धर्मस्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद का मनःसंयम

स्थान – बेलुड़ मठ

वर्ष – १९०१ ईसवी

विषय – स्वामीजी का मनःसंयम – स्त्री-मठ की स्थापना के संकल्प के सम्बन्ध में शिष्य से बातचीत – एक ही चित्सत्ता स्त्री और पुरुष दोनों में समभाव से मौजूद है – प्राचीन युग में स्त्रियों का शास्त्र में कहाँ तक अधिकार था – स्त्री-जाति का सम्मान किये बिना किसी देश या जाति की उन्नति असम्भव है – तन्त्रोक्त्त वामाचार के दूषित भाव ही त्याज्य हैं – स्त्रीजाति का सम्मान व पूजा उचित व अनुष्ठेय हैं – भावी स्त्री-मठ की नियमावली – उस मठ में शिक्षाप्राप्त ब्रह्मचारिणियों के द्वारा समाज का किस प्रकार व्यापक कल्याण होगा – परब्रह्म में लिंगभेद नहीं है; केवल “मैं-तुम” के राज्य में लिंगभेद है – अतः स्त्री-जाति का ब्रह्मज्ञान होना असम्भव नहीं है – वर्तमान प्रचलित शिक्षा में अनेक त्रुटियाँ रहने पर भी वह निन्दनीय नहीं है – धर्म को शिक्षा की नींव बनानी होगी – मानव के भीतर ब्रह्म के विकास के सहायक कार्य ही सत्कार्य हैं – वेदान्त द्वारा प्रतिपाद्य ब्रह्मज्ञान में कर्म का अत्यन्त अभाव रहने पर भी उसे प्राप्त करने में कर्म गौण रूप से सहायक होता है; क्योंकि कर्म द्वारा ही मनुष्य की चित्तशुद्धि होती है और चित्तशुद्धि न होने पर ज्ञान नहीं होता।

शनिवार सायंकाल शिष्य मठ में आया है। स्वामीजी का शरीर पूर्ण स्वस्थ नहीं है। वे शिलाँग पहाड़ से अस्वस्थ होकर थोड़े दिन हुए लौटे हैं। उनके पैरों में सूजन आ गयी है, और समस्त शरीर में मानो जल का संचार हो गया है। इसलिए स्वामीजी के गुरुभाई गण बहुत ही चिन्तित हैं। बहुबाजार के श्री महानन्द वैद्य स्वामीजी का इलाज कर रहे हैं। स्वामी निरंजनानन्द के अनुरोध से स्वामीजी ने वैद्य की दवा लेना स्वीकार किया है। आज रविवार है, आगामी मंगलवार से नमक और जल लेना बन्द करके नियमित दवा लेनी होगी।

शिष्य ने पूछा – “महाराज,यह विकट गर्मी का मौसम है। इस पर फिर आप प्रति घण्टे चार-पाँच बार जल पीते हैं। इसलिए जल पीना बन्द करके दवा लेना आपके लिए कठिन तो न होगा?”

स्वामीजी – तू क्या कह रहा है? दवा लेने के दिन प्रातःकाल जल न पीने का दृढ़ संकल्प करूँगा, उसके बाद क्या मजाल है कि जल फिर कण्ठ से नीचे उतरे। मेरे संकल्प के कारण इक्कीस दिन जल फिर नीचे नहीं उतर सकेगा। शरीर तो मन का ही आवरण है। मन जो कहेगा, उसी के अनुसार तो उसे चलना होगा। फिर बात क्या है? निरंजन के अनुरोध से मुझे ऐसा करना पड़ा। उन लोगों का (गुरुभाईयों का) अनुरोध तो मैं टाल नहीं सकता।

दिन के लगभग दस बजे का समय है। स्वामीजी ऊपर ही बैठे हैं। स्त्रियों के लिए जो भविष्य में मठ तैयार करेंगे उसके सम्बन्ध में शिष्य के साथ बातचीत कर रहे हैं। कह रहे हैं, ‘माताजी को केन्द्र मानकर गंगा के पूर्वतट पर स्त्रियों के मठ की स्थापना करनी होगी। इस मठ में जिस प्रकार ब्रह्मचारी साधु तैयार होंगे, उसी प्रकार उस पार के स्त्रियों के मठ में भी ब्रह्मचारिणी और साध्वी स्त्रियाँ तैयार होगी।’

शिष्य – महाराज, भारतवर्ष के इतिहास में बहुत प्राचीन काल से भी स्त्रियों के लिए तो किसी मठ की बात नहीं मिलती। बौद्ध युग में ही स्त्री-मठों की बात सुनी जाती है। परन्तु उसके परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार के व्यभिचार होने लगे थे। घोर वामाचार से देश भर गया था।

स्वामीजी – इस देश में पुरुष और स्त्रियों में इतना अन्तर क्यों समझा जाता है यह समझना कठिन है। वेदान्त शास्त्र में तो कहा है, एक ही चित् सत्ता सर्वभूतों में विद्यमान है। तुम लोग स्त्रियों की निन्दा ही करते हो, परन्तु उनकी उन्नति के लिए तुमने क्या किया बोलो तो? स्मृति आदि लिखकर, नियम नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला है। महामाया की साक्षात् मूर्ति – इन स्त्रियों का उत्थान न होने से क्या तुम लोगों की उन्नति सम्भव है?

शिष्य – महाराज, स्त्री-जाति साक्षात् माया की मूर्ति है। मनुष्य के अधःपतन के लिए ही मानो उनकी सृष्टि हुई है। स्त्री-जाति ही माया के द्वारा मनुष्य के ज्ञान-वैराग्य को आवृत्त कर देती है। सम्भव है इसीलिए शास्त्रों ने कहा है कि उन्हें ज्ञान-भक्ति का कभी लाभ न होगा।

स्वामीजी – किस शास्त्र में ऐसी बात है कि स्त्रियाँ ज्ञान-भक्ति की अधिकारिणी नहीं होंगी? भारत का अधःपतन उस समय हुआ जब ब्राह्मण पण्डितों ने ब्राह्मणेतर जातियों को वेदपाठ का अनधिकारी घोषित किया। और साथ ही, स्त्रियों के भी सभी अधिकार छीन लिये। नहीं तो, वैदिक युग में, उपनिषद युग में तू देख कि मैत्रेयी, गार्गी आदि प्रातःस्मरणीय स्त्रियाँ ब्रह्मविचार में ऋषितुल्य हो गयी थीं। हजार वेदज्ञ ब्राह्मणों की सभा में गार्गी ने गर्व के साथ याज्ञवल्कय को ब्रह्मज्ञान के शास्त्रार्थ के लिए आह्वान कियाथा। इन सब आदर्श विदुषी स्त्रियों को जब उस समय अध्यात्म ज्ञान का अधिकार था तब फिर आज भी स्त्रियों को वह अधिकार क्यों न रहेगा? एक बार जो हुआ है, वह फिर अवश्य ही हो सकता है। इतिहास की पुनरावृत्ति हुआ करती है। स्त्रियों की पूजा करके सभी जातियाँ बड़ी बनी हैं। जिस देश में, जिस जाति में स्त्रियों की पूजा नहीं है, वह देश, वह जाति कभी बड़ी नहीं बन सकती और न कभी बन ही सकेगी। तुम्हारी जाति का जो इतना अधःपतन हुआ है उसका प्रधान कारण है इन सब शक्ति-मूर्तियों का अपमान करना। मनु ने कहा है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तर्त देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥1 जहाँ पर स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, वे दुःखी रहती है; उस परिवार की – उस देश के उन्नति की आशा नहीं की जा सकती – इसलिए इन्हें पहले उठाना होगा। इनके लिए आदर्श मठ की स्थापना करनी होगी।

शिष्य – महाराज, प्रथम बार विलायत से लौटकर आपने स्टार थिएटर में भाषण देते हुए तन्त्र की कितनी निन्दा की थी। अब फिर तन्त्रों द्वारा समर्थित स्त्री-पूजा का समर्थन कर आप अपनी ही बात बदल रहे हैं।

स्वामीजी – तन्त्र का वामाचार मत बदलकर इस समय जो कुछ बना हुआ है, उसी की मैंने निन्दा की थी। तन्त्रोक्त्त मातृभाव की अथवा यथार्थ वामाचार की मैंने निन्दा नहीं की। भगवती मानकर स्त्रियों की पूजा करना ही तन्त्र का उद्देश्य है। बौद्ध धर्म के अधःपतन के समय वामाचार घोर दूषित हो गया था। वही दूषित भाव आजकल के वामाचार में प्रस्तुत है। अभी भी भारत के तन्त्रशास्त्र उसी भाव द्वारा प्रभावित हैं। उन सब बीभत्स प्रथाओं की ही मैंने निन्दा की थी, और अभी करता हूँ। जिस महामाया का रूपरसात्मक बाह्यविकास मनुष्य को पागल बनाये रखता है, जिस माया का ज्ञान-भक्तिविवेक-वैराग्यात्मक अन्तर्विकास मनुष्य को सर्वज्ञ, सिद्धसंकल्प, ब्रह्मज्ञ बना देता है – उस प्रत्यक्ष मातृरूपा स्त्रियों की पूजा करने का निषेध मैंने कभी नहीं किया। ‘सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये’ – इस महामाया को पूजा, प्रमाण द्वारा प्रसन्न न कर सकने पर क्या मजाल है कि ब्रह्मा, विष्णु तक उनके पंजे से छूटकर मुक्त हो जायँ? गृहलक्ष्मीयों की पूजा के उद्देश्य से उनमें ब्रह्मविद्या के विकास के निमित्त उनके लिए मठ बनवाकर जाऊँगा।

शिष्य – हो सकता है कि आपका यह संकल्प अच्छा है, परन्तु स्त्रियाँ कहाँ से मिलेगी? समाज के कड़े बन्धन के रहते कौन कुलवधुओं को स्त्रीमठ में जाने की अनुमति देगा?

स्वामीजी – क्यों रे? अभी भी श्रीरामकृष्ण की कितनी ही भक्तिमती लड़कियाँ है। उनसे स्त्री-मठ का प्रारम्भ करके जाऊँगा। श्रीमाताजी (श्रीमाँसारदा) उनका केन्द्र बनेंगी। श्रीरामकृष्णदेव के भक्तों की स्त्री-कन्याएँ आदि उसमें पहलेपहल निवास करेंगी, क्योंकि वे उस प्रकार के स्त्री-मठ की उपकारिता आसानी से समझ सकेंगी। उसके बाद उन्हें देखकर अन्य गृहस्थ लोग भी इस महत्कार्य के सहायक बनेंगे।

शिष्य – श्रीरामकृष्ण के भक्तगण इस कार्य में अवश्य ही सम्मिलित होंगे; परन्तु साधारण लोग इस कार्य में सहायक बनेंगे, ऐसा सरल प्रतीत नहीं होता।

स्वामीजी – जगत् का कोई भी महान् कार्य त्याग के बिना नहीं हुआ है। वटवृक्ष का अंकुर देखकर कौन समझ सकता है कि समय आने पर वह एक विराट वृक्ष बनेगा? अब तो इसी रूप में मठ की स्थापना करूँगा। फिर देखना, एकाध पीढ़ी के बाद दूसरे सभी देशवासी इस मठ की कद्र करने लगेंगे। ये जो विदेशी स्त्रियाँ मेरी शिष्या बनी हैं, ये ही इस कार्य में जीवन उत्सर्ग करेंगी। तुम लोग भय और कापुरुषता छोड़कर इस कार्य में लग जाओ और इस उच्च आदर्श को सभी के सामने रख दो। देखना, समय पर इसकी प्रभा से देश उज्ज्वल हो उठेगा।

शिष्य – महाराज, स्त्रियों के लिए किस प्रकार मठ बनाना चाहते हैं, कृपया विस्तार के साथ मुझे बतलाइये। मैं सुनने के लिए विशेष उत्कण्ठित हूँ।

स्वामीजी – गंगाजी के उस पार एक विस्तृत भूमि खण्ड लिया जायगा। उसमें अविवाहिता कुमारियाँ रहेंगी तथा विधवा ब्रह्मचारिणियाँ भी रहेंगी। साथ ही गृहस्थ घर की भक्तिमती स्त्रियाँ भी बीच बीच में आकर ठहर सकेंगी। इस मठ से पुरुषों का किसी प्रकार सम्बन्ध न रहेगा। पुरुष-मठ के वृद्ध साधुगण दूर से स्त्री-मठ का काम चलायेंगे। स्त्री-मठ में लड़कियों का एक स्कूल रहेगा। उसमें धर्मशास्त्र, साहित्य, संस्कृत, व्याकरण और साथ ही थोड़ीबहुत अंग्रेजी भी सिखायी जायगी। सिलाई का काम, रसोई बनाना, घर-गृहस्थी के सभी नियम तथा शिशुपालन के मोटे मोटे विषयों की शिक्षा भी दी जायगी। साथ ही जप, ध्यान, पूजा ये सब तो शिक्षा के अंग रहेंगे ही। जो स्त्रियाँ घर छोड़कर हमेशा के लिए यहीं रह सकेगी, उनके भोजन वस्त्र का प्रबन्ध मठ की ओर से किया जायगा। जो ऐसा नहीं कर सकेंगी, वे इस मठ में दैनिक छात्राओं के रूप में आकर अध्ययन कर सकेंगी। यदि सम्भव होगा तो मठ के अध्यक्ष की अनुमति से वे यहाँ पर रहेंगी और जितने दिन रहेंगी भोजन भी पा सकेंगी। स्त्रियों से ब्रह्मचर्य का पालन कराने के लिए वृद्धा ब्रह्मचारिणियाँ छात्राओं की शिक्षा का भार लेंगी। इस मठ में पाँचसात वर्ष तक शिक्षा प्राप्त कर लड़कियों के अभिभावकगण उनका विवाह कर दे सकेंगे। यदि कोई अधिकारिणी समझी जायगी तो अपने अभिभावकों की सम्मति लेकर वह वहाँ पर चिरकौमार्य व्रत का पालन करती हुई ठहर सकेगी। जो स्त्रियाँ चिरकौमार्य व्रत का अवलम्बन करेंगी, वे ही समय पर मठ की शिक्षिकाएँ तथा प्रचारिकाएँ बन जायँगी और गाँव गाँव, नगर नगर में शिक्षा-केन्द्र खोलकर स्त्रियों की शिक्षा के विस्तार की चेष्टा करेंगी। चरित्रशीला एवं धार्मिक भावसम्पन्ना प्रचारिकाओं के द्वारा देश में यथार्थ स्त्रीशिक्षा का प्रसार होगा। वे स्त्री-मठ के सम्पर्क में जितने दिन रहेंगी, उतने दिन तक ब्रह्मचर्य की रक्षा करना इस मठ का अनिवार्य नियम होगा। धर्म परायणता, त्याग और संयम यहाँ की छात्राओं के अलंकार होंगे और सेवा-धर्म उनके जीवन का व्रत होगा। इस प्रकार आदर्श जीवन देखने पर कौन उनका सम्मान न करेगा? – और कौन उन पर अविश्वास करेगा? देश की स्त्रियों का इस प्रकार जीवन गठित हो जाने पर ही तो तुम्हारे देश में सीता, सावित्री, गार्गी का फिर से आविर्भाव हो सकेगा। देशाचार के घोर बन्धन से प्राणहीन, स्पन्दनहीन बनकर तुम्हारी लड़कियाँ कितनी दयनीय बन गयी हैं, यह तू एक बार पाश्चात देशों की यात्रा कर लेने पर ही समझ सकेगा। स्त्रियों की इस दुर्दशा के लिए तुम्हीं लोग जिम्मेदार हो। देश की स्त्रियों को फिर से जागृत करने का भार भी तुम्हीं पर है। इसीलिए तो मैं कह रहा हूँ कि बस काम में लग जा। क्या होगा व्यर्थ में केवल कुछ वेद-वेदान्त को रट कर?

शिष्य – महाराज, यहां पर शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी यदि लड़कियाँ विवाह कर लेंगी तो फिर उनमें लोग आदर्श जीवन कैसे देख सकेंगे? क्या यह नियम अच्छा न होगा कि जो छात्राएँ इस मठ में शिक्षा प्राप्त करेंगी, वे फिर विवाह न कर सकेंगी?

स्वामीजी – ऐसा क्या एकदम ही होता है रे? शिक्षा देकर छोड़ देना होगा। उसके पश्चात् वे स्वयं ही सोच समझकर जो उचित होगा करेंगी। विवाह करके गृहस्थी में मन लग जाने पर भी वैसी लड़कियाँ अपने पतियों को उच्च भाव की प्रेरणा देंगी और वीर पुत्रों की जननी बनेंगी। परन्तु यह नियम रखना होगा कि स्त्री-मठ की छात्राओं के अभिभावकगण पन्द्रह वर्ष की अवस्था के पूर्व उनके विवाह का नाम न लेंगे।

शिष्य – महाराज, फिर तो समाज उन सब लड़कियों की निन्दा करने लगेगा। उनसे कोई भी विवाह करना न चाहेगा।

स्वामीजी – क्यों नहीं? तू समाज की गति को अभी तक समझ नहीं सका है। इन सब विदुषी और कुशल लड़कियों को वरों की कमी न होगी। “दशमे कन्यकाप्राप्ति. . . ” इन सब वचनों पर आजकल समाज नहीं चल रहा है – चलेगा भी नहीं। अभी भी देख नहीं रहा है?

शिष्य – आप चाहे जो कहें, परन्तु पहलेपहल इनके विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन अवश्य होगा।

स्वामीजी – आन्दोलन का क्या भय है? सात्विक साहस से किये गये सत्कर्म में बाधा होने पर कार्य करनेवालों की शक्ति और भी जाग उठेगी। जिसमें बाधा नहीं है – विरोध नहीं है वह मनुष्य को मृत्यु के पथ पर ले जाता है। संघर्ष ही जीवन का चिह्न है, समझा?

शिष्य – जी हाँ।

स्वामीजी – परब्रह्म तत्त्व में लिंगभेद नहीं हैं। हमें ‘मैं-तुम’ की भूमि में लिंगभेद दिखायी देता है, फिर मन जितना ही अन्तर्मुख होता जाता है – उतना ही वह भेदज्ञान लुप्त होता जाता है। अन्त में, जब मन एकरस ब्रह्मतत्त्व में डूब जाता है, तब फिर यह स्त्री, वह पुरुष – आदि का ज्ञान बिलकुल नहीं रह जाता। हमने श्रीरामकृष्ण में यह भाव प्रत्यक्ष देखा है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि स्त्री-पुरुष में बाह्य भेद रहने पर भी स्वरूप में कोई भेद नहीं है। अतः यदि पुरुष ब्रह्मज्ञ बन सके तो स्त्रियाँ क्यों न ब्रह्मज्ञ बन सकेंगी? इसीलिए कह रहा था, स्त्रियों में समय आने पर यदि एक भी ब्रह्मज्ञ बन सकी, तो उसकी प्रतिभा से हजारों स्त्रियाँ जाग उठेंगी और देश तथा समाज का कल्याण होगा, समझा?

शिष्य – महाराज, आपके उपदेश से आज मेरी आँखें खुल गयी हैं।

स्वामीजी – अभी क्या खुली हैं? जब सब कुछ उद्भासित करनेवाले आत्मतत्त्व को प्रत्यक्ष करेगा, तब देखेगा, यह स्त्री-पुरुष के भेद का ज्ञान एकदम लुप्त हो जायगा; तभी स्त्रियाँ ब्रह्मरूपिणी ज्ञात होंगी। श्रीरामकृष्ण को देखा है – सभी स्त्रियों के प्रति मातृभाव – फिर वह चाहे किसी भी जाति की कैसी भी स्त्री क्यों न हो। मैंने देखा है न! इसीलिए मैं इतना समझाकर तुम लोगों को वैसा बनने के लिए कहता हूँ और लड़कियों के लिए गाँव गाँव में पाठशालाएँ खोलकर उन्हें शिक्षित बनाने के लिए कहता हूँ। स्त्रियाँ जब शिक्षित होंगी तभी तो उनकी सन्तान द्वारा देश का मुख उज्ज्वल होगा और देश में विद्या, ज्ञान, शक्ति, भक्ति जाग उठेगी।

शिष्य – परन्तु महाराज, मैं जहाँ तक समझता हूँ आधुनिक शिक्षा का विपरीत ही फल हो रहा है। लड़कियाँ थोड़ाबहुत पढ़ लेती हैं और बस कमीज गाऊन पहनना सीख जाती है। त्याग, संयम, तपस्या, ब्रह्मचर्य आदि ब्रह्मविद्या प्राप्त करने योग्य विषयों में उनकी क्या उन्नति हो रही है, समझ में नहीं आता।

स्वामीजी – पहलेपहल ऐसा ही हुआ करता है। देश में नये भाव का पहलेपहल प्रचार करते समय कुछ लोग उस भाव को ठीक ग्रहण नहीं कर सकते। इससे विराट समाज का कुछ नहीं बिगड़ता; परन्तु जिन लोगों ने आधुनिक साधारण स्त्री-शिक्षा के लिए भी प्रारम्भ में प्रयत्न किया था, उनकी महानता में क्या सन्देह है? असल बात यह है कि शिक्षा हो अथवा दीक्षा हो – धर्महीन होने पर उनमें त्रुटि रह जाती है। अब धर्म को केन्द्र बनाकर स्त्री-शिक्षा का प्रचार करना होगा। धर्म के अतिरिक्त दूसरी शिक्षाएँ गौण होंगी। धर्मशिक्षा, चरित्रगठन तथा ब्रह्मचर्यपालन इन्हीं के लिए तो शिक्षा की आवश्यकता है। वर्तमान काल में आजतक भारत में स्त्री-शिक्षा का जो प्रचार हुआ है, उसमें धर्म को ही गौण बनाकर रखा गया है। तूने जिन सब दोषों का उल्लेख किया, वे इसी कारण उत्पन्न हुए हैं। परन्तु इसमें स्त्रियों का क्या दोष है बोल? संस्कारक स्वयं ब्रह्मज्ञ न बनकर स्त्रीशिक्षा देने के लिए अग्रसर हुए थे, इसीलिए उनमें उस प्रकार की त्रुटियाँ रह गयी हैं। सभी सत्कार्यों के प्रवर्तकों को अभीप्सित कार्य के अनुष्ठान के पूर्व कठोर तपस्या की सहायता से आत्मज्ञ हो जाना चाहिए, नहीं तो उनके काम में गलतियाँ निकलेंगी ही। समझा?

शिष्य – जी हाँ। देखा जाता है, अनेक शिक्षित लड़कियाँ केवल नाटक उपन्यास पढ़कर ही समय बिताया करती हैं; परन्तु पूर्व बंग में लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करके भी नाना व्रतों का अनुष्ठान करती हैं। इस देश में भी क्या वैसा ही करती हैं?

स्वामीजी – भले बुरे लोग तो सभी देशों तथा सभी जातियों में हैं। हमारा काम है – अपने जीवन में अच्छे काम करके लोगों के सामने उदाहरण रखना। निन्दा करके कोई काम सफल नहीं होता। केवल लोग बहक जाते हैं। लोग जो चाहे कहें, विरुद्ध तर्क करके किसी को हराने की चेष्टा न करना। इस माया के जगत् में जो कुछ करेगा, उसमें दोष रहेगा ही – ‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृतः’ – आग रहने से ही धुआँ उठेगा। परन्तु क्या इसीलिए निश्चेष्ट होकर बैठे रहना चाहिए? नहीं, शक्ति भर सत्कार्य करते ही रहना होगा।

शिष्य – महाराज, अच्छा काम क्या है?

स्वामीजी – जिससे ब्रह्म के विकास में सहायता मिलती है, वही अच्छा काम है। प्रत्येक कार्य प्रत्यक्ष न हो, परोक्ष रूप में आत्मतत्त्व के विकास के सहायक रूप में किया जा सकता है। परन्तु ऋषियों द्वारा चलाये हुए पथ पर चलने से वह आत्मज्ञान शीघ्र ही प्रकट हो जाता है और जिन कार्यों को शास्त्रों ने अन्याय कहा है, उन्हें करने से आत्मा को बन्धन होता है, जिससे कभी कभी तो जन्म-जन्मान्तर में भी वह मोहबन्धन नहीं कटता। परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि जीव की मुक्ति सभी देशों तथा कालों में अवश्यम्भावी है, क्योंकि आत्मा ही जीव का वास्तविक स्वरूप है। अपना स्वरूप क्या कोई स्वयं छोड़ सकता है? तेरी छाया के साथ तू हजार वर्ष लड़कर भी क्या उसको भगा सकता है? – वह तेरे साथ रहेगी ही।

शिष्य – परन्तु महाराज, आचार्य शंकर के मत के अनुसार कर्म भी ज्ञान का विरोधी है – उन्होंने ज्ञान-कर्म-समुच्चय का बार बार खण्डन किया है। अतः कर्म ज्ञान का प्रकाशक कैसे बन सकता है?

स्वामीजी – आचार्य शंकर ने वैसा कहकर फिर ज्ञान के विकास के लिए कर्म को आपेक्षिक सहायक तथा चित्तशुद्धि का उपाय बताया है; परन्तु विशुद्ध ज्ञान में कर्म का अनुप्रवेश भी नहीं है; मैं भाष्यकार के इस सिद्धान्त का प्रतिवाद नहीं कर रहा हूँ। जितने दिन मनुष्य को क्रिया, कर्ता और कर्म का ज्ञान रहेगा, उतने दिन क्या मजाल है कि वह काम न करते हुए बैठा रहे। अतः जब कर्म ही जीव का सहायक सिद्ध हो रहा है, तो जो सब कर्म इस आत्मज्ञान के विकास के लिए सहायक है, उन्हें क्यों नहीं करता रहता है? कर्ममात्र ही भ्रमात्मक है – यह बात पारमार्थिक रूप से यथार्थ होने पर भी व्यावहारिक रूप में कर्म की विशेष उपयोगिता रही है। तू जब आत्मतत्त्व को प्रत्यक्ष कर लेगा, तब कर्म करना या न करना तेरी इच्छा के अधीन बन जायगा। उस स्थिति में तू जो कुछ करेगा, वही सत्कर्म बन जायगा। इससे जीव और जगत् दोनों का कल्याण होगा। ब्रह्म का विकास होने पर तेरे श्वास-प्रश्वास की तरंगें तक जीव की सहायक हो जायँगी; उस समय फिर किसी विशेष योजना के साथ कर्म करना नहीं पड़ेगा, समझा?

शिष्य – अहा! यह तो वेदान्त के कर्म और ज्ञान का समन्वय करनेवाली बड़ी सुन्दर मीमांसा है।

इसके पश्चात् नीचे प्रसाद पाने की घण्टी बजी और स्वामीजी ने शिष्य को प्रसाद पाने के लिए जाने को कहा। शिष्य भी स्वामीजी के चरणकमलों में प्रणाम करके जाने के पूर्व हाथ जोड़कर बोला, “महाराज, आपके स्नेहाशीर्वाद से इसी जन्म में मुझे ब्रह्मज्ञान हो जाय।” स्वामीजी ने शिष्य के मस्तक पर हाथ रखकर कहा, “भय क्या है भाई? तुम लोग क्या अब भी इस जगत् के लोग रह गये हो? – न गृहस्थ, न संन्यासी – तुम तो एक नया ही रूप हो।”


  1. मनुस्मृति,३/५६

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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