श्रीरामकृष्ण मठ को अद्वितीय धर्मक्षेत्र बना लेने की स्वामी विवेकानंद की इच्छा
स्थान – बेलुड़ – किराये का मठ
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – श्रीरामकृष्ण मठ को अद्वितीय धर्मक्षेत्र बना लेने की स्वामीजी की इच्छा – मठ में ब्रह्मचारियों को किस प्रकार शिक्षा देने का संकल्प था – ब्रह्मचर्याश्रम, अन्नक्षेत्र व सेवाश्रम की स्थापना करके ब्रह्मचारियों का संन्यासव ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के योग्य बनाने की इच्छा – उससे जनसाधारण काक्या भला होगा – परार्थ-कर्म बन्धन का कारण नहीं होता – माया का आवरणहट जाने पर ही सभी जीवों का विकास होता है – उस प्रकार के विकास द्वारासत्यसंकल्पत्व प्राप्त होता है – मठ को सर्व-धर्म-समन्वय-क्षेत्र बनाने कीयोजना – शुद्धाद्वैत का आचरण संसार की प्रायः सभी प्रकार की स्थितियों मेंकिया जा सकता है; इस संसार में स्वामीजी का आगमन यही दिखाने के लिए है – एक श्रेणी के वेदान्तवादियों का मत कि संसार में जब तक सब मुक्त न होंगे, तब तक तुम्हारी मुक्ति असम्भव है – ब्रह्मज्ञान के उपरान्त इस बात की अनुभूति कि स्थावरजंगम समग्र जगत् तथा सभी जीव अपनी ही सत्ता हैं – अज्ञान के सहारे ही संसार में सब प्रकार के कामकाज चल रहे हैं – अज्ञानका आदि व अन्त – इस विषय में शास्त्रोक्त्ति – ‘अज्ञान प्रवाह के रूप में नित्य जैसा लगता है, परन्तु उसका अन्त होता है’ – समस्त ब्रह्माण्ड ब्रह्म में अध्यस्तहो रहा है – जिसे पहले कभी नहीं देखा, उसके सम्बन्ध में अध्यास होता हैया नहीं – ब्रह्मतत्त्व का स्वाद गूँगे के स्वाद जैसा होता है (मूकास्वादनवत्)
आज दिन के करीब दो बजे के समय शिष्य पैदल चलकर मठ में आया है। अब मठ को स्थानान्तरित कर नीलाम्बर बाबू के बगीचेवाले मकान में लाया गया है। और इस मठ की जमीन भी थोड़े दिन हुए खरीदी गयी है। स्वामीजी शिष्य को साथ लेकर दिन के करीब चार बजे मठ की नयी जमीन में घूमने निकले हैं। मठ की जमीन उस समय भी जंगलों से पूर्ण थी। उस समय उस जमीन के उत्तर भाग में एक मंजिले का एक पक्का मकान था। उसी की मरम्मत करके वर्तमान मठ-भवन निर्मित हुआ है। जिन सज्जन ने मठ की जमीन खरीद दी थी, उन्होंने भी स्वामीजी के साथ थोड़ी दूर तक आकर विदा ली। स्वामीजी शिष्य के साथ मठ की भूमि पर भ्रमण करने लगे और वार्तालाप के सिलसिले में भावी मठ की रूपरेखा तथा नियम आदि की चर्चा करने लगे।
धीरे धीरे एक मंजिले मकान के पूर्व दिशावाले बरामदे में पहुँचकर घूमते घूमते स्वामीजी बोले, “यहीं पर साधुओं के रहने का स्थान होगा। यह मठ साधनभजन एवं ज्ञानचर्चा का प्रधान केन्द्र होगा – यही मेरी इच्छा है। यहाँ से जिस शक्ति की उत्पत्ति होगी वह पृथ्वी भर मैं फैल जायगी और वह मनुष्य के जीवन की गति को परिवर्तित कर देगी। ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म के समन्वयस्वरूप मानव-हितकर उच्च आदर्श यहाँ से प्रसृत होंगे। इस मठ के पुरुषों के इशारे पर एक समय दिग्-दिगन्त में प्राण का संचार होगा। समय पर यथार्थ धर्म के सब प्रेमी यहाँ आकर एकत्रित होंगे – मन में इसी प्रकार की कितनी ही कल्पनाएँ उठ रही हैं।”
“मठ के वह जो दक्षिण-भाग की जमीन देख रहा है, वहाँ पर विद्या का केन्द्र बनेगा। व्याकरण, दर्शन, विज्ञान, काव्य, अलंकार, स्मृति, भक्तिशास्त्र और राजभाषा की शिक्षा उसी स्थान में दी जायगी। प्राचीन काल की पाठशाला के अनुकरण में वह विद्यामन्दिर स्थापित होगा। बालब्रह्मचारीगण उस स्थान पर रहकर शास्त्रों का अध्ययन करेंगे। उनके भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध मठ की ओर से किया जायगा। ये सब ब्रह्मचारीगण पाँच वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् यदि चाहेंगे तो घर लौटकर गृहस्थी कर सकेंगे। यदि इच्छा हो तो मठ के महापुरुषों की अनुमति लेकर संन्यास भी ले सकेंगे। इन ब्रह्मचारियों में जो उच्छृंखल या दुश्चरित्र पाये जायेंगे, उन्हें मठाधिपति उसी समय बाहर निकाल देंगे। यहाँ पर सभी जाति और वर्ण के शिक्षार्थियों को शिक्षा दी जायगी। इसमें जिन्हें आपत्ति होगी उन्हें नहीं लिया जायगा, परन्तु जो लोग अपनी जाति वर्णाश्रम के आचारों को मानकर चलना चाहेंगे, उन्हें अपने भोजन आदि का प्रबन्ध स्वयं कर लेना होगा। वे केवल अध्ययन ही दूसरों के साथ करेंगे। उनके भी चरित्र के सम्बन्ध में मठाधिपति सदा कड़ी दृष्टि रखेंगे। यहाँ पर शिक्षित न होने से कोई संन्यास का अधिकारी न बन सकेगा। धीरे धीरे जब इस प्रकार मठ का काम प्रारम्भ होगा उस समय कैसा होगा, बोल तो।”
शिष्य – तो क्या आप प्राचीन काल की तरह गुरुगृह में ब्रह्मचर्याश्रम की प्रथा को देश में फिर से प्रचलित करना चाहते हैं?
स्वामीजी – और नहीं तो क्या? इस समय देश में जिस प्रकार की शिक्षा दी जा रही है, उसमें ब्रह्मविद्या के विकास का जरा भी स्थान नहीं है। पहले के समान ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित करने होंगे। परन्तु इस समय उनकी नींव व्यापक भावसमूह पर डालनी होगी, अर्थात, समयानुसार उसमें अनेक उपयुक्त परिवर्तन करने होंगे। वह सब बाद में बतलाऊँगा।
स्वामीजी फिर कहने लगे – “मठ के दक्षिण में वह जो जमीन है, उसे भी किसी दिन खरीद लेना होगा। वहाँ पर मठ का लंगरखाना रहेगा। वहाँ पर वास्तविक गरीब दुःखियों को नारायण मानकर सेवा करने की व्यवस्था रहेगी। वह लंगरखाना श्रीरामकृष्णजी के नाम पर स्थापित होगा। जैसा धन जुटेगा उसी के अनुसार लंगरखाना पहलेपहल खोलना होगा। ऐसा भी हो सकता है कि पहलेपहल दो-तीन ही व्यक्तियों को लेकर काम प्रारम्भ किया जाय। उत्साही ब्रह्मचारियों को इस लंगरखाने का संचालन सिखाना होगा। उन्हें कहीं से प्रबन्ध करके, आवश्यक हो तो भीख माँगकर भी इस लंगरखाने को चलाना होगा। इस विषय में मठ किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं कर सकेगा। ब्रह्मचारियों को ही उनके लिए धन संग्रह करके लाना पड़ेगा। इस प्रकार धर्मार्थ लंगर में पाँच वर्ष की शिक्षा समाप्त होने पर वे विद्यामन्दिर शाखा में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर सकेंगे। लंगरखाने में पाँच वर्ष और विद्यामन्दिर में पाँच वर्ष, कुल दस वर्ष शिक्षा ग्रहण के बाद मठ के स्वामियों द्वारा दीक्षित होकर वे संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो सकेंगे – बशर्ते कि वे संन्यासी बनना चाहें और मठ के अध्यक्षगण उन्हें योग्य अधिकारी समझकर संन्यास देना चाहें। परन्तु मठाध्यक्ष किसी किसी विशेष सद्गुणी ब्रह्मचारी के सम्बन्ध में उस नियम का उल्लंघन भी करके उन्हें जब इच्छा हो संन्यास की दीक्षा दे सकेंगे। परन्तु साधारण ब्रह्मचारियों को, जैसा मैंने पहले कहा है, उसी प्रकार क्रमशः संन्यासाश्रम में प्रवेश करना होगा। मेरे मस्तिष्क में ये सब भाव मौजूद हैं।”
शिष्य – महाराज, मठ में इस प्रकार तीन शाखाओं की स्थापना का क्या उद्देश्य होगा?
स्वामीजी – समझा नहीं? पहले अन्नदान, उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि ज्ञानदान। इन तीन भावों का समन्वय इस मठ से करना होगा। अन्नदान करने की चेष्टा करते करते ब्रह्मचारियों के मन में परार्थ कर्म में तत्परता तथा शिव मानकर जीवसेवा का भाव दृढ़ होगा। उससे उनका चित्त धीरे धीरे निर्मल होकर उसमें सात्त्विक भाव का स्फुरण होगा। तभी ब्रह्मचारीगण समय पर ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की योग्यता एवं संन्यासाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर सकेंगे।
शिष्य – महाराज, ज्ञानदान ही यदि श्रेष्ठ है, फिर अन्नदान और विद्यादान की शाखाएँ स्थापित करने की क्या आवश्यकता है?
स्वामीजी – तू अभी तक मेरी बात नहीं समझा! सुन – इस अन्नाभाव के युग में यदि तू दूसरों के लिए सेवा के उद्देश्य से गरीब दुःखियों को, भिक्षा माँगकर या जैसे भी हो, दो ग्रास अन्न दे सका, तो जीव जगत् तथा तेरा तो कल्याण होगा ही – साथ ही साथ तू इस सत्कार्य के लिए सभी की सहानुभूति भी प्राप्त कर सकेगा। इस सत्कार्य के लिए तुझ पर विश्वास करके कामकांचन में बंधे हुए गृहस्थ लोग भी तेरी सहायता करने के लिए अग्रसर होंगे। तू विद्यादान या ज्ञानदान करके जितने लोगों को आकर्षित कर सकेगा, उसके हजार गुने लोग तेरे इस अयाचित अन्नदान द्वारा आकृष्ट होंगे। इस कार्य में तुझे साधारण जनों की जितनी सहानुभूति प्राप्त होगी उतनी अन्य किसी कार्य में प्राप्त नहीं हो सकती। यथार्थ सत्कार्य में मनुष्य को भगवान भी सहायक होते हैं। इसी तरह लोगों के आकृष्ट होने पर ही तू उनमें विद्या व ज्ञान प्राप्त करने की आकांक्षा को उद्दीप्त कर सकेगा। इसीलिए पहले अन्नदान ही आवश्यक है।
शिष्य – महाराज, धर्मार्थ लंगरखाना खोलने के लिए पहले स्थान चाहिए; उसके बाद उसके लिए मकान आदि बनवाना पड़ेगा, फिर काम चलाने के लिए धन चाहिए; इतना रुपया कहाँ से आयगा?
स्वामीजी – मठ का दक्षिण भाग मैं अभी छोड़ देता हूँ और उस बेल के पेड़ के नीचे एक झोपड़ा खड़ा कर देता हूँ। तू एक या दो अन्धेलूले खोज कर ले आ और कल से ही उनकी सेवा में लग जा। स्वयं उनके लिए भिक्षा माँगकर ला। स्वयं पकाकर उन्हें खिला। इस प्रकार कुछ दिन करने से ही देखेगा – तेरे इस कार्य में सहायता करने के लिए कितने ही लोग अग्रसर होंगे, कितने ही लोग धन देंगे! ‘न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति।’
शिष्य – हाँ, ठीक है। परन्तु इस प्रकार लगातार कर्म करते करते समय पर कर्म बंधन भी तो आ सकता है?
स्वामीजी – कर्म के परिणाम के प्रति यदि तेरी दृष्टि न रहे और सभी प्रकार की कामना तथा वासनाओं के परे जाने के लिए यदि तुझमें एकान्त आग्रह रहे, तो वे सब सत्कार्य तेरे कर्मबन्धन काट डालने में ही सहायता करेंगे। ऐसे कर्म से कहीं बन्धन आयेगा? – यह तू कैसी बात कह रहा है? इस प्रकार से दूसरों के लिए किये हुए कर्म ही कर्मबन्धनों की जड़ को काटने के लिए एकमात्र उपाय हैं! ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’।
शिष्य – महाराज, अब तो मैं धर्मार्थ लंगर और सेवाश्रम के सम्बन्ध में आपके मनोभाव को विशेष रूप से सुनने के लिए और भी उत्कण्ठित हो रहा हूँ।
स्वामीजी – गरीब दुःखियों के लिए ऐसे छोटे छोटे कमरे बनवाने होंगे, जिसमें हवा आने-जाने की अच्छी व्यवस्था रहे। एक एक कमरे में दो या तीन व्यक्ति रहेंगे। उन्हें अच्छे बिछौने और साफ कपड़े देने होंगे। उनके लिए डाक्टर रहेंगे। सप्ताह में एक या दो बार सुविधानुसार वे उन्हें देख जायेंगे। धर्मार्थ लंगरखाने के भीतर सेवाश्रम एक विभाग की तरह रहेगा, इसमे रोगियों की सेवा-शुश्रूषा की जायगी। धीरे धीरे जैसे धन आता जायेगा, वैसे वैसे एक बड़ा रसोईघर बनाना होगा। लंगरखाने में केवल ‘दीयता भुज्यताम्’ – यही ध्वनि उठेगी। भात का पानी गंगाजी में पड़कर गंगाजी का जल सफेद हो जायगा। इस प्रकार धर्मार्थ लंगरखाना बना देखकर मेरे प्राणों को शान्ति मिलेगी।
शिष्य ने कहा, “आपकी जब इस प्रकार इच्छा है, तो सम्भव है समय पर वास्तव में ऐसा ही हो।” शिष्य की यह बात सुनकर स्वामीजी गंगाजी की ओर थोड़ी देर ताकते हुए मौन रहे। फिर प्रसन्न मुख से शिष्य से सस्नेह बोले – “तुममें से कब किसके भीतर से सिंह जाग उठेगा, यह कौन जानता है? तुममें से एक एक में यदि माँ शक्ति जगा दें तो पृथ्वी भर में वैसे कितने ही लंगरखाने बन जायेंगे। क्या जानता है – ज्ञान, भक्ति, शक्ति सभी जीवों में पूर्ण भाव से विद्यमान हैं पर उनके विकास की न्यूनाधिकता को ही केवल हम देखते हैं और इस कारण इसे बड़ा और उसे छोटा मानने लगते हैं। जीव के मन में मानो एक प्रकार का पर्दा बीच में पड़कर सम्पूर्ण विकास को रोक कर खड़ा है। वह हट जाने पर बस सब कुछ हो जायगा! उस समय जो चाहेगा, जो इच्छा करेगा वही होगा।”
स्वामीजी की बात सुनकर शिष्य सोचने लगा कि उसके स्वयं के मन के भीतर का वह पर्दा कब हटकर उसे ईश्वरदर्शन प्राप्त होगा!
स्वामीजी फिर कहने लगे – “यदि ईश्वर चाहेगा तो इस मठ को समन्वय का महान क्षेत्र बना डालना होगा। हमारे श्रीरामकृष्ण सर्व भावों की साक्षात् समन्वय-मूर्ति हैं। उस समन्वय के भाव को यहाँ पर जगाकर रखने से श्रीरामकृष्ण संसार में प्रतिष्ठित रहेंगे। सर्व मत, सर्व पन्थ, ब्राह्मण-चाण्डाल सभी लोग जिससे यहाँ पर आकर अपने अपने आदर्श को देख सके, यही करना होगा। उस दिन जब मठभूमि पर श्रीरामकृष्ण की प्राणप्रतिष्ठा की, उस समय ऐसा लगा मानो यहाँ से उनके भावों का विकास होकर चराचर विश्व भर में छा गया है। मैं तो जहाँ तक हो सके कर रहा हूँ और करूँगा – तुम लोग भी श्रीरामकृष्ण के उदार भाव लोगों को समझा दो; केवल वेदान्त पढ़ने से कोई लाभ न होगा। असल में प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन में शुद्धाद्वैत की सत्यता को प्रमाणित करना होगा। श्रीशंकर इस अद्वैतवाद को जंगलों और पहाड़ों में रख गये हैं; मैं अब उसे वहाँ से लाकर संसार और समाज में प्रचारित करने के लिए आया हूँ। घर घर में, घाट मैदान में, जंगल पहाड़ों में इस अद्वैतवाद का गम्भीर नाद उठाना होगा। तुम लोग सहायक बनकर काम में लग जाओ।”
शिष्य – महाराज, ध्यान की सहायता से उस भाव का अनुभव करने में ही मानो अच्छा लगता है। उछलकूद करने की इच्छा नहीं होती।
स्वामीजी – यह तो नशा करके बेहोश पड़े रहने की तरह हुआ। केवल ऐसे कहकर क्या होगा? अद्वैतवाद की प्रेरणा से कभी ताण्डव नृत्य कर, तो कभी स्थिर होकर रह। अच्छी चीज पाने पर क्या उसे अकेले खाकर ही सुख होता है? दस आदमियों को देकर खाना चाहिए। आत्मानुभूति प्राप्त करके यदि तू मुक्त हो गया तो इससे दुनिया को क्या लाभ होगा? त्रिजगत् को मुक्त करना होगा। महामाया के राज्य में आग लगा देनी होगी; तभी नित्यसत्य में प्रतिष्ठित होगा। उस आनन्द की क्या कोई तुलना है? – निरवधिगगनाभम्’ – आकाशकल्प भूमानन्द में प्रतिष्ठित होगा, जीव जगत् में सर्वत्र तेरी अपनी सत्ता देखकर दंग रह जायगा! स्थावर और जंगम सभी तेरी अपनी सत्ता ज्ञात होंगे। उस समय सभी की आत्मौपम्य भाव से सेवा किये बिना तू रह नहीं सकेगा। ऐसी ही स्थिति को व्यावहारिक जीवन में वेदान्त कहते हैं – समझा? वह ब्रह्म एक होकर भी व्यावहारिक रूप में अनेक रूपों में सामने विद्यमान है। नाम व रूप व्यवहार के मूल में मौजूद हैं। जिस प्रकार घड़े का नाम-रूप छोड़ देने से क्या देखता है – केवल मिट्टी, जो उसकी वास्तविक सत्ता है। इसी प्रकार भ्रम द्वारा घट, पट इत्यादि का भी तू विचार करता है तथा उन्हें देखता है। ज्ञान-प्रतिबन्धक यह जो अज्ञान है, जिसकी वास्तविक कोई सत्ता नहीं है, उसी को लेकर व्यवहार चल रहा है। स्त्री-पुत्र, देह-मन जो कुछ है – सभी नाम-रूप की सहायता से अज्ञान की सृष्टि में देखने में आते हैं – ज्यों ही अज्ञान हट जायगा त्यों ही ब्रह्मसत्ता की अनुभूति हो जायगी।
शिष्य – यह अज्ञान आया कहाँ से?
स्वामीजी – कहाँ से आया यह बाद में बताऊँगा। तू जब रस्सी को साँप मानकर भय से भागने लगा, तब क्या रस्सी साँप बन गयी थी? या तेरी अज्ञता ने ही तुझे उस प्रकार भगाया था?
शिष्य – अज्ञता ने ही वैसा किया था।
स्वामीजी – तो फिर सोचकर देख – तू जब फिर रस्सी को रस्सी जान सकेगा, उस समय अपनी पहलेवाली अज्ञता का चिन्तन कर तुझे हँसी आयगी या नहीं? उस समय नाम-रूप मिथ्या जान पड़ेंगे या नहीं?
शिष्य – जी हाँ।
स्वामीजी – यदि ऐसा है, तो नाम-रूप मिथ्या हुए या नहीं? इसी प्रकार ब्रह्मसत्ता ही एकमात्र सत्य बन गयी। इस अनन्त सृष्टि की विचित्रताओं से भी उनके स्वरूप में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ, केवल तू इस अज्ञान के धीमे अन्धकार में यह स्त्री, यह पुत्र, यह अपना, यह पराया, ऐसा मानता हुआ इस सर्वविभासक आत्मा की सत्ता को समझ नहीं सकता! जिस समय गुरु के उपदेश और अपने विश्वास के द्वारा इस नामरूपात्मक जगत् को न देखकर इसकी मूल सत्ता का ही अनुभव करेगा, उस समय आब्रह्मस्तम्ब तक सभी पदार्तों में तेरी आत्मानुभूति होगी। उसी समय ‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः’ की स्थिति होगी।
शिष्य – महाराज, इस अज्ञान के आदि-अन्त की बातें जानने की मेरी इच्छा है।
स्वामीजी – जो चीज बाद में नहीं रहती है वह चीज झूठी है, यह तो समझ गया? जिसने वास्तव में ब्रह्म को जान लिया है, वह कहेगा, ‘अज्ञान फिर कहाँ है?’ वह रस्सी को रस्सी ही देखता है – साँप नहीं। जो लोग रस्सी को साँप के रूप में देखते हैं, उन्हें भयभीत देखकर उसे हँसी आती है! इसलिए अज्ञान का वास्तव में कोई स्वरूप नहीं है। अज्ञान को ‘सत्’ भी नहीं कहा जा सकता, ‘असत्’ भी नहीं कहा जा सकता। ‘संन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो।’ जो चीज इस प्रकार असत्य ज्ञात हो रही है उसके सम्बन्ध में क्या प्रश्न है और क्या उत्तर है? उस विषय में प्रश्न करना उचित भी नहीं हो सकता। क्यों, यही सुन – यह प्रश्नोत्तर भी तो उसी नाम-रूप या देश-काल की भावना से किया जा रहा है। ब्रह्मवस्तु नामरूप, देश-काल से परे है, उसे प्रश्नोत्तर द्वारा कैसे समझा जा सकता है? इसीलिए शास्त्र, मन्त्र आदि व्यावहारिक रूप से सत्य हैं – पारमार्थिक रूप से नहीं। अज्ञान का स्वरूप ही नहीं है, उसे फिर क्या समझेगा? जब ब्रह्म का प्रकाश होगा उस समय फिर इस प्रकार का प्रश्न करने का अवसर ही न रहेगा। श्रीरामकृष्ण की ‘मोची-मुटिया’ वाली कहानी1 सुनी है न? – बस, ठीक वही! अज्ञान को ज्यों ही पहचाना जाता है, त्यों ही वह भाग जाता है।
शिष्य – परन्तु महाराज, यह अज्ञान आया कहाँ से?
स्वामीजी – जो चीज है ही नहीं, वह फिर आयगी कैसे? हो तब तो आयगी?
शिष्य – तो फिर इस जीव जगत् की उत्पत्ति क्योंकर हुई?
स्वामीजी – एक ब्रह्मसत्ता ही तो मौजूद है! तू मिथ्या नाम-रूप देकर उसे नाना रूपों और नामों में देख रहा है।
शिष्य – यह मिथ्या नाम-रूप भी क्यों और वह कहाँ से आया?
स्वामीजी – शास्त्रों में इस नामरूपात्मक संस्कार या अज्ञता को प्रवाह के रूप में नित्यप्राय कहा गया है! परन्तु उसका अन्त है। और ब्रह्मसत्ता तो सदा रस्सी की तरह अपने स्वरूप में ही वर्तमान है। इसीलिए वेदान्त शास्त्र का सिद्धान्त है कि यह निखिल ब्रह्माण्ड ब्रह्म में अध्यस्त, इन्द्रजालवत् प्रतीत हो रहा है। इससे ब्रह्म के स्वरूप में किंचित् भी परिवर्तन नहीं हुआ। समझा?
शिष्य – एक बात अभी भी नहीं समझ सका।
स्वामीजी – वह क्या?
शिष्य – यह जो आपने कहा कि यह सृष्टि-स्थिति-लय आदि ब्रह्म में अध्यस्त हैं उनकी कोई स्वरूप-सत्ता नहीं है – यह कैसे हो सकता है? जिसने जिस चीज को पहले कभी नहीं देखा, उस चीज का भ्रम उसे हो ही नहीं सकता। जिसने कभी साँप नहीं देखा, उसे रस्सी में सर्प का भ्रम नहीं होता। इसी प्रकार जिसने इस सृष्टि को नहीं देखा, उसका ब्रह्म में सृष्टि का भ्रम क्यों होगा? अतः सृष्टि थी या है, इसीलिए सृष्टि का भ्रम हो रहा है; इसीसे द्वैत की आपत्ति उठ रही है।
स्वामीजी – ब्रह्मज्ञ व्यक्ति तेरे प्रश्न का इस रूप में पहले ही प्रत्याख्यान करेंगे कि उनकी दृष्टि में सृष्टि आदि बिलकुल दिखायी नहीं दे रही है। वे एकमात्र ब्रह्मसत्ता को ही देख रहे हैं। रस्सी ही देख रहे हैं; साँप नहीं देख रहे है। यदि तू कहेगा, ‘मैं तो यह सृष्टि या साँप देख रहा हूँ’ – तो तेरी दृष्टि के दोष को दूर करने के लिए वे तुझे रस्सी का स्वरूप समझा देने की चेष्टा करेंगे। जब उनके उपदेश और अपनी स्वयं की विचारशक्ति इन दोनों के बल पर तू रज्जुसत्ता या ब्रह्मसत्ता को समझ सकेगा, उस समय यह भ्रमात्मक सर्प-ज्ञान या सृष्टि-ज्ञान नष्ट हो जायगा। उस समय इस सृष्टिस्थिति-प्रलय रूपी भ्रमात्मक ज्ञान को ब्रह्म में आरोपित कहने के अतिरिक्त और तू क्या कह सकता है? अनादि प्रवाह के रूप में सृष्टि की यह प्रतीति यदि चली आयी है तो आती रहे, उसके निर्णय में लाभ-हानि कुछ भी नहीं है। ‘करामलक’ की तरह ब्रह्मतत्त्व का प्रत्यक्ष न होने पर इस प्रश्न की पूरी मीमांसा नहीं हो सकती; और इस समय फिर प्रश्न भी नहीं उठता, उत्तर की भी आवश्यकता नहीं होती! ब्रह्मतत्त्व का आस्वाद उस समय ‘मूकास्वादन’ की तरह होता है।
शिष्य – तो फिर इतना विचार करके क्या होगा?
स्वामीजी – उस विषय को समझने के लिए विचार है। परन्तु सत्य वस्तु विचार से परे है – ‘नैषा तर्केण मतिरापनेया।’
इस प्रकार वार्तालाप होते होते शिष्य स्वामीजी के साथ मठ में आकर उपस्थित हुआ। मठ में आकर स्वामीजी ने मठ के संन्यासी तथा ब्रह्मचारियों को आज के ब्रह्मविचार का संक्षिप्त सार समझा दिया और उठते उठते शिष्य से कहने लगे, ‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’।
- एक पण्डितजी किसी गाँव को जा रहे थे। उन्हें कोई नौकर नहीं मिला, इसलिए उन्होंने रास्ते के एक चमार को ही अपने साथ ले लिया और उसे सिखा दिया कि वह अपनी जातपाँत गुप्त रखे और किसी से कुछ भी न बोले। गाँव पहुँचकर एक दिन पण्डितजी अपने नित्यक्रम के अनुसार सन्ध्यावन्दन कर रहे थे और वह नौकर भी उनके पास बैठा था। इतने में ही वहाँ एक दूसरे पण्डितजी आये। वह अपने जूते कहीं छोड़ आये थे और उन्होंने इस नौकर को हुक्म दिया, ‘अरे जा, वहाँ से मेरे जूते तो ले आ।’ पर नौकर नहीं उठा और न कुछ बोला ही। पण्डितजी ने फिर कहा, पर वह फिर भी नहीं उठा। इस पर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उसे डाँटकर कहा, ‘तू बड़ा चमार है, कहने से भी नहीं उठता।’ अब तो नौकर बड़ा घबड़ाया, क्योंकि वह सचमुच चमार था। वह सोचने लगा, ‘अरे मेरी जात तो शायद इन्होंने जान ली।’ बस वह भागा, और ऐसा भागा कि उसका पता ही न चला। ठीक इसी प्रकार जब माया पहचान ली जाती है तो वह भी भाग जाती है, एक क्षण भी नहीं टिकती।