धर्मस्वामी विवेकानंद

मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर – स्वामी विवेकानंद

“मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर” स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान संग्रह “भारत में विवेकानंद” से लिया गया है। इस व्याख्यान में स्वामी जी बता रहे हैं कि आध्यात्मिक भावों का प्रचार-प्रसार और उन्हें अपने जीवन में उतारना ही हमारा मुख्य कर्तव्य है। पढ़ें स्वामीजी का यह प्रसिद्ध व्याख्यान “मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर”–

मदुरा1 में स्वामीजी को वहाँ के हिन्दू बान्धवों ने एक मानपत्र भेंट किया जो इस प्रकार था:

मदुरै में स्वामी विवेकानंद को दिया गया मानपत्र

हम मदुरा-निवासी हिन्दू लोग आज बड़े आदरपूर्वक आपका अपने इस प्राचीन तथा पवित्र नगर में हार्दिक स्वागत करते हैं। आपमें हम एक ऐसे हिन्दू संन्यासी का जीवन्त उदाहरण पाते हैं, जिसने संसार के सब बन्धनों को तोड़कर तथा उन समस्त साधनों को तिलांजलि देकर, जिनसे केवल स्वार्थसाधन ही होता है, अपने को ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ के श्रेष्ठ उद्देश्य में ही लगा दिया है तथा जो कि मानवसमाज के आध्यात्मिक उत्थान के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है। आपने स्वयं अपने व्यक्तित्व द्वारा यह दर्शा दिया है कि हिन्दू धर्म का सारतत्त्व केवल नियमों तथा अनुष्ठानों के पालन में ही नहीं है, वरन् यह एक उदात्त दर्शन का रूप है जो दीन, दुःखी तथा पीड़ित लोगों को शान्ति तथा सन्तोष प्रदान कर सकता है।

आपने अमेरिका तथा इंग्लैण्ड को भी उस धर्म की, उस दर्शन की, महिमा सिखला दी है जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति, अपनी अपनी शक्ति, योग्यता तथा परिस्थिति के अनुसार अधिक से अधिक उन्नति कर सकता है। गत तीन वर्ष से यद्यपि आपकी शिक्षाएँ विदेशों में ही हुई है, परन्तु फिर भी उनका मनन इस देश के लोगों ने भी कम उत्सुकता से नहीं किया और हम कहेंगे कि इस देश में विदेशी भूमि से आयात भौतिकवाद के अधिकाधिक बढ़ते हुए असर को रोकने में भी उन्होंने कम काम नहीं किया है।

आज भी भारतवर्ष जीवित है, क्योंकि उसको विश्व की आध्यात्मिक व्यवस्था को सम्पादित करने का व्रत पूरा करना है। इस कलियुग के अन्त में आप जैसे महापुरुष का प्रादुर्भाव होना इस बात का द्योतक है कि निकट भविष्य में उन महान् आत्माओं का अवश्य ही अवतरण होगा, जिनके द्वारा उपर्युक्त उद्देश्य की पूर्ति होगी।

प्राचीन विद्याओं का केन्द्र, श्रीसुन्दरेश्वर भगवान् का प्रिय स्थान तथा योगिराजों का पुण्य द्वादशान्तक क्षेत्र, मदुरा-नगर, भारतवर्ष के अन्य किसी नगर से आपके भारतीय दर्शन के प्रतिपादन के प्रति हार्दिक प्रशंसात्मक भावों के प्रकाशन में तथा आपकी मानवता की अमूल्य सेवा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने में पीछे नहीं है।

ईश्वर से हमारी यही प्रार्थना है कि वह आपको दीर्घजीवी करे, शक्तिशाली बनाए तथा आपके द्वारा दूसरों का कल्याण हो।

स्वामी विवेकानंद द्वारा मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर

मेरी बड़ी इच्छा है, तुम लोगों के साथ कुछ दिन रहकर तुम्हारे सुयोग्य सभापति महोदय के द्वारा अभी निर्देशित शर्ते पूरी करूँ और गत चार वर्षों तक पश्चिमी देशों में प्रचार करते हुए मुझे वहाँ का जैसा अनुभव हुआ, उसे प्रकट करूँ; परन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि संन्यासियों के भी शरीर है और गत तीन हफ्ते तक लगातार घूमते और व्याख्यान देते रहने के कारण मेरी हालत इस समय ऐसी नहीं है कि इस शाम को एक लम्बा व्याख्यान दे सकूँ। अतएव मेरे प्रति जो कृपा दिखाई गयी, उसके लिए हार्दिक धन्यवाद देकर ही मुझे सन्तोष करना पड़ेगा। दूसरे विषय मैं भविष्य के किसी दूसरे दिन के लिए रख छोड़ता हूँ, जब अधिक स्वस्थ स्थिति में शाम के इस थोड़े से समय में जितने विषयों पर चर्चा की जा सकती है, उनसे अधिक पर चर्चा का समय मिल जाएगा। मदुरा में तुम लोगों के अत्यन्त प्रसिद्ध और उदारचेता देशवासी और रामनाद के राजा के अतिथि के रूप में मेरे मन में एक तथ्य प्रमुखता के साथ आ रहा है। शायद तुम लोगों में से अनेक को मालूम है कि ये रामनाद के राजा ही थे जिन्होंने पहले-पहल मेरे मन में शिकागो जाने का विचार पैदा किया और इस विचार की रक्षा के लिए जहाँ तक उनसे हो सका, हृदय से और अपने प्रभाव से बराबर मेरी सहायता करते रहे हैं। अतएव इस अभिनन्दन में मेरी जितनी प्रशंसा की गयी, उसका अधिकांश दक्षिण के इस महान् व्यक्ति को ही प्राप्य है। मेरे मन में तो यह आता है कि राजा होने के बजाय उन्हें संन्यासी होना चाहिए था, क्योंकि संन्यास ही उनका योग्य आसन है।

मनुष्यजाति के सम्पूर्ण ज्ञानभाण्डार में भारत का योगदान आध्यात्मिकता और दर्शन का रहा है।

स्वामी विवेकानंद, मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर (भारत में विवेकानंद)

जब कभी संसार के किसी भाग में किसी वस्तु की वास्तविक आवश्यकता होती है, तब उसकी पूर्ति करने का रास्ता निकल आता है और उसे नया जीवन मिलता है। यह बात भौतिक संसार के लिए भी सत्य है और आध्यात्मिक राज्य के लिए भी। यदि संसार के किसी भाग में आध्यात्मिकता है और किसी दूसरे भाग में उसका अभाव, तो फिर चाहे हम जान-बूझकर उसके लिए प्रयत्न करें या न करें, जहाँ धर्म का अभाव है, वहाँ जाने के लिए आध्यात्मिकता अपना रास्ता साफ कर लेगी और इस तरह सामंजस्य की स्थापना करेगी। मनुष्यजाति के इतिहास में हम पाते हैं कि एक या दो बार नहीं, प्रत्युत् पुनःपुनः प्राचीन काल में संसार को आध्यात्मिकता की शिक्षा देना भारत का भाग्य रहा है। और इस तरह, हम देखते हैं कि जब किसी जाति की दिग्विजय द्वारा अथवा व्यवसाय की प्रधानता से संसार के विभिन्न भाग एक सम्पूर्ण राष्ट्र के रूप में बद्ध हुए और संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक दान का भाण्डार खुल पड़ा – एक जाति के लिए दूसरी को कुछ देने का अवसर हाथ आया, तब प्रत्येक जाति ने अपर जातियों को राजनीतिक, सामाजिक, अथवा आध्यात्मिक, जिसके निकट जो भाव थे, दिये। मनुष्यजाति के सम्पूर्ण ज्ञानभाण्डार में भारत का योगदान आध्यात्मिकता और दर्शन का रहा है। फारस साम्राज्य के उदय के बहुत पहले ही वह इस तरह का दान दे चुका था; फारस साम्राज्य के उदयकाल में भी उसने दूसरी बार ऐसा दान किया; यूनान की प्रभुता के समय उसका तीसरा दान था; और अंग्रेजी की प्रधानता के समय अब चौथी बार विधि के उसी विधान को वह पूर्ण कर रहा है। जिस तरह संघस्थापना की पश्चिमी कार्यप्रणाली और बाहरी सभ्यता के भाव हमारे देश की नस नस में समा रहे हैं, चाहे हम उनका ग्रहण करें या न करें, उसी तरह भारत की आध्यात्मिकता और दर्शन पाश्चात्य देशों को प्लावित कर रहे हैं। इस गति को कोई नहीं रोक सकता, और हम भी पश्चिम की किसी न किसी प्रकार की भौतिकवादी सभ्यता का पूर्णतः प्रतिरोध नहीं कर सकते। इसका कुछ अंश, सम्भव है, हमारे लिए अच्छा हो और आध्यात्मिकता का कुछ अंश पश्चिम के लिए लाभदायक। इसी तरह सामंजस्य की रक्षा हो सकेगी। यह बात नहीं कि हर एक विषय हमें पश्चिमवालों से सीखना चाहिए, या पश्चिमवालों को जो कुछ सीखना है, हम ही से सीखें, किन्तु भिन्न भिन्न राष्ट्रों में सामंजस्यस्थापन या एक आदर्श संसार के निर्माण के युगों के भावी स्वप्नों की पूर्ति के लिए हर एक के पास जो कुछ हो, उसे भावी सन्तानों को दाय के रूप में अर्पित करना होगा। ऐसा आदर्श संसार में कभी आएगा या नहीं, मैं नहीं जानता; समाज कभी ऐसी सम्पूर्णता तक पहुँच सकेगा, इस सम्बन्ध में मुझको ही सन्देह हो रहा है; परन्तु चाहे ऐसा हो या न हो, हममें से हर एक को इसी भाव को लेकर काम करना चाहिए कि वह संगठन कल ही हो जाएगा, और प्रत्येक मनुष्य को यही सोचना चाहिए कि यह काम मानो उसी पर निर्भर है। हममें से प्रत्येक को यही विश्वास रखना चाहिये कि संसार के अन्य सभी लोगों ने अपना अपना कार्य सम्पन्न कर डाला है, एकमात्र मेरा ही कार्य शेष है, और जब मैं अपना कार्यभाग पूरा करूँ, तभी संसार सम्पूर्ण होगा। हमें अपने सिर पर यही दायित्व लेना है।

भारत में वर्तमान समय में धर्म का प्रबल पुनरुत्थान हो रहा है। यह गौरव की बात है, पर साथ ही इसमें विपत्ति की भी आशंका है; क्योंकि पुनरुत्थान के साथ उसमें यदा-कदा घोर कट्टरता भी आ जाया करती है।

स्वामी विवेकानंद, मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर (भारत में विवेकानंद)

भारत में वर्तमान समय में धर्म का प्रबल पुनरुत्थान हो रहा है। यह गौरव की बात है, पर साथ ही इसमें विपत्ति की भी आशंका है; क्योंकि पुनरुत्थान के साथ उसमें यदा-कदा घोर कट्टरता भी आ जाया करती है। और कभी कभी तो यह कट्टरता इतनी बढ़ जाती है कि अभ्युत्थान को शुरू करनेवाले लोग भी उसे रोकने में असमर्थ होते हैं, उसका नियमन नहीं कर सकते। अतएव पहले से ही सावधान रहना चाहिए। हमें रास्ते के बीचोंबीच चलना चाहिए। एक ओर भ्रान्त धारणाओं से भरा हुआ प्राचीन समाज है, और दूसरी ओर भौतिकवाद – आत्महीनता, तथाकथित सुधार और यूरोपवाद (Europeanism) जो पश्चिमी उन्नति के मूल तक में समाया हुआ है। हमें इन दोनों से खूब बचकर चलना होगा। पहले तो, हम पश्चिमी नहीं हो सकते, इसलिए पश्चिमवालों की नकल करना वृथा है। मान लो तुम पश्चिमवालों का सम्पूर्ण अनुकरण करने में सफल हो गये, तो उसी समय तुम्हारी मृत्यु अनिवार्य है, फिर तुममें जीवन का लेश भी न रह जाएगा। दूसरे, ऐसा होना असम्भव है। काल की प्रारम्भिक अवस्था से निकलकर मनुष्यजाति के इतिहास में लाखों वर्षों से लगातार एक नदी बहती आ रही है। तुम क्या उसे उसके उद्गमस्थान हिमालय के हिमनद में धक्के लगाकर वापस ले जाना चाहते हो? यदि यह सम्भव भी हो, तथापि तुम यूरोपियन नहीं हो सकते। यदि कुछ शताब्दियों की शिक्षा का संस्कार छोड़ना यूरोपियनों के लिए तुम असम्भव सोचते हो, तो सैकड़ों गौरवशाली सदियों के संस्कार छोड़ना तुम्हारे लिए कब सम्भव है? नहीं, ऐसा कभी हो नहीं सकता। हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हम प्रायः जिन्हें अपना धर्मविश्वास कहते हैं, वे हमारे छोटे छोटे ग्रामदेवताओं पर आधारित या ऐसे ही अन्धविश्वासों से पूर्ण लोकाचार मात्र हैं। ऐसे लोकाचार असंख्य है और वे एक दूसरे के विरोधी है। इनमें से हम किसे मानें और किसे न मानें? उदाहरण के लिए, दक्षिण का ब्राह्मण यदि किसी दूसरे ब्राह्मण को मांस खाते हुए देखे तो भय से आतंकित हो जाता है; परन्तु उत्तर भारत के ब्राह्मण इसे अत्यन्त पवित्र और गौरवशाली कृत्य समझते हैं, पूजा के निमित्त वे सैकड़ों बकरों की बलि चढ़ा देते हैं। अगर तुम अपने लोकाचार आगे रखोगे, तो वे भी अपने लोकाचारों को सामने लाएँगे। तमाम भारत में सैकड़ों आचार हैं, परन्तु वे अपने ही स्थान में सीमित है। सब से बड़ी भूल यही होती है कि अज्ञ साधारणजन सर्वदा अपने प्रान्त के ही आचार को हमारे धर्म का सार समझ लेते हैं।

इसके अतिरिक्त, इससे बड़ी एक और कठिनाई है। हम अपने शास्त्रों में दो प्रकार के सत्य देखते हैं। एक मनुष्य के नित्य स्वरूप पर आधारित है, जो परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सार्वकालिक सम्बन्ध पर विचार करता है। दूसरे प्रकार का सत्य किसी देश, काल या सामाजिक अवस्थाविशेष पर टिका हुआ है। पहला मुख्यतः वेदों या श्रुतियों में संगृहीत है और दूसरा स्मृतियों और पुराणों में। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सब समय वेद ही हमारे चरम लक्ष्य और मुख्य प्रमाण है। यदि किसी पुराण का कोई हिस्सा वेदों के अनुकूल न हो, तो निर्दयतापूर्वक उतने अंश का त्याग कर देना चाहिए। और हम यह भी देखते हैं कि सभी स्मृतियों की शिक्षाएँ अलग अलग हैं। एक स्मृति बतलाती है – ‘यही आचार है, इस युग में इसी का अनुशासन मानना चाहिए’। दूसरी स्मृति इसी युग में एक दूसरे आचार का समर्थन करती है। ‘इस आचार का पालन सत्ययुग में करना चाहिए और इसका कलियुग में’, कोई स्मृति इस प्रकार सत्ययुग और कलियुग के आचारभेद बतलाती है। अतः तुम्हारे लिए वही गरिमामण्डित सत्य सब से बढ़कर है, जो सब काल के लिए सत्य है, जो मनुष्य की प्रकृति पर प्रतिष्ठित है, जिसका परिवर्तन तब तक न होगा, जब तक मनुष्य का अस्तित्व रहेगा। परन्तु स्मृतियाँ तो प्रायः स्थानीय परिस्थिति और अवस्थाभेद के अनुशासन बतलाती और समयानुसार बदलती जाती है। यह तुम्हें सदा स्मरण रखना चाहिए कि किंचित् सामाजिक प्रथा के बदल जाने से हम अपना धर्म नहीं खो देंगे। ऐसा कदापि नहीं है। याद रखो, ये आचार-प्रथाएँ चिरकाल से ही बदलती आयी हैं। इसी भारत में कभी ऐसा भी समय था, जब कोई ब्राह्मण बिना गोमांस खाए ब्राह्मण नहीं रह पाता था; तुम वेद पढ़कर देखो कि किस तरह जब कोई संन्यासी या राजा या बड़ा आदमी मकान में आता था, तब सब से पुष्ट बैल मारा जाता था। बाद में धीरे धीरे लोगों ने समझा कि हम कृषिजीवी जाति है, अतएव अच्छे अच्छे बैलों का मारना हमारी जाति के ध्वंस का कारण है। इसलिए इस हत्या का निषेध कर दिया गया और गोवध के विरुद्ध तीव्र आन्दोलन उठाया गया। पहले ऐसे भी आचार प्रचलित थे, जिन्हें अब हम बीभत्स मानते हैं। कालान्तर में आचार के नये नियम बनाने पड़े। जब समय का परिवर्तन होगा, तब वे स्मृतियाँ भी नहीं रहेंगी और उनकी जगह दूसरी स्मृतियों की योजना की जाएगी। हमारे ध्यान देने योग्य केवल एक विषय है, और वह यह कि वेद चिरन्तन सत्य होने के कारण सभी युगों में समभाव से विद्यमान रहते हैं, किन्तु स्मृतियों की प्रधानता युगपरिवर्तन के साथ ही जाती रहती है। समय ज्यों ज्यों व्यतीत होता जाएगा, अनेकानेक स्मृतियों का प्रामाण्य लुप्त होता जाएगा और ऋषियों का आविर्भाव होगा। वे समाज को अच्छे पथों पर प्रवर्तित और निर्दिष्ट करेंगे, उस युग की आवश्यकता के अनुसार पथ और कर्तव्य समाज को दिखाएँगे, जिसके बिना समाज का जीना असम्भव हो जाएगा। इस तरह हमें इन दोनों विघ्नों से बचकर चलना होगा, और मुझे आशा है, हममें से प्रत्येक में पर्याप्त उदारता होगी और साथ ही इतनी दृढ़ निष्ठा होगी, जिससे समझ सके कि इसका अर्थ क्या है। मैं समझता हूँ, जिसका उद्देश्य सभी को अपनाना है, किसी का तिरस्कार करना नहीं। मैं ‘कट्टरता’वाली निष्टा भी चाहता हूँ और भौतिकवादियों का उदार भाव भी चाहता हूँ। हमें ऐसे ही हृदय की आवश्यकता है जो समुद्र सा गम्भीर और आकाश सा उदार हो। हमें संसार की किसी भी उन्नत जाति की तरह उन्नतिशील होना चाहिए और साथ ही अपनी परम्पराओं के प्रति वही श्रद्धा तथा कट्टरता रखनी चाहिए, जो केवल हिन्दुओं में ही आ सकती है।

हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हमारे समाज के नेता कभी सेनानायक या राजा नहीं थे, वे थे ऋषि।

स्वामी विवेकानंद, मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर (भारत में विवेकानंद)

सीधी बात यह है कि पहले हमें प्रत्येक विषय का मुख्य और गौण भेद समझ लेना चाहिए। मुख्य सार्वकालिक है, गौण का मूल्य किसी खास समय तक होता है; उस समय के अनन्तर उसमें यदि कोई परिवर्तन न किया जाय, तो वह निश्चित रूप से भयानक हो जाता है। मेरे कथन का यह उद्देश्य नहीं कि तुम अपने प्राचीन आचारों और पद्धतियों की निन्दा करो – नहीं, ऐसा हरगिज न करो। उनमें से अत्यन्त हीन आचार को भी तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए; निन्दा किसी की न करो, क्योंकि जो प्रथाएँ इस समय निश्चित रूप से बुरी लग रही हैं, अतीत के युगों में वे ही जीवनप्रद थीं। अतएव शाप द्वारा उनका बहिष्कार करना ठीक नहीं, किन्तु धन्यवाद देकर और कृतज्ञता दिखाते हुए उनको अलग करना चाहिए; क्योंकि हमारी जाति की रक्षा के लिए एक समय उन्होंने भी प्रशंसनीय कार्य किया था। और हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हमारे समाज के नेता कभी सेनानायक या राजा नहीं थे, वे थे ऋषि। और ऋषि कौन है? उनके सम्बन्ध में उपनिषद् कहते हैं, ‘ऋषि कोई साधारण मनुष्य नहीं, वे मन्त्रद्रष्टा है।’ ऋषि वे हैं, जिन्होंने धर्म को प्रत्यक्ष किया है, जिनके निकट धर्म केवल पुस्तकों का अध्ययन नहीं, न युक्तिजाल ही, और न व्यावसायिक विज्ञान अथवा वाग्वितण्डा ही, वह है प्रत्यक्ष अनुभव – अतीन्द्रिय सत्य का प्रत्यक्ष साक्षात्कार। यही ऋषित्व है और यह ऋषित्व किसी उम्र या समय या किसी सम्प्रदाय या जाति की अपेक्षा नहीं रखता। वात्स्यायन कहते हैं – ‘सत्य का साक्षात्कार करना होगा और स्मरण रखना होगा कि हममें से प्रत्येक को ऋषि होना है।’ साथ ही हमें अगाध आत्मविश्वाससम्पन्न भी होना चाहिए, हम लोग समग्र संसार में शक्तिसंचार करेंगे; क्योंकि सब शक्ति हममें ही विद्यमान है। हमें धर्म का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करना होगा, उसकी उपलब्धि करनी होगी, तभी ऋषित्व की उज्ज्वल ज्योति से पूर्ण होकर हम महापुरुषपद प्राप्त कर सकेंगे; तभी हमारे मुख से जो वाणी निकलेगी, वह सुरक्षा की असीम स्वीकृति से पूर्ण होगी; और हमारे सामने की समस्त बुराई स्वयं अदृश्य हो जाएगी, तब हमें किसी को शाप देने की आवश्यकता न रह जायगी, किसी की निन्दा या किसी के साथ विरोध करने की जरूरत न होगी। यहाँ जितने मनुष्य उपस्थित हैं, उनमें से प्रत्येक को अपनी और दूसरों की मुक्ति के लिए ऋषित्व प्राप्त करने में प्रभु सहायता करें।

हमें अगाध आत्मविश्वाससम्पन्न भी होना चाहिए, हम लोग समग्र संसार में शक्तिसंचार करेंगे; क्योंकि सब शक्ति हममें ही विद्यमान है।

स्वामी विवेकानंद, मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर (कोलम्बो से अल्मोड़ा तक)

  1. जिस समय स्वामी विवेकानंद ने मदुरा-अभिनन्दन का उत्तर दिया था, इस नगर को मदुरा कहा जाता था। इसे अब मदुरे या मदुरै कहते हैं।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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