वराहनगर मठ में श्रीरामकृष्णदेव के संन्यासी शिष्यों का साधन भजन – मठ की पहली स्थिति
स्थान – बेलुड़ मठ
वर्ष – १९०२ ईसवी का प्रारम्भ
विषय – वराहनगर मठ में श्रीरामकृष्णदेव के संन्यासी शिष्यों का साधन भजन – मठ की पहली स्थिति – स्वामीजी के जीवन के कुछ दुःखके दिन – संन्यास के कठोर नियम।
आज शनिवार है। शिष्य सन्ध्या के पहले ही मठ में आ गया है। मठ में आजकल साधनभजन, जप, तप का बहुत जोर है। स्वामीजी ने आज्ञा दी है कि ब्रह्मचारी और संन्यासी सभी को खूब सबेरे उठकर मन्दिर में जाकर जप-ध्यान करना होगा। स्वामीजी की निद्रा तो एक प्रकार नहीं के ही समान है, प्रातःकाल तीन बजे से ही बिस्तर से उठकर बैठे रहते हैं। एक घण्टा खरीदा गया है – तड़के सभी को जगाने के लिए मठ के प्रत्येक कमरे के पास जाकर जोर जोर से वह घण्टा बजाया जाता है।
शिष्य ने मठ में आकर स्वामीजी को प्रणाम किया। प्रणाम स्वीकार करते ही वे बोले, “ओ रे, मठ में आजकल कैसा साधनभजन हो रहा है; सभी लोग तड़के और सायंकाल बहुत देर तक जप-ध्यान करते हैं। वह देख, घण्टा लाया गया है; उसीसे सब को जगाया जाता है। अरुणोदय से पहले सभी को नींद छोड़कर उठना पड़ता है। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘प्रातकाल और सायंकाल मन सात्विक भावों से पूर्ण रहता है, उसी समय एकाग्र मन से ध्यान करना चाहिए’।”
“श्रीरामकृष्ण के देहत्याग के बाद हम वराहनगर के मठ में कितना जप-ध्यान किया करते थे। सुबह तीन बजे सब जाग उठते थे। शौच आदि के बाद कोई स्नान करके और कोई कपड़े बदलकर मन्दिर में जाकर बैठे हुए जप-ध्यान में डूब जाया करते थे। उस समय हम लोगों में क्या ही वैराग्य का भाव था! दुनिया है या नहीं इसका पता ही न था। शशी (स्वामी रामकृष्णानन्द) चौबीस घण्टे श्रीरामकृष्ण की सेवा करता रहता था, वह घर की गृहिणी की तरह था। भिक्षा माँगकर श्रीरामकृष्ण के भोग आदि की ओर हम लोगों के खिलाने-पिलाने की सारी व्यवस्था वह स्वयं ही करता था। ऐसे दिन भी गये हैं, जब सबेरे से चार-पांच बजे शाम तक जप-ध्यान चलता रहता था। शशी खाना लेकर बहुत देर तक बैठे रहकर अन्त में किसी तरह से घसीटकर हमें जप-ध्यान से उठा दिया करता था। अहा, शशी की कैसी निष्ठा देखी है!”
शिष्य – महाराज, मठ का खर्च उन दिनों कैसे चलता था?
स्वामीजी – कैसे चलता था, क्या प्रश्न है रे? हम साधु संन्यासी लोग हैं! भिक्षा माँगकर जो आता था, उसीसे सब चला करता था। आज सुरेश बाबू, बलराम बाबू नहीं हैं; वे दो व्यक्ति आज होते तो इस मठ को देखकर कितने आनन्दित होते! सुरेश बाबू का नाम सुना है न? उन्हें एक प्रकार से इस मठ के संस्थापक ही कहना चाहिए। वे ही वराहनगर मठ का सारा खर्च चलाते थे। सुरेश मित्र उस समय हम लोगों के लिए बहुत सोचा करते थे। उनकी भक्ति और विश्वास की तुलना नहीं हो सकती।
शिष्य – महाराज, सुना है उनकी मृत्यु के समय आप लोग उनसे मिलने के लिए अधिक नहीं जाया करते थे।
स्वामीजी – उनके रिश्तेदार जाने देते तब न? जाने दे, उसमें अनेक बातें हैं। परन्तु इतना जान लेना, संसार में तू जीवित है या मर गया है, इससे तेरे स्वजनों को कोई विशेष हानि-लाभ नहीं है। तू यदि कुछ सम्पत्ति छोड़कर जा सका तो देख लेना तेरी मृत्यु से पहले ही उस पर घर में डण्डेबाजी शुरू हो जायगी! तेरी मृत्युशय्या पर तुझे सान्त्वना देनेवाला कोई नहीं है – स्त्री-पुत्र तक नहीं। इसी का नाम संसार है।
मठ की पूर्वस्थिति के सम्बन्ध में स्वामीजी फिर बोलने लगे – “पैसे की कमी के कारण कभी कभी तो मैं मठ उठा देने के लिए झगड़ा किया करता था; परन्तु शशी को उस विषय में किसी भी तरह सहमत न कर सकता था। शशी को हमारे मठ का केन्द्रस्वरूप समझना। कभी कभी मठ में ऐसा अभाव हुआ है कि कुछ भी नहीं रहता था। भिक्षा माँगकर चावल लाया गया तो नमक नहीं है। कभी केवल नमक और चावल था, फिर भी किसी की परवाह नहीं, जप-ध्यान के प्रबल वेग में उस समय हम सब बह रहे थे। कुन्दरू का पत्ता उबाला हुआ और नमक-भात, यही लगातार महीनों तक चला – ओह! वे कैसे दिन थे! परन्तु यह बात निश्चित सत्य है कि तेरे अन्दर यदि कुछ चीज रहे तो बाह्य परिस्थिती जितनी ही विपरीत होगी, भीतर की शक्ति का उतना ही उन्मेष होगा। परन्तु अब जो मठ में खाट बिछौना, खाने-पीने आदि की अच्छी व्यवस्था की है, इसका कारण यह है कि उन दिनों हम लोग जितना सहन कर सके हैं, उतना क्या आजकल के लोग जो संन्यासी बनकर यहाँ आ रहे हैं, सहन कर सकेंगे? हमने श्रीरामकृष्ण का जीवन देखा है, इसीलिए हम दुःख या कष्ट की विशेष परवाह नहीं किया करते थे। आजकल के लड़के उतनी कठोर साधना न कर सकेंगे। इसीलिए रहने के लिए थोड़ा स्थान और दो दाने अन्न की व्यवस्था की गयी है। ‘मोटा भात, मोटा वस्त्र’ पाने पर लड़के सब साधनभजन में मन लगायेंगे और जीव के हित के लिए जीवन का उत्सर्ग करना सीखेंगे।”
शिष्य – महाराज, मठ के ये सब खाट-बिछौने देखकर बाहर के लोग अनेक विरुद्ध बातें करते हैं।
स्वामीजी – करने दे न। हँसी उड़ाने के बहाने ही सही, यहाँ की बात एक-बार मन में तो लायेंगे! शत्रुभाव से जल्द मुक्ति होती है। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘लोक पोक – लोग तो कीड़े मकोड़े हैं।’ इसने क्या कहा, उसने क्या कहा, क्या यही सुनकर चलना होगा? छीः छीः।
शिष्य – महाराज आप कभी कहते हैं, ‘सब नारायण हैं, दीन-दुखी मेरे नारायण हैं’ और फिर कभी कहते हैं, ‘लोग तो कीड़े मकोड़े हैं’। इसका मतलब मैं नहीं समझ पाता।
स्वामीजी – सभी जो नारायण हैं, इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं है, परन्तु सभी नारायण तो बदनाम नहीं करते न? बेचारे गरीब दुःखी लोग मठ का इन्तजाम आदि देखकर तो कभी बदनाम नहीं करते? हम सत्कार्य करते जायेंगे, जो बदनाम करेंगे उन्हें करने दो। हम उनकी ओर देखेंगे भी नहीं – इसी भाव से कहा गया है ‘लोग तो कीड़े मकोड़े हैं।’ जिसका ऐसा उदासीन रुख है, उसका सब कुछ सिद्ध हो जाता है। हाँ, किसी किसी का जरा विलम्ब से होता है परन्तु होता है निश्चित। हम लोगों का ऐसा ही उदासीन रुख था, इसीलिए थोड़ाबहुत हो पाया है। नहीं तो देखते ही हो, हमारे कैसे दुःख के दिन बीते हैं! एक बार तो ऐसा हुआ कि भोजन न पाकर रास्ते के किनारे एक मकान के बरामदे पर बेहोश होकर पड़ा था; सिर पर थोड़ी देर वर्षा का जल गिरता रहा, तब होश में आया था। एक दूसरे अवसर पर दिन भर खाने को न पाकर कलकत्ते में यह काम, वह काम करता हुआ घूम-घामकर रात को दस ग्यारह बजे मठ में आया तब कुछ खा सका और ऐसा सिर्फ एक दिन ही नहीं हुआ!
इन बातोंं को कहकर स्वामीजी अन्यमनस्क होकर थोड़ी देर बैठे रहे। बाद में फिर कहने लगे –
“ठीक ठीक संन्यास क्या आसानी से होता है रे? ऐसा कठिन आश्रम और दूसरा नहीं है। जरा ही नीति-विरुद्ध पैर पड़े कि पहाड़ से एकदम घाटी में गिरे – हाथ-पैर सब टकराकर चकनाचूर हो गये। एक दिन मैं आगरा से वृन्दावन पैदल जा रहा था। पास में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। मैं वृन्दावन से करीब एक कोस दूरी पर था; देखा, रास्ते के किनारे एक व्यक्ति बैठकर तम्बाकू पी रहा है। उसे देखकर मुझे भी तम्बाकू पीने की इच्छा हुई। मैंने उससे कहा, ‘अरे भाई, जरा मुझे भी चिलम देगा?’ वह मानो सकुचाता हुआ बोला, ‘महाराज, हम भँगी हैं।’ यह सुनकर मैं पीछे हट गया और बिना तम्बाकू पिये ही फिर रास्ता चलने लगा – संस्कार ही है न? पर थोड़ी दूर जाकर मन में विचार आया, “अरे मैंने तो संन्यास लिया है, जाति, कुल, मान – सब कुछ छोड़ दिया है, फिर भी उस व्यक्ति ने जब अपने को भंगी बताया तो मैं पीछे क्यों हट गया? उसका छुआ तम्बाकू भी न पी सका!’ ऐसा सोचकर मन व्याकुल हो उठा। उस समय करीब दो फर्लांग रास्ता चल आया था। पर फिर लौटकर उसी मेहतर के पास आया, देखा कि अब भी वह व्यक्ति वहीं पर बैठा है। मैंने जाकर जल्दी से कहा, ‘अरे भैया, एक चिलम तम्बाकू भर कर ले आ।’ उसने फिर कहा कि वह मेहतर है। पर मैंने उसकी मनाही की कोई परवाह न की और कहा, ‘चिलम में तम्बाकू देना ही पड़ेगा।’ वह क्या करता? अन्त में उसने चिलम भर कर मुझे दे दी। फिर आनन्द से तम्बाकू पीकर मैं वृन्दावन आया। अतएव संन्यास लेने पर इस बात की परीक्षा लेनी होती है कि वह व्यक्ति स्वयं जाति-वर्ण के परे चला गया है या नहीं। ठीक ठीक संन्यास-व्रत की रक्षा करना बड़ा कठिन है, कहने और करने में जरा भी फर्क होने की गुंजाइश नहीं है।”
शिष्य – महाराज, आप हमारे सामने कभी गृहस्थ का आदर्श और कभी त्यागी का आदर्श रखते हैं; हम जैसों को उनमें से किसका अवलम्बन करना उचित है?
स्वामी – सब सुनता जाया कर, उसके बाद जो अच्छा लगे उसीको ले लेना। फिर बुलडाग नामक कुत्ते की तरह दृढ़ता के साथ पकड़कर पड़े रहना।
इस प्रकार वार्तालाप होते होते स्वामीजी शिष्य के साथ नीचे उतर आये और कभी बीच बीच में “शिव शिव” कहते कहते और फिर कभी गुनगनाकर “कब किस रंग में रहती हो माँ श्यामा सुधातरंगिणी” आदि गीत गाते हुए टहलने लगे।