स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी अखण्डानन्द को लिखित (मार्च, 1890)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी अखण्डानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
गाजीपुर,
मार्च, १८९०
प्राणाधिकेषु,
अभी अभी तुम्हारा एक और पत्र मिला, लिखावट स्पष्ट न होने के कारण समझने में अत्यन्त कठिनाई हुई। पहले के पत्र में ही मैं सब कुछ लिख चुका हूँ। पत्र के देखते ही तुम चले आना। नेपाल होकर तिब्बत जाने के मार्ग के बारे में तुमने जो लिखा है, उसे मैं जानता हूँ। जिस प्रकार साधारणतया किसी को तिब्बत में नहीं जाने दिया जाता है, उसी प्रकार नेपाल में भी उसकी राजधानी काठमण्डू तथा दो-एक तीर्थों को छोड़कर अन्यत्र कहीं किसी को नहीं जाने दिया जाता है।
किन्तु इस समय मेरे एक मित्र नेपाल के राजा के तथा राजकीय विद्यालय के शिक्षक हैं, उनसे पता चला है कि जब नेपाल से चीन को प्रतिवर्ष राज-कर जाता है, तब वह ल्हासा होकर जाता है। कोई साधु विशेष प्रयत्न से उसी तरह ल्हासा, चीन तथा मंचूरिया (उत्तर चीन) स्थित तारा देवी के पीठस्थान तक गया था। मेरे उक्त मित्र के प्रयास करने पर हम भी मर्यादा तथा सम्मान के साथ तिब्बत, ल्हासा तथा चीन इत्यादि सब कुछ देख सकेंगे। अतः शीघ्र ही तुम गाजीपुर चले आओ। यहाँ पर कुछ दिन बाबाजी के समीप ठहरकर, उक्त मित्र से पत्र-व्यवहार कर अवश्य ही मैं नेपाल होकर तिब्बत जाऊँगा। किमधिकमिति। दिलदारनगर स्टेशन पर उतरकर गाजीपुर आना पड़ता है। दिलदारनगर मुगलसराय स्टेशन से तीन-चार स्टेशन बाद है। यदि यहाँ आने के निमित्त तुम्हारे लिए किराया जुटाना सम्भव होता, तो मैं अवश्य भेजता; अतः तुम स्वयं ही इसकी व्यवस्था कर चले आना। गगन बाबू – जिनके यहाँ मैं हूँ – इतने सज्जन, उदार तथा हृदयवान व्यक्ति हैं कि मैं क्या लिखूँ। काली को ज्वर हो गया है, सुनकर तत्काल ही उन्होंने हृषीकेश में उसके लिए किराया भेज दिया तथा मेरे लिए भी उन्होंने काफी खर्च उठाया है। ऐसी दशा में काश्मीर के किराये के लिए पुनः उन पर बोझ डालना संन्यासी का धर्म नहीं, यह सोचकर मैं विरत हो गया हूँ। किराये की व्यवस्था कर तुम पत्र देखते ही चले आना। अमरनाथ दर्शन का आग्रह अब स्थगित रखना ही ठीक है। इति।
नरेन्द्र