ ३१ ॥
पित्रा तु भृगवे दत्ता पुलोमेयं यशस्विनी।
ददाति न पिता तुभ्यं वरलोभान्महायशाः ॥ ३२ ॥
पिता ने तो यह यशस्विनी पुलोमा भृगु को ही दी है। तुम्हारे वरण करने पर भी इसके महायशस्वी पिता तुम्हारे हाथ में इसे इसलिये नहीं देते थे कि उनके मन में तुमसे श्रेष्ठ वर मिल जानेका लोभ था ॥ ३२ ॥
अथेमां वेददृष्टेन कर्मणा विधिपूर्वकम्।
भार्यामृषिर्भृगुः प्राप मां पुरस्कृत्य दानव ॥ ३३ ॥
दानव! तदनन्तर महर्षि भृगु ने मुझे साक्षी बनाकर वेदोक्त क्रियाद्वारा विधिपूर्वक इसका पाणिग्रहण किया था ॥ ३३ ॥
सेयमित्यवगच्छामि नानृतं वक्तुमुत्सहे।
नानृतं हि सदा लोके पूज्यते दानवोत्तम ॥ ३४ ॥
यह वही है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषय में मैं झूठ नहीं बोल सकता। दानवश्रेष्ठ! लोक में असत्य की कभी पूजा नहीं होती है ॥ ३४ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि पुलोमाग्निसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत पौलोम पर्व में पुलोमा और अग्नि का संवाद विषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥
- बाल्यावस्था में पुलोमा रो रही थी। उसके रोदन की निवृत्ति के लिये पिता ने डराते हुए कहा—‘रे राक्षस! तू इसे पकड़ ले।’ घर में पुलोमा राक्षस पहले से ही छिपा हुआ था। उसने मन-ही-मन वरण कर लिया—‘यह मेरी पत्नी है।’ बात केवल इतनी ही थी। इसका अभिप्राय यह है कि हँसी-खेल में भी या डाँटने-डपटने के लिये भी बालकों से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये और राक्षस का नाम भी नहीं रखना चाहिये।