स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती जार्ज डब्ल्यू. हेल को लिखित (जुलाई, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती जार्ज डब्ल्यू. हेल को लिखा गया पत्र)
द्वारा डॉ. ई. गर्नजी,
फिश्किल लैर्न्डिग, एन. वाई.
जुलाई, १८९४
प्रिय माँ,
मैं कल यहाँ आ गया, और कुछ दिन यहाँ रुकूँगा। न्यूयार्क में मुझे आपका एक पत्र मिला, परन्तु ‘इंटीरियर’ की कोई प्रति नहीं मिली, इसके लिए मैं खुश ही हूँ। क्योंकि अभी तक मैं पूर्ण नहीं हूँ, और यह जानते हुए कि ‘प्रेसबिटेरियन’ पुरोहित, विशेषतया ‘इंटीरियर’, ‘मेरे लिए’, कितना निःस्वार्थ स्नेह रखते हैं, मैं इन ‘मधुर स्वभाव ईसाई सज्जनों’ के खिलाफ अपने हृदय में कोई दुर्भाव पैदा करना नहीं चाहता। मेरा धर्म यह उपदेश देता है कि क्रोध, यदि यह न्यायोचित भी हो, एक जघन्य पाप है। अपने अपने धर्म का अनुगमन करना ही सभी का कर्त्तव्य है। मैं कभी भी ‘धार्मिक क्रोध’ एवं ‘सामान्य क्रोध’, ‘धार्मिक हत्या’ और ‘सामान्य हत्या’, ‘धार्मिक निन्दा’ एवं ‘अधार्मिक निन्दा’ के बीच किये गये भेद को नहीं समझ सका। और मेरे देश के नीतिशास्र में भगवान् करे, ऐसा कोई ‘सूक्ष्म’ नैतिक भेद कभी भी प्रविष्ट न होने पाये। मदर चर्च, हँसी-मजाक की बात अलग, मैं इन लोगों द्वारा मुझ पर किये गये आरोपों की किंचित्मात्र भी परवाह नहीं करता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि पाखण्ड, छल एवं नाम तथा यश की कामना ही इन लोगों की एकमात्र प्रेरणा है।
जहाँ तक छायाचित्रों का प्रश्न हैं, पहली बार बच्चियों को कुछ प्रतियाँ मिली थीं, दूसरी बार आप कुछ प्रतियाँ लायीं; आपको मालूम है, सब मिलाकर वे ५० तस्वीरें देने वाले हैं। बहन ईसावेल मुझसे ज्यादा जानती है।
आपके एवं फादर पोप के लिए वास्तविक स्नेह एव श्रद्धा के साथ,
भवदीय,
विवेकानन्द
पुनश्च – आप गर्मी का कैसा आनन्द ले रही हैं? मैं बहुत अच्छी तरह से ही यहाँ की गर्मी सह ले रहा हूँ। समुद्री तटवर्ती स्वाम्पस्कॉट जाने के लिए एक धनी महिला का, जिनसे पिछले जाड़े में न्यूयार्क में परिचय हुआ, निमन्त्रण मुझे मिला था। परन्तु मैंने उन्हें धन्यवाद देकर उसे अस्वीकार कर दिया। मैं यहाँ किसी की, विशेषतया धनियों की आतिथेयता स्वीकार करने में बहुत सावधनी बरत रहा हूँ। मुझे यहाँ के कुछ बहुत धनाढ्य व्यक्तियों के और भी निमन्त्रण मिले थे। मैंने अस्वीकार कर दिया है। मैंने अब इस धन्धे को अच्छी तरह समझ लिया है। मदर चर्च, आपकी सच्चाई के लिए प्रभु आपको सबके साथ सुखी रखें। ओह, संसार में सच्चाई कितनी दुर्लभ है।
सस्नेह आपका,
वि.