धर्मस्वामी विवेकानंद

कर्म और उसका रहस्य – स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद इस व्याखान में कर्म के रहस्य को बता रहे हैं। वे आपको इस लेख में न केवल कर्म से सफलता पाने का सूत्र देते हैं, बल्कि कर्म से मुक्ति तक की यात्रा की कुंजी भी थमाते हैं। स्वामी विवेकानन्द का यह व्याख्यान अंग्रेज़ी में Work & Its Secret नाम से पढ़ा जा सकता है।

Karma Aur Uska Rahasya: Swami Vivekananda

(जनवरी 4, 1900 ई. को लॉस एंजिलिस, कैलिफ़ोर्निया में दिया हुआ भाषण)

अपने जीवन में मैंने जो श्रेष्ठतम पाठ पढ़े हैं, उनमें एक यह है कि किसी भी कार्य के साधनों के विषय में उतना ही सावधान रहना चाहिए, जितना कि उसके साध्य के विषय में। जिनसे मैंने यह बात सीखी, वे एक महापुरुष थे। यह महान् सत्य स्वयं उनके जीवन में प्रत्यक्ष रूप में परिणत हुआ था। इस एक सत्य से मैं सर्वदा बड़े-बड़े पाठ सीखता आया हूँ। और मेरा यह मत है कि सब प्रकार की सफलताओं की कुंजी इसी तत्त्व में है – साधनों की ओर भी उतना ही ध्यान देना आवश्यक है, जितना साध्य की ओर।

हमारे जीवन में एक बड़ा दोष यह है कि हम आदर्श से ही इतना अधिक आकृष्ट रहते हैं, लक्ष्य हमारे लिए इतना अधिक आकर्षक होता है, ऐसा मोहक होता है और हमारे मानस क्षितिज पर इतना विशाल बन जाता है कि बारीकियाँ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाती हैं।

लेकिन अभी असफलता मिलने पर हम यदि बारीकी से उसकी छानबीन करें, तो निन्यानबे प्रतिशत यही पायेंगे कि उसका कारण था हमारा साधनों की ओर ध्यान न देना। हमें आवश्यकता है अपने साधनों को पुष्ट करने की और उन्हें पूर्ण बनाने की। यदि हमारे साधन बिल्कुल ठीक हैं, तो साध्य की प्राप्ति होगी ही। हम यह भूल जाते हैं कि कारण ही कार्य का जन्मदाता है, कार्य स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकता, और जब तक कारण अभीष्ट, समुचित और सशक्त न हों, कार्य की उत्पत्ति नहीं होगी। एक बार हमने ध्येय निश्चित कर लिया और उसके साधन पक्के कर लिये कि फिर हम ध्येय को लगभग छोड़ सकते हैं, क्योंकि हम विश्वस्त हैं कि यदि साधन पूर्ण हैं, तो साध्य तो प्राप्त ही होगा। जब कारण विद्यमान है, तो कार्य की उत्पत्ति होगी ही। उसके बारे में विशेष चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं। यदि कारण के विषय में हम सावधान रहें, तो कार्य स्वयं सम्पन्न हो जाएगा। कार्य है ध्येय की सिद्धि; और कारण है साधन। इसलिए साधन की ओर ध्यान देते रहना जीवन का एक बड़ा रहस्य है। गीता में भी हमने यही पढ़ा और सीखा है कि हमें लगातार भरसक काम करते ही जाना चाहिए; काम चाहे जैसा भी हो, अपना पूरा मन उस ओर लगा देना चाहिए; पर साथ ही ध्यान रहे, हम उसमें आसक्त न हो जायँ। अर्थात्, कार्य से किसी भी विषय द्वारा हमारा ध्यान न हटे; फिर भी हममें यह शक्ति हो कि हम इच्छानुसार कार्य को छोड़ सकें।

यदि हम अपने जीवन का विश्लेषण करें तो हम देखेंगे कि दुःख का सबसे बड़ा हेतु यह है : हम कोई बात हाथ में लेते हैं और अपनी पूरी ताकत उसमें लगा देते हैं; कभी कभी असफलता होती है, पर फिर भी हम उसका त्याग नहीं कर सकते। यह आसक्ति ही हमारे दुःख का सबसे बड़ा कारण है। हम जानते हैं कि वह हमें हानि पहुँचा रही है और उसमें चिपके रहने से केवल दुःख ही हाथ आएगा, परन्तु फिर भी हम उससे अपना छुटकारा नहीं कर सकते। मधुमक्खी तो शहद चाटने आयी थी, पर उसके पैर चिपक गये उस मधुचषक से और वह छुटकारा नहीं पा सकी। बार बार हम अपनी यही स्थिति अनुभव करते हैं। यही हमारे अस्तित्व का सम्पूर्ण रहस्य है। हम यहाँ आये थे मधु पीने, पर हम देखते हैं हमारे हाथ-पाँव उसमें फँस गये हैं। आये थे पकड़ने के लिए, पर स्वयं ही पकड़े गये! आये थे उपभोग के लिए, पर खुद ही उपभोग्य बन बैठे! आये थे हुकूमत करने, पर हम पर ही हुकूमत होने लगी! आये थे कुछ काम करने, पर देखते हैं कि हमसे ही काम लिया जा रहा है! हर घड़ी यही अनुभव होता है। हमारे जीवन की छोटी छोटी बातों का भी यही हाल है। दूसरों के मन हम पर हुकूमत चला रहे हैं और हम सदा यही प्रयत्न कर रहे हैं कि हमारी हुकूमत दूसरों के मनों पर चले। हम जीवन के आनन्द का उपभोग करना चाहते हैं, पर वे भोग हमारे प्राणों का ही भक्षण कर जाते हैं। हम प्रकृति से सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं, पर अन्ततः हम यही देखते हैं कि प्रकृति ने हमारा सर्वस्व हरण कर लिया है, उसने हमें पूरी तौर से चूसकर अलग फेंक दिया है।

यदि ऐसा न होता, तो जीवन में सब हरा-भरा ही होता। पर चिन्ता नहीं। यद्यपि सफलताएँ मिलती हैं और असफलताएँ भी, यद्यपि यहाँ आनन्द है और दुःख भी, तो भी यह जीवन निरंतर हरा-भरा रह सकता है, यदि केवल हम बन्धन में न पड़ जायँ।

दुःख का एकमेव कारण यह है कि हम आसक्त हैं, हम बँधते जा रहे हैं। इसीलिए गीता में कहा है : निरंतर काम करते रहो, पर आसक्त मत होओ; बन्धन में मत पड़ो। प्रत्येक वस्तु से अपने आपको स्वतंत्र बना लेने की शक्ति स्वयं में संचित रखो। वह वस्तु तुम्हें बहुत प्यारी क्यों न हो, तुम्हारा प्राण उसके लिए चाहे जितना ही लालायित क्यों न हो, उसके त्यागने में तुम्हें चाहे जितना कष्ट क्यों न उठाना पड़े, फिर भी अपनी इच्छानुसार उसके त्याग करने की अपनी शक्ति सँजोये रखो। कमजोर न तो इह जीवन के योग्य हैं, न किसी पर जीवन के। दुर्बलता से मनुष्य गुलाम बनता है। दुर्बलता से ही सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःख आते हैं। दुर्बलता ही मृत्यु है। लाखों-करोड़ों कीटाणु हमारे आसपास हैं, पर जब तक हम दुर्बल नहीं होते, जब तक शरीर उनके प्रति पूर्व-प्रवृत्त नहीं होता, तब तक वे हमें कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। ऐसे करोड़ो दुःख रूपी कीटाणु हमारे आसपास क्यों न मँडराते रहें, पर कुछ चिन्ता न करो। जब तक हमारा मन कमजोर नहीं होता, तब तक उनकी हिम्मत नहीं कि वे हमारे पास फटकें, उनमें ताकत नहीं कि वे हम पर हमला करें। यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनन्त सुख है, अमर और शाश्वत जीवन है, और दुर्बलता ही मृत्यु।

आसक्ति ही अभी हमारे सब सुखों की जननी है। हम अपने मित्रों और संबंधियों में आसक्त हैं; हम अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक कार्यों में आसक्त हैं; हम बाह्य वस्तुओं में आसक्त हैं। इसलिए कि उनसे हमें सुख मिले। पर क्या इस आसक्ति के अतिरिक्त अन्य और किसी कारण से हम पर दुःख आता है? अतएव, आनन्द प्राप्त करने के लिए हमें अनासक्त होना चाहिए। यदि हममें इच्छा मात्र से अनासक्त होने की शक्ति होती है, तो हमें कभी दुःख न होता। केवल वही मनुष्य प्रकृति से पूरा पूरा लाभ उठा सकता है, जो किसी वस्तु में अपने मन को अपनी समस्त शक्ति के साथ लगा देने के साथ ही अपने को स्वेच्छा से, जब उससे अलग हो जाना चाहिए तब उससे अलग कर लेने की भी सामर्थ्य रखता है। कठिनाई यह है कि आसक्ति और अनासक्ति की क्षमता समान रूप से होनी चाहिए। संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं, जो किसी वस्तु द्वारा कभी आकृष्ट नहीं होते। वे कभी प्यार नहीं कर सकते, वे कठोर हृदय और निर्मम होते हैं, दुनिया के अधिकांश दुःखों से वे मुक्त रहते हैं। किन्तु प्रश्न उठ सकता है, दीवाल भी तो कभी कोई दुःख अनुभव नहीं करती, दीवाल भी तो कभी प्यार नहीं करती और न उसे कोई कष्ट होता है। पर दीवाल आखिर दीवाल ही है! दीवाल बनने से तो आसक्त होना और बँध जाना निश्चय ही अच्छा है। अतएव, जो मनुष्य कभी प्यार नहीं करता, जो कठोर और पाषाण-हृदय है और इसी कारण जीवन के अनेक दुःखों से छुटकारा पा जाता है, वह जीवन के अनेक सुखों से भी हाथ धो बैठता है। हम यह नहीं चाहते। यह तो दुर्बलता है। यह तो मृत्यु है। जो कभी दुःख नहीं अनुभव करती, जो कभी दुर्बलता नहीं महसूस करती, वह आत्मा अभी जाग्रत है। यह एक निष्ठुर दशा है। हम यह नहीं चाहते।

पर साथ ही, हम केवल इतना ही नहीं चाहते कि यह प्रेम की अथवा आसक्ति की महान् शक्ति, एक ही वस्तु पर सारी लगन लगा देने की ताकत, या दूसरों के लिए अपना सर्वस्व खो बैठने और स्वयं का विनाश तक कर डालने का देव-सुलभ गुण हमें उपलब्ध हो जाय, वरन् हम देवताओं से भी उच्चतर होना चाहते हैं। सिद्ध पुरुष अपनी सम्पूर्ण लगन प्रेम की वस्तु पर लगा सकता है और फिर भी अनासक्त रह सकता है। यह कैसे सम्भव होता है? यह एक दूसरा रहस्य है, जो सीखना चाहिए।

भिखारी कभी सुखी नहीं होता। उसे केवल भीख ही मिलती है और वह भी दया और तिरस्कार से युक्त; उसके पीछे कम से कम यह कल्पना तो अवश्य ही होती है कि भिखारी एक निकृष्ट जीव है। जो कुछ वह पाता है, उसका सच्चा उपभोग उसे कभी नहीं मिलता।

हम सब भिखारी हैं। जो कुछ हम करते हैं, उसके बदले में हम कुछ चाह रखते हैं। हम लोग हैं व्यापारी। हम जीवन के व्यापारी हैं, शील के व्यापारी हैं, धर्म के व्यापारी हैं। अफसोस! हम प्यार के भी व्यापारी हैं।

यदि तुम व्यापार करने चलो, यदि वह लेन-देन का सवाल है, बेचने और मोल लेने का सवाल है, तो तुम्हें क्रय और विक्रय के नियमों का पालन करना होगा। कभी समय अच्छा होता है, कभी बुरा। भाव में चढ़ाव-उतार होता ही रहता है और कभी चोट खा जाने का अनुमान कर सकते हो। व्यापार तो आइने में मुँह देखने के समान है। तुम्हारा प्रतिबिम्ब उसमें पड़ता है। तुम मुँह बनाओ और आइने में मुँह बन जाता है। तुम हँसो और आइना हँसने लगता है। यह है खरीद और बिक्री, लेन और देन।

हम फँस जाते हैं। कैसे? उससे नहीं जिसे हम देते हैं, वरन् उससे जिसके पाने की हम अपेक्षा करते हैं। हमारे प्यार के बदले हमें मिलता है दुःख। इसलिए नहीं कि हम प्यार करते हैं, वरन् इसलिए कि हम बदले में चाहते हैं प्यार। जहाँ चाह नहीं है, वहाँ दुःख भी नहीं है। वासना, चाह – यही दुःखों की जननी है। वासनाएँ सफलता और असफलता के नियमों से बद्ध हैं। वासनाओं का परिणाम दुःख ही होता है।

अतएव, सच्चे सुख और यथार्थ सफलता का महान् रहस्य यह है कि बदले में कुछ भी न चाहनेवाला बिल्कुल निःस्वार्थी व्यक्ति ही सबसे अधिक सफल व्यक्ति होता है। यह तो एक विरोधाभास सा है; क्योंकि क्या हम यह नहीं जानते कि जो निःस्वार्थ हैं, वे इस जीवन में ठगे जाते हैं, उन्हें चोट पहुँचती है? ऊपरी तौर से देखो, तो यह बात सच मालूम होती है। ‘ईसा मसीह निःस्वार्थी थे, पर तो भी उन्हें सूली पर चढ़ाया गया,’ – यह सच है; किन्तु हम यह भी जानते हैं कि उनकी निःस्वार्थपरता एक महान् विजय का कारण है – और वह विजय है कोटि कोटि जीवनों पर सच्ची सफलता के वरदान की वर्षा।

कुछ भी न माँगो, बदले में कोई चाह न रखो। तुम्हें जो कुछ देना हो, दे दो। वह तुम्हारे पास वापस आ जाएगा; लेकिन आज ही उसका विचार मत करो। वह हजार गुना हो वापस आयेगा, पर तुम अपनी दृष्टि उधर मत रखो। देने की ताक़त पैदा करो। दे दो और बस काम ख़त्म हो गया। यह बात जान लो कि सम्पूर्ण जीवन दानस्वरूप है; प्रकृति तुम्हें देने के लिए बाध्य करेगी। इसलिए स्वेच्छापूर्वक दो। एक न एक दिन तुम्हें दे देना ही पड़ेगा। इस संसार में तुम जोड़ने के लिए आते हो। मुट्ठी बाँधकर तुम चाहते हो लेना, लेकिन प्रकृति तुम्हारा गला दबाती है और तुम्हें मुट्ठी खोलने को मजबूर करती है। तुम्हारी इच्छा हो या न हो, तुम्हें देना ही पड़ेगा। जिस क्षण तुम कहते हो कि ‘मैं नहीं दूँगा’, एक घूँसा पड़ता है और तुम चोट खा जाते हो। दुनिया में आये हुए प्रत्येक व्यक्ति को अन्त में अपना सर्वस्व दे देना होगा। इस नियम के विरुद्ध बरतने का मनुष्य जितना अधिक प्रयत्न करता है, उतना ही अधिक वह दुःखी होता है। हममें देने की हिम्मत नहीं है, प्रकृति की यह उदात्त माँग पूरी करने के लिए हम तैयार नहीं हैं, और यही है हमारे दुःख का कारण। जंगल साफ हो जाते हैं, पर बदले में हमें उष्णता मिलती है। सूर्य समुद्र से पानी लेता है, इसलिए कि वह वर्षा करे। तुम भी लेन-देन के यंत्र मात्र हो। तुम इसलिए लेते हो कि तुम दो। बदले में कुछ भी मत माँगो। तुम जितना ही अधिक दोगे, उतना ही अधिक तुम्हें वापस मिलेगा। जितनी ही जल्दी इस कमरे की हवा तुम खाली करोगे, उतनी ही जल्दी यह बाहरी हवा से भर जायगा।

पर यदि तुम सब दरवाजे-खिड़कियाँ और रंध्र बंद कर लो, तो अन्दर की हवा अन्दर रहेगी जरूर, किंतु बाहरी हवा कभी अन्दर नहीं आएगी, जिससे अन्दर की हवा दूषित, गंदी और विषैली बन जायगी। नदी अपने आपको समुद्र में लगातार खाली किये जा रही है और वह फिर से लगातार भरती आ रही है। समुद्र की ओर गमन बंद मत करो। जिस क्षण तुम ऐसा करते हो, मृत्यु तुम्हें आ दबाती है।

इसलिए भिखारी मत बनो। अनासक्त रहो। जीवन का यही एक अत्यन्त कठिन कार्य है। पर मार्ग की आपत्तियों के सम्बन्ध में सोचते मत रहो। कल्पना-शक्ति द्वारा आपत्तियों का चित्र खड़ा करने से भी हमें उनका सच्चा ज्ञान नहीं होता, जब तक हम उनका प्रत्यक्ष अनुभव न करें। दूर से उद्यान का विहंगम दृश्य दिख सकता है, पर इससे क्या? उसका सच्चा ज्ञान और अनुभव तो अन्दर जाने पर हमें होता है। चाहे हमें प्रत्येक कार्य में असफलता मिले, हमारे टुकड़े टुकड़े हो जायँ और खून की धार बहने लगे, फिर भी हमें अपना हृदय थामकर रखना होगा। इन आपत्तियों में ही अपने ईश्वरत्व की हमें घोषणा करनी होगी। प्रकृति चाहती है कि हम प्रतिक्रिया करें; घूँसे के लिए घूँसा, झूठ के लिए झूठ और चोट के लिए भरसक चोट लगाएँ। पर बदले में प्रतिघात न करने के लिए, संतुलन बनाये रखने के लिए तथा अनासक्त होने के लिए परा दैवी शक्ति की आवश्यकता होती है।

अनासक्त बनने का अपना निश्चय हम प्रतिदिन दुहराते हैं। हम अपनी दृष्टि पीछे डालते हैं और देखते हैं अपनी आसक्ति और प्रेम के पुराने विषयों की ओर, और अनुभव करते हैं कि उनमें से प्रत्येक ने हमें कैसे दुःखी बनाया, अपने ‘प्यार’ के कारण हम किस प्रकार निराशा के गर्त में पड़ गये, सदा दूसरों के हाथों गुलाम ही रहते आये और नीचे ही नीचे खिंचते गये! हम फिर से नया निश्चय करते हैं, ‘आज से मैं स्वयं पर अपना शासन करूँगा, मैं अपना स्वामी बनूँगा।’ पर समय आता है और फिर से एक बार वही पुराना किस्सा! हम फिर बन्धन में पड़ जाते हैं और मुक्त नहीं हो पाते। पक्षी जाल में फँस जाता है, छटपटाता है, फड़फड़ाता है। यही है हमारा जीवन।

मुझे इन कठिनाइयों का ज्ञान है; वे भयानक हैं। नब्बे प्रतिशत निराश हो धैर्य खो बैठते हैं। वे प्रायः निराशावादी बन जाते हैं और प्रेम तथा सच्चाई में विश्वास करना छोड़ देते हैं। जो कुछ दिव्य एवं भव्य है, उस पर से भी उनका विश्वास उठ जाता है। इसीलिए हम देखते हैं कि जो मनुष्य जीवन के आरम्भ में क्षमाशील, दयालु, सरल और निष्पाप थे, बुढ़ापे में झूठे और पाखण्डी बन जाते हैं। उनके मन जटिलताओं से भर जाते हैं। संभव है कि उसमें उनकी बाह्य नीति हो। हो सकता है कि इनमें से अधिकांश लोग ऊपर ऊपर से गरम मिजाज के न हों, वे कुछ बोलते न हों; पर यह उनके लिए अच्छा होता कि वे बोलते। उनके हृदय की स्फूर्ति मर चुकी है और इसीलिए वे नहीं बोलते। वे न तो शाप देते हैं और न क्रोध करते हैं; पर यह उनके लिए अधिक अच्छा होता, यदि वे क्रोध कर सकते, हजार गुना अच्छा होता, यदि वे शाप दे सकते। वे असमर्थ हैं। उनके हृदय में मृत्यु है, क्योंकि ठंडे हाथों ने उसको ऐसा जकड़ लिया है कि वह अब एक शाप देने या एक कड़ा शब्द कहने तक के लिए भी स्पन्दित नहीं हो सकता।

यह आवश्यक है कि हम इन सबसे बचें। इसीलिए मैं कहता हूँ कि हमें परा दैवी शक्ति की जरूरत है। अतिमानवी शक्ति पर्याप्त नहीं है। परा दैवी शक्ति ही छुटकारे का एकमेव मार्ग है। केवल उसीके बल पर हम इन उलझनों और जटिलताओं में से, आपत्तियों की इन बौछारों में से बिना झुलसे पार आ सकते हैं। चाहे हम चीर डाले जायें और हमारे चिथड़े चिथड़े कर दिये जायँ, पर हमारा हृदय सर्वदा अधिकाधिक उदार ही होता जाना चाहिए।

यह बहुत कठिन है, पर यह कठिनाई लगातार अभ्यास द्वारा दूर की जा सकती है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जब तक हम अपने आपको दुर्बल न बनाएँ, तब तक हम पर कुछ नहीं हो सकता। मैंने अभी ही कहा है कि जब तक शरीर रोग के प्रति पूर्वप्रवृत्त न हो, मुझे कोई रोग नही होगा। रोग होना केवल कीटाणुओं पर ही अवलम्बित नहीं है, पर शरीर की पूर्वानुकूलता पर भी। हमें वही मिलता है, जिसके हम पात्र हैं। आओ, हम अपना अभिमान छोड़ दें और यह समझ लें कि हम पर आयी हुई कोई भी आपत्ति ऐसी नहीं है, जिसके हम पात्र न थे। फ़िजूल चोट कभी नहीं पड़ी; ऐसी कोई बुराई नहीं है, जो मैंने स्वयं अपने हाथों न बुलाई हो। इसका हमें ज्ञान होना चाहिए। तुम आत्मनिरीक्षण कर देखो, तो पाओगे कि ऐसी एक भी चोट तुम्हें नहीं लगी, जो स्वयं तुम्हारी ही की गयी न हो। आधा काम तुमने किया और आधा बाहरी दुनिया ने, और इस तरह तुम्हें चोट लगी। यह विचार हमें गम्भीर बना देगा। और साथ ही, इस विश्लेषण से आशा की आवाज आएगी, ‘बाह्य जगत् पर मेरा नियंत्रण भले न हो, पर जो मेरे अन्दर है, जो मेरे अधिक निकट है, वह मेरा अन्तर्जगत् मेरे अधिकार में है। यदि असफलता के लिए इन दोनों के संयोग की आवश्यकता होती हो, यदि चोट लगने के लिए इन दोनों का इकट्ठे होना जरूरी हो, तो मेरे अधिकार में जो दुनिया है, उसे मैं नही छोडूँगा, फिर देखूँगा कि मुझे चोट कैसे लगती है? यदि मैं स्वयं पर सच्चा प्रभुत्व पा जाऊँ, तो चोट कभी नही लग सकेगी।’

हम बचपन से ही सर्वदा अपने से बाहर किसी दूसरी वस्तु पर दोष मढ़ने का प्रयत्न किया करते हैं। हम सदा दूसरों के सुधार में तत्पर रहते हैं, पर अपने सुधार में नहीं। यदि हम दुःखी होते हैं, तो चिल्लाते हैं कि ‘यह तो शैतान की दुनिया है!’ हम दूसरों को दोष देते हैं और कहते हैं, ‘कैसे मोहग्रस्त पागल हैं!’ पर यदि हम सचमुच इतने अच्छे हैं, तो हम ऐसी दुनिया में भला रहते कैसे हैं? यदि यह शैतान की दुनिया है, तो हम भी शैतान ही हैं, नहीं तो हम यहाँ क्यों रहते? ‘ओह, संसार के लोग कितने स्वार्थी हैं!’ – सच है, पर यदि हम उनसे अच्छे हैं, तो फिर हमारा उनसे सम्बन्ध कैसे हुआ? जरा यह सोचो तो।

जिसके हम पात्र हैं, वही हम पाते हैं। जब हम कहते हैं कि दुनिया बुरी है और हम अच्छे, तो यह सरासर झूठ है। ऐसा कभी हो नहीं सकता। यह एक भीषण असत्य है, जो हम अपने से कहते हैं।

अतएव, सीखने का पहला पाठ यह है : निश्चय कर लो कि बाहरी किसी भी वस्तु पर तुम दोष न मढ़ोगे, उसे अभिशाप न दोगे। इसके विपरीत, मनुष्य बनो, उठ खड़े हो और दोष स्वयं अपने ऊपर मढ़ो। तुम अनुभव करोगे कि यह सर्वदा सत्य है। स्वयं अपने को वश में करो।

क्या यह लज्जा का विषय नहीं है कि एक बार तो हम अपने मनुष्यत्व की, अपने देवता होने की बड़ी बड़ी बातें करें, हम कहें कि हम सर्वज्ञ हैं, सब कुछ करने में समर्थ हैं, निर्दोष हैं, पापहीन हैं और दुनिया में सबसे निःस्वार्थी हैं, और दूसरे ही क्षण एक छोटा सा पत्थर भी हमें चोट पहुँचा दे, किसी साधारण से साधारण मनुष्य का जरा सा क्रोध भी हमें जख्मी कर दे और कोई भी चलता राहगीर ‘हम देवताओं’ को दुःखी बना दे! यदि हम ऐसे देवता हैं, तो क्या ऐसा होना चाहिए? क्या दुनिया को दोष देना उचित है? क्या परमेश्वर, जो पवित्रतम और सबसे उदार है, हमारी किसी भी चालबाजी के कारण दुःख में पड़ सकता है। यदि तुम सचमुच इतने निःस्वार्थी हो, तो तुम परमेश्वर के समान हो। फिर कौन सी दुनिया तुम्हें चोट पहुँचा सकती है? सातवें नरक में से भी तुम बिना झुलसे, बिना स्पर्श हुए निकल जाओगे। पर यह बात ही कि तुम शिकायत करते हो और बाहरी दुनिया पर दोष मढ़ना चाहते हो, बताती है कि तुम्हें बाहरी दुनिया का बोध हो रहा है; और इसीसे यह स्पष्ट है कि तुम वह नहीं हो, जैसा अपने को बतलाते हो। दुःख पर दुःख रचकर और यह मान लेकर कि दुनिया हमें चोट पहुँचाये जा रही है, तुम अपने अपराध को अधिक बड़ा बनाते जाते हो और चीखते जाते हो, ‘अरे बाप रे, यह तो शैतान की दुनिया है! यह मनुष्य मुझे चोट पहुँचा रहा है, वह मनुष्य मुझे चोट पहुँचा रहा है’ – आदि आदि। यह तो दुःख पर झूठ का रंग चढ़ाना हुआ।

अपनी चिन्ता हमें स्वयं ही करनी है। इतना तो हम कर ही सकते हैं। हमें कुछ समय तक दूसरों की ओर ध्यान देने का खयाल छोड़ देना चाहिए। आओ, हम अपने साधनों को पूर्ण बना लें; फिर साध्य अपनी चिन्ता स्वयं कर लेगा। क्योंकि दुनिया तभी पवित्र और अच्छी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम है उसके कारण। इसलिए आओ, हम अपने आपको पवित्र बना लें! आओ, हम अपने आपको पूर्ण बना लें!

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