रुरु और सर्प-यज्ञ की कथा – महाभारत का बारहवाँ अध्याय (पौलोमपर्व)
“रुरु और सर्प-यज्ञ की कथा” महाभारत के अन्तर्गत आदिपर्व के पौलोमपर्व में आती है। यह पौलोम पर्व का अन्तिम अध्याय है, जिसमें मात्र ६ श्लोक हैं। पिछले अध्याय “डुण्डुभ की आत्मकथा और उपदेश” में डुण्डुभ रूपी मुनी अपनी कहानी सुनाकर रुरु को अहिंसा पालन का उपदेश देते हैं। उसी चर्चा में जनमेजय के सर्पसत्र की बात भी आती है। इस अध्याय में रुरु सर्पयज्ञ की कथा सुनने की इच्छा प्रकट करता है, जिसकी पूर्ति उसके पिता द्वारा होती है। पढ़ें रुरु और सर्प-यज्ञ की कथा। शेष महाभारत पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – हिंदी में संपूर्ण महाभारत।
रुरुरुवाच
कथं हिंसितवान् सर्पान् स राजा जनमेजयः ।
सर्पा वा हिंसितास्तत्र किमर्थं द्विजसत्तम ॥ १ ॥
रुरुने पूछा—द्विजश्रेष्ठ! राजा जनमेजय ने सर्पों की हिंसा कैसे की? अथवा उन्होंने किसलिये यज्ञ में सर्पों की हिंसा करवायी? ॥ १ ॥
किमर्थं मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन धीमता ।
आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः ॥ २ ॥
विप्रवर! परम बुद्धिमान् महात्मा आस्तीक ने किसलिये सर्पों को उस यज्ञ से बचाया था? यह सब मैं पूर्ण रूप से सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥
ऋषिरुवाच
श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत् ।
ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ ३ ॥
ऋषि ने कहा—‘रुरो! तुम कथावाचक ब्राह्मणों के मुख से आस्तीक का महान् चरित्र सुनोगे।’ ऐसा कहकर सहस्रपाद मुनि अन्तर्धान हो गये ॥ ३ ॥
सौतिरुवाच
स मोहं परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत् ।
तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयानः पुनः पुनः ॥ ५ ॥
लब्धसंज्ञो रुरुश्चायात् तदाचख्यौ पितुस्तदा ।
पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत् ॥ ६ ॥
गिरने पर उसे बड़ी भारी मूर्च्छा ने दबा लिया। उसकी चेतना नष्ट-सी हो गयी। महर्षि के यथार्थ वचन का बार-बार चिन्तन करते हुए होश में आने पर रुरु घर लौट आया। उस समय उसने पिता से वे सब बातें कह सुनायीं और पिता से भी आस्तीक का उपाख्यान पूछा। रुरु के पूछने पर पिता ने सब कुछ बता दिया ॥ ५-६ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें सर्पसत्रप्रस्तावनाविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२