वेदान्त – स्वामी विवेकानंद का खेतड़ी में दिया व्याख्यान
(खेतड़ी में दिया हुआ भाषण)
२० दिसम्बर १८९७ को स्वामीजी अपने शिष्यों के साथ महाराज के बँगले में ठहरे हुए थे, जहाँ उन्होंने वेदान्त के सम्बन्ध में करीब डेढ़ घण्टे तक व्याख्यान दिया। स्थानीय बहुतसे सज्जन एवं कई यूरोपीय महिलाएँ वहाँ उपस्थित थीं। खेतड़ी के राजासाहब सभापति थे, उन्होंने ही उपस्थित श्रोताओं से स्वामीजी का परिचय कराया। स्वामीजी ने बड़ा सुन्दर व्याख्यान दिया, परन्तु खेद का विषय है कि उस समय कोई शीघ्रलिपि का लेखक उपस्थित नहीं था। अतः सम्पूर्ण व्याख्यान उपलब्ध नहीं है। स्वामीजी के दो शिष्यों ने जो नोट लिये थे उसी का अनुवाद नीचे दिया जाता है :
स्वामी विवेकानन्द जी का भाषण
यूनानी और आर्य, प्राचीन काल की ये दो जातियाँ, भिन्न भिन्न वातावरणों और परिस्थितियों में पड़ी। प्रकृति में जो कुछ सुन्दर था, जो कुछ मधुर था, जो कुछ लोभनीय था, उन्हीं के मध्य स्थापित होकर स्फूर्तिप्रद जलवायु में विचरण करते हुए यूनानी जाति ने, एवं चारों ओर सब प्रकार के महिमामय प्राकृतिक दृश्यों के मध्य अवस्थित होकर तथा अधिक शारीरिक परिश्रम के अनुकूल जलवायु न पाकर हिन्दू जाति ने, दो प्रकार की विभिन्न तथा विशिष्ट सभ्यताओं के आदर्शों का विकास किया। यूनानी लोग बाह्य प्रकृति के अनन्त की एवं आर्य लोग आभ्यन्तरिक प्रकृति के अनन्त की खोज में दत्तचित्त हुए। यूनानी लोग बृहत् ब्रह्माण्ड की खोज में व्यस्त हुए और आर्य लोग क्षुद्र ब्रह्माण्ड या सूक्ष्म जगत् के तत्त्वानुसन्धान में मग्न हुए। संसार की सभ्यता में दोनों को ही अपना अपना निर्दिष्ट अंशविशेष सम्पन्न करना पड़ा था। आवश्यक नहीं है कि इनमें से एक को दूसरे से कुछ उधार लेना है। लेकिन परस्पर तुलनात्मक अध्ययन से दोनों लाभान्वित होंगे। आर्यों की प्रकृति विश्लेषणप्रिय थी। गणित और व्याकरण में आर्यों को अद्भुत उपलब्धियाँ प्राप्त हुई और मन के विश्लेषण में वे चरम सीमा को पहुँच गये। हमें पाइथागोरस, साक्रेटिस, प्लेटो एवं मिस्र के नव्य प्लेटोवादियों के विचारों में भारतीय विचार की झलक दीख पड़ती है।
इसके पश्चात् स्वामीजी ने यूरोप पर भारतीय विचारों के प्रभाव की विस्तृत समीक्षा करके दिखाया कि विभिन्न युगों में स्पेन, जर्मनी एवं अन्यान्य यूरोपीय देशों के ऊपर इन विचारों की कैसी छाप पड़ी थी। भारतीय राजकुमार दाराशिकोह ने उपनिषद् का अनुवाद फारसी में किया। शॉपेनहॉवर नामक जर्मन दार्शनिक उसका लैटिन अनुवाद देखकर उसकी ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ। इसके दर्शन में उपनिषदों का प्रचुर प्रभाव देखा जाता है। इसके बाद ही काण्ट के दर्शनग्रन्थों में भी उपनिषदों के भावों के चिह्न देखे जाते हैं। यूरोप में साधारणतया तुलनात्मक भाषाविज्ञान की अभिरुचि के कारण ही विद्वान् लोग संस्कृत के अध्ययन की ओर आकृष्ट होते हैं। परन्तु अध्यापक डॉयसन जैसे व्यक्ति भी हैं जो केवल दार्शनिक ज्ञान के लिए ही दर्शनों का अध्ययन करते हैं। स्वामीजी ने आशा प्रकट की कि भविष्य में यूरोप में संस्कृत के पठन-पाठन में और अधिक दिलचस्पी ली जाएगी। इसके बाद स्वामीजी ने दिखलाया कि पूर्वकाल में ‘हिन्दू’ शब्द सार्थक था और वह सिन्धुनदी के इस पार बसनेवालों के लिए प्रयुक्त होता था, किन्तु इस समय वह सर्वथा निरर्थक है, क्योंकि इस समय सिन्धुनदी के इस पार नाना धर्मावलम्बी बहुतसी जातियाँ बसती हैं।
इसके बाद स्वामीजी ने वेदों के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा – “वेद किसी व्यक्तिविशेष के वाक्य नहीं हैं। पहले कतिपय विचारों का शनैः शनैः विकास हुआ, अन्ततः उन्हें ग्रन्थ का रूप दिया गया, और वह ग्रन्थ प्रमाण बन गया। स्वामीजी ने कहा, – अनेक धर्म इसी भाँति ग्रन्थबद्ध हुए हैं। ग्रन्थों का प्रभाव भी असीम प्रतीत होता है। हिन्दुओं के ग्रन्थ वेद हैं जिन पर अभी हजारों वर्षों तक हिन्दुओं को निर्भर रहना होगा। लेकिन उन्हें वेदों के सम्बन्ध में अपने विचार बदलने होंगे और उन्हें नये सिरे से दृढ़ चट्टान की नींव पर स्थापित करना होगा। वेदों का वाङ्मय विशाल है, किन्तु वेदों का नब्बे प्रतिशत अंश इस समय उपलब्ध नहीं है। विशेष विशेष परिवार में एक एक वेदांश थे। उन परिवारों का लोप हो जाने से वे वेदांश भी लुप्त हो गये, किन्तु जो इस समय भी मिलते हैं, वे भी इस जैसे कमरे में समा नहीं सकते। ये वेद अत्यन्त प्राचीन तथा अति सरल भाषा में लिखे गये हैं। वेदों का व्याकरण भी इतना अस्पष्ट है कि बहुतों के विचार में वेदों के कई अंशों का कोई अर्थ ही नहीं निकलता।
इसके बाद स्वामीजी ने वेद के दो भागों – कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड – की विस्तृत समीक्षा की। कर्मकाण्ड से संहिता और ब्राह्मण का बोध होता है। ब्राह्मणों में यज्ञ आदि का वर्णन है। संहिता अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्, जगती प्रभृति छन्दों में रचित गेय पद हैं। साधारणतः उनमें इन्द्र, वरुण अथवा अन्य किसी देवता की स्तुति है। इस पर प्रश्न यह उठा, ये देवता कौन थे? इनके सम्बन्ध में अनेक मत निर्धारित हुए, किन्तु अन्यान्य मतों द्वारा वे मत खण्डित कर दिये गये। ऐसा बहुत दिनों तक चलता रहा।
इसके बाद स्वामीजी ने उपासनाप्रणाली-सम्बन्धी विभिन्न धारणाओं की चर्चा की। बेबिलोन के प्राचीन निवासियों की आत्मा के सम्बन्ध में यह धारणा थी कि वह केवल एक प्रतिरूप देह (double) मात्र है, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता और वह देह मूल देह से अपना सम्बन्ध कदापि विच्छिन्न नहीं कर सकती। इस ‘प्रतिरूप’ देह को भी मूल देह की भाँति क्षुधा, तृष्णा मनोवृत्ति आदि के विकार होते हैं, ऐसा उनका विश्वास था; साथ ही यह भी विश्वास था कि मृत मूल देह पर किसी प्रकार का आघात करने से ‘प्रतिरूप’ देह भी आहत होगी। मूल देह के नष्ट होने पर ‘प्रतिरूप’ देह भी नष्ट हो जाएगी। इसलिए मृतशरीर की रक्षा करने की प्रथा आरम्भ हुई। इसी से ममी, समाधि, मन्दिर, कब्र आदि की उत्पत्ति हुई। मिस्र और बेबिलोन के निवासी एवं यहूदियों की विचारधारा इससे अधिक अग्रसर न हो सकी, वे आत्मतत्त्व तक नहीं पहुँच सके।
प्रो. मैक्समूलर का कहना है कि ऋग्वेद में पितरपूजा का सामान्य चिह्न भी नहीं दिखाई पड़ता। ममी आँख फाड़े हुए हम लोगों की ओर देख रहे हैं, ऐसा वीभत्स और भयावह दृश्य भी वेदों में नहीं मिलता। देवता मनुष्यों के प्रति मित्रभाव रखते हैं। उपास्य और उपासक का सम्बन्ध सहज और सौम्य है। उसमें किसी प्रकार की म्लानता का भाव नहीं है, उनमें सहज आनन्द और सरल हास्य का अभाव नहीं है। स्वामीजी ने कहा, वेदों की चर्चा करते समय मानो मैं देवताओं की हास्यध्वनि स्पष्ट सुनता हूँ। वैदिक ऋषिगण अपने सम्पूर्ण भाव भाषा में भले ही न प्रकट कर सके हों, किन्तु वे संस्कृति और सहृदयता के आगार थे। हम लोग उनकी तुलना में जंगली हैं।
इसके बाद स्वामीजी ने अपने कथन की पुष्टि में अनेक वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किया। ‘जिस स्थान पर पितृगण निवास करते हैं, उसको उसी स्थान पर ले जाओ – जहाँ कोई दुःख-शोक नहीं है।’ इत्यादि। इसी भाँति इस देश में इस धारणा का आविर्भाव हुआ कि जितनी जल्दी शव जला दिया जाएगा, उतना ही अच्छा है। उनको क्रमशः ज्ञात हो गया कि स्थूल देह के अतिरिक्त एक सूक्ष्म देह है, वह सूक्ष्म देह स्थूल देह के त्याग के पश्चात् एक ऐसे स्थान में पहुँच जाती है, जहाँ केवल आनन्द है, दुःख का नामोनिशान भी नहीं है। सेमेटिक धर्म में भय और कष्ट के भाव प्रचुर हैं। उनकी यह धारणा थी कि यदि मनुष्य ने ईश्वर का दर्शन कर लिया तो वह मर जाएगा। किन्तु ऋग्वेद का भाव यह है कि ईश्वर के साक्षात्कार के पश्चात् ही मनुष्य का यथार्थ जीवन आरम्भ होता है।
अब यह प्रश्न उठा, ये देवता कौन थे? इन्द्र समय समय पर मनुष्यों की सहायता करते हैं। कभी कभी वे अत्यधिक सोम का पान भी करते हैं। स्थान स्थान पर उनके लिए सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी प्रभृति विश्लेषणों का भी प्रयोग हुआ है। वरुण के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार की नाना धारणाएँ हैं। देवों के चरित्र-सम्बन्धी ये सब वर्णनात्मक मन्त्र कहीं कहीं बहुत ही अपूर्व हैं और उनकी भाषा भी अत्यन्त उदात्त है। इसके पश्चात् स्वामीजी ने प्रलयवर्णनात्मक विख्यात नासदीय सूक्त्त – जिसमें अन्धकार का अन्धकार से आवृत होना वर्णित है – सुनाया और कहा, जिन लोगों ने इस समय महान् भावों का इस प्रकार की कविता में वर्णन किया है, वे ही यदि असभ्य और असंस्कृत थे तो फिर हमें अपने को क्या कहना चाहिए? इन ऋषियों की अथवा उनके देवता इन्द्र, वरुण आदि की किसी प्रकार की समालोचना करने या उनके बारे में कोई निर्णय देने में मैं अक्षम हूँ। मानो क्रमागत दृश्य पर दृश्य बदलता चला आ रहा है और सब के पीछे ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ की यवनिका है। इन देवताओं का वर्णन बड़ा ही रहस्यमय, अपूर्व और अति सुन्दर है। वह बिल्कुल अगम्य प्रतीत होता है – पर्दा इतना सूक्ष्म है कि मानो स्पर्श मात्र से ही फट जाएगा और मृगमरीचिका की भाँति लुप्त हो जाएगा।
आगे चलकर स्वामीजी ने कहा – “मुझे एक बात बहुत सम्भव और स्पष्ट मालूम होती है और वह यह है कि युनानियों की भाँति आर्य लोग भी संसार की समस्या हल करने के लिए पहले बाह्य प्रकृति की ओर उन्मुख हुए – सुन्दर रमणीय बाह्य प्रकृति उन्हें भी प्रलोभित करके धीरे धीरे बाह्य जगत् में ले गयी। किन्तु भारत की यही विशेषता है कि जिस वस्तु में कुछ उदात्तता नहीं होती उसका यहाँ कुछ मूल्य ही नहीं होता। मृत्यु के पश्चात् क्या होता है, इसकी यथार्थ तात्त्विक विवेचना साधारणतः यूनानियों के मन में उठी ही नहीं। किन्तु भारत में आरम्भ से ही यह प्रश्न बार बार पूछा जा रहा है – ‘मैं कौन हूँ? मृत्यु के पश्चात् मेरी क्या अवस्था होगी?’ यूनानियों के मत में मनुष्य मरकर स्वर्ग जाता है। स्वर्ग जाने का क्या अर्थ है? सब कुछ के बाहर जाना; भीतर कुछ नहीं है। सब कुछ केवल बाहर है। उनका लक्ष्य केवल बाहर की ओर था, केवल इतना ही नहीं, मानो वे स्वयं भी अपने आप से बाहर थे। और उन्होंने सोचा, जिस समय वे एक ऐसे स्थान में जा पहुँचेंगे जो बहुत कुछ इसी संसार की भाँति है, किन्तु जहाँ इस संसार के दुःखक्लेश का सर्वथा अभाव है, तभी उन्हें ईप्सित सभी वस्तुएँ प्राप्त हो जाएँगी और वे तृप्त हो जाएँगे। उनकी धर्म-सम्बन्धी भावना इसके और ऊपर नहीं उठ सकीं। किन्तु हिन्दुओं का मन इतने से तृप्त नहीं हुआ। उनके विचार में स्वर्ग भी स्थूल जगत् के अन्तर्गत है। हिन्दुओं का मत है कि जो कुछ संयोगोत्पन्न है उसका विनाश अवश्यम्भावी है। उन्होंने बाह्य प्रकृति से पूछा, ‘आत्मा क्या है, इसे क्या तुम जानती हो?’ उत्तर मिला, ‘नहीं’। प्रश्न हुआ, ‘क्या कोई ईश्वर है?’ प्रकृति ने उत्तर दिया, ‘मैं नहीं जानती।’ तब वे प्रकृति से विमुख हो गये और समझने लगे कि बाह्य प्रकृति कितनी ही महान् और भव्य क्यों न हो, वह देश-काल की सीमा से आबद्ध है। तब उन्हें एक अन्य वाणी सुनाई देने लगी – नये उदात्त भावों की धारणा उनके मन में उदित हुई यह वाणी थी ‘नेति, नेति’ – ‘यह नहीं, यह नहीं’ – उस समय विभिन्न देवगण एक हो गये; सूर्य, चन्द्र, तारा, इतना ही क्यों समग्र ब्रह्माण्ड एक हो गया – उस समय इस नूतन आदर्श पर उनके धर्म का आध्यात्मिक आधार प्रतिष्ठित हुआ।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥1
‘वहाँ सूर्य प्रकाशित नहीं होता, न चन्द्र, न तारा, न विद्युत्, फिर इस भौतिक अग्नि का तो कहना ही क्या! उसी के प्रकाशमान होने से सब कुछ प्रकाशित होता है, उसके प्रकाश से ही सब चीजें प्रकाशित हैं।’ उस सीमाबद्ध, अपरिपक्व व्यक्तिविशेष, सब के पाप-पुण्यों का विचार करनेवाले क्षुद्र ईश्वर की धारणा शेष नहीं रही, अब बाहर का अन्वेषण समाप्त हुआ, अपने भीतर अन्वेषण आरम्भ हुआ। इस भाँति उपनिषद् भारत के बाइबिल हो गये। इन उपनिषदों का यह विशाल साहित्य है। और भारत में जो विभिन्न मतवाद प्रचलित हैं, सभी उपनिषदों की भित्ति पर प्रतिष्ठित हुए।
इसके बाद स्वामीजी ने द्वैत, विशिष्टाद्वैत, अद्वैत मतों का वर्णन करके उनके सिद्धान्तों का निम्नलिखित कथन से समन्वय किया। उन्होंने कहा : इनमें प्रत्येक मानो एक एक सोपान है – एक सोपान पर चढ़ने के बाद परवर्ती सोपान पर चढ़ना होता है, सब के अन्त में अद्वैतवाद की स्वाभाविक परिणति है और अन्तिम सोपान है ‘तत्त्वमसि’। उन्होंने बताया कि प्राचीन भाष्यकार शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य आदि भी उपनिषद् को ही एकमात्र प्रमाण मानते थे, तथापि सभी इस भ्रम में पड़े थे कि उपनिषद् एक ही मत की शिक्षा देते हैं। सब ने गलतियाँ की हैं। शंकराचार्य इस भ्रम में पड़े थे कि सब उपनिषदों में केवल अद्वैतवाद की शिक्षा है, दूसरा कुछ है ही नहीं। इसलिए जिस स्थान पर स्पष्ट द्वैतभावात्मक श्लोक मिलते हैं, उन्होंने अपने मत की पुष्टि के लिए खींच-तानकर उनका विकृत अर्थ किया। रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य ने भी शुद्ध अद्वैतभाव प्रतिपादक वेदांशों की द्वैतपरक व्याख्या करके वैसी ही भूल की है। यह सर्वथा सत्य है कि उपनिषद् एक तत्त्व की शिक्षा देते हैं, किन्तु इस तत्त्व में सोपानारोहण की भाँति शिक्षा दी गयी है। इसके बाद स्वामीजी ने कहा कि यह खेद की बात है कि वर्तमान भारत में धर्म का मूलतत्त्व नहीं रह गया है, सिर्फ थोड़े बाह्य अनुष्ठान मात्र शेष बचे हैं। भारतवासी इस समय न तो हिन्दू ही हैं और न वेदान्ती ही। वे केवल छुआछूत मत के पोषक हैं। रसोईघर ही उनके मन्दिर हैं और रसोई की हँड़िया और बर्तन ही उनके देवता हैं। इस स्थिति का अन्त होना ही चाहिए; और जितना शीघ्र इसका अन्त हो, उतना ही हमारे धर्म के लिए अच्छा है। उपनिषद् अपनी महिमा में उद्भासित हों और साथ ही विभिन्न सम्प्रदाओं में चल रहे विवाद की इति भी हो जाए।
शरीर स्वस्थ न होने से इतना ही बोलकर स्वामीजी थक गये। अतः उन्होंने आधे घण्टे विश्राम किया। उनके व्याख्यान का शेषांश सुनने के लिए श्रोतागण इस बीच धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते रहे। स्वामीजी बाहर आये और उन्होंने फिर आधे घण्टे भाषण किया। उन्होंने समझाया कि बहुत्व में एकत्व की खोज को ही ज्ञान कहते हैं और किसी विज्ञान का चरम उत्कर्ष तब माना जाता है, जब सारे अनेकत्व में इस एकत्व का अनुसन्धान पूरा हो जाता है। यह नियम भौतिक विज्ञान तथा आध्यात्मिक विज्ञान दोनों पर समान रूप से लागू होता है।
- कठोपनिषद् ३।१॥