स्वामी विवेकानंद की नागमहाशय से भेंट
स्थान – बेलुड़ मठ
वर्ष – १८९९ ईसवी के प्रारम्भ में
विषय – स्वामीजी की नागमहाशय से भेंट – आपस में एक दूसरे केसम्बन्ध में दोनों की उच्च धारणा।
शिष्य आज नाग महाशय को साथ लेकर मठ में आया है।
स्वामीजी (नागमहाशय को अभिवादन करके) – कहिये आप अच्छे तो हैं न?
नाग महाशय – आपका दर्शन करने आया हूँ। जय शंकर! जय शंकर! साक्षात् शिवजी का दर्शन हुआ।
यह कहकर दोनों हाथ जोड़कर नाग महाशय खड़े रहे।
स्वामीजी – स्वास्थ्य कैसा है?
नाग महाशय – व्यर्थ के मांस-हड्डी की बात क्या पूछ रहे हैं? आपके दर्शन से आज मैं धन्य हुआ, धन्य हुआ!
ऐसा कहकर नागमहाशय ने स्वामीजी को साष्टांग प्रणाम किया।
स्वामीजी (नागमहाशय को उठाकर) – यह क्या कर रहे हैं?
नागमहाशय – मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ – आज मुझे साक्षात् शंकर का दर्शन प्राप्त हुआ! जय भगवान् श्रीरामकृष्ण की।
स्वामीजी (शिष्य की ओर इशारा करके) – देख रहा है – यथार्थ भक्ति से मनुष्य कैसा बनता है! नागमहाशय तन्मय हो गये हैं, देहबुद्धि बिलकुल नहीं रही, ऐसा दूसरा नहीं देखा जाता। (प्रेमानन्द स्वामीजी के प्रति) – नाग महाशय के लिए प्रसाद ला।
नाग महाशय – प्रसाद! प्रसाद! (स्वामीजी के प्रति हाथ जोड़कर) आपके दर्शन से आज मेरी भवक्षुधा मिट गयी है।
मठ में बालब्रह्मचारी और संन्यासी गण उपनिषद् का अध्ययन कर रहे थे स्वामीजी ने उनसे कहा, “आज श्रीरामकृष्ण के एक महाभक्त पधारे हैं। नाग महाशय के शुभागमन से आज तुम लोगों का अध्ययन बन्द रहेगा।” सब लोग पुस्तकें बन्द करके नाग महाशय के चारों ओर घेर कर बैठ गये। स्वामीजी भी नाग महाशय के सामने बैठे।
स्वामीजी (सभी को सम्बोधित कर) – देख रहे हो? नाग महाशय को देखो; आप गहस्थ हैं, परन्तु जगत् है या नहीं, यह भी नहीं जानते। सदा तन्मय बने रहते हैं? (नाग महाशय के प्रति) – इन सब ब्रह्मचारियों को और हमें श्रीरामकृष्ण की कुछ बातें सुनाइये।
नाग म. – यह क्या कहते हैं! यह क्या कहते हैं! मैं क्या कहूँगा? मैं आपके दर्शन को आया हूँ; श्रीरामकृष्ण की लीला के सहायक महावीर का दर्शन करने आया हूँ। श्रीरामकृष्ण की बातें लोग अब समझेंगे। जय श्रीरामकृष्ण! जय श्रीरामकृष्ण!
स्वामीजी – आप ही ने वास्तव में श्रीरामकृष्णदेव को पहचाना है। हमारा तो व्यर्थ चक्कर काटना ही रहा!
नाग म. – छिः! यह आप क्या कह रहे हैं। आप श्रीरामकृष्ण की छाया हैं – एक ही सिक्के के दो पहलू – जिनकी आँखें हैं वे देखें!
स्वामीजी – ये जो सब मठ आदि बनवा रहा हूँ, क्या यह ठीक हो रहा है?
नाग म. – मैं तो छोटा हूँ, मैं क्या समझूँ? आप जो कुछ करते हैं, निश्चित जानता हूँ, उससे जगत् का कल्याण होगा – कल्याण होगा।
अनेक व्यक्ति नाग महाशय की पदधूलि लेने में व्यस्त हो जाने से नाग महाशय संकोच में पड़ गये; स्वामीजी ने सब से कहा, ‘जिससे इन्हे कष्ट हो, वह न करो।’ यह सुनकर सब लोग रुक गये।
स्वामीजी – आप आकर मठ में रह क्यों नहीं जाते? आपको देखकर मठ के सब लड़के सीखेंगे।
नाग म. – श्रीरामकृष्ण से एक बार यही बात पूछी थी। उन्होंने कहा, ‘घर में ही रहो’ – इसीलिए घर में हूँ, बीच बीच में आप लोगों के दर्शन कर धन्य हो जाता हूँ।
स्वामीजी – मैं एक बार आपके देश में आऊँगा।
नाग महाशय आनन्द से अधीर होकर बोले – “क्या ऐसा दिन आयगा? देश काशी बन जायगा, काशी बन जायगा। क्या मेरा ऐसा भाग्य होगा?”
स्वामीजी – मेरी तो इच्छा है, पर जब माँ ले जायें तब तो हो।
नाग म. – आपको कौन समझेगा, कौन समझेगा? दिव्य दृष्टि खुले बिना पहचानने का उपाय नहीं है। एकमात्र श्रीरामकृष्ण ने ही आपको पहचाना था। बाकी सभी केवल उनके कहने पर विश्वास करते हैं, कोई समझ नहीं सका।
स्वामीजी – मेरी अब एकमात्र इच्छा यही है कि देश को जगा डालूँ – मानो महावीर अपनी शक्तिमत्ता से विश्वास खोकर सो रहे हैं – बेखबर होकर – शब्द नहीं है। सनातन धर्म के भाव से इसे किसी प्रकार जगा सकने से समझूँगा कि श्रीरामकृष्ण तथा हम लोगों का आना सार्थक हुआ। केवल यही इच्छा है – मुक्तिफुक्त्ति तुच्छ लग रही है। आप आशीर्वाद दीजिये, जिससे सफलता प्राप्त हो।
नाग म. – श्रीरामकृष्ण आशीर्वाद देंगे। आपकी इच्छा की गति को फेरनेवाला कोई भी नहीं दिखता, आप जो चाहेंगे वही होगा।
स्वामीजी – कहाँ, कुछ भी नहीं होता – उनकी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होगा।
नाग म. – उनकी इच्छा और आपकी इच्छा एक बन गयी है। आपकी जो इच्छा है, वही श्रीरामकृष्ण की इच्छा है। जय श्रीरामकृष्ण! जय श्रीरामकृष्ण!
स्वामीजी – काम करने के लिए दृढ़ शरीर चाहिए; यह देखिए, इस देश में आने के बाद स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता; उस देश में (यूरोप-अमरीका में) अच्छा था।
नाग म. – श्रीरामकृष्ण कहा करते थे – शरीर धारण करने पर ‘घर का टैक्स देना पड़ता है’, रोग शोक, वही टैक्स हैं। आपका शरीर अशरफिओं का सन्दूक है, उस सन्दूक की खूब सेवा होनी चाहिए। कौन करेगा? कौन समझेगा? एकमात्र श्रीरामकृष्ण ने ही समझा था। जय श्रीरामकृष्ण! जय श्रीरामकृष्ण!
स्वामीजी – मठ के ये लोग मेरी बहुत सेवा करते हैं।
नाग म. – जो लोग कर रहे हैं, उन्हीं का कल्याण है। समझें या न समझें। सेवा में न्यूनता होने पर शरीर की रक्षा करना कठिन होगा।
स्वामीजी – नाग महाशय! क्या कर रहा हूँ, क्या नहीं कर रहा हूँ कुछ समझ में नहीं आता। एक एक समय एक एक दिशा में कार्य करने का प्रबल वेग आता है, बस उसी के अनुसार काम किये जा रहा हूँ, इससे भला हो रहा है या बुरा, कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ।
नाग म. – श्रीरामकृष्ण ने जो कहा था, – ‘कुंजी लगा दी गयी।’ इसीलिए अब समझने नहीं दे रहे हैं। समझने के साथ ही लीला समाप्त हो जायगी।
स्वामीजी ध्यानस्थ होकर कुछ सोचने लगे। इसी समय स्वामी प्रेमानन्द श्रीरामकृष्ण का प्रसाद लेकर आये और नाग महाशय तथा अन्य सभी को प्रसाद दिया गया। नाग महाशय दोनों हाथों से प्रसाद को सिर रखकर ‘जय श्रीरामकृष्ण’ कहते हुए नृत्य करने लगे। सभी लोग देखकर दंग रह गये। प्रसाद पाकर सभी लोग बगीचे में टहलने लगे। इस बीच में स्वामीजी एक कुदाली लेकर धीरे धीरे मठ के तालाब के पूर्वी तट पर मिट्टी खोदने लगे – नाग महाशय देखते ही उनका हाथ पकड़कर बोले, ‘हमारे रहते आप यह क्या करते हैं?’ स्वामीजी कुदाली छोड़कर मैदान में टहलते टहलते बातें करने लगे। स्वामीजी एक शिष्य से कहने लगे, “श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के पश्चात् एक दिन हम लोगों ने सुना, नाग महाशय चार पाँच दिनों से उपवास करते हुए कलकत्ते के मकान में पड़े हैं; मैं, हरिभाई और न जाने एक और कौन थे, तीनों मिलकर नाग महाशय की कुटिया में जा पहुँचे। देखते ही वे रजाई छोड़कर उठ खड़े हुए! मैंने कहा आपके यहाँ आज हम लोग भिक्षा पायेंगे। नाग महाशय ने उसी समय बाजार से चावल, बर्तन, लकड़ी आदि लाकर पकाना शुरू किया। हमने सोचा था, हम भी खायेंगे, नाग महाशय को भी खिलायेंगे। भोजन तैयार होने पर हमें परोसा गया। हम नाग महाशय के लिए सब चीजें रखकर भोजन करने बैठे। भोजन के पश्चात् ज्यों ही उनसे खाने के लिए अनुरोध किया, त्यों ही वे भात की हण्डी फोड़कर अपना सिर ठोककर बोले, ‘जिस शरीर से भगवान की प्राप्ति नहीं हुई, उस शरीर को फिर भोजन दूँगा?’ हम तो यह देखकर दंग रह गये। बहुत कहने सुनने के बाद उन्होने कुछ भोजन किया और फिर हम लौट आये।”
स्वामीजी – नाग महाशय आज क्या मठ में ठहरेंगे?
शिष्य – नहीं, उन्हें कुछ काम है; आज ही जाना होगा।
स्वामीजी – तो जा, नाव का प्रबन्ध कर। सन्ध्या हो रही है। नाव आने पर शिष्य और नाग महाशय स्वामीजी को प्रणाम करके नाव पर सवार हो कलकत्ते की ओर रवाना हुए।