स्वामी विवेकानंद का इन्द्रियसंयम, शिष्यप्रेम, रन्धन में कुशलता तथा असाधारण स्मृति
स्थान – बेलुड़ मठ
वर्ष – १९०१ ईसवी
विषय – स्वामीजी का इन्द्रियसंयम, शिष्यप्रेम, रन्धन में कुशलता तथाअसाधारण स्मृति-शक्ति – राय गुणाकार भारतचन्द्र व माइकेल मधुसूदन दत्तके सम्बन्ध में उनकी राय।
स्वामीजी का शरीर कुछ अस्वस्थ है। स्वामी निरंजनानन्द के विशेष अनुरोध से आज पाँच-सात दिन से वे वैद्य की दवा ले रहे हैं; इस दवा में जल पीना बिलकुल मना है। केवल दूध पीकर प्यास बुझानी पड़ रही है।
शिष्य प्रातःकाल ही मठ में आया है। स्वामीजी ने जो उस प्रकार दवा लेना शुरू किया है, यह उसने इससे पहले नहीं सुना था। स्वामीजी के चरण कमलों के दर्शन की इच्छा से वह ऊपर गया। वे उसे देखकर स्नेह पूर्वक बोले, “आ गया! अच्छा हुआ; तेरी ही बात सोच रहा था।”
शिष्य – महाराज, सुना है, आप पाँच-सात दिनों से केवल दूध पीकर ही रहते हैं?
स्वामीजी – हाँ, निरंजन के प्रबल आग्रह से वैद्य की दवा लेनी पड़ी। उनकी बात तो मैं टाल नहीं सकता।
शिष्य – आप तो घण्टे में पाँच छः बार जल पिया करते थे, उसे एकदम कैसे त्याग दिया?
स्वामीजी – जब मैंने सुना कि इस दवा का सेवन करने से जल बन्द कर देना होगा, तब दृढ़ संकल्प कर लिया कि जल न पीऊँगा। अब फिर जल की बात मन में भी नहीं आती।
शिष्य – दवा से रोग की शान्ति तो हो रही है न?
स्वामीजी – शान्ति आदि तो नहीं जानता। गुरुभाइयों की आज्ञा का पालन किये जा रहा हूँ।
शिष्य – सम्भव है देशी वैद्यक की दवाएँ हमारे शरीर के लिए अधिक उपयोगी होती हों।
स्वामीजी – परन्तु मेरी राय है कि किसी वर्तमान चिकित्सा-विज्ञान के विशारद के हाथ से मरना भी अच्छा है। अनाड़ी लोग, जो वर्तमान शरीर विज्ञान का कुछ भी ज्ञान नहीं रखते, केवल प्राचीन काल की पोथी-पत्रों की दुहाई देकर अंधेरे में दाँव लगा रहे हैं, यदि उन्होंने दो चार रोगियों को भला कर भी दिया, तो भी उसके हाथ से रोग मुक्त होने की आशा करना व्यर्थ है।
इसके पश्चात् स्वामीजी ने अपने हाथ से कुछ खाद्य द्रव्य पकाये। उसमें से एक वरमिसेली (Vermicelli – सेमई) थी। शिष्य ने इस जन्म में कभी वरमिसेली नहीं खायी थी। पूछने पर स्वामीजी बोले, “वे सब विलायती केचुवे हैं। मैं लन्दन में सुखाकर लाया हूँ!” मठ के संन्यासीगण सभी हँस पड़े। शिष्य यह हँसी न समझता हुआ चुपचाप बैठा रहा। वैद्यराज की दवा के साथ कठिन नियमों का पालन करने के लिए अब स्वामीजी का आहार अत्यन्त अल्प हो गया था और नींद तो बहुत दिनों से उन्हें एक प्रकार छोड़ ही बैठी थी; परन्तु इस अनाहार, अनिद्रा में भी स्वामीजी को विश्राम नहीं है। कुछ दिन हुए मठ में नया अंग्रेजी विश्वकोष (Encyclopaedia Britannica) खरीदा गया है। नयी चमकीली पुस्तकों को देखकर शिष्य ने स्वामीजी से कहा, “इतनी पुस्तकें एक जीवन में पढ़ना तो कठिन है”, उस समय शिष्य नहीं जानता था कि स्वामीजी ने उस ग्रन्थ के दस खण्डों का इसी बीच में अध्ययन समाप्त करके ग्यारहवें खण्ड का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया है।
स्वामीजी – क्या कहता है? इन दस पुस्तकों में से मुझसे जो चाहे पूछ ले – सब बता दूँगा।
शिष्य ने विस्मित होकर पूछा, “क्या आपने इन सभी पुस्तकों को पढ़ लिया है?”
स्वामीजी – क्या बिना पढ़े ही कह रहा हूँ?
इसके अनन्तर स्वामीजी का आदेश प्राप्त कर शिष्य उन सब पुस्तकों से चुन चुनकर कठिन विषयों को पूछने लगा। आश्चर्य की बात है – स्वामीजी ने उन सब विषयों का मर्म तो कहा ही, पर स्थान स्थान पर पुस्तक की भाषा तक उद्धृत की। शिष्य ने उस विराट ग्रन्थ के दस खण्डों में से प्रत्येक खण्ड से दो एक विषय पूछे और स्वामीजी की असाधारण बुद्धि तथा स्मरण शक्ति को देख विस्मित होकर पुस्तकों को उठाकर रखते हुए उसने कहा, “यह मनुष्य की शक्ति नहीं है।”
स्वामीजी – देखा, एक मात्र ब्रह्मचर्य का ठीक ठीक पालन कर सकने पर सभी विद्याएँ क्षण भर में याद हो जाती हैं – मनुष्य श्रुतिधर, स्मृतिधर बन जाता है। ब्रह्मचर्य के अभाव से ही हमारे देश का सब कुछ नष्ट हो गया।
शिष्य – महाराज, आप जो भी कहे, केवल ब्रह्मचर्यरक्षा के परिणाम में इस प्रकार अलौकिक शक्ति का स्फुरण कभी सम्भव नहीं है, इसके लिए और भी कुछ चाहिए।
उत्तर में स्वामीजी ने कुछ भी नहीं कहा।
इसके बाद स्वामीजी सर्व दर्शनों के कठिन विषयों के विचार और सिद्धान्त शिष्य को सुनाने लगे। हृदय में उन सिद्धान्तों को प्रविष्ट करा देने के ही लिए मानो आज वे इन सिद्धान्तों की उस प्रकार विशद व्याख्या करके समझाने लगे। यह वार्तालाप हो ही रहा है कि इसी समय स्वामी ब्रह्मानन्द स्वामीजी के कमरे में प्रवेश करके शिष्य से बोले, “तू तो अच्छा आदमी है! स्वामीजी का शरीर अस्वस्थ है। अपने सम्भाषण के द्वारा स्वामीजी के मन को प्रफुल्लित करने के बदले तू उन सब कठिन प्रसंगों को उठाकर स्वामीजी से व्यर्थ की बात कर रहा है।” शिष्य लज्जित होकर अपनी भूल समझ गया, परन्तु स्वामीजी ने ब्रह्मानन्द महाराज से कहा, “ले रख दे अलग अपने वैद्य के नियम – ये लोग मेरी सन्तान हैं, इन्हें सदुपदेश देते देते यदि मेरी देह भी चली जाय तो क्या हानि है?” परन्तु शिष्य उसके पश्चात् फिर कोई दार्शनिक प्रश्न न करके, पूर्व बंग की भाषा पर हास्य करने लगा। स्वामीजी भी शिष्य के साथ उसमें सम्मिलित हो गये। थोड़ी देर तक यही हुआ और फिर बंग साहित्य में भारतचन्द्र के स्थान में सम्बन्ध में चर्चा शुरू हुई। उस सम्बन्ध में थोड़ाबहुत जो कुछ याद है – यहाँ पर उल्लेख कर रहा हूँ।
पहले से स्वामीजी ने भारतचन्द्र को लेकर हँसी करना शुरू किया और उस समय के सामाजिक आचार, व्यवहार, विवाह संस्कार आदि की भी अनेक प्रकार से हँसी उड़ाने लगे। उन्होंने कहा कि समाज में बालविवाह-प्रथा को चलाने के पक्षपाती भारतचन्द्र की कुरुचि तथा उनके अश्लीलतापूर्ण काव्य आदि बंगदेश के सिवाय अन्य किसी देश के सभ्य समाज में ऐसे मान्य नहीं हुए। फिर कहा कि लड़कों के हाथ में वह पुस्तक न पहुँचे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। फिर माइकेल मधुसूदन दत्त की बात चलाकर बोले, “वह एक अपूर्व मनस्वी व्यक्ति तुम्हारे देश में पैदा हुए थे। मेघनाथ-वध की तरह दूसरा काव्य बंगला भाषा में तो है ही नहीं, समस्त यूरोप में भी वैसा कोई काव्य आजकल मिलना कठिन है।”
शिष्य ने कहा, “परन्तु महाराज माइकेल को शायद शब्दाडम्बर बहुत प्रिय है।”
स्वामीजी – तुम्हारे देश में कोई कुछ नयी बात करे तो तुम लोग उसके पीछे पड़ जाते हो। पहले अच्छी तरह देखो कि वह आदमी क्या कह रहा है। पर ऐसा न करके ज्यों ही किसी में कोई नयी बात दिखायी दी कि लोग उसके पीछे पड़ गये। यह ‘मेघनाद-वध’ – जो तुम्हारी बंगला भाषा का मुकुटमणि है – उसे नीचा दिखाने के लिए एक ‘छछूँदर-वध’ काव्य लिखा गया! पर इससे हुआ क्या? करता रहे जो कोई जो कुछ चाहे! वही मेघनाद-वध काव्य अब हिमालय की तरह अटल होकर खड़ा है; परन्तु उसमें दोष निकालने में जो लोग व्यस्त थे, उन सब समालोचकों के मत और लेख अब न जाने कहाँ बह गये हैं! माइकेल नवीन छन्द और ओजपूर्ण भाषा में जिस काव्य की रचना कर गये हैं, उसे साधारण लोग क्या समझेंगे? इसी प्रकार यह जो जी. सी. आजकल नये छन्दों में अनेकानेक उत्कृष्ट पुस्तकें लिख रहा है, उनकी भी तो तुम्हारे बुद्धिमान पण्डितगण कितनी समालोचना कर रहे हैं – दोष निकाल रहे हैं! पर क्या जी. सी. उसकी परवाह करता है? समय आनेपर ही लोग उन सब पुस्तकों का मूल्य समझेंगे।
इस प्रकार माइकेल की बात चलते चलते उन्होंने कहा, “जा, नीचे लाइब्रेरी से मेघनाद वध-काव्य ले तो आ।” शिष्य मठ की लाइब्रेरी से मेघनाद-वध काव्य ले आया और उसे लेकर स्वामीजी ने कहा, “पढ़ देखूँ तो, तू कैसा पढ़ता है?”
शिष्य पुस्तक खोलकर प्रथम सर्ग का कुछ अंश यथासाध्य पढ़ने लगा, परन्तु उसका पढ़ना स्वामीजी को रुचिकर न लगा। अतएव उन्होंने उस अंश को स्वयं पढ़कर बताया और शिष्य से फिर उसे पढ़ने के लिए कहा। अब शिष्य को बहुत कुछ सफल होते देख उन्होंने प्रसन्न होकर पूछा, “बोल तो, इस काव्य का कौन अंश सर्वोत्कृष्ट है?”
शिष्य उत्तर देने में असमर्थ होकर चुपचाप बैठा है, यह देखकर स्वामीजी बोले, “जहाँ पर इन्द्रजित युद्ध में निहत हुआ है – मन्दोदरी शोक से कातर होकर रावण को युद्ध में जाने से रोक रही है, परन्तु रावण पुत्रशोक को मन से जबरदस्ती हटाकर महावीर की तरह युद्ध में जाना निश्चय कर प्रतिहिंसा और क्रोध की आग में स्त्री-पुत्र सब भूलकर युद्ध के लिए बाहर जानेको तैयार है – वही है काव्य की श्रेष्ठ कल्पना! चाहे जो हो, पर मैं अपना कर्तव्य नहीं भूल सकता, फिर दुनिया रहे या जाय – यही है महावीर का वाक्य। माइकेल ने उसी भाव में अनुप्राणित होकर काव्य के उस अंश को लिखा था।”
ऐसा कहकर स्वामीजी ग्रन्थ खोलकर उस अंश को पढ़ने लगे। स्वामीजी की वह वीर-दर्प व्यंजक पठनशैली आज भी शिष्य के मन में ज्वलन्त रूप में जाग्रत हैं।
– राय गुणाकार भारतचन्द्र व माइकेल मधुसूदन दत्तके सम्बन्ध में उनकी राय।
स्वामीजी का शरीर कुछ अस्वस्थ है। स्वामी निरंजनानन्द के विशेष अनुरोध से आज पाँच-सात दिन से वे वैद्य की दवा ले रहे हैं; इस दवा में जल पीना बिलकुल मना है। केवल दूध पीकर प्यास बुझानी पड़ रही है।
शिष्य प्रातःकाल ही मठ में आया है। स्वामीजी ने जो उस प्रकार दवा लेना शुरू किया है, यह उसने इससे पहले नहीं सुना था। स्वामीजी के चरणकमलों के दर्शन की इच्छा से वह ऊपर गया। वे उसे देखकर स्नेहपूर्वक बोले, “आ गया! अच्छा हुआ; तेरी ही बात सोच रहा था।”
शिष्य – महाराज, सुना है, आप पाँच-सात दिनों से केवल दूध पीकर ही रहते हैं?
स्वामीजी – हाँ, निरंजन के प्रबल आग्रह से वैद्य की दवा लेनी पड़ी। उनकी बात तो मैं टाल नहीं सकता।
शिष्य – आप तो घण्टे में पाँच छः बार जल पिया करते थे, उसे एकदम कैसे त्याग दिया?
स्वामीजी – जब मैंने सुना कि इस दवा का सेवन करने से जल बन्द कर देना होगा, तब दृढ़ संकल्प कर लिया कि जल न पीऊँगा। अब फिर जल की बात मन में भी नहीं आती।
शिष्य – दवा से रोग की शान्ति तो हो रही है न?
स्वामीजी – शान्ति आदि तो नहीं जानता। गुरुभाइयों की आज्ञा का पालन किये जा रहा हूँ।
शिष्य – सम्भव है देशी वैद्यक की दवाएँ हमारे शरीर के लिए अधिक उपयोगी होती हों।
स्वामीजी – परन्तु मेरी राय है कि किसी वर्तमान चिकित्सा-विज्ञान के विशारद के हाथ से मरना भी अच्छा है। अनाड़ी लोग, जो वर्तमान शरीरविज्ञान का कुछ भी ज्ञान नहीं रखते, केवल प्राचीन काल की पोथी-पत्रों की दुहाई देकर अंधेरे में दाँव लगा रहे हैं, यदि उन्होंने दो चार रोगियों को भला कर भी दिया, तो भी उसके हाथ से रोगमुक्त होने की आशा करना व्यर्थ है।
इसके पश्चात् स्वामीजी ने अपने हाथ से कुछ खाद्य द्रव्य पकाये। उसमें से एक वरमिसेली (Vermicelli – सेमई) थी। शिष्य ने इस जन्म में कभी वरमिसेली नहीं खायी थी। पूछने पर स्वामीजी बोले, “वे सब विलायती केचुवे हैं। मैं लन्दन में सुखाकर लाया हूँ!” मठ के संन्यासीगण सभी हँस पड़े। शिष्य यह हँसी न समझता हुआ चुपचाप बैठा रहा। वैद्यराज की दवा के साथ कठिन नियमों का पालन करने के लिए अब स्वामीजी का आहार अत्यन्त अल्प हो गया था और नींद तो बहुत दिनों से उन्हें एक प्रकार छोड़ ही बैठी थी; परन्तु इस अनाहार, अनिद्रा में भी स्वामीजी को विश्राम नहीं है। कुछ दिन हुए मठ में नया अंग्रेजी विश्वकोष (Encyclopaedia Britannica) खरीदा गया है। नयी चमकीली पुस्तकों को देखकर शिष्य ने स्वामीजी से कहा, “इतनी पुस्तकें एक जीवन में पढ़ना तो कठिन है”, उस समय शिष्य नहीं जानता था कि स्वामीजी ने उस ग्रन्थ के दस खण्डों का इसी बीच में अध्ययन समाप्त करके ग्यारहवें खण्ड का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया है।
स्वामीजी – क्या कहता है? इन दस पुस्तकों में से मुझसे जो चाहे पूछ ले – सब बता दूँगा।
शिष्य ने विस्मित होकर पूछा, “क्या आपने इन सभी पुस्तकों को पढ़ लिया है?”
स्वामीजी – क्या बिना पढ़े ही कह रहा हूँ?
इसके अनन्तर स्वामीजी का आदेश प्राप्त कर शिष्य उन सब पुस्तकों से चुन चुनकर कठिन विषयों को पूछने लगा। आश्चर्य की बात है – स्वामीजी ने उन सब विषयों का मर्म तो कहा ही, पर स्थान स्थान पर पुस्तक की भाषा तक उद्धृत की। शिष्य ने उस विराट ग्रन्थ के दस खण्डों में से प्रत्येक खण्ड से दो एक विषय पूछे और स्वामीजी की असाधारण बुद्धि तथा स्मरणशक्ति को देख विस्मित होकर पुस्तकों को उठाकर रखते हुए उसने कहा, “यह मनुष्य की शक्ति नहीं है।”
स्वामीजी – देखा, एकमात्र ब्रह्मचर्य का ठीक ठीक पालन कर सकने पर सभी विद्याएँ क्षण भर में याद हो जाती हैं – मनुष्य श्रुतिधर, स्मृतिधर बन जाता है। ब्रह्मचर्य के अभाव से ही हमारे देश का सब कुछ नष्ट हो गया।
शिष्य – महाराज, आप जो भी कहे, केवल ब्रह्मचर्यरक्षाके परिणाम में इस प्रकार अलौकिक शक्ति का स्फुरण कभी सम्भव नहीं है, इसके लिए और भी कुछ चाहिए।
उत्तर में स्वामीजी ने कुछ भी नहीं कहा।
इसके बाद स्वामीजी सर्व दर्शनों के कठिन विषयों के विचार और सिद्धान्त शिष्य को सुनाने लगे। हृदय में उन सिद्धान्तों को प्रविष्ट करा देने के ही लिए मानो आज वे इन सिद्धान्तों की उस प्रकार विशद व्याख्या करके समझाने लगे। यह वार्तालाप हो ही रहा है कि इसी समय स्वामी ब्रह्मानन्द स्वामीजी के कमरे में प्रवेश करके शिष्य से बोले, “तू तो अच्छा आदमी है! स्वामीजी का शरीर अस्वस्थ है। अपने सम्भाषण के द्वारा स्वामीजी के मन को प्रफुल्लित करने के बदले तू उन सब कठिन प्रसंगों को उठाकर स्वामीजी से व्यर्थ की बात कर रहा है।” शिष्य लज्जित होकर अपनी भूल समझ गया, परन्तु स्वामीजी ने ब्रह्मानन्द महाराज से कहा, “ले रख दे अलग अपने वैद्य के नियम – ये लोग मेरी सन्तान हैं, इन्हें सदुपदेश देते देते यदि मेरी देह भी चली जाय तो क्या हानि है?” परन्तु शिष्य उसके पश्चात् फिर कोई दार्शनिक प्रश्न न करके, पूर्व बंग की भाषा पर हास्य करने लगा। स्वामीजी भी शिष्य के साथ उसमें सम्मिलित हो गये। थोड़ी देर तक यही हुआ और फिर बंग साहित्य में भारतचन्द्र के स्थान में सम्बन्ध में चर्चा शुरू हुई। उस सम्बन्ध में थोड़ाबहुत जो कुछ याद है – यहाँ पर उल्लेख कर रहा हूँ।
पहले से स्वामीजी ने भारतचन्द्र को लेकर हँसी करना शुरू किया और उस समय के सामाजिक आचार, व्यवहार, विवाह संस्कार आदि की भी अनेक प्रकार से हँसी उड़ाने लगे। उन्होंने कहा कि समाज में बालविवाह-प्रथा को चलाने के पक्षपाती भारतचन्द्र की कुरुचि तथा उनके अश्लीलता पूर्ण काव्य आदि बंगदेश के सिवाय अन्य किसी देश के सभ्य समाज में ऐसे मान्य नहीं हुए। फिर कहा कि लड़कों के हाथ में वह पुस्तक न पहुँचे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। फिर माइकेल मधुसूदन दत्त की बात चलाकर बोले, “वह एक अपूर्व मनस्वी व्यक्ति तुम्हारे देश में पैदा हुए थे। मेघनाथ-वध की तरह दूसरा काव्य बंगला भाषा में तो है ही नहीं, समस्त यूरोप में भी वैसा कोई काव्य आजकल मिलना कठिन है।”
शिष्य ने कहा, “परन्तु महाराज माइकेल को शायद शब्दाडम्बर बहुत प्रिय है।”
स्वामीजी – तुम्हारे देश में कोई कुछ नयी बात करे तो तुम लोग उसके पीछे पड़ जाते हो। पहले अच्छी तरह देखो कि वह आदमी क्या कह रहा है। पर ऐसा न करके ज्यों ही किसी में कोई नयी बात दिखायी दी कि लोग उसके पीछे पड़ गये। यह ‘मेघनाद-वध’ – जो तुम्हारी बंगला भाषा का मुकुटमणि है – उसे नीचा दिखाने के लिए एक ‘छछूँदर-वध’ काव्य लिखा गया! पर इससे हुआ क्या? करता रहे जो कोई जो कुछ चाहे! वही मेघनाद-वध काव्य अब हिमालय की तरह अटल होकर खड़ा है; परन्तु उसमें दोष निकालने में जो लोग व्यस्त थे, उन सब समालोचकों के मत और लेख अब न जाने कहाँ बह गये हैं! माइकेल नवीन छन्द और ओजपूर्ण भाषा में जिस काव्य की रचना कर गये हैं, उसे साधारण लोग क्या समझेंगे? इसी प्रकार यह जो जी. सी. आजकल नये छन्दों में अनेकानेक उत्कृष्ट पुस्तकें लिख रहा है, उनकी भी तो तुम्हारे बुद्धिमान पण्डितगण कितनी समालोचना कर रहे हैं – दोष निकाल रहे हैं! पर क्या जी. सी. उसकी परवाह करता है? समय आनेपर ही लोग उन सब पुस्तकों का मूल्य समझेंगे।
इस प्रकार माइकेल की बात चलते चलते उन्होंने कहा, “जा, नीचे लाइब्रेरी से मेघनाद वध-काव्य ले तो आ।” शिष्य मठ की लाइब्रेरी से मेघनाद-वध काव्य ले आया और उसे लेकर स्वामीजी ने कहा, “पढ़ देखूँ तो, तू कैसा पढ़ता है?”
शिष्य पुस्तक खोलकर प्रथम सर्ग का कुछ अंश यथासाध्य पढ़ने लगा, परन्तु उसका पढ़ना स्वामीजी को रुचिकर न लगा। अतएव उन्होंने उस अंश को स्वयं पढ़कर बताया और शिष्य से फिर उसे पढ़ने के लिए कहा। अब शिष्य को बहुत कुछ सफल होते देख उन्होंने प्रसन्न होकर पूछा, “बोल तो, इस काव्य का कौन अंश सर्वोत्कृष्ट है?”
शिष्य उत्तर देने में असमर्थ होकर चुपचाप बैठा है, यह देखकर स्वामीजी बोले, “जहाँ पर इन्द्रजित युद्ध में निहत हुआ है – मन्दोदरी शोक से कातर होकर रावण को युद्ध में जाने से रोक रही है, परन्तु रावण पुत्रशोक को मन से जबरदस्ती हटाकर महावीर की तरह युद्ध में जाना निश्चय कर प्रतिहिंसा और क्रोध की आग में स्त्री-पुत्र सब भूलकर युद्ध के लिए बाहर जाने को तैयार है – वही है काव्य की श्रेष्ठ कल्पना! चाहे जो हो, पर मैं अपना कर्तव्य नहीं भूल सकता, फिर दुनिया रहे या जाय – यही है महावीर का वाक्य। माइकेल ने उसी भाव में अनुप्राणित होकर काव्य के उस अंश को लिखा था।”
ऐसा कहकर स्वामीजी ग्रन्थ खोलकर उस अंश को पढ़ने लगे। स्वामीजी की वह वीर-दर्प व्यंजक पठनशैली आज भी शिष्य के मन में ज्वलन्त रूप में जाग्रत हैं।