अंगुलिमाल डाकू की कहानी – जातक कथा
“अंगुलिमाल डाकू की कहानी” जातक कथाओं में आती है और बहुत प्रसिद्ध है। इसमें बताया गया है कि किस तरह पूर्व-जन्म में अंगुलिमाल को सही दिशा प्राप्त हुई। अन्य जातक कथाएँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – जातक कथाएं।
The Tale Of Bendit Angulimal: Jatak Katha In Hindi
सुतन जातक की गाथा – [राजा ने उत्तम मांस के साथ पकाए गये ये चावल भेजे हैं। यदि मखदेव घर पर हो तो वह आए और इसे खाले।]
वर्तमान कथा – अंगुलिमाल डाकू की ज्ञान-प्राप्ति
जिस समय तथागत जेतवन में निवास करते थे, उस समय एक बार उस विहार में उनके द्वारा प्रसिद्ध डाकू अंगुलिमाल के उद्धार की सर्वत्र चर्चा होती थी। अंगुलिमाल काशी के समीप प्रसिद्ध मार्ग पर यात्रियों को लूटता था तथा उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट दिया करता था।
तथागत के साथ भी उसने प्रारंभ में अच्छा व्यवहार नहीं किया। अंत में तथागत के उपदेश से उसे ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने उनकी शरण ली। लोगों के जिज्ञासा करने पर भगवान ने पूर्व जन्म की अंगुलिमाल डाकू की कहानी इस प्रकार सुनाई–
अतीत कथा – यक्ष से मुक्ति
जिस समय काशी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था उस समय एक बार बोधिसत्व का जन्म एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ, जहाँ उनका नाम सुतन रखा गया। सुतन अपने माता-पिता का बड़ा भक्त था। पिता का देहान्त हो जाने पर वह बड़े परिश्रम से मेहनत मजदूरी करके अपनी वृद्धा माता की सेवा करने लगा।
राजा को शिकार का बड़ा शौक था। एक दिन वह एक मृग के पीछे जंगल में दूर तक चला गया। मृग को मार कर जब वह लौट रहा था उस समय उसे बड़ी थकान मालूम हो रही थी। वह एक वृक्ष के नीचे लेट गया और लेटते ही सो गया। जब उसकी आँख खुली तो उसने अपने सामने एक भयंकर मनुष्याकृति देखी। राजा ने उससे पूछा “तू कौन है?”
उसने उत्तर दिया, “मैं वैश्रवण (कुबेर) का दूत मखदेव नामक यक्ष हूँ। तुम मेरा आहार हो। आज मैं तुम्हें खाकर अपनी भूख मिटाऊँगा।”
राजा ने बिना भयभीत हुए प्रश्न किया, “हे यक्ष! तुम केवल आज के ही आहार की व्यवस्था चाहते हो अथवा नित्य के आहार की?”
यक्ष ने कहा, “मैं नित्य के आहार की व्यवस्था चाहता हूँ।”
राजा ने कहा, “अच्छा, आज तो तुम इस मृग का आहार करो। कल से मैं ऐसी व्यवस्था कर दूंगा कि एक व्यक्ति प्रतिदिन एक थाल भात का लेकर तुम्हारे पास आ जाया करेगा।”
यक्ष मखदेव राजी हो गया। राजा ने नगर में आकर मंत्रियों से सलाह की। मंत्रियों ने ऐसी सलाह दी कि प्रतिदिन जेलखाने से एक बन्दी चावल का थाल लेकर यक्ष के पास भेज दिया जाया करे। थोड़े दिनों में जेलखाने खाली हो गए और अब यह चिन्ता हुई कि भात लेकर कौन जाय?
राजा को बड़ी चिन्ता हुई, क्योंकि नियम भंग होने से यक्ष उसे मार डालता। परन्तु मंत्रियों ने कहा, “राजन्! आप चिन्ता न करें। संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अपने प्राणों से धन को अधिक महत्व देते हैं। हम नगर में एक बहुत बड़े पुरस्कार की घोषणा करेंगे।”
राजा को उक्ति पसन्द आई और एक हजार मोहरों का पुरस्कार घोषित किया गया।
सुतन की अवस्था अत्यन्त शोचनीय थी। उसे दिन भर परिश्रम करने पर भी बहुत कम मजदूरी मिलती थी। उसने सोचा, “क्यों न मैं इस धन को ले लूँ?” यह सोचकर उसने अपनी माँ से अपना विचार प्रगट किया।
उसकी माँ ने कहा, “बेटा! तुझे खोकर मैं धन लेकर क्या करूंगी। जैसे तैसे दिन कट ही रहे हैं। आज तक जितने लोग भात लेकर गए हैं, वे कोई भी जीवित नहीं लौटे हैं। मैं किसी भी अवस्था में तुझे जाने नहीं दे सकती।”
सुतन ने सोचा, “यक्ष शारीरिक बल में श्रेष्ठ हो सकता है, परन्तु ज्ञान-बल उससे भी श्रेष्ठ है। मुझे विश्वास है कि मैं अपने ज्ञानबल से उसे परास्त करूंगा और अपने साथ ही आगे जाने वाले व्यक्तियों की भी प्राण-रक्षा कर सकूंगा।”
इस प्रबल आत्म-विश्वास के साथ वह राजा के सम्मुख उपस्थित हुआ। राजा से १००० मोहरें लेकर उसने कहा, “महाराज! मुझे आप अपने सोने के पदत्राण, राजछत्र तथा सोने के म्यान वाली तलवार भी दे दें और भोजन के लिये भात भी अपने सोने के थाल में ही परोसवाने का प्रबन्ध कर दें।”
राजा ने वैसी ही व्यवस्था कर दी। मोहरें ले जाकर सुतन ने अपनी माँ को दीं और कहा, “माँ! तुझे मेरी इतनी चिन्ता है परन्तु मैं आज अपने साथ ही सारी मनुष्य जाति की रक्षा का उपाय करूंगा।” ऐसा कहकर वह रोती हुई माँ को पीछे छोड़कर चल दिया। सोने के जूते, राज छत्र तथा तलवार से युक्त इस युवक को भूत, प्रेत, यक्ष कोई भी भयभीत न कर सकते थे।
यक्ष भोजन की प्रतीक्षा कर रहा था। उसने जब सुतन को आते देखा तो अपने मन में कहा, “यह व्यक्ति तो अन्यों के समान प्रतीत नहीं होता। यह बड़े धैर्य और साहस के साथ निर्भय इधर पा रहा है। यह कैसे आश्चर्य की बात है?”
यक्ष जिस वृक्ष पर निवास करता था, उसके पास पहुंचकर सुतन ने उपरोक्त गाथा कही – राजा ने उत्तम मांस के साथ पकाए गये ये चावल भेजे हैं। यदि मखदेव घर पर हो तो वह आए और इसे खाले।
यक्ष ने उसकी बात सुन कर कहा, “हे युवक, भोजन के थाल सहित मेरे निकट आओ। तुम तथा तुम्हारे थाल का भोजन दोनों ही स्वादिष्ट हैं।”
बोधिसत्व ने उत्तर दिया, “हे यक्ष! मैं समझता हूँ थोड़े से लाभ के लिए तुम अपनी बहुत बड़ी हानि न करोगे। यदि तुमने आज मेरा वध किया तो कल से तुम्हें भात का थाल भी नहीं मिलेगा। सुन्दर, सुगन्धित तथा स्वादिष्ट भोजन की तो कमी नहीं है, परन्तु उसे यहां तक लाने वाला व्यक्ति अब नहीं मिलेगा।”
यक्ष ने सोचा, “यह युवक कहता तो ठीक है।” उसने उसकी बात मान ली और कहा, “हे सुतन! तुमने मेरे हित की ही बात कही है। जाओ और अपनी मां को आह्लादित करो। तुम मुक्त हो।”
बोधिसत्व ने यक्ष से कहा, “हे मखदेव! तुमने पिछले जन्म में लोगों को सताया था और उस हिंसा के फल-स्वरूप ही तुम्हें यह यक्ष जन्म मिला है इस हिंसा को छोड़ दो, जिससे भविष्य में कुछ सुधार की आशा हो।”
ऐसा कहकर उन्होंने मखदेव को साथ लेकर काशी की यात्रा की और राजा से कहकर उसे नगर के एक द्वार का रक्षक नियुक्त करा दिया। यक्ष को नित्य उत्तम स्वादिष्ट भोजन राजा की ओर से मिलता रहा, परंतु इसके पश्चात् उसने कभी किसी को नहीं सताया।
पिछले जन्म के मखदेव अर्थात अंगुलिमाल डाकू की कहानी समाप्त कर तथागत ने कहा, “इस कथा का यक्ष यही अंगुलिमाल डाकू था। आनन्द राजा था और सुतन तो मैं स्वयम् था ही।”