वह धर्म जिसमें हम पैदा हुए – स्वामी विवेकानंद
३१ मार्च १९०१ को ढाका में एक सभा का आयोजन खुले मैदान में किया गया था। स्वामी विवेकानंद ने इस सभा में “वह धर्म जिसमें हम पैदा हुए” विषय पर अंग्रेजी में दो घण्टे व्याख्यान दिया। श्रोताओं की बहुत बड़ी भीड़ एकत्र थी। एक शिष्य ने उक्त भाषण की रिपोर्ट बँगला में तैयार की, जिसका हिन्दी रूपान्तर निम्नलिखित है:
प्राचीन काल में हमारे देश में आध्यात्मिक भाव की अतिशय उन्नति हुई थी। हमें आज वही प्राचीन गाथा स्मरण करनी होगी। किन्तु प्राचीन गौरव के अनुचिन्तन में सब से बड़ी आपत्ति यह है कि हम कोई नवीन काम करना पसन्द नहीं करते और केवल अपने प्राचीन गौरव के स्मरण और कीर्तन से ही सन्तुष्ट होकर अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लग जाते हैं। हमें इस सम्बन्ध में सावधान रहना चाहिए। यह सही है कि प्राचीन काल में ऐसे अनेक ऋषि-महर्षि थे जिन्हें सत्य का साक्षात्कार हुआ था। किन्तु प्राचीन गौरव के स्मरण से वास्तविक उपकार तभी होगा, जब हम भी उनके सदृश ऋषि हो सकें। केवल इतना ही नहीं, मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि हम और भी श्रेष्ठ ऋषि हो सकेंगे। भूतकाल में हमारी खूब उन्नति हुई थी – मुझे उसे स्मरण करते हुए बड़े गौरव का अनुभव होता है। वर्तमान अवनत अवस्था को देखकर भी मैं दुःखी नहीं होता और भविष्य में जो होगा, उसकी कल्पना कर मैं आशान्वित होता हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि मैं जानता हूँ कि बीज का सम्पूर्ण रूपान्तरण होना आवश्यक होता है; हाँ, जब बीज का बीज-भाव नष्ट होगा, तभी वह वृक्ष हो सकेगा। इसी प्रकार हमारी वर्तमान अवनत अवस्था के भीतर ही, चाहे थोड़े समय के लिए ही, भविष्य की हमारी धार्मिक महानता की सम्भावनाएँ प्रसुप्त हैं जो अधिक शक्तिशाली एवं गौरवशाली रूपों में उठ खड़ी होने के लिए तत्पर हैं।
अब हमें विचार करना चाहिए कि जिस धर्म में हमने जन्म लिया है, उसमें सहमत होने के लिए समान भूमियाँ क्या हैं? ऊपर से विचार करने पर हमें पता चलता है कि हमारे धर्म में नाना प्रकार के विरोध हैं। कुछ लोग अद्वैतवादी, कुछ विशिष्टाद्वैतवादी और कुछ द्वैतवादी हैं। कोई अवतार मानते हैं, कोई मूर्तिपूजा में विश्वास रखते हैं तो कोई निराकारवादी हैं। आचार के सम्बन्ध में भी नाना प्रकार की विभिन्नताएँ दिखाई पड़ती हैं। जाट लोग मुसलमान या ईसाई की कन्या से विवाह करने पर भी जातिच्युत नहीं होते। वे बिना किसी विरोध के सब हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश कर सकते हैं। पंजाब के अनेक गाँवों में जो व्यक्ति सूअर का मांस नहीं खाता, उसे लोग हिन्दू समझते ही नहीं। नेपाल में ब्राह्मण चारों वर्णों में विवाह कर सकता है, जब कि बंगाल में ब्राह्मण अपनी जाति की अन्य शाखाओं में भी विवाह नहीं कर सकता। इसी प्रकार की और भी विभिन्नताएँ देखने में आती हैं। किन्तु इन सभी विभिन्नताओं के बावजूद एक विषय में सभी में एकता है और वह यह कि कोई भी हिन्दू गोमांस-भक्षण नहीं करता। इसी प्रकार हमारे धर्म के बहुविध पन्थों और सम्प्रदायों में भी एकता की एक समान भूमि है।
पहले तो शास्त्रों की आलोचना करते समय एक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आता है कि केवल उन्हीं धर्मों ने उत्तरोत्तर उन्नति की, जिनके पास अपने एक या अनेक शास्त्र थे, फिर चाहे उन पर कितने ही अत्याचार किये गये हों। यूनानी धर्म अपनी विशिष्ट सुन्दरताओं के होते हुए भी शास्त्र के अभाव में लुप्त हो गया, जब कि यहूदी धर्म अपने आदि धर्मग्रन्थ (Old Testament) के बल पर आज भी अक्षुण्ण रूप से प्रभावशाली है। संसार के सब से प्राचीन ग्रन्थ वेद पर आधारित होने के कारण यही हाल हिन्दू धर्म का भी है। वेद के दो भाग हैं – कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। भारतवर्ष के सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य से कर्मकाण्ड का आजकल लोप हो गया है, हालाँकि दक्षिण में अब भी कुछ ब्राह्मण कभी कभी अजा-बलि देकर यज्ञ करते हैं, और हमारे विवाह-श्राद्धादि के मन्त्रों में भी वैदिक क्रियाकाण्ड का आभास दिखाई पड़ जाता है। इस समय उसे पूर्व की भाँति पुनः प्रतिष्ठित करने का उपाय नहीं है। कुमारिल भट्ट ने एक बार चेष्टा की थी, किन्तु वे अपने प्रयत्न में असफल ही रहे। इसके बाद ज्ञानकाण्ड है, जिसे उपनिषद्, वेदान्त या श्रुति भी कहते हैं। आचार्य लोग जब कभी श्रुति का कोई वाक्य उद्धृत करते हैं तो वह उपनिषद् का ही होता है। यही वेदान्त धर्म इस समय हिन्दुओं का धर्म है। यदि कोई सम्प्रदाय सिद्धान्तों की दृढ़ प्रतिष्ठा करना चाहता है तो उसे वेदान्त का ही आधार लेना होगा। द्वैतवादी अथवा अद्वैतवादी सभी को उसी आधार की शरण लेनी होगी। यहाँ तक कि वैष्णवों को भी अपने सिद्धान्तों की सत्यता सिद्ध करने के लिये गोपालतापनी उपनिषद् की शरण लेनी पड़ती है। यदि किसी नये सम्प्रदाय को अपने सिद्धान्तों के पुष्टिकारक वचन उपनिषद् में नहीं मिलते तो वे एक नये उपनिषद् की रचना करके उसे व्यवहृत करने का यत्न करते हैं। अतीत में इसके कतिपय उदाहरण मिलते हैं।
वेदों के सम्बन्ध में हिन्दुओं की यह धारणा है कि वे प्राचीन काल के किसी व्यक्तिविशेष की रचना अथवा ग्रन्थ मात्र नहीं है। वे उसे ईश्वर की अनन्त ज्ञानराशि मानते हैं जो किसी समय व्यक्त और किसी समय अव्यक्त रहती है। टीकाकार सायणाचार्य ने एक स्थान पर लिखा है, “यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् निर्ममे” – जिसने वेदज्ञान के प्रभाव से सारे जगत् की सृष्टि की है। वेद के रचयिता को कभी किसी ने नहीं देखा। इसलिए इसकी कल्पना करना भी असम्भव है। ऋषि लोग उन मन्त्रों अथवा शाश्वत नियमों के मात्र अन्वेषक थे। उन्होंने आदि काल से स्थित ज्ञानराशि वेदों का साक्षात्कार किया था।
ये ऋषिगण कौन थे? वात्स्यायन कहते हैं, जिसने यथाविहित धर्म की प्रत्यक्ष अनुभूति की है, केवल वही ऋषि हो सकता है, चाहे वह जन्म से म्लेच्छ ही क्यों न हो। इसीलिए प्राचीन काल में जारज-पुत्र वशिष्ठ, धीवरतनय व्यास, दासीपुत्र नारद प्रभृति ऋषि कहलाते थे। सच्ची बात यह है कि सत्य का साक्षात्कार हो जाने पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रह जाता। उपर्युक्त व्यक्ति यदि ऋषि हो सकते हैं तो, हे आधुनिक कुलीन ब्राह्मण, तुम सभी और भी उच्च ऋषि हो सकते हो। इसी ऋषित्व के लाभ करने की चेष्टा करो, अपना लक्ष्य प्राप्त करने तक रुको नहीं, समस्त संसार तुम्हारे चरणों के सामने स्वयं ही नत हो जाएगा।
ये वेद ही हमारे एकमात्र प्रमाण है और इन पर सब का अधिकार है।
“यथेमां वाचं कल्याणीमावादानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वीय चारणाय॥”1
क्या तुम हमें वेद में ऐसा कोई प्रमाण दिखला सकते हो, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि वेद में सब का अधिकार नहीं है? पुराणों में अवश्य लिखा है कि वेद की अमुक शाखा में अमुक जाति का अधिकार है या अमुक अंश सत्ययुग के लिए और अमुक अंश कलियुग के लिए है। किन्तु, ध्यान रखो, वेद में इस प्रकार का कोई जिक्र नहीं है, ऐसा केवल पुराणों में ही है। क्या नौकर कभी अपने मालिक को आज्ञा दे सकता है? स्मृति, पुराण, तन्त्र – ये सब वहीं तक ग्राह्य हैं, जहाँ तक वे वेद का अनुमोदन करते हैं। ऐसा न होने पर उन्हें अविश्वसनीय मानकर त्याग देना चाहिए। किन्तु आजकल हम लोगों ने पुराणों को वेद की अपेक्षा श्रेष्ठ समझ रखा है। वेदों की चर्चा तो बंगाल प्रान्त में लुप्त ही हो गयी है। मैं वह दिन शीघ्र देखना चाहता हूँ, जिस दिन प्रत्येक घर में गृहदेवता शालग्राम की मूर्ति के साथ साथ वेद की भी पूजा होने लगेगी, जब बच्चे, बूढ़े और स्त्रियाँ वेद-अर्चना का शुभारम्भ करेंगे।
वेदों के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों के सिद्धान्तों में मेरा विश्वास नहीं है। आज वेदों का समय वे कुछ निश्चित करते हैं और कल उसे बदलकर फिर एक हजार वर्ष पीछे घसीट ले जाते हैं। पुराणों के विषय में हम ऊपर कह आये हैं कि वे वहीं तक ग्राह्य हैं, जहाँ तक वेदों का समर्थन करते हैं। पुराणों में ऐसी अनेक बातें हैं जो वेदों के साथ मेल नहीं खाती। उदाहरण के लिए पुराण में लिखा है कि कोई व्यक्ति दस हजार वर्ष तक और कोई दूसरे बीस हजार वर्ष तक जीवित रहे; किन्तु वेदों में लिखा है – “शतायुर्वै पुरुषः”। इनमें से हमारे लिए कौनसा मत स्वीकार्य है? निश्चय ही वेद। इस प्रकार के कथनों के बावजूद मैं पुराणों की निन्दा नहीं करता। उनमें योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म की अनेक सुन्दर सुन्दर बातें देखने में आती हैं, और हमें उन सभी को ग्रहण करना ही चाहिए। इसके बाद हैं तन्त्र। तन्त्र का वास्तविक अर्थ है शास्त्र, जैसे कापिल तन्त्र। किन्तु तन्त्र शब्द प्रायः सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। बौद्ध धर्मावलम्बी एवं अहिंसा के प्रचारक-प्रसारक नृपतियों के शासन-काल में वैदिक याग-यज्ञों का लोप हो गया। तब राजदण्ड के भय से कोई जीवहिंसा नहीं कर सकता था। किन्तु कालान्तर में बौद्ध धर्म में ही इन याग-यज्ञों के श्रेष्ठ अंश गुप्त रूप से सम्मिलित हो गये। इसी से तन्त्रों की उत्पत्ति हुई। तन्त्रों में वामाचार प्रभृति बहुतसे अंश खराब होने पर भी, तन्त्रों को लोग जितना खराब समझते हैं, वे उतने खराब नहीं हैं। उनमें वेदान्त-सम्बन्धी कुछ उच्च एवं सूक्ष्म विचार निहित हैं। वास्तविक बात तो यह है कि वेदों के ब्राह्मण भाग को ही कुछ परिवर्तित कर तन्त्रों में समाहित कर लिया गया था। वर्तमान काल की पूजाविधियाँ और उपासनापद्धति तन्त्रों के अनुसार होती हैं।
अब हमें अपने धर्म के सिद्धान्तों पर भी थोड़ा विचार करना चाहिए। हमारे धर्म के सम्प्रदायों में अनेक विभिन्नताएँ एवं अन्तर्विरोध होते हुए भी एकता के अनेक क्षेत्र हैं। प्रथम, सभी सम्प्रदाय तीन चीजों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं – ईश्वर, आत्मा और जगत्। ईश्वर वह है, जो अनन्त काल से सम्पूर्ण जगत् का सर्जन, पालन और संहार करता आ रहा है। सांख्य दर्शन के अतिरिक्त सभी इस सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं। इसके बाद आत्मा का सिद्धान्त और पुनर्जन्म की बात आती है। इसके अनुसार असंख्य जीवात्माएँ बार बार अपने कर्मों के अनुसार शरीर धारण कर जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमती रहती हैं। इसी को संसारवाद या प्रचलित रूप से पुनर्जन्मवाद कहते हैं। इसके बाद यह अनादि अनन्त जगत् है। यद्यपि कुछ लोग इन तीनों को भिन्न भिन्न मानते हैं तथा कुछ इन्हें एक ही के भिन्न भिन्न तीन रूप और कुछ अन्य प्रकारों से इनका अस्तित्व स्वीकार करते हैं, पर इन तीनों का अस्तित्व ये सभी मानते हैं।
यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि चिरकाल से हिन्दू आत्मा को मन से पृथक् मानते आ रहे हैं। पाश्चात्य विद्वान मन के परे किसी चीज की कल्पना नहीं कर सकते। वे लोग जगत् को आनन्दपूर्ण मानते हैं और इसीलिए उसे मौज मारने की जगह समझते हैं। जब कि प्राच्य लोगों की जन्म से ही यह धारणा होती है कि यह संसार नित्य परिवर्तनशील तथा दुःखपूर्ण है। और इसीलिए यह मिथ्या के सिवा कुछ नहीं है और न ही इसके क्षणिक सुखों के लिए आत्मा का धन गँवाया जा सकता है। इसी कारण पाश्चात्य लोग संघबद्ध कर्म में विशेष पटु हैं और प्राच्य लोग अन्तर्जगत् के अन्वेषण में ही विशेष साहस दिखाते हैं।
जो कुछ भी हो, यहाँ अब हमें हिन्दू धर्म की दो-एक और बातों पर विचार करना आवश्यक है। हिन्दुओं में अवतारवाद प्रचलित है। वेदों में हमें केवल मत्स्यावतार का ही उल्लेख मिलता है। सभी लोग इस पर विश्वास करते हैं या नहीं, यह कोई विचारणीय विषय नहीं है। पर इस अवतारवाद का वास्तविक अर्थ है मनुष्य-पूजा – मनुष्य के भीतर ईश्वर को साक्षात् करना ही ईश्वर का वास्तविक साक्षात्कार करना है। हिन्दू प्रकृति के द्वारा प्रकृति के ईश्वर तक नहीं पहुँचते – मनुष्य के द्वारा मनुष्य के ईश्वर के निकट जाते हैं।
इसके बाद है मूर्तिपूजा। शास्त्रों में विहित हर एक शुभ कर्म में उपास्य पंचदेवताओं के अतिरिक्त अन्य देवता केवल उनके द्वारा अधिष्ठित पदों के भिन्न भिन्न नाम मात्र हैं। किन्तु ये पाँचों उपास्य देवता भी उसी एक भगवान के भिन्न भिन्न नाम मात्र हैं। यह बाह्य मूर्तिपूजा हमारे सब शास्त्रों में अधमतम कोटि की पूजा मानी गयी है, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मूर्तिपूजा करना गलत है। वर्तमान समय में प्रचलित इस मूर्तिपूजा के भीतर नाना प्रकार के कुत्सित भावों के प्रवेश कर लेने पर भी, मैं उसकी निन्दा नहीं कर सकता। यदि उसी कट्टर मूर्तिपूजक ब्राह्मण (श्रीरामकृष्ण परमहंस) की पदधूलि से मैं पुनीत न बनता तो आज मैं कहाँ होता?
वे सुधारक जो मूर्तिपूजा के विरुद्ध प्रचार करते हैं अथवा उसकी निन्दा करते हैं, उनसे मैं कहूँगा कि “भाइयों, यदि तुम बिना किसी सहायता के निराकार ईश्वर की उपासना कर सकते हो तो तुम भले ही वैसा करो, किन्तु जो लोग ऐसा नहीं कर सकते हैं, उनकी निन्दा क्यों करते हो? प्राचीनतम समय की गौरवान्वित स्मृतिचिह्नरूप एक सुन्दर एवं भव्य इमारत उपेक्षा या अव्यवहार के कारण जर्जर हो गयी है। यह हो सकता है कि उसमें हर कहीं धूल जमी हुई है, यह भी हो सकता है कि उसके कुछ हिस्से जमीन पर भहरा पड़े हों। पर तुम उसे क्या करोगे? क्या तुम उसकी सफाई-मरम्मत करके उसकी पुरानी धज लौटा दोगे या उस इमारत को गिराकर उसके स्थान पर एक सन्दिग्ध स्थायित्व वाले कुत्सित आधुनिक योजना के अनुसार कोई दूसरी इमारत खड़ी करोगे? हमें उसका सुधार करना होगा, इसका अर्थ है उसकी उचित सफाईमरम्मत करना, न कि उसे ध्वस्त कर देना। यहीं पर सुधार का काम समाप्त हो जाता है। यदि ऐसा कर सकते हो तो करो, अन्यथा दूर रहो। जीर्णोद्धार हो जाने पर उसकी और क्या आवश्यकता?” किन्तु हमारे देश के सुधारक एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय का संगठन करना चाहते हैं। तो भी उन्होंने बड़ा कार्य किया है। ईश्वर के आशीर्वादों की उनके सिर पर वर्षा हो। किन्तु तुम लोग अपने को क्यों महान् समुदाय से पृथक् करना चाहते हो? हिन्दू नाम लेने ही से क्यों लज्जित होते हो – जो कि तुम लोगों की महान् और गौरवपूर्ण सम्पत्ति है? ओ अमरपुत्रों, मेरे देशवासियों, यह हमारा जातीय जहाज युगों तक मुसाफिरों को ले आता, ले जाता रहा है और इसने अपनी अतुलनीय सम्पदा से संसार को समृद्ध बनाया है। अनेक गौरवपूर्ण शताब्दियों तक हमारा यह जहाज जीवन-सागर में चलता रहा है और करोड़ों आत्माओं को उसने दुःख से दूर संसार के उस पार पहुँचाया है। आज शायद उसमें एक छेद हो गया हो और इससे वह क्षत हो गया हो, यह चाहे तुम्हारी अपनी गलती से या चाहे किसी और कारण से। तुम जो इस जहाज पर चढ़े हुए हो, अब क्या करोगे? क्या तुम दुर्वचन कहते हुए आपस में झगड़ोगे? क्या तुम सब मिलकर उस छेद को बन्द करने की पूर्ण चेष्टा नहीं करोगे? हम सब लोगों को प्रसन्नता से अपने हृदय का रक्त देकर यह कार्य करना चाहिए। अगर हम यह न कर सकें तो हम एकसाथ डूब मरें, किन्तु हमारे ओठों पर निन्दा-शाप नहीं, कृतज्ञता के शब्द हो!
और ब्राह्मणों से भी मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारा जन्मगत तथा वंशगत अभिमान मिथ्या है, उसे छोड़ दो। शास्त्रों के अनुसार तुममें भी अब ब्राह्मणत्व शेष नहीं रह गया, क्योंकि तुम भी इतने दिनों से म्लेच्छ राज्य में रह रहे हो। यदि तुम लोगों को अपने पूर्वजों की कथाओं में विश्वास है तो जिस प्रकार प्राचीन कुमारिल भट्ट ने बौद्धों के संहार करने के अभिप्राय से पहले बौद्धों का शिष्यत्व ग्रहण किया, पर अन्त में उनकी हत्या के प्रायश्चित्त के लिए उन्होंने तुषाग्नि में प्रवेश किया, उसी प्रकार तुम भी तुषाग्नि में प्रवेश करो। यदि ऐसा न कर सको तो अपनी दुर्बलता स्वीकार कर लो। और सभी के लिए ज्ञान का द्वार खोल दो और पददलित जनता को उनका उचित एवं प्रकृत अधिकार दे दो।
- शुक्ल यजुर्वेद, माध्यन्दिन शाखा, अध्याय २६, मंत्र २