सूरज चमका (राष्ट्र पर्व 15 अगस्त 1963)
“सूरज चमका” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया ‘नवल’ द्वारा हिंदी खड़ी बोली में रचित कविता है। यह कविता 15 अगस्त सन् 1963 को लिखी गयी थी। इसमें चीन युद्ध में मिली हार की चर्चा और फलस्वरूप जागने का आवाहन है। पढ़ें यह कविता–
पराधीनता के कोहरे को कर विदीर्ण सूरज चमका।
भारत माता के मस्तक पर कुंकुम का टीका दमका।
सोचा था दुःखों की लम्बी घोर निशा बीत गयी।
जो पाप किये होंगे हमने, उनकी भी गागर रीत गयी।
अब पुनः देश की बगिया में सुन्दर वसन्त छा जायेगा|
हर कली यहाँ मुस्कुराएगी हर आम यहाँ बौराएगा।
जिसको शोणित से सींचा है वह क्यों न कभी गदराएगा
सोचा था भारत का किसान, सोने की फसल उगायेगा।
हम निर्माणों में व्यस्त हुए अगणित नलकूप बना डाले
जिनसे उत्पादन बढ़े नये ऐसे कल पुर्जे ही डाले ।
हम बुद्ध, मसीहा के अनुचर गाँधी जी के आदर्शों पर
विश्वास किए बढ़ते जाते थे पंचशील की बातों पर
हमसे मित्रता निभाने को जिसने भी हाथ बढ़ाया था
उसको आगे बढ़कर हमने तब अपने गले लगाया था
लेकिन यह हमको ज्ञात न था भाई बन दुश्मन भी होगा
जिसको हमने विश्वास दिया, उससे ही हमको छल होगा
जिसका हिमायती बन हमने यू. एन. ओ. में रखवाया था
सारी दुनियाँ के देशों में फिर जिसको मान दिलाया था
जिसके पुरखों को हमने ही लिखना पढ़ना सिखलाया था
जो निरा असभ्य जंगली था हमने ही सभ्य बनाया था
उपकार भुला देगा पल में, ऐसा कृतघ्न बन जायेगा
कैसे यह जाना जा सकता था हम पर ही चढ़ आयेगा
लेकिन चिन्ता की बात नहीं, डरने का कोई काम नहीं
जो वीर साहसी होते हैं सोचा करते परिणाम नहीं
पर सावधान! चाऊ-माऊ मत अपना कदम बढ़ाओ तुम
हम रामचन्द्र के वंशज हैं इस तरह न आँख दिखाओ तुम
मत सोचो केवल शान्ति पड़े, हिंसा से हम डर जायेंगें
यदि युद्ध हुआ तो स्वयं काल से भी जा भिड़ जायेंगे
हम स्वतन्त्रता के दीवाने, आज़ादी हमको प्यारी है
भारत की भूमि हमारी है, जो सारे जग से न्यारी है
धरती पर अपने जीवित, हम पैर नहीं रखने देंगे
पावन गंगा का नीर और फल फूल नहीं चखने देंगे
यदि अकल नहीं बेची है तो कुछ अब भी सोच समझ लेता
भारत की पावन धरती पर तुम यों ही कदम न रख देता
यदि तुमने पैर बढ़ाया तो घर वापस लौट न पाओगे
तुम बिना मौत मर जाओगे यदि सोते सिंह जागाओगे
तुम जिसे मेकमोहन कहते वह तो भुजंगिनी काली हैं
डस जायेगी जो छू लोगे, वह काली खप्पर वाली है
यह कालकूट का सागर है इसको पीना आसान नहीं
यह शिवशंकर की कुटिया है क्या तुझको है पहचान नहीं
जागो-जागो है रुद्रेश्वर, जागो-जागो है शिवशंकर
जागो-जागो है भूतेश्वर, जागो-जागो है प्रलयंकर
भस्मासुर बढ़ता आता है, जागो-जागो! भस्मेश्वर!
जागो नागेश्वर त्रिपुरारी जागो-जागो, ! कालेश्वर !
जागो-जागो हे महानाश ! जागो-जागो ते महाकाल
दनुज दमन, दुर्जय जागो, दुर्धर्ष, दर्पहा काल-काल !
कर में त्रिशूल धारण कर लो, अब नेत्र तीसरा खुलने दो
नक्षत्र गिरे तो गिरने दो, भूतल हिलता है हिलने दो
पर जगत देख लो एकबार, शंकर समाधि जो तोड़ेगा
तो महानाश हो जायेगा, कुछ भी न विश्व में छोड़ेगा ॥
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।