स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखित (नवम्बर, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को लिखा गया पत्र)
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू,
शिकगो,
नवम्बर (?), १८९४
प्रिय दीवानजी,
आपका पत्र पाकर मैं आनन्दित हुआ। मैं आपका मजाक समझता हूँ, परन्तु मैं कोई बालक नहीं हूँ, जो इससे टाल दिया जाऊँ। लीजिए, अब मैं कुछ और लिखता हूँ, उसे भी ग्रहण कीजिए।
संगठन एवं मेल ही पाश्चात्य देशवासियों की सफलता का रहस्य है। यह तभी सम्भव है, जब परस्पर भरोसा, सहयोग और सहायता का भाव हो। उदाहरणार्थ यहाँ जैन धर्मावलम्बी श्री वीरचन्द गाँधी हैं, जिन्हें आप बम्बई में अच्छी तरह जानते थे। ये महाशय इस विकट शीतकाल में भी निरामिष भोजन करते हैं और अपने देशवासियों एवं अपने धर्म का दृढ़ता से समर्थन करते हैं। यहाँ के लोगों को वे बहुत अच्छे लगते हैं, परन्तु जिन लोगों ने उन्हें भेजा, वे क्या कर रहे हैं? – वे उन्हें जातिच्युत करने की चेष्टा में लगे हैं! दासों में ही स्वाभावतः ईर्ष्या उत्पन्न होती है और फिर वह ईर्ष्या ही उन्हें पतितावस्था की खाई में ले जाती है।
यहाँ…थे; वे सब चाहते थे कि व्याख्यान देकर कुछ धनोर्पाजन करें। कुछ उन्होंने किया भी, परन्तु मैंने उनसे अधिक सफलता प्राप्त की – क्यों? क्योंकि मैंने उनकी सफलता में कोई बाधा नहीं डाली। यह सब ईश्वर की इच्छा से ही हुआ। परन्तु ये लोग केवल…को छोड़, मेरे पीठ पीछे मेरे बारे में इस देश में भीषण झूठ रचकर प्रचार कर रहे हैं। अमेरिकावासी ऐसी नीचता की ओर कभी दृष्टिपात न करेंगे, न वे ऐसी नीचता दिखाएँगे।
यदि कोई मनुष्य यहाँ आगे बढ़ना चाहता है, तो सभी लोग यहाँ उसकी सहायता करने को प्रस्तुत हैं। किन्तु यदि आप भारत में मेरी प्रशंसा में एक भी पंक्ति किसी समाचार-पत्र (‘हिन्दू’) में लिखिए, तो दूसरे ही दिन सब मेरे विरुद्ध हो जाएँगे। क्यों? यह गुलामों का स्वभाव है। वे अपने किसी भाई को अपने से तनिक भी आगे बढ़ते हुए देखना नहीं सहन कर सकते… क्या आप ऐसे क्षुद्र लोगों की स्वतन्त्रता, स्वावलम्बन और भ्रातृ-प्रेम से उद्बुद्ध इस देश के लोगों के साथ तुलना करना चाहते हैं? संयुक्त राज्य के स्वतन्त्र किये हुए दास – नीग्रो ही हमारे देशवासियों के सबसे निकट आते हैं। दक्षिण अमेरिका में वे दो करोड़ नीग्रो अब स्वतन्त्र हैं; वहाँ गोरे तो बहुत थोड़े हैं, फिर भी वे उन्हें दबाकर रखते हैं। जब उन्हें राज-नियम से सब अधिकार मिले हुए हैं, तब क्यों इन दासों को स्वतन्त्र करने के लिए भाई-भाई में खून की नदियाँ बहीं? वही ईर्ष्या का अवगुण ही इसका कारण था। इनमें से एक भी नीग्रो अपने नीग्रो भाई का यश सुनने को या उसकी उन्नति देखने को तैयार न था। तुरन्त ही वे गोरों से मिलकर उसे कुचलने का प्रयत्न करते हैं। भारत से बाहर आए बिना आप इसे कभी भी समझ न सकेंगे। यह ठीक है कि जिनके पास बहुत-सा धन है और मान है, वे संसार को अपनी गति से ज्यों-का-त्यों चलते रहने दें, परन्तु जिनका ऐशो-आराम में लालनपालन और शिक्षा लाखों पददलित परिश्रमी गरीबों के हृदय के रक्त से हो रही है और फिर भी जो उनकी और ध्यान नहीं देते, उन्हें मैं विश्वासघातक कहता हूँ। इतिहास में कहाँ और किस काल में आपके धनवान् पुरुषों ने, कुलीन कुरुषों ने, पुरोहितों ने और राजाओं ने गरीबों की ओर ध्यान दिया था – वे गरीब, जिन्हें कोल्हू के बैल की तरह पेलने से ही उनकी शक्ति संचित हुई थी।
परन्तु ईश्वर महान् है। आगे या पीछे बदला मिलना ही था, और जिन्होंने गरीबों का रक्त चूसा, जिनकी शिक्षा उनके धन से हुई, जिनकी शक्ति उनकी दरिद्रता पर बनी, वे अपनी बारी में सैंकड़ों और हजारों की गिनती में दास बनाकर बेचे गए, उनकी सम्पत्ति हजार वर्षों तक लुटती रही, और उनकी स्त्रियाँ और कन्याएँ अपमानित की गयीं। क्या आप समझते हैं कि यह अकारण ही हुआ?
भारत के गरीबों में इतने मुसलमान क्यों हैं? यह सब मिथ्या बकवाद है कि तलवार की धार पर उन्होंने धर्म बदला।… जमींदारों और… पुरोहितों से अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया, और फलतः आप देखेंगे कि बंगाल में जहाँ जमींदार अधिक हैं, वहाँ हिन्दुओं से अधिक मुसलमान किसान हैं। लाखों पददलित और पतितों को ऊपर उठाने की किसे चिन्ता है? विश्वविद्यालय की उपाधि लेने वाले कुछ हजार व्यक्तियों से राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता, कुछ धनवानों से राष्ट्र नहीं बनता। यह सच है कि हमारे पास सुअवसर कम हैं, परन्तु फिर भी तीस करोड़ व्यक्तियों को खिलाने और कपड़ा पहनाने के लिए, उन्हें आराम से रखने के लिए, बल्कि उन्हें ऐशो-आराम से रखने के लिए हमारे पास पर्याप्त है। हमारे देश में नब्बे प्रतिशत लोग अशिक्षित हैं – किसे इसकी चिन्ता है? इन बाबू लोगों को? इन देशभक्त कहलानेवालों को?
इतना होने पर भी मैं आपसे कहता हूँ कि ईश्वर है – यह ध्रुव सत्य है, हँसी की बात नहीं। वही हमारे जीवन का नियमन कर रहा है, और यद्यपि मैं जानता हूँ कि जातिसुलभ स्वभाव-दोष के कारण ही गुलाम लोग अपनी भलाई करनेवालों को ही काट खाने दौड़ते हैं, फिर भी आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिए – आप, जो उन इने-गिने
लोगों में से हैं, जिन्हें सत्कार्यों से, सदुद्देश्यों से सच्ची सहानुभूति है, जो सच्चे और उदार स्वभाववाले और हृदय और बुद्धि से सर्वथा निष्कपट हैं – आप मेरे साथ प्रार्थना कीजिए – ‘हे कृपामयी ज्योति! चारों ओर के घिरे हुए अंधकार में पथ-प्रदर्शन करो।’ मुझे चिन्ता नहीं कि लोग क्या कहते हैं। मैं अपने ईश्वर से, अपने धर्म से, अपने देश से और सर्वोपरि अपने आपसे – एक निर्धन भिक्षुक से प्रेम करता हूँ। जो दरिद्र हैं, अशिक्षित हैं, दलित हैं उनसे मैं प्रेम करता हूँ। उनके लिए मेरा हृदय कितना द्रवित होता है, इसे भगवान् ही जानते हैं। वे ही मुझे रास्ता दिखाएँगे। मानवी सम्मान या छिद्रान्वेषण की मैं रत्ती पर भी परवाह नहीं करता। मैं उनमें से अधिकांश को नादान, शोर मचानेवाला बालक समझता हूँ। सहानुभूति एवं निःस्वार्थ प्रेम का मर्म समझना इनके लिए कठिन है।
मुझे श्रीरामकृष्ण के आशीर्वाद से वह अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई है। मैं अपनी छोटी-सी मण्डली के साथ काम करने का प्रयत्न कर रहा हूँ, वे भी मेरे समान निर्धन भिक्षुक हैं। आपने इसे देखा है। दैवी कार्य सदैव गरीबों एवं दीन मनुष्यों के द्वारा ही हुए हैं। आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपने प्रभु में, अपने गुरु में और अपने आपमें अखण्ड विश्वास रख सकूँ।
प्रेम और सहानुभूति ही एकमात्र मार्ग है, प्रेम ही एकमात्र उपासना।
प्रभु आपकी और आपके स्वजनों की सदा सहायता करें।
साशीर्वाद,
विवेकानन्द