चंद्रस्वामी की दुविधा – विक्रम बेताल की कहानी
“चंद्रस्वामी की दुविधा” बेताल पच्चीसी की अठारहवीं कहानी है। चंद्रस्वामी को सही-सही साधना करने के बावजूद भी सिद्धि क्यों नहीं मिली–बेताल के इस प्रश्न का ठीक उत्तर राजा विक्रमादित्य अपनी कुशाग्र बुद्धि से सफलता-पूर्वक देता है। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
राजा यशोधन और सेनापति बलधर की कहानी का सही उत्तर राजा विक्रम से प्राप्त कर बेताल पुनः उड़ गया। उस भयानक रात में राजा विक्रमादित्य जब उस शिंशपा-वृक्ष के पास फिर पहुंचा तो वहां का बदला दृश्य देखकर कुछ विस्मित-सा हो गया। श्मशान का समूचा क्षेत्र श्मशान की चिता की अग्नि और मांसभक्षी भूत-प्रेतों से भरा हुआ था, जिनकी जीभें आग की चंचल लपटों के समान जान पड़ती थीं।
वहां उसने बहुत से प्रेत-शरीरों को उल्टे लटका देखा, जो देखने में एक जैसे प्रतीत होते थे। यह देखकर भी राजा भयभीत न हुआ। वह मन-ही-मन सोचने लगा, “अरे! यह क्या बात है? क्या वह मायावी बेताल इस प्रकार मेरा समय नष्ट कर रहा है? समझ में नहीं आता इन बहुत-से शवों में से मैं किसको ले जाऊं? यदि मेरा काम हुए बिना ही यह रात बीत गई तो फिर मरने के अतिरिक्त मेरे पास कोई अन्य उपाय नहीं बचेगा। तब मैं अग्नि में प्रवेश करके अपने प्राण दे दूंगा किंतु उपहास का पात्र कदापि नहीं बनूंगा।”
राजा जब ऐसा सोच रहा था, तब उसका यह निश्चय जानकर बेताल उसकी दृढ़ता से संतुष्ट हुआ और उसने अपनी माया समेट ली। तब राजा ने एक ही मनुष्य शरीर में बेताल को देखा। उसे वृक्ष से उतारकर राजा ने अपने कंधे पर डाला और वहां से प्रस्थान किया। चलते हुए राजा से वह बेताल फिर बोला, “राजन, मुझे यह देखकर बहुत आश्चर्य हो रहा है कि न तो तुम ऊबते ही हो और न अपनी जिद छोड़ते हो! उस योगी के लिए तुम निश्चय ही बहुत परिश्रम कर रहे हो। सुनो, तुम्हारे श्रम की थकान दूर करने के लिए मैं तुम्हें फिर एक कथा सुनाता हूं।” तब बेताल ने यह कथा सुनाई–
आर्यावर्त में उज्जयिनी नाम की एक नगरी है। नागों की भूमि भोगवती और देवों की भूमि अमरावती के बाद श्रेष्ठता में तीसरा स्थान उसी का है। माता गौरी ने कठिन तपस्या के बाद जब शिवजी का वरण किया था, तब इस नगरी के असाधारण गुणों से आकृष्ट होकर भगवान शिव ने इसी नगरी को अपना निवास स्थान बनाया था। पुण्य की अधिकता से प्राप्त होने वाले अनेक प्रकार के सुख-भोगों से वह नगरी भरी हुई है।
उस नगरी में चंद्रप्रभ नाम का एक राजा राज करता था। उसका मंत्री एक ब्राह्मण था, जिसका नाम था देवस्वामी। देवस्वामी बहुत धनवान था, उसने बहुत से यज्ञ भी किए थे।
समय पाकर उसे चंद्रस्वामी नाम का एक पुत्र पैदा हुआ। यद्यपि उसने विद्याओं का अध्ययन किया था, फिर भी जवानी में उसे जुआ खेलने का व्यसन पैदा हो गया। एक बार चंद्रस्वामी जुआ खेलने के लिए किसी बड़े जुआखाने में गया। वहां एक से बढ़कर एक जुआरी पहले से ही मौजूद थे। चंद्रस्वामी उनके साथ जुआ खेलने लगा।
दुर्भाग्य से वह अपना सारा धन हार गया। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि वह अपने वस्त्र तथा दूसरों से मांगा हुआ धन भी हार गया। मांगने पर जब वह उस रकम को नहीं चुका सका तो उस जुआखाने के मालिक ने उसे डंडे से खूब पीटा। डंडे की चोट से चंद्रस्वामी का सारा शरीर घायल हो गया। कई दिन तक वह उसी जगह मुर्दे के समान घायल पड़ा रहा। यह देखकर उस जुआखाने के मालिक ने अपने जुआरियों से कहा—“सुनो मित्रो! तीन दिन हो गए, यह तो आंखें ही नहीं खोल रहा, पत्थर के समान हो गया है। तुम इसे मार डालो और इसका शव किसी अंधे कुएं में फेंक आओ। तुम लोगों को इसके लिए मैं उचित मुआवजा दे दूंगा।”
उसके ऐसा कहने पर दूसरे जुआरी चंद्रस्वामी को वहां से उठाकर ले गए और कुएं की खोज में दूर एक वन में जा पहुंचे। वहां एक बूढ़े जुआरी ने दूसरों से कहा, “यह तो लगभग मर ही चुका है, फिर इसे कुएं में फेंकने से क्या लाभ? बेहतर है हम इसे यहीं छोड़ दें और उस द्यूतशाला (जुआघर) के मालिक से जाकर यह कह दें कि हम उसे कुएं में डाल आए हैं।” सबने उसकी बात का समर्थन किया और वे चंद्रस्वामी को छोड़कर चले गए।
चंद्रस्वामी को होश आया तो उसने स्वयं को एक निर्जन वन में पाया। वहां एक शिवालय बना हुआ था। तब वह लड़खड़ाता-सा उठा और थके-थके क़दमों से उस मंदिर में चला गया। अंदर पहुंचकर जब उसकी हालत थोड़ी और सुधरी तो वह दुःखी होकर सोचने लगा, ‘कैसे दुःख की बात कि मुझे उन जुआरियों ने धोखे से लूट लिया। मैं नंगा हूं, घायल हूं, धूल से मेरा शरीर भरा हुआ है। ऐसी हालत में मैं जाऊं भी तो कहां जाऊं? मेरे पिता, मेरे संबंधी और मेरे हितैषी मित्र मुझे देखकर क्या कहेंगे? इसलिए मैं अभी तो यहीं ठहरता हूं, रात को बाहर निकलकर देखूंगा कि भूख मिटाने के लिए खाने-पीने का क्या उपाय कर सकता हूं।’ थका हुआ और वस्त्ररहित चंद्रस्वामी ऐसा सोच ही रहा था कि तभी सूर्यास्त हो गया।
इसी बीच एक महाव्रती तपस्वी वहां आया। उसके समूचे शरीर में विभूति (भभूत) लगी हुई थी और जटा और शूल धारण करने के कारण वह दूसरे भगवान शंकर के समान जान पड़ता था। उस तपस्वी ने जब चंद्रस्वामी से उसका परिचय पूछा तो चंद्रस्वामी ने उसे वह सारा वृत्तांत कह सुनाया जिसके कारण उसकी यह दुर्दशा हुई थी।
यह सुनकर तपस्वी ने चंद्रस्वामी से दयापूर्वक कहा, “तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है, वत्स। तुम मेरे अतिथि हो, यह मेरा आश्रम है। उठो और पहले स्नान करो, तत्पश्चात मैं जो कुछ भिक्षा में मांगकर लाया हूं, उसमें से कुछ हिस्सा तुम खा लो।”
उस व्रतधारी के ऐसा कहने पर चंद्रस्वामी ने उससे कहा, “भगवन, मैं ब्राह्मण हूं। आपकी भीख में हिस्सा कैसे बांटकर खाऊंगा?”
यह सुनकर अतिथि का आदर करने वाला वह सिद्ध व्रतधारी अपनी मठी (छोटी कुटिया) में घुस गया। वहां उसने इष्ट सिद्धि देने वाली अपनी विद्या का स्मरण किया। याद करते ही विद्या प्रकट हुई और जब उसने पूछा कि “मैं क्या करूं?” तो उस तपस्वी ने आज्ञा दी कि “मेरे इस अतिथि का आतिथ्य-सत्कार करो।”
विद्या ने कहा, “ऐसा ही होगा।” कहकर उसने एक स्वर्ण नगर उत्पन्न कर दिया, जिसमें बगीचा भी था और सुन्दर-सुन्दर स्त्रियां भी थीं।
उस नगर से निकलकर सुन्दरियां विस्मित चंद्रस्वामी के पास आईं और बोलीं, “भद्र उठो, स्नान-भोजन करो और अपनी थकावट दूर करो।”
यह कहकर वे उसे अंदर ले गईं। स्नान कराकर उन्होंने उसके शरीर पर अंगराग लगाया। उनके द्वारा दिए गए उत्तम वस्त्र पहनने के बाद वे उसे एक दूसरे सुन्दर भवन में ले गईं।
उस भवन के अंदर उसने एक सर्वांग सुन्दर युवती को देखा, जो उन सबकी प्रधान जान पड़ती थी और जिसे मानो विधाता ने बड़ी कुशलता से अपने हाथों स्वयं गढ़ा था। उसने उत्कंठापूर्वक चंद्रस्वामी को अपने आसन के आधे हिस्से पर बैठाया। फिर उसके साथ ही उसने दिव्य भोजन किया। भोजन के उपरान्त चंद्रस्वामी ने स्वादिष्ट पके हुए फल और फिर ताम्बूल (पान) खाया। फिर उसके साथ नरम बिस्तर पर सोकर चरम सुख प्राप्त किया!
सवेरे जब चंद्रस्वामी जागा तो वहां केवल उसे शिवालय ही दिखाई दिया। वहां न तो वह दिव्य स्त्री थी, न नगर था और न वे दासियां ही थीं।
तभी मठी के भीतर से हंसता हुआ वह तपस्वी निकला। उसके यह पूछने पर कि “रात कैसी कटी?” उदास चित्त वाले चंद्रस्वामी ने उससे कहा—“भगवन, आपकी कृपा से रात तो मैंने बहुत सुखपूर्वक बिताई लेकिन अब उस दिव्य स्त्री के बिना मेरे प्राण निकले जा रहे हैं।” यह सुनकर उस दयालु तपस्वी ने मुस्कराते हुए चंद्रस्वामी से कहा, “तुम यहीं ठहरो, वत्स। रात को तुम्हें फिर वही सुख प्राप्त होगा।” तपस्वी के कहने पर चंद्रस्वामी वहीं ठहरकर तपस्वी की विद्या के प्रताप से वह हर रात सुख भोगने लगा।
धीरे-धीरे इस विद्या का प्रभाव जानकर देव प्रेरणा से एक दिन चंद्रस्वामी ने उस तपस्वी को प्रसन्न करके कहा, “भगवन! मुझ शरणागत पर यदि सचमुच आपकी कृपा है तो मुझे यह विद्या सिखा दीजिए, जिसका ऐसा प्रभाव है।”
चंद्रस्वामी द्वारा आग्रहपूर्वक ऐसा कहने पर तपस्वी उससे बोला, “वत्स, यह विद्या तुम्हारे लिए असाध्य है क्योंकि इसकी साधना जल के अंदर की जाती है। जो साधक वहां इसकी साधना करता है, उसको भरमाने के लिए कई मायाजाल उत्पन्न होते हैं जिसके कारण वह सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता।
वहां उसे ऐसा भ्रम होता है कि उसका फिर से जन्म हुआ है। तब वह अपने को बालक, फिर युवक, फिर विवाहित मानता है और उसे जान पड़ता है, जैसे उसके यहां पुत्र उत्पन्न हुआ हो। तब वह झूठे मोह में पड़ जाता है कि यह मेरा मित्र है और यह शत्रु। उसे न तो इस जन्म का स्मरण रहता है, न ही इसका कि उसकी क्रियाएं विद्या की साधना में लगी हुई हैं।
जो लोग चौबीस वर्ष की आयु तक गुरु के द्वारा विद्या पढ़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं, उन वीर पुरुषों को इस जन्म का स्मरण रहता है और वे जानते हैं कि यह सब माया का खिलवाड़ है और विद्या की सिद्धि के बाद जल से निकलकर परम सिद्धि का दर्शन करते हैं।”
तपस्वी ने आगे बताया, “जिस शिष्य को यह विद्या दी जाती है, उसे यदि यह सिद्धि नहीं मिलती तो अनुपयुक्त पात्र को शिक्षा देने के कारण उसके गुरु की भी विद्या नष्ट हो जाती है। मेरी सिद्धी से ही तुम्हें उसके सब फल प्राप्त हो रहे हैं। अतः इसके लिए तुम आग्रह क्यों कर रहे हो? कहीं ऐसा न हो कि इससे मेरी सिद्धि भी नष्ट हो जाए और जिसके द्वारा तुम ये सुख-भोग प्राप्त कर रहे हो, तुम्हें उससे भी वंचित होना पड़े।”
तपस्वी के ऐसा कहने पर चंद्रस्वामी ने हठपूर्वक कहा, “हे महात्मन! आप चिंता न करें, मैं सब कुछ सीख लूंगा।”
इसके बाद तपस्वी ने चंद्रस्वामी को विद्या सिखाना स्वीकार कर लिया। सज्जन पुरुष आश्रितों के अनुरोध पर भला क्या नहीं करते? तब वह नदी-तट पर ले जाकर चंद्रस्वामी से बोला, “वत्स, इस विद्या (मंत्र) का जाप करते हुए जब तुम माया के दृश्य देखो, तो सावधान रहना और मेरे मंत्र से सावधान रहकर माया की अग्नि में प्रवेश करना। मैं तब तक तुम्हारे लिए नदी के इस तट पर रुका रहूंगा।” यह कहकर उस व्रतधारी ने आचमन करके चंद्रस्वामी को विधिपूर्वक वह विद्या सिखाई।
अनन्तर, नदी के तट पर स्थित अपने गुरु को चंद्रस्वामी ने सिर झुकाकर प्रणाम किया और शीघ्रतापूर्वक नदी में उतर गया। जल के भीतर जाकर वह उस मंत्र का जप करने लगा, तब माया के मिथ्या प्रभाव से मोहित होकर सहसा-ही वह अपने इस जन्म की सारी बातें भूल गया। उसने देखा कि वह स्वयं किसी दूसरी नगरी में किसी अन्य ब्राह्मण का पुत्र होकर उत्पन्न हुआ। अनन्तर, वह धीरे-धीरे किशोर हुआ। उसका यज्ञोपवीत हुआ, उसने विद्याएं पढ़ीं, विवाह किया और उसके सुख-दुख में पूरी तरह लिप्त रहकर सन्तान लाभ किया। वहां पुत्र स्नेह के कारण स्वीकार किए हुए अनेक प्रकार के कार्य करता और माता-पिता तथा कुटंबियों की प्रीति से बंधा वह रहने लगा। इस प्रकार वह झूठे जन्मांतर का अनुभव कर रहा था, तभी समय जानकर उसके गुरु उस तपस्वी ने चेतना उत्पन्न करने वाली अपनी विद्या का प्रयोग किया।
उस विद्या के प्रयोग से शीघ्र ही उसने मायाजाल को भेदकर चेतना प्राप्त की। उसे अपने गुरु का स्मरण हो आया और उसने मायाजाल को भी पहचान लिया। दिव्य और असाध्य फल की प्राप्ति के लिए जब वह अग्नि में प्रवेश करने को उद्यत हुआ, तब वृद्ध और विश्वासी उसके गुरु एवं उसके कुटंबीजन उसे ऐसा करने से रोकने लगे। उन लोगों के बहुत समझाने-बुझाने पर भी दिव्य सुख की लालसा से वह अपने कुटुंबियों सहित नदी के उस तट पर गया जहां चिता बनी हुई थी। वहां उसने अपने बूढ़े माता-पिता तथा पत्नी को मरने के लिए उद्यत देखा। अपने बच्चों को भी रोता देखकर वह मोह में पड़ गया। वह सोचने लगा, “मैं यदि अग्नि में प्रवेश करूंगा तो मेरे ये सभी संबंधी मर जाएंगे। मैं यह भी नहीं जानता कि गुरु की बात सच्ची भी है या नहीं। तब मैं क्या करूं? अग्नि में प्रवेश करूं या नहीं? किंतु अब तक तो सारी बातें गुरु के कहने के अनुसार ही हुई हैं, अतः यही बात झूठ कैसे होगी? इसलिए मुझे चाहिए कि मैं प्रसन्नतापूर्वक अग्नि में प्रवेश करूं?” मन-ही-मन ऐसा सोचते हुए उस ब्राह्मण चंद्रस्वामी ने अग्नि में प्रवेश किया।
अग्नि का स्पर्श जब उसे बर्फ के समान ठंडा जान पड़ा, तब उसे आश्चर्य हुआ। तब तक माया का प्रभाव जाता रहा। नदी से निकलकर उसने अपने गुरु को देखा और उनके चरणों में प्रणाम किया, पूछने पर आरंभ से लेकर अग्नि की शीतलता तक की सारी बातें उन्हें बता दी। तब उसके गुरु ने कहा, “वत्स, मुझे इस बात की शंका हो रही है कि कहीं तुमसे कुछ भूल हो गई है, नहीं तो अग्नि तुम्हारे लिए शीतल कैसे हो गई?”
गुरु के ऐसा कहने पर चंद्रस्वामी ने पूछा, “भगवन, मैंने कहीं कोई भूल तो नहीं की?”
तब इस रहस्य को जानने की इच्छा से उसके गुरु ने अपनी विद्या का स्मरण किया। वह विद्या न तो उसके सम्मुख ही प्रकट हुई और न उसके शिष्य के सम्मुख ही। तब वे दोनों ही अपनी विद्या को नष्ट हुआ जानकर दुःखी होकर वहां से चले गए।
यह कथा सुनाकर बेताल ने राजा विक्रमादित्य को पहली कही शपथ का स्मरण कराकर उससे पूछा, “राजन, मेरा संशय दूर करो और बतलाओ कि बताई हुई सारी क्रियाएँ करने के बाद भी उन दोनों की विद्या नष्ट क्यों हो गई?”
बेताल की बात सुनकर उस वीर राजा ने उत्तर दिया, “योगेश्वर! यह तो मैं जानता हूं कि इस प्रकार आप केवल समय ही व्यतीत कर रहे हैं, फिर भी मैं बताता हूं। जब तक मनुष्य का मन द्विविधा से रहित, धैर्ययुक्त, निर्मल और सुदृढ़ नहीं होता, तब तक केवल ठीक तरह से कोई दुष्कर कार्य करने से ही उसे सिद्धि प्राप्त नहीं होती। वह मंदमति ब्राह्मण युवक चंद्रस्वामी काम करके भी द्विविधा में पड़ गया था, इसी से उसे सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकी और अपात्र को देने के कारण गुरु की भी सिद्धि जाती रही।”
राजा के ऐसा कहने पर बेताल पुनः उसके कंधे से उतरकर अदृश्य रूप से अपनी जगह पर चला गया। तत्पश्चात् राजा भी उसी प्रकार उसके पीछे-पीछे गया।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – उन्नीसवां बेताल चंद्रस्वामी की कथा – चंद्रप्रभ किसका पुत्र?