धर्मस्वामी विवेकानंद

भारत की बुरी दशा का कारण

स्थान – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)

वर्ष – १८९८ ईसवी

विषय – भारत की बुरी दशा का कारण – उसे दूर करने का उपाय -वैदिक ढाँचे में देश को फिर से ढालना और मनु, याज्ञवल्कय आदि जैसे मनुष्योंको तैयार करना।

शिष्य – स्वामीजी, आजकल हमारे समाज और देश की इतनी बुरी दशा क्यों हो रही है?

स्वामीजी – तुम्ही लोग इसके लिए जिम्मेदार हो।

शिष्य – महाराज, क्यों, किस प्रकार?

स्वामीजी – बहुत दिनों से देश के नीची जातिवालों से घृणा करते करते अब तुम लोग जगत् में घृणा के पात्र बन गये हो।

शिष्य – हमने कब उनसे घृणा की?

स्वामीजी – क्यों, पुरोहित ब्राह्मणों के दलों ने ही तो वेद-वेदान्त आदि सारयुक्त्त शास्त्रों को ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य जातिवालों को कभी पढ़ने नहीं दिया – उन्हें स्पर्श भी नहीं किया – उन्हें केवल नीचे दबाकर रखा है – स्वार्थ की दृष्टि से तुम्ही लोग तो चिरकाल से ऐसा करते आ रहे हो। ब्राह्मणों ने ही तो धर्म शास्त्रों पर एकाधिकार जमाकर विधि-निषेधों को अपने ही हाथ में रखा था और भारतवर्ष की दूसरी जातियों को नीच कहकर उनके मन में विश्वास जमा दिया था कि वे वास्तव में नीच हैं। यदि किसी व्यक्ति को खाते, सोते, उठते, बैठते, हर समय कोई कहता रहे कि ‘तू नीच है’ ‘तू नीच है’ तो कुछ समय के पश्चात् उसकी यही धारणा हो जाती है कि ‘मैं वास्तव में नीच हूँ।’ अंग्रेजी में इसे कहते हैं हिप्नोटाईज करना। ब्राह्मणेतर जातियों का अब धीरे धीरे यह भ्रम मिट रहा है। ब्राह्मणों के तन्त्र मन्त्र में उनका विश्वास कम हो रहा है। प्रबल जलवेग से नदी का किनारा जिस प्रकार टूट जाता है, उसी प्रकार पाश्चात्य शिक्षा के विस्तार से ब्राह्मणों की करतूतें अब लुप्त हो रही हैं, देख तो रहा है न?

शिष्य – जी हाँ, छुआछुत आदि का बन्धन आजकल धीरे धीरे ढीला होता जा रहा है।

स्वामीजी – होगा नहीं? ब्राह्मणों ने धीरे धीरे घोर अनाचार-अत्याचार करना जो प्रारम्भ किया था। स्वार्थ के वशीभूत होकर केवल अपनी प्रभुता को ही कायम रखने के लिए कितने ही विचित्र ढंग के अवैदिक, अनैतिक, युक्तिविरुद्ध मतों को चलाया था, उनका फल भी हाथों हाथ पा रहे हैं।

शिष्य – क्या फल पा रहे हैं महाराज?

स्वामीजी – क्या फल, देख नहीं रहा है? तुम लोगों ने जो भारत के अन्य साधारण जातिवालों से घृणा की थी, इसीलिए अब तुम लोगों को हजार वर्षों से दासता सहनी पड़ रही है और तुमलोग अब विदेशियों की घृणा तथा स्वदेशनिवासियों की उपेक्षा के पात्र बने हुए हो।

शिष्य – परन्तु महाराज, अभी तो व्यवस्था आदि ब्राह्मणों के मत से ही चल रही है। गर्भाधान से लेकर सभी कर्मकाण्ड की क्रियाएँ – जैसे ब्राह्मण बता रहे हैं वैसे ही लोग कर रहे हैं, तो फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?

स्वामीजी – कहाँ चल रहा है? शास्त्रोक्त दशविध संस्कार कहाँ चल रहा है? मैंने तो सारा भारतवर्ष घूमकर देखा है, सभी स्थानों में श्रुति और स्मृतियों द्वारा निन्दित देशाचारों से समाज का शासन चल रहा है। लोकप्रथा, देशप्रथा और स्त्रीप्रथा ही सर्वत्र स्मृतिशास्त्र बन गये हैं। कौन किसकी बात सुनता है? धन दे सको तो पण्डितों का दल जैसा चाहो विधि निषेध लिख देने को तैयार है। कितने पुरोहितों ने वैदिक कल्प, गुह्य व श्रौत सूत्रों को पढ़ा है? उस पर देख, बंगाल में रघुनन्दन का शासन है, और जरा आगे जाकर देखेगा मिताक्षरा का शासन और दूसरी ओर जाकर देख, मनुस्मृति का शासन चल रहा है। तुम लोग समझते हो, शायद सर्वत्र एक ही मत प्रचलित है। इसीलिए मैं चाहता हूँ कि वेद के प्रति लोगों का सम्मान बढ़े, सब लोग वेदों की चर्चा करें और इस प्रकार सर्वत्र वेद का शासन फैले।

शिष्य – महाराज, क्या अब ऐसा चलना सम्भव है?

स्वामीजी – वेद के सभी प्राचीन नियम चाहे न चलें, परन्तु समय के अनुसार काट-छाँट कर नियमों को सजाकर नये सांचे में ढालकर समाज के सामने रखने से वे क्यों नहीं चलेंगे?

शिष्य – महाराज, मेरा विश्वास था कि कम से कम मनु का शासन भारत में सभी लोग अब मानते हैं।

स्वामीजी – कहाँ मान रहे हैं? तुम अपने ही देश में देखो न, तन्त्र का वामाचार तुम्हारी नस नस में प्रविष्ट हो गया है, यहाँ तक कि आधुनिक वैष्णव धर्म में भी – जो मृत बौद्ध धर्म के कंकाल का शेष है – घोर वामाचार प्रविष्ट हो गया है। उस अवैदिक वामाचार के प्रभाव को घटाना होगा।

शिष्य – महाराज, क्या अब इस कीचड़ को साफ करना सम्भव है?

स्वामीजी – तू क्या कह रहा है? डरपोक, कापुरुष कहीं का! असम्भव कह कहकर तुम लोगों ने देश को बर्बाद कर डाला है। मनुष्य की चेष्टा से क्या नहीं हो सकता।

शिष्य – परन्तु महाराज, देश में मनु, याज्ञवल्कय आदि ऋषिगणों के फिर से पैदा हुए बिना ऐसा होना सम्भव नहीं जान पड़ता।

स्वामीजी – अरे पवित्रता और निःस्वार्थ चेष्टा के लिए ही तो वे मनु, याज्ञवल्कय बने थे, या और कुछ? चेष्टा करने पर हम भी तो मनु या याज्ञवल्कय से बड़े बन सकते हैं, उस समय हमारा मत भी क्यों नहीं चलेगा?

शिष्य – महाराज, थोड़ी देर पहले आप ही ने तो कहा था कि प्राचीन प्रथा आदि को देश में चलाना होगा। तो फिर मनु आदि को हमारी ही तरह व्यक्ति मानकर उनकी उपेक्षा करने से वह कैसे होगा?

स्वामीजी – किस बात पर तू किस बात को ला रहा है? तू मेरी बात ही नहीं समझ रहा है। मैंने सिर्फ कहा है कि प्राचीन वैदिक प्रथाओं को समाज और समय के उपयुक्त बनाकर नये ढाँचे में गढ़कर नवीन रूप में देश में चलाना होगा। ऐसा नहीं है क्या?

शिष्य – जी हाँ।

स्वामीजी – तो फिर वह क्या कह रहा था? तुम लोगों ने शास्त्र पढ़ा है, मेरी आशा विश्वास तुम्ही लोग हो। मेरी बातों को ठीक ठीक समझकर उसी के अनुसार काम में लग जा।

शिष्य – परन्तु महाराज, हमारी बात सुनेगा कौन? देश के लोग उसे स्वीकार क्यों करने लगे?

स्वामीजी – यदि तू ठीक ठीक समझा सके और जो कुछ कहे उसे स्वयं करके दिखा सके तो अवश्य ही अन्य लोग भी उसे स्वीकार करेंगे, पर यदि तोते की तरह केवल श्लोक झाड़ता हुआ वाक्पटु बनकर का पुरुष की तरह दूसरों की दुहाई देता रहा और कहे हुए को कार्य रूप में परिणत न कर सका, तो फिर तेरी बात कौन सुनेगा, बोल?

शिष्य – महाराज, समाज-संस्कार के सम्बन्ध में अब संक्षेप में कुछ उपदेश दीजिये।

स्वामीजी – उपदेश तो तुझे अनेक दिये; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ है। यह जो मनु आदि का शास्त्र पढ़ा है तथा और भी जो पढ़ा है उस पर अच्छी तरह सोचकर देख कि उसकी असली जड़ अथवा उद्देश्य क्या है? उस जड़ को लक्ष्य में रखकर अन्य तत्त्वों का प्राचीन ऋषियों की तरह संग्रह कर और समयोपयोगी मतों को उसमें मिला ले। केवल इतना ध्यान में रखना कि समग्र भारतवर्ष की सभी जातियों तथा सम्प्रदायों के लोगों का ही उन सब नियमों के पालन करने से वास्तव में कल्याण हो। लिख तो वैसी एक स्मृति; मैं देखकर फिर उसका संशोधन कर दूँगा।

शिष्य – महाराज, यह काम सरल नहीं है। परन्तु इस प्रकार की भी स्मृति लिखने पर क्या वह चलेगी?

स्वामीजी – क्यों नहीं चलेगी? तू लिख न! ‘कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी’ – तूने यदि ठीक ठीक लिखी तो एक न एक दिन चलेगी ही। आत्मविश्वास रख। तुम्ही लोग तो पूर्व काल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदलकर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ, तुम लोगों में अनन्त शक्ति है! उस शक्ति को जगा दे; उठ, उठ, लग जा कमर कस। क्या होगा, दो दिन का धन-मान लेकर? मेरा भाव जानता है? – मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है – तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य तैयार करने में लाख जन्म भी लेने पड़े, तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ।

शिष्य – परन्तु महाराज, उस प्रकार काम में लगकर भी क्या होगा? मृत्यु तो पीछे लगी ही है।

स्वामीजी – धत् छोकरा, मरना हो तो एक ही बार मर जा! कापुरुष की तरह रातदिन मृत्यु की चिन्ता करके बार बार क्यों मरता है?

शिष्य – अच्छा महाराज, मृत्यु की चिन्ता यदि न भी की, फिर भी इस अनित्य संसार में कर्म करके भी क्या लाभ है?

स्वामीजी – अरे मृत्यु जब अवश्यम्भावी है, तो कीट-पतंगों की तरह मरने के बजाय वीर की तरह मरना अच्छा है। इस अनित्य संसार में दो दिन अधिक जीवित रहकर भी क्या लाभ? It is better to wear out than to rust out – जराजीर्ण होकर थोड़ा थोड़ा करके क्षीण होते हुए मरने के बजाय वीर की तरह दूसरों के अल्प कल्याण के लिए लड़कर उसी समय मर जाना क्या अच्छा नहीं है?

शिष्य – जी हाँ! आपको आज मैंने बहुत कष्ट दिया।

स्वामीजी – यथार्थ जिज्ञासु के पास लगातार दो रात तक बोलते रहने से भी मुझे श्रम का बोध नहीं होता। मैं आहार निद्रा आदि छोड़कर लगातार बोल सकता हूँ। चाहूँ तो मैं हिमालय की गुफा में समाधिमग्न होकर बैठा रह सकता हूँ। और देख तो रहा है, आजकल माँ की इच्छा से मुझे खाने की भी कोई चिन्ता नहीं है। किसी न किसी प्रकार जुट ही जाता है। तो फिर क्यों ऐसा नहीं करता? इस देश में भी क्यों रह रहा हूँ? केवल देश की दशा देखकर और परिणाम का चिन्तन करके फिर स्थिर नहीं रह सकता! समाधि-फमाधि तुच्छ लगती है – ‘तुच्छं ब्रह्मपदम्’ हो जाता है! – तुम लोगों के कल्याण की कामना ही मेरे जीवन का व्रत है। जिस दिन वह व्रत पूर्ण हो जायगा, उसी दिन देह छोड़कर सीधा भाग जाऊँगा।

शिष्य मन्त्रमुग्ध की तरह स्वामीजी को इन सब बातों को सुन कर स्तम्भित हृदय से चुपचाप उनके मुँह की ओर ताकता हुआ कुछ देर तक बैठा रहा। इसके पश्चात् बिदा लेने के उद्देश से भक्ति के साथ उन्हें प्रणाम करके बोला, “महाराज, तो फिर आज आज्ञा दीजिये।”

स्वामीजी – जायगा क्यों रे? मठ में ही रह जा न! गृहस्थों में जाने पर मन फिर मलिन हो जायगा। यहाँ पर देख कैसी सुन्दर हवा है, गंगाजी का तट, साधुगण साधनभजन कर रहे हैं, कितनी अच्छी अच्छी बातें हो रही है। और कलकत्ते में जाकर फिर वही व्यर्थ की चिन्ता में लग जायगा।

शिष्य आनन्दित होकर बोला, “अच्छा महाराज, तो आज यहीं रहूँगा।”

स्वामीजी – ‘आज ही’ क्यों रे? सदैव यहीं नहीं रह सकता? क्या होगा फिर संसार में जाकर?

स्वामीजी की यह बात सुनकर शिष्य फिर झुकाकर रह गया। मन में एक ही साथ अनेक चिन्ताओं का उदय होने के कारण वह कोई भी उत्तर न दे सका।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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