स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (21 सितम्बर, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
प्रिय आलासिंगा,
२१ सितम्बर, १८९४
… मैं निरन्तर एक स्थान से दूसरे स्थान में भ्रमण करते हुए सतत कार्यरत हूँ,
भाषण दे रहा हूँ, क्लास ले रहा हूँ आदि।
पुस्तक लिखने का मेरा संकल्प था, पर अभी तक उसकी एक पंक्ति भी मैं नहीं लिख पाया हूँ। सम्भवतः कुछ दिन बाद उसमें जुट सकूँगा। यहाँ पर उदार मतावलम्बियों तथा पक्के ईसाइयों में से कुछ लोग मेरे अच्छे मित्र बन चुके हैं। आशा है कि शीघ्र ही मैं भारत लौटा सकूँगा। इस देश में तो पर्याप्त आन्दोलन हो चुका। खासकर अत्यधिक परिश्रम ने मुझे अत्यन्त दुर्बल बना दिया है। जनता के सामने अधिक भाषण देने तथा कहीं पर उपयुक्त विश्राम न लेकर निरन्तर एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण करने से ही यह दुर्बलता बढ़ी है। मैं इस व्यस्त, अर्थहीन तथा धनाकांक्षी जीवन की परवाह नहीं करता। इसलिए तुम समझ लो कि मैं शीघ्र ही लौटूँगा। यह सही है कि यहाँ के एक वर्ग का, जिसकी संख्या क्रमशः बढ़ती जा रही है, मैं अत्यन्त प्रिय बन चुका हूँ और वे अवश्य ही यह चाहेंगे कि मैं सदा यहीं रहूँ। किन्तु मैं सोचता हूँ कि अखबारी हो-हल्ला तथा आम लोगों में कार्य करने के फलस्वरूप बहुत कुछ ख्याति मिल चुकी, मैं इन चीजों की बिल्कुल परवाह नहीं करता।
हमारी योजना के लिए अब यहाँ से धन मिलने की आशा नहीं है। आशा करनी व्यर्थ है। किसी देश के अधिकांश लोग मात्र सहानुभूतिवश कभी किसका उपकार नहीं करते। ईसाई देशों में वास्तव में जो लोग सत्कार्य के लिए रुपया देते हैं, बहुधा वे पुरोहित-प्रपंच अथवा नरक जाने के भय से ही कार्य को करते हैं। जैसा कि हमारे यहाँ की बंगाली कहावत है – ‘गाय मारकर उसके चमड़े से जूता बनाकर ब्राह्मण को जूता दान करना।’ – यहाँ पर भी उसी प्रकार का दान अधिक है। प्रायः सभी जगह ऐसा ही होता है। दूसरे, हमारी जाति की तुलना में पाश्चात्य देशवासी अधिक कंजूस हैं। मेरा तो यह विश्वास है कि एशिया के लोग संसार की सब जातियों में अधिक दानशील हैं, केवल वे सबसे अधिक गरीब हैं।
मैं कुछ महीनों के लिए न्यूयार्क जा रहा हूँ। वह शहर मानों सम्पूर्ण संयुक्त राज्य का मस्तक, हाथ तथा कोषागारस्वरूप है ; यह अवश्य है कि बोस्टन को ‘ब्राह्मणों का शहर’ (विद्या-चर्चा का प्रधान स्थान) कहा जाता है और यहाँ अमेरिका में हजारों व्यक्ति ऐसे हैं। जो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं। न्यूयार्क के लोग बड़े खुले दिल के हैं। वहाँ पर मेरे कुछ विशिष्ट प्रभावशाली मित्र हैं। देखना है कि वहाँ कहाँ तक मुझे सफलता मिलती है। अंततः इस भाषण-कार्य से दिन-प्रतिदिन मैं ऊबता जा रहा हूँ। उच्चतर आध्यात्मिक को हृदयंगम करने के लिए अभी पाश्चात्य देशवासियों को बहुत समय लगेगा। अभी उनके लिए सब कुछ पौण्ड, शिलिंग और पेंस ही है। यदि किसी धर्म के आचरण से धन की प्राप्ति हो, रोग दूर होते हों, सौन्दर्य तथा दीर्घ जीवन लाभ की सम्भावना हो, तभी वे उस ओर झुकेंगे, अन्यथा नहीं।
बालाजी, जी. जी. तथा हमारे अन्य मित्रों से मेरा आन्तरिक प्यार कहना।
तुम्हारा चिरस्नेहाबद्ध,
विवेकानन्द