खाद्याखाद्य का विचार कैसे करना होगा
स्थान – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – खाद्याखाद्य का विचार कैसे करना होगा – मांसाहार किसे करना उचित है – भारत के वर्णाश्रम धर्म का किस रूप में फिर से उद्धार होने की आवश्यकता है।
शिष्य – स्वामीजी, क्या खाद्य-अखाद्य के साथ धर्माचरण का कुछ सम्बन्ध है?
स्वामीजी – थोड़ाबहुत अवश्य है।
शिष्य – मछली तथा माँस खाना क्या उचित तथा आवश्यक है?
स्वामीजी – खूब खाओ भाई, इससे जो पाप होगा वह मेरा।1 तुम अपने देश के लोगों की ओर एक बार ध्यान से देखो तो, मुँह पर मलिनता की छाया – छाती में न साहस, न उल्लास – पेट बड़ा, हाथ-पैरों मे शक्ति नहीं – डरपोक और कायर!
शिष्य – मछली और माँस खाने से यदि उपकार ही होता तो बौद्ध तथा वैष्णव धर्म में अहिंसा को ‘परमो धर्मः’ क्यों कहा गया है?
स्वामीजी – बौद्ध तथा वैष्णव धर्म अलग नहीं है। बौद्ध धर्म के उच्छेद के समय हिन्दू धर्म ने उसके कुछ नियमों को अपने में मिलाकर अपना लिया था। वही धर्म इस समय भारत वर्ष में वैष्णव धर्म के नाम से विख्यात है।
‘अहिंसा परमो धर्मः’ – बौद्ध धर्म का एक बहुत अच्छा सिद्धान्त है, परन्तु अधिकारी का विचार न करके जबरदस्ती राज्य की शक्ति के बल पर उस मत को सर्वसाधारण पर लादकर बौद्ध धर्म देश का सर्वनाश कर गया है। परिणाम यही हुआ कि लोक चीटियों को चीनी देते हैं – पर धन के लिए भाई का भी सर्वनाश कर डालते हैं। इस प्रकार ‘बकः परमधार्मिकः’ – के अनुसार जीवन व्यतीत करते अनेक देखे जाते हैं। दूसरी ओर देख, वैदिक तथा मनु के धर्म में मछली और माँस खाने का विधान है और साथ ही अहिंसा की बात भी है। अधिकारियों के भेद से हिंसा और अहिंसा धर्मों के पालन करने की व्यवस्था है। श्रुति ने कहा है – ‘मा हिंस्यात् सर्वभूतानि’, मनु ने भी कहा है – ‘निवृत्तिस्तु महाफला।’
शिष्य – लेकिन आजकल तो देखा है महाराज, धर्म की ओर जरा आकर्षण होते ही लोग मछली और मांस पहले ही त्याग देते हैं। कई लोगों की दृष्टि में तो व्यभिचार आदि गम्भीर पाप से भी मानो मछली और माँस खाना अधिक पाप है! – यह भाव कहाँ से आया?
स्वामीजी – कहाँ से आया यह जानने से तुझे क्या लाभ? परन्तु वह मत प्रविष्ट होकर जो तुम्हारे समाज तथा देश का सर्वनाश कर रहा है यह तो देख रहा है न? देखो न – तुम्हारे पूर्व बंग के लोग बहुत मछली और मांस खाते हैं, कछुआ खाते हैं, इसीलिए पश्चिम बंग के लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ हैं। पूर्व बंग में तो धनवानों ने भी अभी तक रात को पूड़ी या रोटी खाना नहीं सीखा। इसीलिए तो वे हमारे देश के लोगों की तरह अम्ल रोग के शिकार नहीं बने हैं। सुना है, पूर्व बंग के देहातों में लोग अम्ल रोग जानते ही नहीं।
शिष्य – जी हाँ हमारे देश में अम्ल रोग नाम का कोई रोग नहीं है। इस देश में आकर उस रोग का नाम सुना है। देश में हम दोनों समय मछली भात खाते हैं।
स्वामीजी – खूब खाया कर। घास-पात खाकर पेट-रोग से पीड़ित बाबाजी लोगों के दल से देश भर गया है। वे सत्त्वगुण के लक्षण नहीं है। महा तमोगुण की छाया है – मृत्यु की छाया है। सत्त्वगुण के लक्षण हैं – मुखमण्डल पर चमक – हृदय में अदम्य उत्साह, अतुल चपलता, और तमोगुण के लक्षण है आलस्य-जड़ता-मोह-निद्रा आदि।
शिष्य – परन्तु महाराज, मांस-मछली से तो रजोगुण की वृद्धि होती है।
स्वामीजी – मैं तो यही चाहता हूँ। इस समय रजोगुण की ही तो आवश्यकता है। देश के जिन सब लोगों को तू आज सत्त्वगुणी समझ रहा है – उनमें से पन्द्रह आने लोग तो घोर तमोगुणी हैं। एक आना मनुष्य सतोगुणवाले मिले तो बहुत है। अब चाहिए प्रबल रजोगुण की ताण्डव उद्दीपना – देश जो घोर तमसाछन्न है, देख नहीं रहा है? अब देश के लोगों को मछली-मांस खिलाकर उद्यमशील बना डालना होगा, जगाना होगा, कार्यतत्पर बनाना होगा। नहीं तो धीरे धीरे देश के सभी लोग जड़ बन जायेंगे – पेड पत्थरों के तरह जड़ बन जायेंगे। इसीलिए कह रहा था, मछली और मांस खूब खाना।
शिष्य – परन्तु महाराज, मन में जब सत्त्वगुण की अत्यन्त स्फुर्ति होती है, तब क्या मछली और मांस खाने की इच्छा रहती है?
स्वामीजी – नहीं, फिर इच्छा नहीं होती। सत्त्वगुण का जब बहुत विकास होता है तब मछली, मांस में रुचि नहीं रहती। परन्तु सत्त्वगुम के प्रकट होने के ये सब लक्षण समझो : दूसरों के हित के लिए सब प्रकार से यत्न करना, कामिनी-कांचन में सम्पूर्ण अनासक्त्ति, अभिमानशून्यता, अहंबुद्धिशून्यता आदि सब लक्षण जिसके होते हैं, उसकी फिर मांस खाने की इच्छा नहीं होती। और जहाँ पर देखेगा कि मन में उन सब गुणों का विकास नहीं है, परन्तु अहिंसा के दल मे केवल नाम लिखा लिया है – वहाँ पर या तो बगुला-भक्ति है या ऊपरी दिखावा धर्म है। तेरी जिस समय वास्तव में सत्त्वगुण में स्थिति होगी, उस समय तू मांसाहार छोड़ दे।
शिष्य – परन्तु महाराज, छान्दोग्य उपनिषद में तो कहा है, ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’ – शुद्ध वस्तु खाने से सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, इत्यादि। अतः सत्त्वगुणी बनने के लिए पहले सेही रजः व तमोगुण को उद्दीपित करने वाले पदार्तों को छोड़ देना ही क्या यहाँ पर श्रुति का अभिप्राय नहीं है?
स्वामीजी – उस श्रुति का भाष्य करते हुए शंकराचार्यजी ने कहा है – ‘आहार’ यानी इन्द्रियविषयः; और श्रीरामानुज ने ‘आहार’ का अर्थ खाद्य माना है। मेरा मत है कि उन दोनों के मतों में सामंजस्य कर लेना होगा। केवल दिनरात खाद्य और अखाद्य पर वादविवाद करके ही जीवन व्यतीत करना उचित है या वास्तव में इन्द्रियसंयम करना आवश्यक है? अतएव हमें इन्द्रियसंयम को ही मुख्य उद्देश्य मान लेना होगा; और उस इन्द्रियसंयम के लिए ही भले बुरे खाद्य अखाद्य का थोड़ा-बहुत विचार करना होगा। शास्त्रों ने कहा है, खाद्य तीन प्रकार के दोषों से अपवित्र तथा ताज्य होता है। १ – जातिदोष – जैसे प्याज, लहसुन आदि। २ – निमित्तदोष – जैसे हलवाई की दूकान की मिठाई, जिसमें कितनी ही मरी मख्खियाँ तथा रास्ते की धूल उड़कर पड़ी रहती है, आदि। ३ – आश्रयदोष – जैसे बुरे व्यक्ति द्वारा छुआ हुआ अन्न आदि। जातिदोष अथवा निमित्तदोष से खाद्य युक्त्त है या नहीं इस पर सभी समय विशेष दृष्टि रखनी चाहिए; परन्तु इस देश में इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया जाता। केवल शेषोक्त्त दोष को ही लेकर – जो योगियों के अतिरिक्त शायद दूसरा कोई समझ ही नहीं सकता – देश में व्यर्थ के संघर्ष हो रहे हैं। ‘छुओ मत, छुओ मत’ यह कहकर छूतपन्थियों ने देश को तंग कर डाला है। वहाँ भी भले-बुरे का विचार नहीं है – केवल गले में यज्ञोपवीत धारण कर लेने से ही उसके हाथ का अन्न खाने में छूत धर्मियों को फिर आपत्ति नहीं रहती। खाद्य के आश्रयदोष पर ध्यान देते एक मात्र श्रीरामकृष्ण को ही देखा है। ऐसी अनेक घटनाएँ हुई हैं जब कि वे किसी किसी व्यक्ति का छुआ हुआ नहीं खा सकते थे। कभी कभी विशेष खोज करने पर जब पता लगाया जाता था तो वास्तव में उस व्यक्ति में कोई न कोई बड़ा दोष अवश्य निकलता था। तुम लोगो का सब धर्म, अब भात की हण्डियों में ही रह गया है। दूसरी जाति का छुआ भात न खाने से ही मानो भगवान की प्राप्ति हो गयी। शास्त्र के सब महान् सत्यों को छोड़कर केवल ऊपरी छिलका लेकर ही आजकल संघर्ष चल रहा है।
शिष्य – महाराज, तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि किसी का भी छुआ अन्न हमें खा लेना चाहिए?
स्वामीजी – ऐसा क्यों कहूँगा? मेरा कहना है, तू ब्राह्मण है इसलिए दूसरी जातिवालों का अन्न चाहे न भी खा, पर तू सभी ब्राह्मणों के हाथ का अन्न क्यों नहीं खाता है? मान लो तुम लोग राढ़ी श्रेणी के ब्राह्मण हो, तो वारेन्द्र श्रेणीवाले ब्राह्मणों का अन्न खाने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? और वारेन्द्र ब्राह्मण तुम्हारा अन्न क्यों नहीं खायेंगे? महाराष्ट्रीय, तेलंगी और कनौजी ब्राह्मण भी तुम्हारे हाथ का अन्न क्यों नहीं खायेंगे? कलकत्ते मे जाति का विचार और भी मजे का है। देखा जाता है, अनेक ब्राह्मण तथा कायस्थ होटलों में भात खा रहे हैं, परन्तु वे ही होटल से बाहर निकलकर समाज के नेता बन रहे हैं, वे ही दूसरों के लिए जाति-विचार तथा अन्न-विचार के नियम बनाते हैं! मैं कहता हूँ, क्या समाज को उन सब पाखण्डियों के बनाये नियमों के अनुसार चलना चाहिए? असल में उनकी बातों को छोड़कर सनातन ऋषियों का शासन चलाना होगा – तभी देश का कल्याण सम्भव है।
शिष्य – तो क्या महाराज, कलकत्ते के आधुनिक समाज में ऋषियों का शासन नहीं चल रहा है?
स्वामीजी – केवल कलकत्ते में ही क्यों? मैंने भारतवर्ष में अच्छी तरह से छानबीन करके देखा है, कहीं पर भी ऋषिशासन ठीक ठीक नहीं चल रहा है। केवल लोकाचार, देशाचार और स्त्री-आचार इन्हीं से सभी स्थानों में समाज का शासन चल रहा है। न शास्त्रों का कोई अध्ययन करता है, और न पढ़कर उसके अनुसार समाज को चलाना ही चाहता है?
शिष्य – तो महाराज, अब हमें क्या करना होगा?
स्वामीजी – ऋषियों का मत चलाना होगा; मनु, याज्ञवल्कय आदि ऋषियों के मन्त्र से देश को दीक्षित करना होगा। परन्तु समय के अनुसार कुछ कुछ परिवर्तन कर देना होगा। यह देख न, भारत में कहीं भी अब चातुर्वर्ण्य-विभाग दृष्टिगोचर नहीं होता। पहले तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इन चार वर्णों में देश के लोगो को विभाजित करना होगा। सब ब्राह्मणों को एक करके ब्राह्मणों की एक जाति संगठित करनी होगी। इसी प्रकार सब क्षत्रिय, सब वैश्य तथा सब शूद्रों को लेकर अन्य तीन जातियाँ बनाकर सभी जातियों को वैदिक प्रणाली में लाना होगा। नहीं तो केवल ‘तुम्हें छुऊँगा नहीं’ कहने से ही क्या देश का कल्याण होगा? कभी नहीं।
- स्वामीजी के इस प्रकार के उत्तर से कोई ऐसा न सोचे कि वे मांस खाने में अधिकारी का विचार न करते थे। उनके योग सम्बन्धी दूसरे ग्रन्थों में उन्होंने भोजन के सम्बन्ध में यही साधारण नियम बताया है कि दुष्पाच्य होने के कारण जिससे अजीर्ण आदि रोगों की उत्पत्ति होती है अथवा वैसा न होने पर भी जिससे शरीर की उष्णता में अकारण वृद्धि होकर इन्द्रिय व मन में चंचलता उत्पन्न होती है, उसे सर्व प्रकार से त्यागना चाहिए। अतः जो लोग आध्यात्मिक उन्नति चाहते हैं, उनमें से जिनकी मांस खाने की प्रवृत्ति है, उन्हें स्वामीजी ने पूर्वोक्त दो बातों पर ध्यान रखते हुए मांस खाने का उपदेश किया है। नहीं तो एकदम त्याग देने को कहते थे। अथवा ‘माँस खाऊँ या नहीं’ – इस प्रश्न का समाधान वे प्रत्येक व्यक्ति को अपने शारीरिक स्वास्थ्य व मानसिक पवित्रता आदि की रक्षा करके स्वयं ही कर लेने के लिए कहते थे। परन्तु भारतवर्ष के साधारण गृहस्थों के बारे में स्वामीजी मांसाहार के पक्षपाती थे। वे कहा करते थे, वर्तमान युग में पाश्चात्य मांसाहारी जातियों के साथ उन्हें जीवनसंग्राम में सब प्रकार से प्रतिद्वन्द्विता करनी होगी, इसलिए मांस खाना उनके लिए इस समय विशेष आवश्यक है।