स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री हरिपद मित्र को लिखित (28 दिसम्बर, 1893)

(स्वामी विवेकानंद का श्री हरिपद मित्र को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय

द्वारा जॉर्ज डब्ल्यू. हेल,
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२८ दिसम्बर, १८९३

प्रिय हरिपद,

तुम्हारा पत्र कल मिला। तुम लोग अभी तक मुझे भूले नहीं, यह जानकर मुझे परम आनन्द हुआ। यह बहुत ही

आश्चर्य की बात है कि मेरे शिकागो के व्याख्यानों का समाचार भारतीय समाचारपत्रों में निकल चुका है; क्योंकि जो कुछ मैं करता हूँ, उसमें लोक-प्रसिद्धि से बचने का भरसक प्रयत्न अवश्य करता हूँ। मुझे कई बातें यहाँ विचित्र जान पड़ती हैं। यह कहने में कुछ अत्युक्ति न होगी कि इस देश में दरिद्रता बिल्कुल नहीं है। मैंने इस देश की जैसी महिलाएँ और कहीं नहीं देखीं। हमारे देश में सज्जन हैं, परन्तु इस देश की महिलाओं की जैसी महिलाएँ बहुत ही थोड़ी हैं, यह सही बात है कि सुकृती पुरुषों के घर में भगवती स्वयं श्रीरूप में निवास करती हैं – या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेषु1। मैंने यहाँ हजारों महिलाएँ देखीं, जिनके हृदय हिम के समान पवित्र और निर्मल हैं। अहा! वे कैसी स्वतंत्र होती हैं! सामाजिक और नागरिक कार्यों का वे ही नियन्त्रण करती हैं। पाठशालाएँ और विद्यालय महिलाओं से भरे हैं और हमारे देश में महिलाओं के लिए राह चलना भी निरापद नहीं! और ये कितनी दयालु हैं! जब से मैं यहाँ आया हूँ, इन्होंने अपने घरों में मुझे स्थान दिया है, मेरे भोजन का प्रबन्ध करती हैं, व्याख्यानों का प्रबन्ध करती हैं, मुझे बाजार ले जाती हैं और मेरे आराम और सुविधा के लिए क्या नहीं करतीं – मैं किस प्रकार वर्णन करूँ। हजारों जन्मों में इनकी सेवा करने पर भी मैं इनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।

क्या तुम जानते हो कि शाक्त का अर्थ क्या है? शाक्त होने का अर्थ शराब, भंग का सेवन नहीं। जो ईश्वर को समग्र जगत् में महाशक्ति के रूप में जानता है और जो स्त्रियों में इस शक्ति का प्रकाश मानता है, वही शाक्त है। यहाँ लोग स्त्रियों को इसी रूप में देखते हैं। मनु महाराज ने भी कहा है कि जिन परिवारों में स्रियों से अच्छा व्यवहार किया जाता है और वे सुखी हैं, उन पर देवताओं का आशीर्वाद रहता है – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः2। यहाँ के पुरुष ऐसा ही करते हैं और इसीलिए ये सुखी, विद्वान, स्वतन्त्र और उद्योगी हैं। और हम लोग स्री-जाति को नीच, अधम, महा हेय एवं अपवित्र कहते है, फल हुआ – हम लोग पशु, दास, उद्यमहीन एवं दरिद्र हो गये।

इस देश के धन के बारे में क्या कहूँ? पृथ्वी में इनके समान धनी अन्य कोई जाति नहीं। अंग्रेजी लोग धनी हैं, किन्तु उनमें अनेक गरीब भी हैं। इस देश में गरीब नहीं के समान हैं। एक नौकर रखने पर खाने-पीने के सिवा प्रतिदिन छः रुपये देने पड़ते हैं। इंग्लैण्ड में प्रतिदिन एक रुपया देना पड़ता है। एक मजदूर छः रुपये रोज से कम काम नहीं करता। किन्तु खर्च भी वैसा ही है। चार आने से कम कीमत में एक रद्दी चुरुट भी नहीं मिलेगा। चौबीस रुपये में एक जोड़ा मजबूत जूता मिलेगा। जैसी कमाई, वैसा ही खर्च। ये लोग जिस तरह कमाते हैं, खर्च भी उसी प्रकार करते हैं।

और यहाँ की नारियाँ कैसी पवित्र हैं! २५ या ३० वर्ष की आयु के पहले किसी का विवाह नहीं होता। गगनचारी पक्षी की भाँति ये स्वतन्त्र हैं। हाट बाजार, रोजगार, दूकान, कॉलेज, प्रोफेसर – सर्वत्र सब काम करती हैं, फिर भी कितनी पवित्र हैं! जिनके पास पैसे हैं, वे रातदिन गरीबों की भलाई में तत्पर रहती हैं। और हम क्या कर रहे हैं? ११ वर्ष की आयु में विवाह न होने पर मेरी लड़की खराब हो जायगी! हमारे मनु जी हमें क्या आज्ञा दे गये हैं? ‘पुत्रियों का भी इसी तरह अत्यंत यत्न के साथ पालन और शिक्षण होना चाहिए’ – कन्याप्येवं पालनीया शिक्षणीयातियत्नतः। जैसे ३० वर्ष तक ब्रह्मचर्य-पालन-पूर्वक पुत्रों की शिक्षा होनी चाहिए, इसी तरह पुत्रियों की भी शिक्षा होनी चाहिए। परन्तु हम कर क्या रहे हैं? क्या तुम अपने देश की महिलाओं की अवस्था सुधार सकते हो? तभी तुम्हारे कुशल की आशा की जा सकती है, नहीं तो तुम ऐसे ही पिछड़े पड़े रहोगे।

अगर हमारे देश में कोई नीच जाति में जन्म लेता है, तो हमेशा के लिए गया-बीता समझा जाता है; उसके लिए कोई आशा-भरोसा नहीं। यह भी क्या कम अत्याचार है! इस देश में हर व्यक्ति के लिए आशा है, भरोसा है एवं सुविधाएँ हैं। आज जो गरीब है, वह कल धनी हो सकता है, विद्वान और लोकमान्य बन सकता है। यहाँ सभी लोग गरीब की सहायता करने में व्यस्त रहते हैं। भारतवासियों की औसत मासिक आय २ रुपये है। यह रोना-धोना मचा है कि हम बड़े गरीब हैं, परन्तु गरीबों की सहायता के लिए कितनी दानशील संस्थाएँ हैं? भारत के लाख लाख अनाथों के लिए कितने लोग रोते हैं? हे भगवान! क्या हम मनुष्य हैं? तुम लोगों के घरों के चारों तरफ पशुवत् जो भंगी-डोम हैं, उनकी उन्नति के लिए क्या कर रहे हो? उनके मुख में एक ग्रास अन्न देने के लिए क्या करते हो? बताओ न। उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें ‘दूर’, ‘दूर’ कहकर भगा देते हो! क्या हम मनुष्य हैं? वे हजारों साधु-ब्राह्मण – भारत की नीच, दलित, दरिद्र जनता के लिए क्या कर रहे हैं? ‘मत छू’, ‘मत छू’, बस, यही रट लगाते हैं! ऐसे सनातन धर्म को क्या कर डाला है! अब धर्म कहाँ है? केवल छुआछूत में – मुझे छुओ नहीं, छुओ नहीं।

मैं इस देश में कुतूहलवश नहीं आया, न नाम के लिए, न यश के लिए; परन्तु भारत के दरिद्रों की उन्नति करने का उपाय ढूँढ़ने आया। यदि परमात्मा सहायक हुए, तो धीरे-धीरे तुम्हें वे उपाय मालूम हो जायेंगे।

जहाँ तक आध्यात्मिकता का प्रश्न है अमेरिका के लोग हमसे अत्यंत निम्न स्तर पर हैं, परन्तु इनका समाज हमारे समाज की अपेक्षा अत्यंत उन्नत है। हम इन्हें आध्यात्मिकता सिखायेंगे और इनके समाज के गुणों को स्वयं ग्रहण करेंगे।

कब वापस लौटूँगा, मुझे मालूम नहीं; हरी इच्छा गरीयसी। तुम सभी को मेरा आशीर्वाद। इति।

विवेकानन्द


  1. चण्डी ॥४।५॥
  2. म० ॥३।५६॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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