रामनाद-अभिनन्दन का उत्तर – स्वामी विवेकानंद
“रामनाद-अभिनन्दन का उत्तर” को “भारत में विवेकानंद” नामक पुस्तक से लिया गया है। यह पुस्तक “भारतीय व्याख्यान” व “कोलम्बो से अल्मोड़ा तक” नामों से भी प्रकाशित हुई है।
रामनाद में स्वामी विवेकानन्दजी को वहाँ के राजा ने निम्नलिखित मानपत्र भेंट किया :
रामनाद में स्वामी विवेकानंद को दिया गया अभिनंदन-पत्र
परमपूज्य, श्रीपरमहंस, यतिराज, दिग्विजय-कोलाहल-सर्वमतसंप्रतिपन्न, परमयोगेश्वर, श्रीमत् भगवान् श्रीरामकृष्णपरमहंस-करकरमलसंजात, राजाधिराजसेवित स्वामी विवेकानंद जी,
महानुभाव,
हम इस प्राचीन एवं ऐतिहासिक संस्थान सेतुबन्ध रामेश्वरम् के – जिसे रामनाथपुरम् अथवा रामनाद भी कहते हैं – निवासी आज नम्रतापूर्वक बड़ी हार्दिकता के साथ आपका अपनी इस मातृभूमि में स्वागत करते हैं। हम इसे अपना परम सौभाग्य समझते हैं कि भारतवर्ष में आपके पधारने पर हमें ही इस बात का पहला अवसर प्राप्त हुआ कि हम आपके श्रीचरणों में अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि भेंट कर सकें, और वह भी उस पुण्य समुद्रतट पर जिसे महावीर हनुमानजी तथा हमारे आदरणीय प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने अपने चरणचिन्हों से पवित्र किया था।
हमें इस बात का आन्तरिक गर्व तथा हर्ष है कि पाश्चात्यदेशीय धुरन्धर विद्वानों को हमारे महान् तथा श्रेष्ठ हिन्दू धर्म के मौलिक गुणों तथा उसकी विशेषताओं को भली भाँति समझा सकने के प्रशंसात्मक प्रयत्नों में आपको पूर्व सफलता प्राप्त हुई है। आपने अपनी अप्रतिम वाक्पटुता और साथ ही बड़ी सरल तथा स्पष्ट वाणी द्वारा यूरोप और अमेरिका के सुसंस्कृत समाज को यह स्पष्ट कर दिया कि हिन्दू धर्म में एक आदर्श विश्वधर्म के सारे गुण मौजूद हैं और साथ ही इसमें समस्त जातियों तथा धर्मों के स्त्री-पुरुषों की प्रकृति तथा उनकी आवश्यकताओं के अनुकूल बन जाने की भी क्षमता है। नितान्त निःस्वार्थ भावना से प्रेरित हो, सर्वश्रेष्ठ उद्देश्यों को सम्मुख रख तथा प्रशंसनीय आत्मत्याग के साथ असीम सागरों तथा महासागरों को पार करके आप यूरोप तथा अमेरिका में सत्य एवं शान्ति का सन्देश सुनाने तथा वहाँ की उर्वर भूमि में भारत की आध्यात्मिक विजय तथा गौरव के झण्डे को गाड़ने गये। स्वामीजी, आपने अपने उपदेश तथा जीवन, दोनों के द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया कि विश्वबन्धुत्व किस प्रकार सम्भव है तथा उसकी क्या आवश्यकता है। इन सब के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में आपके प्रयत्नों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से कितने ही उदासीन भारतीय स्त्री-पुरुषों में यह भाव जागृत हो गया है कि उनका प्राचीन धर्म कितना महान् तथा श्रेष्ठ है और साथ ही उनके हृदय में अपने उस प्रिय तथा अमूल्य धर्म के अध्ययन करने तथा उसके पालन करने का भी एक आन्तरिक आग्रह उत्पन्न हो गया है।
हम यह अनुभव कर रहे हैं कि आपने प्राच्य तथा पाश्चात्य के आध्यात्मिक पुनरुत्थान के निमित्त जो निःस्वार्थ यत्न किये हैं, उनके लिए शब्दों द्वारा हम आपके प्रति अपनी कृतज्ञता तथा आभार को भली भाँति प्रकट नहीं कर सकते। यहाँ पर हम यह कह देना परम आवश्यक समझते है कि हमारे राजासाहब के प्रति आपकी सदैव बड़ी कृपा रही है। वे आपके एक अनुगत शिष्य हैं और आपके अनुग्रहपूर्वक सब से पहले उनके ही राज्य में पधारने से उन्हें जो आनन्द एवं गौरव का अनुभव हो रहा है, वह अवर्णनीय है।
अन्त में हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह आपको चिरजीवी करे, आपको पूर्ण स्वस्थ रखे तथा आपको वह शक्ति दे, जिससे कि आप अपने उस महान् कार्य को सदैव आगे बढ़ाते रहें जिसे आपने इतनी योग्यतापूर्वक आरम्भ किया है।
रामनाद आज्ञाकारी भक्त तथा सेवक
स्वामीजी ने मानपत्र का जो उत्तर दिया उसका सविस्तर विवरण निम्नलिखित है :
स्वामी विवेकानंद का उत्तर
सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती हुई जान पड़ती है। महादुःख का प्रायः अन्त ही प्रतीत होता है। महानिद्रा में निमग्न शव मानो जागृत हो रहा है। इतिहास की बात तो दूर रही, जिस सुदूर अतीत के घनान्धकार का भेद करने में किंवदन्तियाँ भी असमर्थ हैं, वहीं से एक आवाज़ हमारे पास आ रही है। ज्ञान, भक्ति और कर्म के अनन्त हिमालय-स्वरूप हमारी मातृभूमि भारत की हर एक चोटी पर प्रतिध्वनित होकर यह आवाज़ मृदु, दृढ़ परन्तु अभ्रान्त स्वर में हमारे पास तक आ रही है। जितना समय बीतता है, उतनी ही वह और भी स्पष्ट तथा गम्भीर होती जाती है – और देखो, वह निद्रित भारत अब जागने लगा है। मानो हिमालय के प्राणप्रद वायु-स्पर्श से मृतदेह के शिथिलप्राय अस्थिमांस तक में प्राण-संचार हो रहा है। जड़ता धीरे धीरे दूर हो रही है। जो अन्धे हैं, वे ही देख नहीं सकते और जो विकृतबुद्धि हैं वे ही समझ नहीं सकते कि हमारी मातृभूमि अपनी गम्भीर निद्रा से अब जाग रही है। अब कोई उसे रोक नहीं सकता। अब यह फिर सो भी नहीं सकती। कोई बाह्य शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती, क्योंकि यह असाधारण शक्ति का देश अब जागकर खड़ा हो रहा है।
महाराज एवं रामनाद-निवासी सज्जनो! आपने जिस हार्दिकता तथा कृपा के साथ मेरा अभिनन्दन किया है, उसके लिए आप मेरा आन्तरिक धन्यवाद स्वीकार कीजिए। मैं अनुभव करता हूँ कि आप लोग मेरे प्रति सौहार्द तथा कृपा-भाव रखते हैं; क्योंकि ज़बानी बातों की अपेक्षा एक हृदय दूसरे हृदय के सामने अपने भाव ज्यादा अच्छी तरह प्रकट करता है। आत्मा मौन परन्तु अभ्रान्त भाषा में दूसरी आत्मा के साथ बात करती है – इसीलिए मैं आप लोगों के भाव को अपने अन्तस्तल में अनुभव करता हूँ। रामनाद के महाराज! अपने धर्म और मातृभूमि के लिए पाश्चात्य देशों में इस नगण्य व्यक्ति के द्वारा यदि कोई कार्य हुआ है, अपने घर में ही अज्ञात और गुप्त-भाव से रक्षित अमूल्य रत्न-समूह के प्रति स्वदेश-वासियों के हृदय आकृष्ट करने के लिए यदि कुछ प्रयत्न हुआ है, अज्ञानरूपी अन्धेपन के कारण प्यासे मरने अथवा दूसरी जगह के गन्दे गड्ढे का पानी पीने की अपेक्षा यदि अपने घर के पास निरन्तर बहने वाले झरने के निर्मल जल को पीने के लिए वे बुलाये जा रहे हैं, हमारे स्वदेशवासियों को यह समझाने के लिए कि भारतवर्ष का प्राण धर्म ही है, उसके जाने पर राजनीतिक उन्नति, समाज-सुधार या कुबेर का ऐश्वर्य भी कुछ नहीं कर सकता, यदि उनको कर्मण्य बनाने का कुछ उद्योग हुआ है, मेरे द्वारा इस दिशा में जो कुछ भी कार्य हुआ है उसके लिए भारत अथवा अन्य हर देश जिसमें कुछ भी कार्य सम्पन्न हुआ है, आपके प्रति ऋणी हैं; क्योंकि आपने ही पहले मेरे हृदय में ये भाव भरे और आप ही मुझे कार्य करने के लिए बार बार उत्तेजित करते रहे हैं। आपने ही मानो अन्तर्दृष्टि के बल से भविष्यत् जानकर निरन्तर मेरी सहायता की है, कभी भी मुझे उत्साहित करने से आप विमुख नहीं हुए। इसलिए यह बहुत ही ठीक हुआ कि आप मेरी सफलता पर आनन्दित होनेवाले प्रथम व्यक्ति हैं। एवं भारत लौटकर मैं पहले आपके ही राज्य में उतरा।
उपस्थित सज्जनो! आपके महाराज ने पहले ही कहा है कि हमें बड़े बड़े कार्य करने होंगे, अद्भुत शक्ति का विकास दिखाना होगा, दूसरे राष्ट्रों को अनेक बातें सिखानी होंगी। यह देश दर्शन, धर्म, आचार-शास्त्र, मधुरता, कोमलता और प्रेम की मातृभूमि है। ये सब चीजें अब भी भारत में विद्यमान हैं। मुझे दुनिया के सम्बन्ध में जो जानकारी है, उसके बल पर मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि इन बातों में पृथ्वी के अन्य प्रदेशों की अपेक्षा भारत अब भी श्रेष्ठ है। इस साधारण घटना को ही लीजिए : गत चार-पाँच वर्षों में संसार में अनेक बड़े बड़े राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं। पाश्चात्य देशों में सभी जगह बड़े बड़े संगठनों ने विभिन्न देशों में प्रचलित रीति-रिवाजों को एकदम दबा देने की चेष्टा की और वे बहुत कुछ सफल भी हुए हैं। हमारे देशवासियों से पूछिए, क्या उन लोगों ने इन बातों के सम्बन्ध में कुछ सुना है? उन्होंने एक शब्द भी नहीं सुना। किन्तु शिकागो में एक धर्म-महासभा हुई थी, भारतवर्ष से उस महासभा में एक संन्यासी भेजा गया था, उसका आदर के साथ स्वागत हुआ, उसी समय से वह पाश्चात्य देशों में कार्य कर रहा है – यह बात यहाँ का एक अत्यन्त निर्धन भिखारी भी जानता है। लोग कहते हैं कि हमारे देश का जन-समुदाय बड़ी स्थूलबुद्धि का है, वह किसी प्रकार की शिक्षा नहीं चाहता और संसार का किसी प्रकार का समाचार नहीं जानना चाहता। पहले मूर्खतावश मेरा भी झुकाव ऐसी ही धारणा की ओर था। अब मेरी धारणा है कि काल्पनिक गवेषणाओं एवं द्रुतगति से सारे भूमण्डल की परिक्रमा कर डालने वालों तथा जल्दबाजी में पर्यवेक्षण करनेवालों की लेखनी द्वारा लिखित पुस्तकों के पाठ की अपेक्षा स्वयं अनुभव प्राप्त करने से कहीं अधिक शिक्षा मिलती है। अनुभव के द्वारा यह शिक्षा मुझे मिली है कि हमारे देश का जन-समुदाय निर्बोध और मन्द नहीं है, वह संसार का समाचार जानने के लिए पृथ्वी के अन्य किसी स्थान के निवासी से कम उत्सुक और व्याकुल भी नहीं है। तथापि प्रत्येक जाति के जीवन का कोई न कोई उद्देश्य है। प्रत्येक जाति अपनी निजी विशेषताएँ और व्यक्तित्व लेकर जन्म ग्रहण करती है। सब जातियाँ मिलकर एक सुमधुर एकतान-संगीत की सृष्टि करती हैं, किन्तु प्रत्येक जाति मानो राष्ट्रों के स्वरसामंजस्य में एक एक पृथक् स्वर का प्रतिनिधित्व करती है। वही उसकी जीवन-शक्ति है, वही उसके जातीय जीवन का मेरुदण्ड या मूल है। हमारी इस पवित्र मातृभूमि का मेरुदण्ड, मूल या जीवनकेन्द्र एकमात्र धर्म ही है। दूसरे लोग राजनीति को, व्यापार के बल पर अगाध धनराशि का उपार्जन करने के गौरव को, वाणिज्य-नीति की शक्ति और उसके प्रचार को, बाह्य स्वाधीनता-प्राप्ति के अपूर्व सुख को भले ही महत्त्व दें, किन्तु हिन्दू अपने मन में न तो इनके महत्त्व को समझते हैं और न ही समझना चाहते हैं। हिन्दुओं के साथ धर्म, ईश्वर, आत्मा, अनन्त और मुक्ति के सम्बन्ध में बातें कीजिए; मैं आप लोगों को विश्वास दिलाता हूँ, अन्यान्य देशों के दार्शनिक कहे जानेवाले व्यक्तियों की अपेक्षा यहाँ का एक साधारण कृषक भी इन विषयों में अधिक जानकारी रखता है। सज्जनो, मैंने आप लोगों से कहा है कि हमारे पास अभी संसार को सिखाने के लिए कुछ है। इसीलिए सैकड़ों वर्षों के अत्याचार और लगभग हजारों वर्षों के वैदेशिक शासन और अत्याचारों के बावजूद यह जाति जीवित है। इस जाति के इस समय भी जीवित रहने का मुख्य प्रयोजन यह है कि इसने अब भी ईश्वर और धर्म तथा अध्यात्म-रूप रत्नकोश का परित्याग नहीं किया है।
हमारी इस मातृभूमि में इस समय भी धर्म और अध्यात्म विद्या का जो स्रोत बहता है, उसकी बाढ़ समस्त जगत् को आप्लावित कर, राजनीतिक उच्चाभिलाषाओं एवं नवीन सामाजिक संगठनों की चेष्टाओं में प्रायः समाप्तप्राय, अर्धमृत तथा पतनोन्मुखी पाश्चात्य और दूसरी जातियों में नवजीवन का संचार करेगी। नाना प्रकार के मतमतान्तरों के विभिन्न सुरों से भारत-गगन गूंज रहा है। यह बात सच है कि इन सुरों में कुछ ताल में हैं और कुछ बेताल; किन्तु यह स्पष्ट पहचान में आ रहा है कि उन सब में एक प्रधान सुर मानो भैरवराग के सप्तम स्वर में उठकर अन्य दूसरे सुरों को कर्णगोचर नहीं होने दे रहा है और वह प्रधान सुर है – त्याग। ‘विषयान् विषवत् त्यज’ – भारतीय सभी शास्त्रों की यही एक बात है, यही सभी शास्त्रों का मूलमन्त्र है। दुनिया दो दिन का तमाशा है। जीवन तो और भी क्षणिक है। इसके परे, इस मिथ्या संसार के परे उस अनन्त अपार का राज्य है; आइए, उसी का पता लगाएँ। यह देश महावीर और प्रकाण्ड मेधा तथा बुद्धि वाले मनीषियों से उद्भासित है, जो इस तथाकथित अनन्त जगत् को भी एक गड़हिया मात्र समझते हैं। और वे क्रमशः अनन्त जगत् को भी छोड़कर दूर – अति दूर चले जाते हैं। काल, अनन्त काल भी उनके लिए कोई चीज नहीं है, वे उसके भी पार चले जाते हैं। उनके लिए देश की भी कोई सत्ता नहीं है, वे उसके भी पार जाना चाहते हैं। और दृश्य जगत् के अतीत जाना ही धर्म का गूढ़तम रहस्य है। भौतिक प्रकृति का इस प्रकार अतिक्रमण करने की चेष्टा, जिस प्रकार और चाहे जितना नुकसान सहकर क्यों न हो, किसी प्रकार प्रकृति के मुँह का घूँघट हटाकर एक बार उस देशकालातीत सत्ता के दर्शन का यत्न करना – यही हमारी जाति का स्वाभाविक गुण है। यही हमारा आदर्श है, परन्तु निश्चय ही किसी देश के सभी लोग पूर्ण त्यागी तो नहीं हो सकते। यदि आप लोग उसको उत्साहित करना चाहते हैं, तो उसके लिए यह एक निश्चित उपाय है। आपकी राजनीति, समाज-सुधार, धनसंचय के उपाय, वाणिज्य-नीति आदि की बातें बत्तख की पीठ से जल के समान उनके कानों से बाहर निकल जाएँगी। इसलिए आप लोगों को जगत् को यह धार्मिक शिक्षा देनी ही होगी। अब प्रश्न यह है कि हमें भी संसार से कुछ सीखना है या नहीं? शायद दूसरी जातियों से हमें भौतिक-विज्ञान सीखना पड़े। किस प्रकार दल-संगठन और उसका परिचालन हो, विभिन्न शक्तियों को नियमानुसार काम में लगाकर किस प्रकार थोड़े यत्न से अधिक लाभ हो, इत्यादि बातें अवश्य ही हमें दूसरों से सीखनी होंगी। पाश्चात्यों से हमें शायद ये सब बातें कुछ कुछ सीखनी ही होगी। किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि हमारा उद्देश्य त्याग ही है। यदि कोई भोग और ऐहिक सुख को ही परम पुरुषार्थ मानकर भारतवर्ष में उनका प्रचार करना चाहे, यदि कोई जड़ जगत् को ही भारतवासियों का ईश्वर कहने की धृष्टता करे, तो वह मिथ्यावादी है। इस पवित्र भारतभूमि में उसके लिए कोई स्थान नहीं है, भारतवासी उसकी बात भी नहीं सुनेंगे। पाश्चात्य सभ्यता में चाहे कितनी ही चमक-दमक क्यों न हो, उसमें कितनी ही शोभा और शक्ति की चाहे कितनी ही अद्भुत अभिव्यक्ति क्यों न हो, मैं इस सभा के बीच खड़ा होकर उनसे साफ साफ कह देता हूँ कि यह सब मिथ्या है, भ्रान्ति – भ्रान्ति मात्र। एकमात्र ईश्वर ही सत्य है, एकमात्र आत्मा ही सत्य है और एकमात्र धर्म ही सत्य है। इसी सत्य को पकड़े रखिए।
तो भी हमारे जो भाई उच्चतम सत्य के अधिकारी अभी नहीं हुए हैं, उनके लिए इस प्रकार का भौतिक विज्ञान शायद कल्याणकारी हो सकता है; पर, उसे अपने लिए कार्योपयोगी बनाकर लेना होगा। सभी देशों और समाजों में एक भ्रम फैला हुआ है। विशेष दुःख की बात तो यह है कि भारतवर्ष में जहाँ पहले कभी नहीं था, थोड़े दिन हुए इस भ्रम ने प्रवेश किया है। वह भ्रम यह है कि अधिकारी का विचार न कर सभी के लिए समान व्यवस्था देना। सच बात तो यह है कि सभी के लिए एक मार्ग नहीं हो सकता। मेरी पद्धति आवश्यक नहीं है कि वह आपकी भी हो। आप सभी लोग जानते हैं कि संन्यास ही हिन्दू जीवन का आदर्श है। सभी हिन्दू शास्त्र सभी को त्यागी होने का आदेश देते हैं। जो जीवन की परवर्ती (वानप्रस्थ) अवस्था में त्याग नहीं करता, वह हिन्दू नहीं है और न उसे अपने को हिन्दू कहने का कोई अधिकार ही है। संसार के सभी भोगों का आनन्द लेकर प्रत्येक हिन्दू को अन्त में उनका त्याग करना ही होगा। यही हिन्दुओं का आदर्श है। हम जानते हैं कि भोग के द्वारा अन्तस्तल में जिस समय यह धारणा जम जाएगी कि संसार असार है, उसी समय उसका त्याग करना होगा। जब आप भलीभाँति परीक्षा करके जानेंगे कि जड़ जगत् सारविहीन केवल राख है, तो फिर आप उसे त्याग देने की ही चेष्टा करेंगे। मन इन्द्रियों की ओर मानो चक्रवत् अग्रसर हो रहा है, उसे फिर पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे फिर निवृत्तिमार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा, यही हिन्दुओं का आदर्श है। किन्तु कुछ भोग भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चों को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। वह पैदा होते ही सुखस्वप्न देखने लगता है। उनका जीवन इन्द्रियसुखों के भोग में है, उसका जीवन कुछ इन्द्रियसुखों की समष्टि मात्र है। प्रत्येक समाज में बालकवत् अज्ञानी लोग हैं। संसार की असारता समझने के लिए उन्हें कुछ भोग भोगना पड़ेगा, तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे। हमारे शास्त्रों में इन लोगों के लिए यथेष्ट व्यवस्था है। दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी – यह एक भारी भूल हुई। भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखाई पड़ती है, उनमें से बहुतों का कारण यही भूल है। गरीब लोगों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक एवं नैतिक बन्धनों में जकड़ दिया गया है जिनसे उनका कोई लाभ नहीं है। उनके कामों में हस्तक्षेप न कीजिए। उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दीजिए। आप देखेंगे कि वे क्रमशः उन्नत होते जाते हैं और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप ही आप त्याग का उद्रेक होगा।
सज्जनों, पाश्चात्य जातियों से इस दिशा में हम थोड़ा बहुत यह सीख सकते हैं, किन्तु यह शिक्षा ग्रहण करते समय हमें बहुत सावधान रहना होगा। मुझे बड़े दुःख से कहना पड़ता है कि आजकल हम पाश्चात्य भावनाओं से अनुप्राणित जितने लोगों के उदाहरण पाते हैं, वे अधिकतर असफलता के हैं। इस समय भारत में हमारे मार्ग में दो बड़ी रुकावटें हैं, – एक ओर हमारा प्राचीन हिन्दू समाज और दूसरी ओर अर्वाचीन यूरोपीय सभ्यता। इन दोनों में यदि कोई मुझसे एक को पसन्द करने के लिए कहे, तो मैं प्राचीन हिन्दू समाज को ही पसन्द करूँगा, क्योंकि, अज्ञ होने पर भी, अपक्व होने पर भी, कट्टर हिन्दुओं के हृदय में एक विश्वास है, एक बल है – जिससे वह अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। किन्तु विलायती रंग में रँगा व्यक्ति सर्वथा मेरुदण्डविहीन होता है, वह इधर-उधर के विभिन्न स्रोतों से वैसे ही एकत्र किये हुए अपरिपक्व, विशृंखल, बेमेल भावों की असन्तुलित राशि मात्र है। वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता, उसका सिर हमेशा चक्कर खाया करता है। वह जो कुछ करता है, क्या आप उसका कारण जानना चाहते हैं? अँग्रेजों से थोड़ी शाबाशी पा जाना ही उसके सब कार्यों का मूल प्रेरक है। वह जो समाज-सुधार करने के लिए अग्रसर होता है, हमारी कितनी ही सामाजिक प्रथाओं के विरुद्ध तीव्र आक्रमण करता है, इसका मुख्य कारण यह है कि इसके लिए उन्हें साहबों से वाहवाही मिलती है। हमारी कितनी ही प्रथाएँ इसीलिए दोषपूर्ण हैं कि साहब लोग उन्हें दोषपूर्ण कहते हैं! मुझे ऐसे विचार पसन्द नहीं है। अपने बल पर खड़े रहिए – चाहे जीवित रहिए या मरिए। यदि जगत् में कोई पाप है, तो वह है दुर्बलता। दुर्बलता ही मृत्यु है, दुर्बलता ही पाप है, इसलिए सब प्रकार से दुर्बलता का त्याग कीजिए। ये असन्तुलित प्राणी अभी तक निश्चित व्यक्तित्व नहीं ग्रहण कर सके हैं; और हम उनको क्या कहें – स्त्री, पुरुष या पशु! प्राचीन पन्थावलम्बी सभी लोग कट्टर होने पर भी मनुष्य थे – उन सभी लोगों में एक दृढ़ता थी। अब भी इन लोगों में कुछ आदर्श पुरुषों के उदाहरण हैं। और मैं आपके महाराज को इस कथन के उदाहरण रूप में प्रस्तुत करना चाहता हूँ। समग्र भारतवर्ष में आपके जैसा निष्ठावान् हिन्दू नहीं दिखाई पड़ सकता। आप प्राच्य और पाश्चात्य सभी विषयों में अच्छी जानकारी रखते हैं। इनकी जोड़ का कोई दूसरा राजा भारतवर्ष में नहीं मिल सकता। प्राच्य और पाश्चात्य सभी विषयों को छानकर जो उपादेय है, उसे ही आप ग्रहण करते हैं। – ‘नीच व्यक्ति से भी श्रद्धापूर्वक उत्तम विद्या ग्रहण करनी चाहिए, अन्त्यज से भी मुक्तिमार्ग सीखना चाहिए, निम्नतम जाति के नीच कुल की भी उत्तम कन्यारत्न को विवाह में ग्रहण करना चाहिए।’1
हमारे महान् अप्रतिम स्मृतिकार मनु ने ऐसा ही नियम निर्धारित किया है। पहले अपने पैरों पर खड़े हो जाइए, फिर सब राष्ट्रों से, जो कुछ अपना बनाकर ले सकें, ले लीजिए। जो कुछ आपके काम का है, उसे प्रत्येक राष्ट्र से लीजिए; किन्तु स्मरण रखिएगा कि हिन्दू होने के नाते हमको दूसरी सारी बातों को अपने राष्ट्रीय जीवन की मूल भावनाओं के अधीन रखना होगा। प्रत्येक व्यक्ति ने किसी न किसी कार्य-साधन के विशेष उद्देश्य से जन्म लिया है; उसके जीवन की वर्तमान गति अनेक पूर्व जन्मों के फलस्वरूप उसे प्राप्त हुई है। आप लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति महान उत्तराधिकार लेकर जन्मा है, जो आपके महिमामय राष्ट्र के अनन्त अतीत जीवन का सर्वस्व है। सावधान, आपके लाखों पुरखे आपके प्रत्येक कार्य को बड़े ध्यान से देख रहे हैं। वह उद्देश्य क्या है, जिसके लिए प्रत्येक हिन्दू बालक ने जन्म लिया है? क्या आपने महर्षि मनु के द्वारा ब्राह्मणों के जन्मोद्देश्य के विषय में की हुई गौरवपूर्ण घोषणा नहीं पढ़ी है? –
“ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते।
ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोषस्य गुप्तये॥”2
‘धर्मकोषस्य गुप्तये’ – धर्मरूपी खजाने की रक्षा के लिए ब्राह्मणों का जन्म होता है। मुझे कहना यह है कि इस पवित्र मातृभूमि पर ब्राह्मण का ही नहीं, प्रत्युत् जिस किसी स्त्री या पुरुष का जन्म होता है, उसके जन्म लेने का कारण यही ‘धर्मकोषस्य गुप्तये’ है। दूसरे सभी विषयों को हमारे जीवन के इस मूल उद्देश्य के अधीन करना होगा। संगीत में भी स्वर-सामंजस्य का यही नियम है। उसी के अनुगत होने से संगीत में ठीक लय आती है। इस स्थान पर भी वही करना होगा। ऐसा भी राष्ट्र हो सकता है, जिसका मूलमन्त्र राजनीतिक प्रधानता हो, धर्म और दूसरे सभी विषय उसके जीवन के प्रमुख मूलमन्त्र के नीचे निश्चय ही दब जाएँगे; किन्तु यहाँ एक दूसरा राष्ट्र है, जिसका प्रधान जीवनोद्देश धर्म और वैराग्य है। हिन्दुओं का एकमात्र मूलमन्त्र यह है कि जगत् क्षणस्थायी, भ्रममात्र और मिथ्या है; धर्म के अतिरिक्त ज्ञान, विज्ञान, भोग, ऐश्वर्य, नाम, यश, धन, दौलत जो कुछ भी हो, सभी को उसी एक सिद्धान्त के अन्तर्गत करना होगा। एक सच्चे हिन्दू के चरित्र का रहस्य इस बात में निहित है कि पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, पद-अधिकार तथा यश को केवल एक सिद्धान्त के, जो प्रत्येक हिन्दू बालक में जन्मजात है – आध्यात्मिकता तथा जाति की पवित्रता – अधीन रखता है। इसलिए पूर्वोक्त दो प्रकार के आदमियों में एक तो ऐसे हैं, जिनमें हिन्दू जाति के जीवन की मूल शक्ति ‘आध्यात्मिकता’ मौजूद है। दूसरे पाश्चात्य सभ्यता के कितने ही नकली हीरा-जवाहर लेकर बैठे हैं, पर उनके भीतर जीवनप्रद शक्तिसंचार करनेवाली वह आध्यात्मिकता नहीं है। दोनों की तुलना में मुझे विश्वास है कि उपस्थित सभी सज्जन एकमत होकर प्रथम के पक्षपाती होंगे; क्योंकि उसी से उन्नति की कुछ आशा की जा सकती है। जातीय मूलमन्त्र उसके हृदय में जाग रहा है, वही उसका आधार है। अस्तु, उसके बचने की आशा है, और शेष की मृत्यु अवश्यम्भावी है। जिस प्रकार यदि किसी आदमी के मर्मस्थान में कोई आघात न लगे, अर्थात् यदि उसका मर्मस्थान दुरुस्त रहे, तो दूसरे अंगों में कितनी ही चोट लगने पर भी उसे घातक न कहेंगे, उससे वह मरेगा नहीं, इसी प्रकार जब तक हमारी जाति का मर्मस्थान सुरक्षित है, उसके विनाश की कोई आशंका नहीं हो सकती। अतः भलीभाँति स्मरण रखिए, यदि आप धर्म को छोड़कर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता के पीछे दौड़िएगा, तो आपका तीन ही पीढ़ियों में अस्तित्व-लोप निश्चित है। क्योंकि इस प्रकार जाति का मेरुदण्ड ही टूट जाएगा – जिस नींव के ऊपर यह जातीय विशाल भवन खड़ा है, वही नष्ट हो जाएगी; फिर तो परिणाम सर्वनाश होगा ही।
अतएव, हे भाइयो, हमारी राष्ट्रीय उन्नति का यही मार्ग है कि हम लोगों ने अपने पुरखों से उत्तराधिकार-स्वरूप जो अमूल्य सम्पत्ति पायी है, उसे प्राणपण से सुरक्षित रखना ही अपना प्रथम और प्रधान कर्तव्य समझे। आपने क्या ऐसे देश का नाम सुना है, जिसके बड़े बड़े राजा अपने को प्राचीन राजाओं अथवा पुरातन दुर्गनिवासी, पथिकों का सर्वस्व लूट लेनेवाले, डाकू ‘बैरनों’ (Barons) के वंशधर न बताकर अरण्यवासी अर्धनग्न तपस्वियों की सन्तान कहने में ही अधिक गौरव समझते हैं? यदि आपने न सुना हो तो सुनिए – हमारी मातृभूमि ही वह देश है। दूसरे देशों में बड़े बड़े धर्माचार्य अपने को किसी राजा का वंशधर कहने की बड़ी चेष्टा करते हैं, और भारतवर्ष में बड़े बड़े राजा अपने को किसी प्राचीन ऋषि की सन्तान प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं। इसी से मैं कहता हूँ कि आप लोग अध्यात्म में विश्वास कीजिए या न कीजिए, यदि आप राष्ट्रीय जीवन को दुरुस्त रखना चाहते हैं तो आपको आध्यात्मिकता की रक्षा के लिए सचेष्ट होना होगा। एक हाथ से धर्म को मजबूती से पकड़कर दूसरे हाथ को बढ़ा अन्य राष्ट्रोंसे से जो कुछ सीखना हो, सीख लीजिए; किन्तु स्मरण रखिएगा कि जो कुछ आप सीखें उसको मूल आदर्श का अनुगामी ही रखना होगा। तभी अपूर्व महिमा से मण्डित भावी भारत का निर्माण होगा। मेरा दृढ़ विश्वास है कि शीघ्र ही वह शुभ दिन आ रहा है, और भारतवर्ष किसी भी काल में जिस श्रेष्ठता का अधिकारी नहीं था, शीघ्र ही उस श्रेष्ठता का अधिकारी होगा। प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और आपके पूर्वज अपने वंशधरों की इस अभूतपूर्व उन्नति से बड़े सन्तुष्ट होंगे। इतना ही नहीं मैं निश्चित रूप से कहता हूँ, वे परलोक में अपने अपने स्थानों से अपने वंशजों को इस प्रकार महिमान्वित और महत्त्वशाली देखकर अपने को महान् गौरवान्वित समझेंगे!
हे भाइयो, हम सभी लोगों को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा। अब सोने का समय नहीं है। हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है। देखिए भारतमाता तत्परता से प्रतीक्षा कर रही है। वह केवल सो रही है। उसे जगाइए, और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमण्डित और अभिनव शक्तिशाली बनाकर भक्तिभाव से उसे उसके चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दीजिए। ईश्वरीय तत्त्व का ऐसा पूर्ण विकास हमारी मातृभूमि के अतिरिक्त किसी अन्य देश में नहीं हुआ था, क्योंकि ईश्वरविषयक इस भाव का अन्यत्र कभी अस्तित्व नहीं था। शायद आप लोगों को मेरी इस बात पर आश्चर्य होता हो; किन्तु किसी दूसरे शास्त्र से हमारे ईश्वरतत्त्व के समान भाव जरा दिखाएँ तो सही! अन्यान्य जातियों के एक एक जातीय ईश्वर या देवता थे, जैसे यहूदियों के ईश्वर, अरबवालों के ईश्वर इत्यादि; और ये ईश्वर दूसरी जातियों के ईश्वर के साथ लड़ाई-झगड़ा किया करते थे। किन्तु यह तत्त्व कि ईश्वर कल्याणकारी और परम दयालु है, हमारा पिता, माता, मित्र, प्राणों के प्राण और आत्मा की अन्तरात्मा है, केवल भारत ही जानता रहा है। अन्त में, जो शैवों के लिए शिव, वैष्णवों के लिए विष्णु, कर्मियों के लिए कर्म, बौद्धों के लिए बुद्ध, जैनों के लिए जिन, ईसाइयों और यहूदियों के लिए जिहोवा, मुसलमानों के लिए अल्ला और वेदान्तियों के लिए ब्रह्म हैं – जो सब धर्मों, सब सम्प्रदायों के प्रभु हैं – जिनकी सम्पूर्ण महिमा केवल भारत ही जानता था, वे सर्वव्यापी, दयामय प्रभु हम लोगों को आशीर्वाद दें, हमारी सहायता करें, हमें शक्ति दें, जिससे हम अपने उद्देश्य को कार्यरूप में परिणत कर सकें।
हम लोगों ने जिसका श्रवण किया, वह खाये हुए अन्न के समान हमारी पुष्टि करे, उसके द्वारा हम लोगों में इस प्रकार का वीर्य उत्पन्न हो कि हम दूसरों की सहायता कर सकें; हम – आचार्य और शिष्य – कभी भी आपस में विद्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः! हरिः ॐ॥3
- श्रद्धानो शुभां विद्यामाददीतावरादपि।
अन्त्यादपि परो धर्मः स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥ मनुस्मृति २१।२३८॥ - मनुस्मृति १।९९
- ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥