परमकुड़ी-अभिनन्दन का उत्तर – स्वामी विवेकानंद
“परमकुड़ी-अभिनन्दन का उत्तर” “भारत में विवेकानंद” नामक पुस्तक से लिया गया है। इस व्याख्यान में स्वामी जी वेदांत के अनुसार निर्भयता को जीवन में उतारने की शिक्षा दे रहे हैं। रामनाद में व्याख्यान देने के बाद स्वामी विवेकानंद ने परमकुड़ी में आकर विश्राम किया।
यहाँ उनके स्वागत-सत्कार का बहुत बड़ा आयोजन किया गया था तथा निम्नलिखित मानपत्र उनकी सेवा में भेंट किया गया था :
स्वामी विवेकानंद को भेंट किया गया मानपत्र
परमपूज्य स्वामी विवेकानंद जी,
पाश्चात्य देशों में लगभग चार वर्ष तक आध्यात्मिकता का सफल रूप से प्रचार एवं प्रसार करने के बाद आपने यहाँ पधारकर जो कृपा की है उसके लिए आज हम परमकुड़ी-निवासी बड़े कृतज्ञ हैं तथा आपका हृदय से स्वागत करते हैं।
आज हमें अपने देशबन्धुओं के साथ इस बात पर हर्ष एवं गर्व है कि आपने जिस उदारता से प्रेरित हो शिकागो की धर्ममहासभा में भाग लिया तथा वहाँ पर एकत्र अन्य धार्मिक प्रतिनिधियों के सम्मुख अपने इस प्राचीन देश के पवित्र तथा छिपे हुए धर्मसिद्धान्तों को प्रकाशित किया। आपने अपनी विशद व्याख्या द्वारा वैदिक धर्मतत्त्वों को पाश्चात्यों के सम्मुख रखकर उनके सुसंस्कृत मस्तिष्क से हमारे प्राचीन हिन्दू धर्म के बारे में उनकी भ्रमपूर्ण धारणाएँ नष्ट कर दीं, और उन्हें यह भली भाँति समझा दिया कि हमारा यह हिन्दू धर्म केवल सार्वभौम ही नहीं है, वरन् इसमें प्रत्येक युग के विभिन्न बौद्धिक व्यक्तियों को अपनाने की भी गुंजाइश तथा क्षमता है।
आज हमारे बीच में आपके साथ आये हुए आपके पाश्चात्यदेशीय शिष्य भी यहाँ उपस्थित है और उनसे यह स्पष्ट प्रकट होता है कि आपकी धार्मिक शिक्षाएँ वहाँ केवल सैद्धान्तिक रूप में ही नहीं समझी गयी, वरन् वे व्यावहारिक रूप में भी सफल हुई है। आपके गरिमायुक्त व्यक्तित्व का जो चित्ताकर्षक प्रभाव पड़ता है, उससे तो हमें अपने उन्हीं प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है जिनकी तपस्या, साधना तथा आत्मानुभूति ने उन्हें मानवजाति का सच्चा पथप्रदर्शक तथा आचार्य बना दिया था।
अन्त में परमपिता परमेश्वर से हम यहीं प्रार्थना करते हैं, कि वह आपको चिरायु करे, जिससे आप समस्त मानवजाति को आध्यात्मिक शिक्षा देते हुए उसका कल्याण कर सकें।
हम हैं,
परम पूज्य स्वामीजी, आपके विनम्र एवं
चरणसेवी भक्त तथा सेवक
इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा :
स्वामी विवेकानन्द द्वारा परमकुड़ी-अभिनन्दन का उत्तर
जिस स्नेहभाव तथा हार्दिकता से तुम लोगों ने मेरा स्वागत किया है, उसके लिए उचित भाषा में धन्यवाद देना मेरे लिए असम्भव सा प्रतीत हो रहा है। परन्तु यहाँ पर मैं इतना कह देना चाहता हूँ कि, मेरे देश के लोग चाहे मेरा हार्दिक स्वागत करें अथवा तिरस्कार, मेरा प्रेम अपने देश के प्रति और विशेषकर अपने देशवासियों के प्रति सदैव उतना ही रहेगा। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है कि मनुष्य को कर्म कर्म के लिए, तथा प्रेम प्रेम के लिए करना चाहिए। जो कुछ कार्य मैंने पाश्चात्य देशों में किया है, वह कोई बहुत नहीं है और मैं यह कह सकता हूँ कि यहाँ पर जितने लोग उपस्थित हैं, उनमें से ऐसा कोई भी नहीं होगा जो उससे सौगुना अधिक कार्य न कर सकता हो। और मैं उस शुभ दिन की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब महामनीषी, अत्यन्त शक्तिसम्पन्न आध्यात्मिक प्रतिभाएँ इस बात के लिए तत्पर हो जाएँगी कि वे भारतवर्ष से संसार के दूसरे देशों को जाएँ तथा वहाँ के लोगों को आध्यात्मिकता, त्याग, वैराग्य, आदि विषयों कि शिक्षा दे जो भारतवर्ष के वनों से प्राप्त हुए हैं और भारतीय भूमि की सम्पत्ति हैं।
मानवजाति के इतिहास में ऐसे अवसर आते हैं, ऐसा अनुभव होता है कि मानो समस्त मनुष्यजातियाँ संसार से ऊब उठी है, उनकी सारी योजनाएँ असफल सी प्रतीत होती हैं, प्राचीन आचार तथा पद्धतियाँ नष्ट-भ्रष्ट होकर धूल में मिलती दीखती है, उनकी आशाओं पर पानी सा फिरा मालूम होता है तथा उन्हें चारों ओर सब कुछ अस्तव्यस्त सा ही प्रतीत होता है। संसार में सामाजिक जीवन की बुनियाद डालने के लिए दो प्रकार से यत्न किये गये – एक तो धर्म के सहारे और दूसरा सामाजिक प्रयोजन के सहारे। एक आध्यात्मिकता पर आधारित था और दूसरे का आधार था भौतिकवाद। एक की भित्ति है अतीन्द्रियवाद, दूसरे की प्रत्यक्षवाद। पहला इस क्षुद्र जड़जगत् की सीमा के बाहर दृष्टिपात करता है, इतना ही नहीं बल्कि वह दूसरे के साथ कुछ सम्पर्क न रख केवल आध्यात्मिक भाव के सहारे जीवन व्यतीत करने का साहस करता है। इसके विपरीत दूसरा सांसारिक वस्तुओं के बीच ही अपने को सन्तुष्ट मानता है और इस बात की आशा करता है कि वहीं उस जीवन का दृढ़ आधार मिल सकेगा। यह एक मनोरंजक बात है कि उसमें तरंगगति से आध्यात्मिकता तथा भौतिकता का उत्थान-पतन-क्रम चलता रहता है। एक ही देश में विभिन्न समयों पर भिन्न भिन्न तरंगे दिखाई देती है। एक समय ऐसा होता है जब भौतिकवादी भावों की बाढ़ अपना आधिपत्य जमा लेती है और जीवन की प्रत्येक चीज – जिससे आर्थिक अभ्युदय हो, अथवा ऐसी शिक्षा जिसके द्वारा हमें अधिकाधिक धन-धान्य और भोग प्राप्त हो सकें – पहले बड़ी महिमामयी प्रतीत होती है, परन्तु फिर कुछ समय बाद महत्वहीन होकर नष्ट हो जाती है। भौतिक अभ्युदय के साथ मानवजाति के अन्तर्निहित पारस्परिक द्वेष तथा ईर्ष्याभाव भी प्रबल आकार धारण कर लेते हैं। फल यह होता है कि प्रतिद्वन्द्विता तथा घोर निर्दयता मानो उस समय के मूलमन्त्र बन जाते हैं। एक साधारण अंग्रेजी कहावत है, ‘Every one for himself and the devil takes the hindmost’ अर्थात् प्रत्येक मनुष्य अपना ही अपना सोचता है और जो बेचारा सब से पीछे रह जाता है, उसे शैतान पकड़ ले जाता है – बस यही कहावत सिद्धान्तवाक्य हो जाती है। उस समय लोग सोचते हैं कि उनकी समस्त जीवनपद्धति तो नितान्त असफल हो गयी है और यदि धर्म ने उनकी रक्षा न की, डूबते हुए जगत् को सहारा न दिया, तो संसार का ध्वंस तो अवश्यम्भावी ही है। तब संसार को एक नयी आशा की किरण मिलती है, एक नयी इमारत खड़ी करने के लिए एक नयी नींव मिलती है और आध्यात्मिकता की एक दूसरी लहर आती है, जो कालधर्म के अनुसार पुनः धीरे धीरे दब जाती है। प्रकृति का यह नियम है कि धर्म के अभ्युत्थान के साथ व्यक्तियों के एक ऐसे वर्ग का उदय होता है जो इस बात का दावा करता है कि वह संसार की कुछ विशेष शक्तियों का अधिकारी है। इसका तत्काल परिणाम होता है – फिर से भौतिकवाद की ओर प्रतिक्रिया। और यह प्रतिक्रिया एकाधिकार के स्रोतों को उद्घाटित कर देती है, फिर अन्ततः ऐसा समय आता है जब समग्र जाति की केवल आध्यात्मिक क्षमताएँ ही नहीं, वरन् उसके सब प्रकार के लौकिक अधिकार एवं सुविधाएँ भी कुछ मुट्ठी भर व्यक्तियों के हाथ में केन्द्रित हो जाते हैं। बस फिर से थोड़े से लोग जनता की गर्दन पकड़कर उन पर अपना शासन जमा लेने की चेष्टा करते हैं। उस समय जनता को अपना आश्रय स्वयं ढूँढ़ना पड़ता है। वह भौतिकवाद का सहारा लेती है।
आज यदि तुम अपनी मातृभूमि भारत को देखो तो यहाँ भी वही बात पाओगे। यदि यूरोप के भौतिकवाद ने इसके लिए मार्ग प्रशस्त न किया होता, तो आज तुम सब लोगों का यहाँ एकत्रित होकर एक ऐसे व्यक्ति का स्वागत करना सम्भव न होता, जो यूरोप में वेदान्त के प्रचारार्थ गया था। भौतिकवाद से भारतवर्ष को एक प्रकार से लाभ हुआ है, इसमें मनुष्य मात्र को इस बात का अधिकारी बना दिया कि वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपने जीवनपथ पर अग्रसर हो सके, इसने उच्च वर्णो का एकाधिकार दूर कर दिया तथा इसी के द्वारा यह सम्भव हो सका कि लोग उन अमूल्य विधियों पर आपस में परामर्श तथा विचार-विनिमय भी करने लगे, जिनको कुछ ऐसे लोगों ने अपने अधिकार में छिपा रखा था, जो स्वयं उनका महत्व तथा उपयोग तक भूल बैठे हैं। इन अमूल्य धार्मिक तत्त्वों में से आधे या तो चुरा लिये गये अथवा लुप्त हो गये हैं और शेष जो बचे रहे वे ऐसे लोगों के हाथ में चले गये हैं जो, जैसी कहावत है, ‘न स्वयं खाते हैं, न खाने देते हैं’। जिन राजनीतिक पद्धतियों के लिए दूसरी ओर हम आज भारत में इतना प्रयत्न कर रहे हैं, वे यूरोप में सदियों से रही हैं तथा आजमायी भी जा चुकी हैं, परन्तु फिर भी वे नितान्त सन्तोषजनक नहीं पायी गयीं, उनमें भी कमी है। राजनीति से सम्बन्धित यूरोप की संस्थाएँ, प्राणालियाँ तथा और भी शासनपद्धति की अनेकानेक बातें समय समय पर बिल्कुल व्यर्थ सिद्ध होती रही है और आज यूरोप की यह दशा है कि वह बेचैन है, वह नहीं जानता कि अब किस प्रणाली की शरण लें। वहाँ आर्थिक अत्याचार असह्य हो उठे हैं। देश का धन तथा शक्ति उन थोड़े से लोगों ने हाथ में रख छोड़ी है जो स्वयं तो कुछ काम करते नहीं; हाँ, सिर्फ लाखों मनुष्यों द्वारा काम चलाने की क्षमता जरूर रखते हैं। इस क्षमता द्वारा वे चाहें तो सारे संसार को रक्त से प्लावित कर दें। धर्म तथा अन्य सभी चीजों को उन्होंने पददलित कर रखा है, वे ही शासक हैं और सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं। आज पाश्चात्य संसार तो बस ऐसे ही इने-गिने ‘शायलाकों’ के द्वारा शासित है, और यह जो तुम वहाँ की वैधानिक सरकार, स्वतन्त्रता, आजादी, संसद आदि की बातचीत सुना करते हो, वह सब मजाक है।
पाश्चात्य देश तो असल में इन ‘शायलाकों’ के बोझ तथा अत्याचार से जर्जर हो रहा है और इधर प्राच्य देश इन पुरोहितों के अत्याचारों से कातर क्रन्दन कर रहा है। होना तो यह चाहिए कि ये दोनों आपस में एक दूसरे को संयमित रखे। यह कभी मत सोचो कि इनमें से केवल एक से ही संसार का लाभ होगा। उस निष्पक्ष प्रभु ने विश्व में प्रत्येक कण को समान बनाया है। अति अधम असुरप्रकृति मनुष्य में भी तुमको कुछ ऐसे गुण मिलेंगे जो एक बड़े महात्मा में भी नहीं पाये जाते, एक छोटे से छोटे कीड़े में भी वे खूबियाँ होंगी जो बड़े से बड़े आदमी में नहीं है। उदाहरणार्थ एक मामूली कुली को ही ले लो। तुम सोचते होगे कि उसे जीवन का कोई विशेष सुख नहीं है, तुम्हारे सदृश उसमें बुद्धि भी नहीं है, वह वेदान्त आदि विषयों को भी नहीं समझ सकता आदि आदि – परन्तु तुम उसके शरीर की ओर तो देखो। उसका शरीर कष्ट आदि सहने में ऐसा सुकुमार नहीं है जैसा तुम्हारा। यदि उसके शरीर में कहीं गहरा घाव लग जाए, तो तुम्हारी अपेक्षा उसे जल्दी आराम हो जाएगा, उसकी चोट जल्दी भर जाएगी। उसका जीवन उसकी इन्द्रियों में है और वह उन्हीं में मस्त रहता है। उसका जीवन ही सामंजस्य तथा सन्तुलन का है। चाहे ऐन्द्रिय, मानसिक या आध्यात्मिक सुखों में से कोई क्यों न हो, भगवान् ने निष्पक्ष होकर सभी के लिए लेखा-जोखा एक ही रखा है। इसलिए हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए कि हम ही संसार के उद्धारकर्ता है। यह ठीक है कि हम संसार को बहुत सी बातें सिखा सकते हैं, परन्तु साथ ही हमें यह भी जानना चाहिए कि हम संसार से बहुत सी बातें सीख भी सकते हैं। हम संसार को उसी विषय की शिक्षा देने में समर्थ है, जिसके लिए संसार अपेक्षा कर रहा है। यदि आध्यात्मिकता की स्थापना नहीं होगी तो आगामी पचास वर्षों में पाश्चात्य सभ्यता तहस-नहस हो जाएगी। मानवजाति के ऊपर तलवार से शासन करने की चेष्टा करना नैराश्यजनक और नितान्त व्यर्थ है। तुम देखोगे कि वे केन्द्र, जहाँ से इस प्रकार के ‘पाशव बल द्वारा शासन’ की चेष्टा उत्पन्न होती है, सब से पहले स्वयं ही डगमगाते हैं, उनका पतन होता है और अन्त में वे नष्टभ्रष्ट हो जाते हैं। अगले पचास वर्ष में ही यह यूरोप, जो आज समस्त भौतिक शक्ति के विकास का केन्द्र बन बैठा है, यदि अपनी स्थिति को परिवर्तित करने की चेष्टा नहीं करता, अपना आधार नहीं बदलता तथा आध्यात्मिकता ही को जीवनाधार नहीं बना लेता है, तो वह बरबाद हो जाएगा, धूल में मिल जाएगा, और यदि यूरोप को कोई शक्ति बचा सकती है तो वह है केवल उपनिषदों का धर्म।
इतने मत-मतान्तरों, विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों तथा शास्त्रों के होते हुए भी यदि कोई सिद्धान्त हमारे सब सम्प्रदायों का साधारण आधार है, तो वह है आत्मा की सर्वशक्तिमत्ता में विश्वास, और यह समस्त संसार का भावस्रोत परिवर्तित कर सकता है। हिन्दू, जैन तथा बौद्धों में, वस्तुतः भारत में सर्वत्र यह अटल विश्वास परिव्याप्त है कि आत्मा ही समस्त शक्तियों का आधार है। और तुम यह भली भाँति जानते हो कि भारत में ऐसी कोई भी दर्शनप्रणाली नहीं है जो इस बात की शिक्षा देती हो कि हमें शक्ति, पवित्रता अथवा पूर्णता कहीं बाहर से प्राप्त होगी, वरन् हमें सर्वत्र यही शिक्षा मिलती है कि वे तो हमारे जन्मसिद्ध अधिकार है, हमारे लिए उनकी प्राप्ति स्वाभाविक है। अपवित्रता तो केवल एक बाह्य आवरण है जिसके नीचे हमारा वास्तविक स्वरूप ढँक गया है, परन्तु जो सच्चा ‘तुम’ है वह पहले से ही पूर्ण है, शक्तिशाली है। आत्मसंयम के लिए तुम्हें बाह्य सहायता की बिल्कुल आवश्यकता नहीं, तुम पहले से ही पूर्ण संयमी हो। अन्तर केवल जानने या न जानने में है। इसीलिए शास्त्र निर्देश करते हैं कि अविद्या ही सब प्रकार के अनिष्टों का मूल है। आखिर ईश्वर तथा मनुष्य में, साधु तथा असाधु में प्रभेद किस कारण होता है? केवल अज्ञान से। बड़े से बड़े मनुष्य तथा तुम्हारे पैर के नीचे रेंगनेवाले कीड़े में भेद क्या है? भेद होता है केवल अज्ञान से; क्योंकि उस छोटे से रेंगते हुए कीड़े में भी वही अनन्त शक्ति है, वही ज्ञान है, वही शुद्धता है, यहाँ तक कि साक्षात् अनन्त भगवान् विद्यमान है। अन्तर यही है कि उसमें यह सब अव्यक्त रूप में है; जरूरत है इसी को व्यक्त करने की।
भारतवर्ष को यही एक महान् सत्य संसार को सिखाना है, क्योंकि यह अन्यत्र कहीं नहीं है। यही आध्यात्मिकता है, यही आत्मविज्ञान है। वह क्या है जिसके सहारे मनुष्य खड़ा होता है और काम करता है? – वह है बल। बल ही पुण्य है तथा दुर्बलता ही पाप है। उपनिषदों में यदि कोई एक ऐसा शब्द है जो वज्रवेग से अज्ञानराशि के ऊपर पतित होता है, उसे बिल्कुल उड़ा देता है, तो वह है ‘अभीः’ – निर्भयता। संसार को यदि किसी एक धर्म की शिक्षा देनी चाहिए तो वह है ‘निर्भीकता’। यह सत्य है कि ऐहिक जगत् में, अथवा आध्यात्मिक जगत् में भय ही पतन तथा पाप का कारण है। भय से ही दुःख होता है, यही मृत्यु का कारण है तथा इसी के कारण सारी बुराई होती है। और भय होता क्यों है? आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण। हममें से प्रत्येक सम्राटों के सम्राट का भी उत्तराधिकारी है, क्योंकि हम उस ईश्वर के ही तो अंश हैं। बल्कि इतना ही नहीं, अद्वैतमतानुसार हम स्वयं ही ईश्वर हैं, ब्रह्म हैं, यद्यपि आज हम अपने को केवल एक छोटा सा आदमी समझकर अपना असली स्वरूप भूल बैठे हैं। उस स्वरूप से हम भ्रष्ट हो गये हैं और इसीलिए आज हमें यह भेद प्रतीत होता है कि मैं अमुक आदमी से श्रेष्ठ हूँ अथवा वह मुझसे श्रेष्ठ है, आदि आदि।
यह एकत्व की शिक्षा ही एक ऐसी चीज है जो भारत को दूसरों को देनी है और यह ध्यान रहे कि जब यह समझ लिया जाता है, तब सारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है, क्योंकि अब तो पहले की अपेक्षा तुम संसार को एक दूसरी दृष्टि से देखने लगते हो। फिर यह संसार वह रणक्षेत्र नहीं रह जाता जहाँ प्रत्येक प्राणी इसलिए जन्म लेता है कि वह दूसरों से लड़ता रहे, जो बलवान् हो, वह दूसरों पर विजय प्राप्त कर ले तथा जो कमजोर है, वह पिस जाए। फिर यह एक क्रिड़ास्थल बन जाता है जहाँ स्वयं भगवान् एक बालक के सदृश खेलते हैं और हम लोग उनके खेल के साथी तथा उनके कार्य के सहायक हैं। यह सारा दृश्य केवल एक खेल है, वैसे यह चाहे जितना कठिन, घोर, बीभत्स तथा खतरनाक ही क्यों न प्रतीत हो। असल में इसके सच्चे स्वरूप को हम भूल जाते हैं और जब मनुष्य आत्मा को पहचान लेता है तो वह चाहे जैसा दुर्बल, पतित अथवा घोर पातकी ही क्यों न हो, उसके भी हृदय में एक आशा की किरण निकल आती है। शास्त्रों का कथन केवल यही है कि बस, हिम्मत न हारो, क्योंकि तुम तो सदैव वही हो; तुम कुछ भी करो, अपने असली स्वरूप को तुम नहीं बदल सकते। और फिर प्रकृति स्वयं ही प्रकृति को नष्ट कैसे कर सकती है? तुम्हारी प्रकृति तो नितान्त शुद्ध है। यह चाहे लाखों वर्ष तक क्यों न छिपी-ढकी रहे, परन्तु अन्ततः इसकी विजय होगी तथा यह अपने को अभिव्यक्त करेगी ही। अतएव अद्वैत प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आशा का संचार करता है, न कि निराशा का। वेदान्त कभी भय से धर्माचरण करने को नहीं कहता। वेदान्त की शिक्षा कभी ऐसे शैतान के बारे में नहीं होती, जो निरन्तर इस ताक में रहता है कि तुम्हारा पदस्खलन हो और वह तुम्हें अपने अधिकार में कर ले। वेदान्त में शैतान का उल्लेख ही नहीं है, वेदान्त की शिक्षा यही है कि अपने भाग्य के निर्माता हम ही हैं। तुम्हारा यह शरीर तुम्हारे ही कर्मों के अनुसार बना है, और किसी ने तुम्हारे लिए वह गठित नहीं किया है। सर्वव्यापी परमेश्वर तुम्हारे अज्ञान के कारण तुमसे छिपा हुआ है और उसका दायित्व तुम्हारे ही ऊपर है। तुमको यह न समझना चाहिए कि इस घोर तमोमय संसार में तुम बिना अपनी इच्छा के ही ला पटके गये हो, वरन् तुम्हें यह समझ लेना चाहिए कि ठीक जैसे तुम इस क्षण अपने इस शरीर को बना रहे हो, पहले भी तुम्ही ने थोड़ा थोड़ा करके इसका निर्माण किया था। तुम स्वयं ही खाते हो, कोई और तो तुम्हारे लिए नहीं खाता? फिर जो तुम खा लेते हो उसे तुम्हीं अपने लिए पचाते हो, कोई और तो नहीं पचाता? फिर उसी से तुम अपना रक्त, पेशी तथा शरीर बनाते हो, दूसरा कोई कुछ नहीं करता। बस, यही तुम बराबर करते आये हो। शृंखला की एक कड़ी उसके अनन्त विस्तार की व्याख्या करती है। अतएव यदि आज यह बात सत्य है कि तुम स्वयं अपने शरीर का निर्माण करते हो, तो वह बात भविष्य तथा भूत के लिए भी लागू होती है। समस्त अच्छाई या बुराई का दायित्व तुम्हारे ही ऊपर है। यही एक बड़ी आशाजनक बात है। जिसे हमने बनाया है, उसको हम बिगाड़ भी सकते हैं। और साथ ही हमारा धर्म मानवता से भगवत्कृपा को अस्वीकार नहीं करता। वह कृपा तो निरन्तर विद्यमान है। साथ ही भगवान् शुभाशुभरूपी इस घोर संसारप्रवाह के उस पार विराजमान है। वे स्वयं बन्धनरहित हैं, दयालु हैं, हमारा बेड़ा पार लगाने को वे सदैव तैयार हैं, उनकी दया अपार है – जो मनुष्य सचमुच हृदय से शुद्ध होता है, उस पर उनकी कृपा होती ही है।
एक प्रकार से तुम्हारी आध्यात्मिक शक्ति किसी अंश में समाज को एक नया रूप देने में आधारस्वरूप होगी। समयाभाव के कारण मैं अधिक नहीं कह सकता, नहीं तो मैं यह बतलाता कि आज पाश्चात्य के लिए अद्वैतवाद के कुछ सिद्धान्तों को सीखना कितना आवश्यक है, क्योंकि आज इस भौतिकवाद के जमाने में सगुण ईश्वर की बातचीत लोगों को बहुत नहीं जँचती। परन्तु फिर भी, यदि किसी मनुष्य का धर्म नितान्त अमार्जित है, और वह मन्दिरों तथा प्रतिमाओं का इच्छुक है तो अद्वैतवाद में उसे वह भी, जितना चाहे, मिल सकता है। इसी प्रकार यदि उसे सगुण ईश्वर पर भक्ति है तो अद्वैतवाद में उसे सगुण ईश्वर के निमित्त भी ऐसे ऐसे सुन्दर भाव तथा तत्त्व मिलेंगे जो उसे संसार में और कहीं नहीं मिल सकते। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति युक्तिवादी होकर अपनी तर्कबुद्धि को सन्तुष्ट करना चाहता है तो उसे प्रतीत होगा कि निर्गुण-ब्रह्म-सम्बन्धी बड़े से बड़े युक्तियुक्त विचार उसे यहीं प्राप्त हो सकते हैं।