धर्म है भारतीय राष्ट्रीय जीवन का केंद्र – प्राची में प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान
पाश्चात्य देशों में अपने स्मरणीय प्रचारकार्य के बाद स्वामी विवेकानन्द 15 जनवरी 1897 को तीसरे प्रहर जहाज़ से कोलम्बो (वर्तमान श्रीलंका) में उतरे और वहाँ के हिन्दू समाज ने उनका बड़ा शानदार स्वागत किया और मानपत्र उनकी सेवा में प्रस्तुत किया गया।
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि अगर राष्ट्र को जीवित रहना है तो धर्म को राष्ट्रीय जीवन का मेरुदण्ड बनाए रखने की आवश्यकता है।
स्वामी विवेकानंद को कोलम्बो में दिया गया मानपत्र
सेवा में,
श्रीमत् स्वामी विवेकानन्दजी
पूज्य स्वामीजी,
कोलम्बो नगर के हिन्दू निवासियों की एक सार्वजनिक सभा द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव के अनुसार आज हम लोग इस द्वीप में आपका हृदय से स्वागत करते हैं। हम इसको अपना सौभाग्य समझते हैं कि पाश्चात्य देशों में आपके महान् धर्म-प्रचारकार्य के बाद स्वदेश वापस आने पर हमको आपका सर्वप्रथम स्वागत करने का अवसर मिला।
ईश्वर की कृपा से इस महान् धर्म-प्रचार-कार्य को जो सफलता प्राप्त हुई है उसे देखकर हम सब बड़े कृतकृत्य तथा प्रफुल्लित हुए हैं। आपने यूरोपियन तथा अमेरिकन राष्ट्रों के सम्मुख यह घोषित कर दिया है कि हिन्दू आदर्श का सार्वभौम धर्म वही है, जिसमें सब प्रकार के सम्प्रदायों का सुन्दर सामंजस्य हो, जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकतानुसार आध्यात्मिक आहार प्राप्त हो सके तथा जो प्रेम से प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर के समीप ला सके। आपने उस महान् सत्य का प्रचार किया है तथा उसका मार्ग सिखाया है जिसकी शिक्षा आदि काल से हमारे यहाँ के महापुरुष उत्तराधिकार क्रम से देते आये हैं। इन्हीं के पवित्र चरणों के पड़ने से भारतवर्ष की भूमि सदैव पवित्र हुई है तथा इन्हीं के कल्याणप्रद चरित्र एवं प्रेरणा से यह देश अनेकानेक परिवर्तनों के बीच गुजरता हुआ भी सदैव संसार का प्रदीप बना रहा है।
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव जैसे सद्गुरू की अनुप्रेरणा तथा आपकी त्यागमय लगन द्वारा पाश्चात्य राष्ट्रों को भारतवर्ष की एक आध्यात्मिक प्रतिभा के जीवन्त सम्पर्क का अमूल्य वरदान मिला है। और साथ ही पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध से अनेक भारतवासियों को मुक्त कर, आपने उन्हें अपने देश की महान् सांस्कृतिक परम्परा का दायित्व बोध कराया है।
आपने अपने महान् कर्म तथा उदाहरण द्वारा मानवजाति का जो उपकार किया है उसका बदला चुकाना सम्भव नहीं है और आपने हमारी इस मातृभूमि को एक नया तेज प्रदान किया है। हमारी यही प्रार्थना है कि ईश्वर के अनुग्रह से आपकी तथा आपके कार्य की उत्तरोत्तर उन्नति होती रहे।
कोलम्बो-निवासी हिन्दुओं की ओर से
हम है आपके विनम्र
पी. कुमारस्वामी, स्वागताध्यक्ष
तथा मेम्बर, लेजिस्लेटिव कौंसिल, सीलोन
तथा ए. कुलवीरसिंहम्, मंत्री
कोलम्बो, जनवरी 1897
स्वामीजी ने संक्षेप में उत्तर दिया और उनका जो स्नेहपूर्ण स्वागत किया गया था उसकी सराहना की। उन्होंने उक्त अवसर का लाभ उठाकर यह व्यक्त किया कि यह भावप्रदर्शन किसी महान् राजनीतिज्ञ या महान् सैनिक या धन कुबेर के सम्मान में न होकर, एक भिक्षुक संन्यासी के प्रति हुआ है जो धर्म के प्रति हिन्दुओं की मनोवृत्ति का परिचायक है। उन्होंने कहा कि मेरा जो स्वागत हुआ है उसे मैं किसी व्यक्ति का स्वागत नहीं मानता, वरन् मेरा साग्रह निवेदन है कि यह एक मूलतत्त्व की मान्यता है।
16 तारीख की शाम को स्वामी विवेकानंद ने ‘फ्लोरल हॉल’ में निम्नलिखित सार्वजनिक व्याख्यान दिया :
स्वामी विवेकानन्द का भाषण – धर्म है भारत का मेरुदण्ड
जो थोड़ा बहुत कार्य मेरे द्वारा हुआ है, वह मेरी किसी अन्तर्निहित शक्ति द्वारा नहीं हुआ, वरन् पाश्चात्य देशों में पर्यटन करते समय, अपनी इस परम पवित्र और प्रिय मातृभूमि से जो उत्साह, जो शुभेच्छा तथा जो आशीर्वाद मुझे मिले हैं, उन्हीं की शक्ति द्वारा सम्भव हो सका है। हाँ, यह ठीक है कि कुछ काम तो अवश्य हुआ है, पर पाश्चात्य देशों में भ्रमण करने से विशेष लाभ मेरा ही हुआ है। इसका कारण यह है कि पहले मैं जिन बातों को शायद हृदय के आवेग से सत्य मान लेता था, अब उन्हीं को मैं प्रमाणसिद्ध विश्वास तथा प्रत्यक्ष और शक्तिसम्पन्न सत्य के रूप में देख रहा हूँ। पहले मैं भी अन्य हिन्दुओं की तरह विश्वास करता था कि भारत पुण्यभूमि है – कर्मभूमि है, जैसा कि माननीय सभापति महोदय ने अभी अभी तुमसे कहा भी है। पर आज मैं इस सभा के सामने खड़े होकर दृढ़ विश्वास के साथ कहता हूँ कि यह सत्य ही है। यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है जिसे हम पुण्यभूमि कह सकते हैं, यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है, यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ भगवान् की ओर उन्मुख होने के प्रयत्न में संलग्न रहनेवाले जीवमात्र को अन्ततः आना होगा, यदि ऐसा कोई देश है जहाँ मानवजाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और यदि ऐसा कोई देश है जहाँ आध्यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्मान्वेषण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही यहाँ पर भिन्न भिन्न धर्मों के संस्थापकों ने अवतार लेकर सारे संसार को सत्य की आध्यात्मिक सनातन और पवित्र धारा से बारम्बार प्लावित किया है। यहीं से उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारों और दार्शनिक ज्ञान की प्रबल धाराएँ प्रवाहित हुई हैं, और यहीं से वह धारा बहेगी, जो आज कल की पार्थिव सभ्यता को आध्यात्मिक जीवन प्रदान करेगी। विदेशों के लाखों स्त्री-पुरुषों के हृदय में जड़वाद की जो अग्नि धधक रही है, उसे बुझाने के लिए जिस जीवनदायी सलिल की आवश्यकता है, वह यहीं विद्यमान है। मित्रों, विश्वास रखो, यही होने जा रहा है।
मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। तुम लोगों में जिन्होंने संसार की विभिन्न जातियों के इतिहास का भलीभाँति अध्ययन किया है, इस सत्य से अच्छी तरह परिचित होंगे। संसार हमारे देश का अत्यन्त ऋणी है। यदि भिन्न भिन्न देशों की पारस्परिक तुलना की जाए तो मालूम होगा कि सारा संसार सहिष्णु एवं निरीह भारत का जितना ऋणी है, उतना और किसी देश का नहीं। ‘निरीह हिन्दू’ – ये शब्द कभी कभी तिरस्कार के रूप में प्रयुक्त होते हैं, पर यदि किसी तिरस्कार में अद्भुत सत्य का कुछ अंश निहित रहता है तो वह इन्हीं शब्दों में है। हिन्दू सदा से जगत्पिता की प्रिय सन्तान रहे हैं। यह ठीक है कि संसार के अन्यान्य स्थानों में सभ्यता का विकास हुआ है, प्राचीन और वर्तमान काल में कितनी ही शक्तिशाली तथा महान् जातियों ने उच्च भावों को जन्म दिया है, पुराने समय में और आजकल भी बहुत से अनोखे तत्त्व एक जाति से दूसरी जाति में पहुँचे हैं, और यह भी ठीक है कि किसी किसी राष्ट्र की गतिशील जीवनतरंगों ने महान् शक्तिशाली सत्य के बीजों को चारों ओर बिखेरा है। परन्तु भाइयो! तुम यह भी देख पाओगे कि ऐसे सत्य का प्रचार हुआ है – रणभेरी के निर्घोष तथा रणसज्जा से सज्जित सेनासमूह की सहायता से। बिना रक्त-प्रवाह में सिक्त हुए, बिना लाखों स्त्री-पुरुषों के खून की नदी बहाये, कोई भी नया भाव आगे नहीं बढ़ा। प्रत्येक ओजस्वी भाव के प्रचार के साथ ही साथ असंख्य लोगों का हाहाकार, अनाथों और असहायों का करुण क्रन्दन और विधवाओं का अजस्र अश्रुपात होते देखा गया है।
प्रधानतः इसी उपाय द्वारा अन्यान्य देशों ने संसार को शिक्षा दी है, परन्तु इस उपाय का अवलम्बन किये बिना ही भारत हजारों वर्षों से शान्तिपूर्वक जीवित रहा है। जब यूनान का अस्तित्व नहीं था, रोम भविष्य के अन्धकार-गर्भ में छिपा हुआ था, जब आधुनिक यूरोपियों के पुरखे घने जंगलों के अन्दर छिपे रहते थे और अपने शरीर को नीले रंग से रँगा करते थे, तब भी भारत क्रियाशील था। उससे भी पहले, जिस समय का इतिहास में कोई लेखा नहीं है, जिस सुदूर धुँधले अतीत की ओर झाँकने का साहस परम्परा को भी नहीं होता, उस काल से लेकर अब तक न जाने कितने ही भाव एक के बाद एक भारत से प्रसृत हुए हैं, पर उनका प्रत्येक शब्द आगे शान्ति तथा पीछे आशीर्वाद के साथ कहा गया है। संसार के सभी देशों में केवल एक हमारे ही देश ने लड़ाई-झगड़ा करके किसी अन्य देश को पराजित नहीं किया है – इसका शुभ आशीर्वाद हमारे साथ है और इसी से हम अब तक जीवित हैं।
एक समय था, जब यूनानी सेना के रण-प्रयाण के दर्प से संसार काँप उठता था। पर आज वह कहाँ है? आज तो उसका चिह्न तक कहीं दिखाई नहीं देता। यूनान देश का गौरव आज अस्त हो गया है। एक समय था, जब प्रत्येक पार्थिव भोग्य वस्तु के ऊपर रोम की श्येनांकित विजय-पताका फहराया करती थी, रोमन लोग सर्वत्र जाते और मानवजाति पर प्रभुत्व प्राप्त करते थे। रोम का नाम सुनते ही पृथ्वी काँप उठती थी, पर आज उसी रोम का कैपिटोलाइन पहाड़1 एक भग्नावशेष का ढूह मात्र है। जहाँ सीजर राज्य करता था, वहाँ आज मकड़ी जाल बुनती है। इसी प्रकार कितने ही समान वैभवशाली राष्ट्र उठे और गिरे। विजयोल्लास और भावावेशपूर्ण प्रभुत्व का कुछ काल तक कलुषित राष्ट्रीय जीवन बिताकर, सागर की तरंगों की तरह उठकर फिर मिट गये।
इसी प्रकार ये सब राष्ट्र मनुष्य-समाज पर किसी समय अपना चिह्न अंकित कर अब मिट गये हैं। परन्तु हम लोग आज भी जीवित हैं। आज यदि मनु इस भारतभूमि पर लौट आएँ, तो उन्हें कुछ भी आश्चर्य न होगा, वे ऐसा नहीं समझेंगे कि कहाँ आ पहुँचे। वे देखेंगे कि हजारों वर्षों के सुचिन्तित तथा परीक्षित वे ही प्राचीन विधान यहाँ आज भी विद्यमान हैं, सैकड़ों शताब्दियों के अनुभव और युगों की अभिज्ञता के फलस्वरूप वही सनातन-सा आचार-विचार यहाँ आज भी मौजूद है। और जितने ही दिन बीतते जा रहे हैं, जितने ही दुःखदुर्विपाक आते हैं और उन पर लगातार आघात करते हैं, उनसे केवल यही उद्देश्य सिद्ध होता है कि वे और भी मज़बूत, और भी स्थायी रूप धारण करते जा रहे हैं। और यह खोजने के लिए कि इन सब का केन्द्र कहाँ है, किस हृदय से रक्तसंचार हो रहा है, और हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूल स्रोत कहाँ है, तुम विश्वास रखो कि वह यहीं विद्यमान है। सारी दुनिया भ्रमण करने के बाद ही मैं यह कह रहा हूँ।
अन्यान्य राष्ट्रों के लिए धर्म, संसार के अनेक कृत्यों में एक धंधा मात्र है। वहाँ राजनीति है, सामाजिक जीवन की सुख-सुविधाएँ हैं, धन तथा प्रभुत्व द्वारा जो कुछ प्राप्त हो सकता है और इन्द्रियों को जिससे सुख मिलता है उन सब के पाने की चेष्टा भी है। इन सब विभिन्न जीवन-व्यापारों के भीतर तथा भोग से निस्तेज हुई इन्द्रियों को पुनः उत्तेजित करने के लिए उपकरणों की समस्त खोज के साथ, वहाँ सम्भवतः थोड़ा बहुत धर्म-कर्म भी है। परन्तु यहाँ, भारतवर्ष में, मनुष्य की सारी चेष्टाएँ धर्म के लिए हैं, धर्म ही जीवन का एकमात्र उपाय है। चीन-जापान युद्ध हो चुका, पर तुम लोगों में कितने ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें इस युद्ध का हाल मालूम है? अगर जानते हैं तो बहुत कम लोग। पाश्चात्य देशों में जो जबरदस्त राजनैतिक तथा सामाजिक आन्दोलन पाश्चात्य समाज को नये रूप में, नये साँचे में ढालने में प्रयत्नशील हैं, उनके विषय में तुम लोगों में से कितनों को जानकारी है? यदि उनकी किसी को कुछ खबर है, तो बहुत थोड़े आदमियों को। पर अमेरिका में एक विराट् धर्म-महासभा बुलायी गयी थी और वहाँ एक हिन्दू संन्यासी भी भेजा गया था – बड़े ही आश्चर्य का विषय है कि यह बात हर एक आदमी को, यहाँ के कुलीमजदूरों तक को मालूम है। इसी से जाना जाता है कि हवा किस ओर चल रही है, राष्ट्रीय जीवन का मूल कहाँ पर है। पहले मैं पृथ्वी का परिभ्रमण करनेवाले यात्रियों, विशेषतः विदेशियों द्वारा लिखी हुई पुस्तकों को पढ़ा करता था जो प्राच्य देशों के जन-समुदाय की अज्ञता पर खेद प्रकट करते थे, पर अब मैं समझता हूँ कि यह अंशतः सत्य है और साथ ही अंशतः असत्य भी। इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रान्स, जर्मनी या जिस किसी देश के एक मामूली किसान को बुलाकर तुम पूछो, “तुम किस राजनीतिक दल के सदस्य हो?” – तो तुम देखोगे कि वह फौरन कहेगा, “मैं रैडिकल दल अथवा कंजर्वेटिव दल का सदस्य हूँ।” और वह तुमको यह भी बता देगा कि वह अमुक व्यक्ति के लिए अपना मत देनेवाला है। अमेरिका का किसान जानता है कि वह रिपब्लिकन दल का है या डिमोक्रेटिक दल का। इतना ही नहीं, वरन् वह ‘रौप्यसमस्या’2 के विषय से भी कुछ कुछ अवगत है। पर यदि तुम उससे उसके धर्म के विषय में पूछो तो वह केवल कहेगा, “मैं गिरजाघर जाया करता हूँ। और मेरा सम्बन्ध ईसाई धर्म की अमुक शाखा से है।” वह केवल इतना जानता है और इसे पर्याप्त समझता है। दूसरी ओर किसी भारतवासी किसान से पूछो कि क्या वह राजनीति के विषय में कुछ जानता है? तो वह उत्तर देगा, “यह क्या है?” वह समाजवादी आन्दोलनों के सम्बन्ध में अथवा श्रम और पूँजी के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में तथा इसी तरह के अन्यान्य विषयों की जरा भी जानकारी नहीं रखता। उसने जीवन में कभी इन बातों को सुना ही नहीं है। वह कठोर परिश्रम करके जीविकोपार्जन करता है। पर यदि उससे पूछा जाए, “तुम्हारा धर्म क्या है?” तो वह अपने माथे पर का तिलक दिखाते हुए उत्तर देगा, “देखो मित्र, मैंने इसको अपने माथे पर अंकित कर रखा है।” धर्म के प्रश्न पर वह तुमको दो-चार अच्छी बातें भी बता सकता है। यह बात मैं अपने अनुभव के बल पर कह रहा हूँ। यह है हमारे राष्ट्र का जीवन।
प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई विशेषता होती है, प्रत्येक व्यक्ति भिन्न भिन्न मार्गों से उन्नति की ओर अग्रसर होता है। हम कहते हैं, पिछले अनन्त जीवनों के कर्मों द्वारा मनुष्य का वर्तमान जीवन एक निश्चित मार्ग से चलता है। क्योंकि अतीत काल के कर्मों की समष्टि ही वर्तमान में प्रकट होती है; और वर्तमान समय में हम जो कुछ कर्म कर रहे हैं, हमारा भावी जीवन उसी के अनुसार गठित हो रहा है। इसीलिए यह देखने में आता है कि इस संसार में जो कोई आता है, उसका एक न एक ओर विशेष झुकाव होता है, उस ओर मानो उसे जाना ही पड़ेगा, मानो उस भाव का अवलम्बन किये बिना वह जी ही नहीं सकता। यह बात जैसे व्यक्तिमात्र के लिए सत्य है, वैसे ही जाति के लिए भी। प्रत्येक जाति का भी उसी तरह किसी न किसी तरफ विशेष झुकाव हुआ करता है। मानो प्रत्येक जाति का एक एक विशेष जीवनोद्देश्य हुआ करता है। हर एक जाति को समस्त मानवजाति के जीवन को सर्वांगसम्पूर्ण बनाने के लिए किसी व्रतविशेष का पालन करना होता है। अपने व्रतविशेष को पूर्णतः सम्पन्न करने के लिए मानो हर एक जाति को उसका उद्यापन करना ही पड़ेगा। राजनीतिक श्रेष्ठता या सामरिक शक्ति प्राप्त करना किसी काल में हमारी जाति का जीवनोद्देश्य न कभी रहा है और न इस समय ही है और यह भी याद रखो कि न तो वह कभी आगे ही होगा। हाँ, हमारा दूसरा ही जातीय जीवनोद्देश्य रहा है। वह यह है कि समग्र जाति की आध्यात्मिक शक्ति को मानो किसी डाइनेमो में संगृहीत, संरक्षित और नियोजित किया गया हो और कभी मौका आने पर वह संचित शक्ति सारी पृथ्वी को एक जलप्लावन में बहा देगी। जब कभी फारस, यूनान, रोम, अरब या इंग्लैंड वाले अपनी सेनाओं को लेकर दिग्विजय के लिए निकले और उन्होंने विभिन्न राष्ट्रों को एक सूत्र में ग्रथित किया है, तभी भारत के दर्शन और अध्यात्म नवनिर्मित मार्गों द्वारा संसार की जातियों की धमनियों में होकर प्रवाहित हुए हैं। समस्त मानवीय प्रगति में शान्तिप्रिय हिन्दू जाति का कुछ अपना योगदान भी है और आध्यात्मिक आलोक ही भारत का वह दान है।
इस प्रकार इतिहास पढ़कर हम देखते हैं कि जब कभी अतीत में किसी प्रबल दिग्विजयी राष्ट्र ने संसार की अन्यान्य जातियों को एक सूत्र में ग्रथित किया है, और भारत को उसके एकान्त और शेष दुनिया से उसकी पृथकता से, जिसमें बार बार रहने का वह अभ्यस्त रहा है, मानो निकालकर अन्यान्य जातियों के साथ उसका सम्मेलन कराया है – जब कभी ऐसी घटना घटी है, तभी परिणामस्वरूप भारतीय आध्यात्मिकता से सारा संसार आप्लावित हो गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में वेद के किसी एक साधारण से लैटिन अनुवाद को पढ़कर, जो अनुवाद किसी नवयुवक फ्रान्सीसी द्वारा वेद के किसी पुराने फारसी अनुवाद से किया गया था, विख्यात जर्मन दार्शनिक शोपेनहॉवर3 ने कहा है, “समस्त संसार में उपनिषद् के समान हितकारी और उन्नायक अन्य कोई अध्ययन नहीं है। जीवन भर उसने मुझे शान्ति प्रदान की है और मरने पर भी वही मुझे शान्ति प्रदान करेगा।” आगे चलकर वे ही जर्मन ऋषि यह भविष्यवाणी कर गये हैं, “यूनानी साहित्य के पुनरुत्थान से संसार की चिन्तनप्रणाली में जो क्रान्ति हुई थी, शीघ्र ही विचार-जगत् में उससे भी शक्तिशाली और दिगन्तव्यापी क्रान्ति का विश्व साक्षी होने वाला है।” आज उनकी वह भविष्यवाणी सत्य हो रही है। जो लोग आँखें खोले हुए हैं, जो पाश्चात्य जगत् के विभिन्न राष्ट्रों के मनोभावों को समझते हैं, जो विचारशील हैं तथा जिन्होंने भिन्न भिन्न राष्ट्रों के विषय में विशेष रूप से अध्ययन किया है, वे देख पाएँगे कि भारतीय चिन्तन के इस धीर और अविराम प्रवाह के सहारे संसार के भावों, व्यवहारों, पद्धतियों और साहित्य में कितना बड़ा परिवर्तन हो रहा है।
हाँ, भारतीय प्रचार की अपनी विशेषता है, इस विषय में मैं तुम लोगों को पहले ही संकेत कर चुका हूँ। हमने कभी बन्दूक या तलवार के सहारे अपने विचारों का प्रचार नहीं किया। यदि अंग्रेजी भाषा में ऐसा कोई शब्द है जिसके द्वारा संसार को भारत का दान प्रकट किया जाए – यदि अंग्रेजी भाषा में कोई ऐसा शब्द है जिसके द्वारा मानवजाति पर भारतीय साहित्य का प्रभाव व्यक्त किया जाए तो वह यही एक मात्र शब्द सम्मोहन (fascination) है। यह सम्मोहिनी शक्ति वैसी नहीं है जिसके द्वारा मनुष्य एकाएक मोहित हो जाता है, वरन् यह ठीक उसके विपरीत है; यह धीरे धीरे बिना कुछ मालूम हुए, मानो तुम्हारे मन पर अपना प्रभाव डालती है। बहुतों को भारतीय विचार, भारतीय प्रथा, भारतीय आचार-व्यवहार, भारतीय दर्शन और भारतीय साहित्य पहले पहल कुछ विसदृश से मालूम होते हैं; परन्तु यदि वे धैर्यपूर्वक उक्त विषयों का विवेचन करें, मन लगाकर अध्ययन करें और इन तत्त्वों में निहित महान् सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त करें, तो फलस्वरूप निन्यानबे प्रतिशत लोग आकर्षित होकर उनसे विमुग्ध हो जाएँगे। सबेरे के समय गिरनेवाली कोमल ओस न तो किसी की आँखों से दिखाई देती है और न उसके गिरने से कोई आवाज ही कानों को सुनाई पड़ती है, ठीक उसी के समान यह शान्त, सहिष्णु, सर्वंसह धर्म-प्राण जाति धीर और मौन होने पर भी विचार-साम्राज्य में अपना जबरदस्त प्रभाव डालती जा रही है।
प्राचीन इतिहास का पुनरभिनय फिर से आरम्भ हो गया है। कारण, आज जब कि आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा बारम्बार होनेवाले आघातों से आपातसुदृढ़ तथा दुर्भेद्य धर्म-विश्वास की जड़ें तक हिल रही हैं, जब कि मनुष्यजाति के भिन्न भिन्न अंशों को अपने अनुयायी कहनेवाले विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों का खास दावा शून्य में पर्यवसित हो हवा में मिलता जा रहा है, जब कि आधुनिक पुरातत्त्वानुसन्धान के प्रबल मूसलाघात प्राचीन बद्धमूल संस्कारों को शीशे की तरह चूर चूर किये डालते हैं, जब कि पाश्चात्य जगत् में धर्म केवल मूढ़ लोगों के हाथ में चला गया है, और जब कि ज्ञानी लोग धर्म-सम्बन्धी प्रत्येक विषय को घृणा की दृष्टि से देखने लगे हैं, ऐसी परिस्थिति में भारत का, जहाँ के अधिवासियों का धर्म-जीवन सर्वोच्च दार्शनिक सत्य सिद्धान्तों द्वारा नियमित है, दर्शन संसार के सम्मुख आता है, जो भारतीय मानस की धर्म-विषयक सर्वोच्च महत्त्वाकांक्षाओं को प्रकट करता है। इसीलिए आज ये सब महान् तत्त्व – असीम अनन्त जगत् का एकत्व, निर्गुण ब्रह्मवाद, जीवात्मा का अनन्त स्वरूप और उसका विभिन्न जीव-शरीरों में अविच्छेद्य संक्रमणरूपी अपूर्व तत्त्व तथा ब्रह्माण्ड का अनन्तत्व – सहज ही रक्षा के लिए अग्रसर हो रहे हैं। पुराने सम्प्रदाय जगत् को एक छोटा-सा मिट्टी का लोंदा भर समझते थे और समझते थे कि काल का आरम्भ भी कुछ ही दिनों से हुआ है। केवल हमारे ही प्राचीन धर्म-शास्त्रों में यह बात मौजूद है कि देश, काल और निमित्त अनन्त हैं एवं इससे भी बढ़कर हमारे यहाँ के तमाम धर्म-तत्त्वों के अनुसन्धान का आधार मानवात्मा की अनन्त महिमा का विषय रहा है। जब क्रमविकासवाद, ऊर्जासन्धारणवाद (Conservation of Energy) आदि आधुनिक प्रबल सिद्धान्त सब तरह के कच्चे धर्म-मतों की जड़ में कुठाराघात कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में उसी मानवात्मा की अपूर्व सृष्टि, ईश्वर की अद्भुत वाणी वेदान्त के अपूर्व हृदयग्राही तथा मन की उन्नति एवं विस्तार-विधायक तत्त्वसमूहों के सिवा और कौन-सी वस्तु है जो शिक्षित मानवजाति की श्रद्धा और भक्ति पा सकती है?
साथ ही मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि भारत के बाहर हमारे धर्म का जो प्रभाव पड़ता है, वह यहाँ के धर्म के उन मूल तत्त्वों का है, जिनकी पीठिका और नींव पर भारतीय धर्म की अट्टालिका खड़ी है। उसकी सैकड़ों भिन्न भिन्न शाखा-प्रशाखाएँ, सैकड़ों सदियों में समाज की आवश्यकताओं के अनुसार उसमें लिपटे हुए छोटे छोटे गौण विषय, विभिन्न प्रथाएँ, देशाचार तथा समाज के कल्याण-विषयक छोटे-मोटे विचार आदि बातें वास्तव में ‘धर्म’ की कोटि में स्थान नहीं पा सकती। हम यह भी जानते है कि हमारे शास्त्रों में दो श्रेणी के सत्य का निर्देश किया गया है और उन दोनों में स्पष्ट भेद भी बतलाया गया है। एक ऐसी कोटि जो सदा प्रतिष्ठित रहेगी – मनुष्य का स्वरूप, आत्मा का स्वरूप, ईश्वर के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध, ईश्वर का स्वरूप, पूर्णत्व आदि पर प्रतिष्ठित होने के कारण जो चिरन्तन सत्य है और इसी प्रकार ब्रह्माण्डविज्ञान के सिद्धान्त, सृष्टि का अनन्तत्व अथवा यदि अधिक ठीक कहा जाए तो प्रक्षेपण का सिद्धान्त और युगप्रवाहसम्बन्धी अद्भुत नियम आदि शाश्वत सिद्धान्त जो प्रकृति के सार्वभौम नियमों पर आधारित हैं। द्वितीय श्रेणी के तत्त्वों के अंतर्गत गौण नियमों का निरूपण किया गया है और उन्हीं के द्वारा हमारे दैनिक जीवन के कार्य संचालित होते हैं। इन गौण विषयों को श्रुति के अन्तर्गत नहीं मान सकते; ये वास्तव में स्मृति के, पुराणों के अन्तर्गत हैं। इनके साथ पूर्वोक्त तत्त्वसमूह का कोई सम्पर्क नहीं है। स्वयं हमारे राष्ट्र के अन्दर भी ये सब बराबर परिवर्तित होते आये हैं। एक युग के लिए जो विधान है, वह दूसरे युग के लिए नहीं होता। इस युग के बाद फिर जब दूसरा युग आएगा, तब इनको पुनः बदलना पड़ेगा। महामना ऋषिगण आविर्भूत होकर फिर देशकालोपयोगी नये नये आचार-विधानों का प्रवर्तन करेंगे।
जीवात्मा, परमात्मा और ब्रह्माण्ड के इन समस्त अपूर्व, अनन्त, उदात्त और व्यापक धारणाओं में निहित जो महान् तत्त्व हैं वे भारत में ही उत्पन्न हुए हैं। केवल भारत ही ऐसा देश है, जहाँ के लोगों ने अपने कबीले के छोटे छोटे देवताओं के लिए यह कहकर लड़ाई नहीं की है कि ‘मेरा ईश्वर सच्चा है, तुम्हारा झूठा; आओ, हम दोनों लड़कर इसका फैसला कर लें।’ छोटे छोटे देवताओं के लिए लड़कर फैसला करने की बात केवल यहाँ के लोगों के मुँह से कभी सुनाई नहीं दी। हमारे यहाँ के ये महान् तत्त्व मनुष्य की अनन्त प्रकृति पर प्रतिष्ठित होने के कारण हजारों वर्ष पहले के समान आज भी मानवजाति का कल्याण करने की शक्ति रखते हैं। और जब तक यह पृथ्वी मौजूद रहेगी, जितने दिनों तक कर्मवाद रहेगा, जब तक हम लोग व्यष्टि जीव के रूप में जन्म लेकर अपनी शक्ति द्वारा अपनी नियति का निर्माण करते रहेंगे, तब तक इनकी शक्ति इसी प्रकार विद्यमान रहेगी।
सर्वोपरि, अब मैं यह बताना चाहता हूँ कि भारत की संसार को कौन-सी देन होगी। यदि हम लोग विभिन्न जातियों के भीतर धर्म की उत्पत्ति और विकास की प्रणाली का पर्यवेक्षण करें, तो हम सर्वत्र यही देखेंगे कि पहले हर एक उपजाति के भिन्न भिन्न देवता थे। इन जातियों में यदि परस्पर कोई विशेष सम्बन्ध रहता है तो ऐसे भिन्न भिन्न देवताओं का एक साधारण नाम भी होता है। उदाहरणार्थ, बेबिलोनियन देवता को ही ले लो। जब बेबिलोनियन लोग विभिन्न जातियों में विभक्त हुए थे, तब उनके भिन्न भिन्न देवताओं का एक सामान्य नाम था ‘बाल’, ठीक इसी प्रकार यहूदी जाति के विभिन्न देवताओं का सामान्य नाम ‘मोलोक’ था। साथ ही तुम देखोगे कि कभी कभी इन विभिन्न जातियों में कोई जाति सब से अधिक बलशाली हो उठती थी और उस जाति के लोग अपने राजा के अन्य सब जातियों के राजा स्वीकृत होने की माँग करते थे। इससे स्वभावतः यह होता था कि उस जाति के लोग अपने देवता को अन्यान्य जातियों के देवता के रूप में भी प्रतिष्ठित करना चाहते थे। बेबिलोनियन लोग कहते थे कि ‘बाल मेरोडक’ महानतम देवता है और दूसरे सभी देवता उससे निम्न। इसी प्रकार यहूदी लोगों के ‘मोलोक याह्वे’ अन्य मोलोक देवताओं से श्रेष्ठ बताये जाते थे। और इन प्रश्नों का निर्णय युद्ध द्वारा हुआ करता था। यह संघर्ष यहाँ भी विद्यमान था। प्रतिद्वन्द्वी देवगण अपनी श्रेष्ठता के लिए परस्पर संघर्ष करते थे। परन्तु भारत और समग्र संसार के सौभाग्य से इस अशान्ति और लड़ाई-झगड़े के बीच में यहाँ एक वाणी उठी जिसने उद्घोष किया “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति”4 – ‘सत्ता एक मात्र है; पण्डित लोग उसी एक का तरह तरह से वर्णन करते हैं।’ शिव विष्णु की अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं है, अथवा विष्णु ही सब कुछ हैं, शिव कुछ नहीं – ऐसी भी बात नहीं हैं। एक सत्ता को ही कोई शिव, कोई विष्णु और कोई और ही किसी नाम से पुकारते हैं। नाम अलग अलग हैं, पर वह एक ही है। इन्हीं कुछ बातों से भारत का समग्र इतिहास जाना जा सकता है। समग्र भारत का इतिहास ज़बरदस्त शक्ति के साथ ओजस्वी भाषा में उसी एक मूल सिद्धान्त की पुनरुक्ति मात्र है। इस देश में यह सिद्धान्त बार बार दोहराया गया है, यहाँ तक कि अन्त में वह हमारी जाति के रक्त के साथ मिलकर एक हो गया है और इसकी धमनियों में प्रवाहित होनेवाले रक्त के प्रत्येक बूँद के साथ मिल गया है – वह इस जीवन का एक अंगस्वरूप हो गया है; जिस उपादान से यह विशाल जातीय शरीर निर्मित हुआ है, उसका वह अंशस्वरूप हो गया है; इस प्रकार यह देश दूसरे के धर्म के प्रति सहिष्णुता के एक अद्भुत लीलाक्षेत्र के रूप में परिणत हो गया है। इसी कारण इस प्राचीन मातृभूमि में हमें सब धर्मों और सम्प्रदायों को सादर स्थान देने का अधिकार प्राप्त हुआ है।
इस भारत में, आपाततः एक दूसरे के विरोधी होने पर भी ऐसे बहुत-से धर्म-सम्प्रदाय हैं जो बिना किसी विरोध के स्थापित हैं। इस अत्यन्त विलक्षण बात का एकमात्र यही कारण है। सम्भव है कि तुम द्वैतवादी हो और मैं अद्वैतवादी। सम्भव है कि तुम अपने को भगवान् का नित्य दास समझते हो और दूसरा यह कहे कि मुझ में और भगवान् में कोई अन्तर नहीं है। पर दोनों ही हिन्दू हैं, और सच्चे हिन्दू हैं। यह कैसे सम्भव हो सका है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए उसी महावाक्य का स्मरण करो – “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।” मेरे स्वदेशवासी भाइयों, सब से ऊपर यही महान् सत्य हमें संसार को सिखाना होगा। और देशों के शिक्षित लोग भी नाक-मुँह सिकोड़कर हमारे धर्म को मूर्तिपूजक कहते तथा समझते हैं। मैंने स्वयं उन्हें ऐसा कहते देखा है, पर वे कभी स्थिर-चित्त होकर यह नहीं सोचते कि उनका मस्तिष्क कैसे कुसंस्कारों से परिपूर्ण है। और आज भी सर्वत्र ऐसा ही है – ऐसी ही घोर साम्प्रदायिकता है, मन में इतनी घोर संकीर्णता है। उनका अपना जो कुछ है, मानो वही संसार में सब से अधिक मूल्यवान है। धनदेवता की पूजा और अर्थोपासना ही उनकी राय में सच्चा जीवननिर्वाह है। उनके पास जो यत्किंचित सम्पत्ति है वही मानो सब कुछ है और अन्य कुछ नहीं। अगर वे मिट्टी से कोई असार वस्तु बना सकते हैं अथवा कोई यन्त्र आविष्कृत कर सकते हैं तो और सब को छोड़कर उन्हीं की प्रशंसा करनी चाहिए। संसार में शिक्षा और अध्ययन के इतने प्रचार के बावजूद सारी दुनिया की यही हालत है। इस जगत् में अब भी असली शिक्षा की आवश्यकता है। और सभ्यता – सच पूछो तो सभ्यता का अभी तक कहीं आरम्भ भी नहीं हुआ है। मनुष्यजाति में अब भी निन्न्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत लोग प्रायः जंगली अवस्था में ही पड़े हुए हैं। हम इस विषय में पुस्तकों में भले ही पढ़ते हों, हम धार्मिक सहिष्णुता के बारे में सुनते हो तथा इसी प्रकार की अन्यान्य बातें भी सुनते हों, किन्तु मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि संसार में ये भाव बहुत अल्प मात्रा में विद्यमान हैं। निन्यानबे प्रतिशत मनुष्य इन बातों को मन में स्थान तक नहीं देते हैं। संसार के जिस किसी देश में मैं गया, वहीं मैने देखा कि अब भी दूसरे धर्मों के अनुयायिओं पर घोर अत्याचार जारी है; कुछ भी नया सीखने के विरुद्ध आज भी वही पुरानी आपत्तियाँ उठायी जाती हैं। संसार में दूसरों के धर्म के प्रति सहिष्णुता का यदि थोड़ा बहुत भाव आज भी कहीं विद्यमान है, यदि धर्म-भाव से कुछ भी सहानुभूति कहीं है, तो वह कार्यतः यहीं – इसी आर्यभूमि में है, और कहीं नहीं। उसी प्रकार यह सिर्फ यहीं है कि हम भारतवासी मुसलमानों के लिए मसजिदें और ईसाइयों के लिए गिरजाघर भी बनवा देते हैं – और कहीं नहीं है। यदि तुम दूसरे देश में जाकर मुसलमानों से अथवा अन्य कोई धर्मावलम्बियों से अपने लिए एक मन्दिर बनवाने को कहो, तो फिर तुम देखोगे कि तुम्हें क्या सहायता मिलती है! सहायता का तो प्रश्न ही क्या, वे तुम्हारे मन्दिर को, और हो सका तो तुमको भी विनष्ट कर देने की कोशिश करेंगे। इसी से संसार को अब भी इस महान् शिक्षा की विशेष आवश्यकता है। संसार को भारतवर्ष से दूसरों के धर्म के प्रति सहिष्णुता की ही नहीं, दूसरों के धर्म के साथ सहानुभूति रखने की भी शिक्षा ग्रहण करनी होगी। इसको ‘महिम्नः स्तोत्र’ में भलीभाँति व्यक्त किया गया है – ‘हे शिव, जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ विभिन्न पर्वतों से निकलकर सरल तथा वक्र गति से प्रवाहित होती हुई अन्ततः समुद्र में ही मिल जाती हैं, उसी प्रकार अपनी विभिन्न प्रवृत्तियों के कारण जिन विभिन्न मार्गों को लोग ग्रहण करते हैं, सरल या वक्र रूप में विभिन्न लगने पर भी वे सभी तुम तक ही पहुँचाते हैं।’5 यद्यपि लोक भिन्न भिन्न मार्गों से चल रहे हैं, तथापि सब लोग एक ही स्थान की ओर जा रहे हैं। कोई जरा घूम-फिरकर टेढ़ी राह से चलता है और कोई एकदम सीधी राह से; पर अन्ततः वे सब उस एक प्रभु के पास आएँगे। तुम्हारी शिवभक्ति तभी सम्पूर्ण होगी, जब तुम सर्वत्र शिव को ही देखोगे, केवल शिवलिंग में ही नहीं। वे ही यथार्थ में साधु हैं, वे ही सच्चे हरिभक्त हैं, जो हरि को सब जीवों में सब भूतों में देखा करते हैं। यदि तुम शिवजी के यथार्थ भक्त हो, तो तुम्हें उनको सब जीवों में तथा सब भूतों में देखना चाहिए। चाहे जिस नाम से अथवा चाहे जिस रूप में उनकी उपासना क्यों न की जाए, तुम्हें समझना होगा कि उन्हीं की पूजा की जा रही है। चाहे कोई काबा6 की ओर मुँह करके घुटने टेककर उपासना करे या गिरजाघर में अथवा बौद्ध मन्दिर में ही करे, वह जाने या अनजाने उसी परमात्मा की उपासना कर रहा है। चाहे जिसके नाम पर, चाहे जिस मूर्ति को उद्देश्य बनाकर और चाहे जिस भाव से ही पुष्पांजलि क्यों न चढ़ायी जाए, वह उन्हीं के चरणों में पहुँचती है; क्योंकि वे ही सब के एकमात्र प्रभु हैं, सब आत्माओं के अन्तरात्मा-स्वरूप हैं। संसार में किस बात की कमी है, इस बात को वे हमारी-तुम्हारी अपेक्षा बहुत अच्छी तरह जानते हैं। सब तरह के भेदभावों का दूर होना असम्भव है। विभिन्नताएँ तो रहेंगी ही; उनके बिना जीवन असम्भव है। विचारों का यह पारस्परिक संघर्ष और विभिन्नता ही ज्ञान है। विचारों का यह पारस्परिक संघर्ष और विभिन्नता ही ज्ञान के प्रकाश और गति का कारण है। संसार में अनन्त प्रकार के परस्परविरोधी विभिन्न भाव विद्यमान रहेंगे और ज़रूर रहेंगे, परन्तु इसी के लिए एक दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखे अथवा परस्पर लड़ें, यह आवश्यक नहीं।
अतएव हमें उसी मूल सत्य की फिर से शिक्षा ग्रहण करनी होगी, जो केवल यहीं से, हमारी इसी मातृभूमि से प्रचारित हुआ था। फिर एक बार भारत को संसार में इसी मूल तत्त्व का – इसी सत्य का प्रचार करना होगा। ऐसा क्यों है? इसलिए नहीं कि यह सत्य हमारे शास्त्रों में लिखा है, वरन् हमारे राष्ट्रीय साहित्य का प्रत्येक विभाग और हमारा राष्ट्रीय जीवन इससे पूर्णतः ओत-प्रोत है। यहीं और केवल यहीं, दैनिक जीवन में इसका अनुष्ठान होता है; और कोई भी व्यक्ति जिसकी आँखें खुली हैं, यह स्वीकार करेगा कि यहाँ के सिवा और कहीं भी इसका अभ्यास नहीं किया जाता। इसी भाव से हमें धर्म की शिक्षा देनी होगी। भारत इससे भी ऊँची शिक्षाएँ देने की क्षमता अवश्य रखता है; पर वे सब केवल पण्डितों के ही योग्य हैं। और विनम्रता की, शान्तभाव की, इस तितिक्षा की, इस धार्मिक सहिष्णुता की तथा इस सहानुभूति की और भ्रातृभाव की महान् शिक्षा प्रत्येक बालक, स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित सब जाति और वर्ण वाले सीख सकते हैं। “तुमको अनेक नामों से पुकारा जाता है, पर तुम एक हो।” – “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।”
1. कैपिटोलाइन पहाड़ : रोम नगर सात पहाड़ों पर बसा हुआ था। उनमें जिस पर रोमवासियों के कुलदेवता जुपिटर का विशाल मन्दिर था, उसी को कैपिटोलाइन पहाड़ कहते हैं। जुपिटर देवता के मन्दिर का नाम था कैपिटोल, इसी से उस पहाड़ का नाम कैपिटोलाइन पड़ा है।
2. रौप्यसमस्या (Silver Question) : व्यवसाय-वाणिज्य में कम-ज्यादा, नयी खानों का मिलना इत्यादि विभिन्न कारणों से भिन्न भिन्न देशों में चाँदी के परिमाण में कम-ज्यादा हुआ करती है।
3. मुगल सम्राट औरंगजेब के बड़े भाई दाराशिकोह ने फारसी भाषा में उपनिषदों का अनुवाद कराया था। सन् १६५७ ई. में वह अनुवाद समाप्त हुआ। शुजाउद्दौला की राजसभा के सदस्य फ्रांसीसी रेसिडेन्ट जेन्टिल साहब ने वह अनुवाद वर्नियर साहब के मार्फत आंकेतिल दुपेरों नामक सुप्रसिद्ध सैलानी और जेन्दावेस्त के आविष्कर्ता के पास भेज दिया था। इन्होंने उसका लैटिन भाषा में अनुवाद किया। सुप्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शोपेनहॉवर का दर्शन इन्हीं उपनिषदों द्वारा विशेष रूप से अनुप्रणित हुआ है। इस प्रकार पहले-पहल यूरोप में उपनिषदों के भावों का प्रवेश हुआ है।
4. ऋग्वेद, १।१६४।४६
5. रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।
(शिवमहिम्नः स्तोत्र, ७)
6. काबा : हज़रत मुहम्मद साहब की जन्मभूमि, मुसलमानों के प्रधान तीर्थस्थान मक्का नगर में यह एक प्रधान मन्दिर है। वहाँ एक काला पत्थर रखा हुआ है। कहते हैं, देवदूत गेब्रील के पास से यह प्रस्तरखण्ड मिला है। मुसलमान लोग इसे बहुत पवित्र समझते हैं। वे जहाँ कहीं रहें, इसी काबा की तरफ़ मुँह करके उपासना करते या नमाज़ पढ़ते हैं।
Helpful
इरशाद जी, हिंदी पथ पर यह लेख पढ़ने और टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद। इसी तरह हमारा उत्साहवर्धन करते रहें।