स्वामी विवेकानंद के पत्र – डॉ. नंजुन्दा राव को लिखित (30 नवम्बर, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का डॉ. नंजुन्दा राव को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
३० नवम्बर, १८९४
प्रिय डॉक्टर राव,
तुम्हारा सुन्दर पत्र मुझे अभी-अभी मिला। तुम श्रीरामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष है। तुम्हारे तीव्र वैराग्य से मुझे और भी आनन्द मिला। ईश्वर-प्राप्ति का यह एक आवश्यक अंग है। मुझे पहले से ही मद्रास से बड़ी आशा थी और अभी भी विश्वास है कि मद्रास से वह आध्यात्मिक तरंग उठेगी, जो सारे भारत को प्लावित कर देगी। मैं तो केवल इतना ही कह सकता हूँ कि ईश्वर तुम्हारे शुभ संकल्पों का वेग उत्साह के साथ बढ़ाता रहे; परन्तु मेरे बच्चे, यहाँ कठिनाइयाँ भी हैं। पहले तो किसी मनुष्य को शीघ्रता नहीं करनी चाहिए ; दूसरे, तुम्हें अपनी माता और स्त्री के सम्बन्ध में सहृदयतापूर्वक विचारों से काम लेना उचित है। सच है, और तुम यह कह सकते हो कि आप श्रीरामकृष्ण के शिष्यों ने संसार-त्याग करते समय अपने माता-पिता की सम्पति की अपेक्षा नहीं की। मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े-बड़े काम बिना बड़े स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारत-माता अपनी उन्नति के लिए अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आन्तरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होंगे।
संसार के इतिहास से तुम जानते हो कि महापुरुषों ने बड़े-बड़े स्वार्थ-त्याग किये और उनके शुभ फल का भोग जनता ने किया। अगर तुम अपनी ही मुक्ति के लिए सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा? क्या तुम संसार के कल्याण के लिए अपनी मुक्ति-कामना तक छोड़ने को तैयार हो? तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो, इस पर विचार करो। मेरी राय में तुम्हें कुछ दिनों के लिए ब्रह्मचारी बनकर चाहिए। अर्थात् कुछ काल के लिए स्त्री-संग छोड़कर अपने पिता के घर में ही रहो; यही ‘कुटीचक’ अवस्था है। संसार की हित -कामना के लिए अपने महान् स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। अगर तुममें ज्वलन्त विश्वास, सर्वविजयिनी प्रीति और सर्वशक्तिमयी पवित्रता है, तो तुम्हारे शीघ्र सफल होने में मुझे कुछ भी सन्देह नहीं। तन, मन और प्राणों का उत्सर्ग करके श्रीरामकृष्ण की शिक्षाओं का विस्तार करने में लग जाओ, क्योंकि कर्म पहला सोपान है। खूब मन लगाकर संस्कृत का अध्ययन करो और साधना का भी अभ्यास करते रहो। कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ शिक्षक होना है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे कि कोई आत्महत्या करना चाहे, तो वह नहरनी से भी काम चला सकता है, परन्तु दूसरों को मारना हो, तो तोप-तलवार की आवश्यकता होती है। समय आने पर तुम्हें वह अधिकार प्राप्त हो जाएगा, जब तुम संसार त्यागकर चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार कर सकोगे। तुम्हारा संकल्प शुभ और पवित्र है। ईश्वर तुम्हें उन्नत करे, परन्तु जल्दी में कुछ कर न बैठना। पहले कर्म और साधना द्वारा अपने को पवित्र करो। भारत चिरकाल से दुःख सह रहा है; सनातन धर्म दीर्घकाल से अत्याचारपीड़ित है। परन्तु ईश्वर दयामय है। वह फिर अपनी सन्तानों के परित्राण के लिए आया है, पुनः पतित भारत को उठने का सुयोग मिला है। श्रीरामकृष्ण के पदप्रान्त में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के रोम-रोम में उन्हें भरना होगा। यह कौन करेगा? श्रीरामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिए अभियान करनेवाला है कोई? नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग का, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का बलिदान करके अवनति की बाढ़ रोकने वाला है कोई? कुछ इने-गिने युवकों ने इसमें अपने को झोंक दिया है, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे ही कई हजार मनुष्य आएँ और मैं जानता हूँ कि वे आएँगे। मुझे हर्ष है कि हमारे प्रभु ने तुम्हारे मन में उन्हीं में से एक होने का भाव भर दिया है। वह धन्य है, जिसे प्रभु ने चुन लिया। तुम्हारा संकल्प शुभ है, तुम्हारी आशाएँ उच्च हैं, घोर अन्धकार में डूबे हुए हजारों मनुष्यों को प्रभु के ज्ञानालोक के सम्मुख लाने का तुम्हारा लक्ष्य संसार के सब लक्ष्यों से महान् है।
परन्तु मेरे बच्चे, इस मार्ग में बाधाएँ भी हैं। जल्दबाजी में कोई काम नहीं होगा। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय, इन्हीं तीनों गुणों से सफलता मिलती है, और सर्वोपरि है प्रेम। तुम्हारे सामने अनन्त समय है, अतएव अनुचित शीघ्रता आवश्यक नहीं। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो, तो सब काम ठीक हो जाएँगे। हमें तुम्हारे जैसे हजारों की आवश्यकता है, जो समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं वे जाएँ, वहीं नये जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें। ईश्वर तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करे।
सस्नेह आशीर्वाद के साथ,
विवेकानन्द