स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री बलराम बसु को लिखित (14 फरवरी, 1890)
(स्वामी विवेकानंद का श्री बलराम बसु को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
द्वारा सतीश मुकर्जी,
गोराबाजार, गाजीपुर,
१४ फरवरी, १८९०
पूज्यपाद,
मुझे आपका वेदनापूर्ण पत्र मिला। मैं अभी यहाँ से शीघ्र न जा सकूँगा। बाबाजी (पवहारी बाबा) का अनुरोध ठुकरा देना असम्भव है। आपको इस बात का पछतावा है कि आपने साधुओं की सेवा कर कोई बड़ा लाभ नहीं उठाया। यह सच है, और नहीं भी। आदर्श आनन्द की दृष्टि से तो यह सच है, परन्तु यदि आप साधनारम्भ की दशा की ओर सिंहावलोकन करें, तो आपको मालूम होगा कि पहले आप पशु थे, अब मानव हैं और आगे चलकर एक देवता अथवा स्वयं ईश्वर हो जायेंगे। आपका इस प्रकार का पाश्चात्ताप और असंतोष आपकी भावी उन्नति का सूचक है, क्योंकि उसके बिना उन्नति होना असम्भव है। जो चुटकी बजाते ही ईश्वर का दर्शन पा लेता है, उसके लिए इसके आगे उन्नति का रास्ता बन्द समझिए। इस प्रकार का असन्तोष कि ‘क्या लाभ हुआ, क्या लाभ हुआ’ – तो एक वरदान है। विश्वास कीजिए, कोई भय की बात नहीं है।… आप स्वयं बड़े समझदार हैं। और आप भली भाँति जानते हैं कि धैर्य ही सफलता की कुंजी है। इस बारे में यह कहने में मुझे कोई शंका नहीं कि हम जैसे अपरिपक्व बुद्धिवाले बालकों को आपसे बहुत कुछ सीखना है। अक्लमंद को इशारा काफी है। आदमी के कान तो दो होते हैं, पर मुँह एक ही होता है। विशेषकर आप स्पष्ट वक्ता हैं और बड़े बड़े वादे करने के पक्ष में नहीं हैं। जब कभी मैंने आपका विरोध किया, तो विचार करने पर मैंने आपको ही विवेकशील पाया है। Slow but sure, (धीरे, किन्तु निश्चित रूप से)। What is lost in power is gained in speed.(जो शक्ति का अपव्यय सा प्रतीत होता है, वास्तव में वह गति की मात्रा बढ़ने में काम आता है)। फिर भी इस संसार में सब कुछ शब्दों पर ही निर्भर है। किसी भी व्यक्ति के शब्दों में निहित भावों को – विशेषतः आप जैसे मितभाषी के भावों को – अन्तःकरण तक लाने के लिए उनके साथ कुछ दिन तक सहवास करना चाहिए।… पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि धर्म सम्प्रदायविशेष में अथवा बाह्याडम्बर में नहीं है। गुरुदेव के इस उपदेश को आप क्यों भूल जाते हैं? कृपया अपनी शक्ति भर साधना करने का प्रयत्न कीजिए, परन्तु उससे होने वाले लाभ या हानि का निर्णय अपने अधिकार से बाहर की बात है।… गिरीश बाबू को बहुत बड़ा धक्का लगा है, इस समय माताजी की सेवा करने से उन्हें बहुत शांति मिलेगी। वे कुशाग्रबुद्धि हैं। गुरुदेव को आप में पूर्ण विश्वास था। सिवाय आपके यहाँ वे और कहीं अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। मैंने सुना है कि माताजी का भी आप पर पूर्ण विश्वास है। इन बातों पर विचार करके आप हम जैसे चंचलबुद्धि बालकों को अपने ही बच्चे समझकर हमारे दोषों को क्षमा करेंगे – अधिक और क्या लिखूँ?
वार्षिकोत्सव की तिथि की सूचना कृपया वापसी डाक से भेजिए। मैं इस समय कमर की पीड़ा से परेशान हूँ। कुछ ही दिनों में यह स्थान बहुत ही रमणीक हो जायेगा; वहाँ मीलों तक खिले हुए गुलाबों की क्यारियों की शोभा दृष्टिगोचर होगी। सतीश कहते हैं कि वे तब कुछ ताजा गुलाब के फूल और डालियाँ उत्सव के लिए भेजेंगे। भगवान् करे, आपका पुत्र कायर न हो, मनुष्य बने।…
आपका,
नरेन्द्र
पुनश्च – माताजी आ गयी हों, तो उनसे मेरा कोटि कोटि प्रणाम कहिए और उनसे मुझे यह आशीर्वाद-प्रार्थना कीजिए – या तो मैं अटल अध्यवसायी रहूँ या यदि मेरे शरीर से यह सम्भव न हो, तो इसका शीघ्र अवसान हो जाय।
आपका,
नरेन्द्र