धर्म

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 16 हिंदी में – Valmiki Ramayana Balakanda Chapter – 16

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देवताओं का श्रीहरि से रावण वध के लिये मनुष्य रूप में अवतीर्ण होने को कहना, राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ में अग्नि कुण्ड से प्राजापत्य पुरुष का प्रकट होकर खीर अर्पण करना और उसे खाकर रानियों का गर्भवती होना

तदनन्तर उन श्रेष्ठ देवताओं द्वारा इस प्रकार रावण वध के लिये नियुक्त होने पर सर्वव्यापी नारायण ने रावण वध के उपाय को जानते हुए भी देवताओं से यह मधुर वचन कहा—॥ १ ॥

‘देवगण! राक्षस राज रावण के वध के लिये कौन-सा उपाय है, जिसका आश्रय लेकर मैं महर्षियों के लिये कण्टकरूप उस निशाचरका वध करूँ?’॥ २ ॥

उनके इस तरह पूछनेपर सब देवता उन अविनाशी भगवान् विष्णु से बोले—‘प्रभो! आप मनुष्य का रूप धारण करके युद्धमें रावण को मार डालिये॥ ३ ॥

‘उस शत्रुदमन निशाचर ने दीर्घकाल तक तीव्र तपस्या की थी, जिससे सब लोगों के पूर्वज लोक स्रष्टा ब्रह्माजी उसपर प्रसन्न हो गये॥ ४ ॥

‘उसपर संतुष्ट हुए भगवान् ब्रह्माने उस राक्षस को यह वर दिया कि तुम्हें नाना प्रकार के प्राणियों में से मनुष्य के सिवा और किसी से भय नहीं है॥ ५ ॥

‘पूर्वकाल में वरदान लेते समय उस राक्षस ने मनुष्यों को दुर्बल समझकर उनकी अवहेलना कर दी थी। इस प्रकार पितामह से मिले हुए वरदानके कारण उसका घमण्ड बढ़ गया है॥ ६ ॥

‘शत्रुओं को संताप देने वाले देव! वह तीनों लोकों को पीड़ा देता और स्त्रियोंका भी अपहरण कर लेता है; अत: उसका वध मनुष्य के हाथ से ही निश्चित हुआ है’॥ ७ ॥

समस्त जीवात्माओंको वशमें रखनेवाले भगवान् विष्णु ने देवताओंकी यह बात सुनकर अवतारकालमें राजा दशरथको ही पिता बनाने की इच्छा की॥ ८ ॥

उसी समय वे शत्रुसूदन महातेजस्वी नरेश पुत्र हीन होने के कारण पुत्र प्राप्ति की इच्छासे पुत्रेष्टि यज्ञ कर रहे थे॥ ९ ॥

उन्हें पिता बनानेका निश्चय करके भगवान् विष्णु पितामह की अनुमति ले देवताओं और महर्षियों से पूजित हो वहाँसे अन्तर्धान हो गये॥ १० ॥

तत्पश्चात् पुत्रेष्टि यज्ञ करते हुए राजा दशरथके यज्ञमें अग्निकुण्डसे एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उसके शरीरमें इतना प्रकाश था, जिसकी कहीं तुलना नहीं थी। उसका बल-पराक्रम महान् था॥ ११ ॥

उसकी अंगकान्ति काले रंगकी थी। उसने अपने शरीरपर लाल वस्त्र धारण कर रखा था। उसका मुख भी लाल ही था। उसकी वाणीसे दुन्दुभिके समान गम्भीर ध्वनि प्रकट होती थी। उसके रोम, दाढ़ी-मूँछ और बड़े-बड़े केश चिकने और सिंहके समान थे॥ १२ ॥

वह शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित, शैलशिखरके समान ऊँचा तथा गर्वीले सिंहके समान चलनेवाला था॥ १३ ॥

उसकी आकृति सूर्यके समान तेजोमयी थी। वह प्रज्वलित अग्निकी लपटोंके समान देदीप्यमान हो रहा था। उसके हाथमें तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्ण की बनी हुई परात थी, जो चाँदी के ढक्कन से ढँकी हुई थी। वह (परात) थाली बहुत बड़ी थी और दिव्य खीरसे भरी हुई थी। उसे उस पुरुषने स्वयं अपनी दोनों भुजाओं पर इस तरह उठा रखा था, मानो कोई रसिक अपनी प्रियतमा पन्ती को अङ्कमें लिये हुए हो। वह अद्भुत परात मायामयी-सी जान पड़ती थी॥ १४-१५ ॥

उसने राजा दशरथकी ओर देखकर कहा— ‘नरेश्वर! मुझे प्रजापति लोक का पुरुष जानो। मैं प्रजापति की ही आज्ञासे यहाँ आया हूँ’॥ १६ ॥

तब राजा दशरथने हाथ जोड़कर उससे कहा— ‘भगवन्! आपका स्वागत है। कहिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?॥ १७ ॥

फिर उस प्राजापत्य पुरुषने पुन: यह बात कही— ‘राजन्! तुम देवताओंकी आराधना करते हो; इसीलिये तुम्हें आज यह वस्तु प्राप्त हुई है॥ १८ ॥

‘नृपश्रेष्ठ! यह देवताओंकी बनायी हुई खीर है, जो संतानकी प्राप्ति करानेवाली है। तुम इसे ग्रहण करो। यह धन और आरोग्यकी भी वृद्धि करनेवाली है॥ १९ ॥

‘राजन्! यह खीर अपनी योग्य पत्नियोंको दो और कहो—‘तुमलोग इसे खाओ।’ ऐसा करनेपर उनके गर्भसे आपको अनेक पुत्रोंकी प्राप्ति होगी, जिनके लिये तुम यह यज्ञ कर रहे हो’॥ २० ॥

राजाने प्रसन्नता पूर्वक ‘बहुत अच्छा’ कहकर उस दिव्य पुरुषकी दी हुई देवान्न से परिपूर्ण सोनेकी थाली को लेकर उसे अपने मस्तकपर धारण किया। फिर उस अद्भुत एवं प्रिय दर्शन पुरुष को प्रणाम करके बड़े आनन्द के साथ उसकी परिक्रमा की॥ २१-२२ ॥

इस प्रकार देवताओं की बनायी हुई उस खीरको पाकर राजा दशरथ बहुत प्रसन्न हुए, मानो निर्धन को धन मिल गया हो। इसके बाद वह परम तेजस्वी अद्भुत पुरुष अपना वह काम पूरा करके वहीं अन्तर्धान हो गया॥ २३-२४ ॥

उस समय राजाके अन्त:पुरकी स्त्रियाँ हर्षोल्लाससे बढ़ी हुई कान्तिमयी किरणोंसे प्रकाशित हो ठीक उसी तरह शोभा पाने लगीं, जैसे शरत्कालके नयनाभिराम चन्द्रमाकी रम्य रश्मियोंसे उद्भासित होनेवाला आकाश सुशोभित होता है॥ २५ ॥

राजा दशरथ वह खीर लेकर अन्त:पुरमें गये और कौसल्यासे बोले—‘देवि! यह अपने लिये पुत्रकी प्राप्ति करानेवाली खीर ग्रहण करो’॥ २६ ॥

ऐसा कहकर नरेशने उस समय उस खीरका आधा भाग महारानी कौसल्याको दे दिया। फिर बचे हुए आधेका आधा भाग रानी सुमित्राको अर्पण किया॥ २७ ॥

उन दोनोंको देने के बाद जितनी खीर बच रही, उसका आधा भाग तो उन्होंने पुत्रप्राप्तिके उद्देश्यसे कैकेयी को दे दिया। तत्पश्चात् उस खीरका जो अवशिष्ट आधा भाग था, उस अमृतोपम भाग को महाबुद्धिमान् नरेशने कुछ सोच-विचारकर पुन: सुमित्राको ही अर्पित कर दिया। इस प्रकार राजाने अपनी सभी रानियोंको अलग-अलग खीर बाँट दी॥ २८-२९ ॥

महाराज की उन सभी साध्वी रानियों ने उनके हाथ से वह खीर पाकर अपना सम्मान समझा। उनके चित्तमें अत्यन्त हर्षोल्लास छा गया॥ ३० ॥

उस उत्तम खीरको खाकर महाराज की उन तीनों साध्वी महारानियोंने शीघ्र ही पृथक्-पृथक् गर्भ धारण किया। उनके वे गर्भ अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी थे॥ ३१ ॥

तदनन्तर अपनी उन रानियोंको गर्भवती देख राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझा, मेरा मनोरथ सफल हो गया। जैसे स्वर्ग में इन्द्र, सिद्ध तथा ऋषियोंसे पूजित हो श्रीहरि प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार भूतल में देवेन्द्र, सिद्ध तथा महर्षियोंसे सम्मानित हो राजा दशरथ संतुष्ट हुए थे॥ ३२ ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १६॥

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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