साथी हो तुम चिर पहचाने
“साथी हो तुम चिर पहचाने” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया ‘नवल’ द्वारा हिंदी खड़ी बोली में रचित कविता है। इसमें पढ़कर किसी बाहरी मित्र का आभास होता है, किंतु अर्थ चिर-मित्र अन्तस् की ज्योति से है। पढ़ें और आनंद लें इस कविता का–
साथी तुम हो चिर पहचाने।
दुःखों की काली रजनी में
दिव्य किरण बनकर आये
तुम जीवन के मरु प्रदेश में
श्याम घटा बनकर छाये।
मेरे कम्पित स्वर में तुमने
गाये सुन्दर गाने।
तुम मेरे होठों पर हँसते
बन गुलाब की लाली
तुम मेरी आँखों में बसते
बन मदिरा की प्याली
मेरे प्राणों में मिलकर तुम
आये जी भरमाने।
कौन करेगा चाँद-चाँदनी
को पल भर को न्यारा?
कौन सकेगा रोक जलधि-
से मिले न जल की धारा?
तुम मेरे उलझे जीवन को,
आये थे सुलझाने।
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।