स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (11 अप्रैल, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)

न्यूयार्क,
५४, पश्चिम, ३३वीं स्ट्रीट,
११ अप्रैल, १८९५

प्रिय श्रीमती बुल,

आपका पत्र मिला, उसके साथ ही मनीऑर्डर तथा ‘ट्रान्सक्रिप्ट’ समाचार-पत्र भी मिला। डॉलरों को पौण्ड में बदलने के लिए आज मैं बैंक जाऊँगा। गाँव में कुछ दिन बिताने के लिए कल मैं श्री लेगेट के यहाँ जा रहा हूँ। आशा है कि विशुद्ध वायु के सेवन से मुझे लाभ ही होगा।

अभी इस मकान को छोड़ देने का संकल्प मैं त्याग चुका हूँ – क्योंकि इससे मेरा खर्चा अधिक होगा। साथ ही इस समय मकान भी अब बदलना ठीक नहीं है; धीरे-धीरे में इसको कार्यान्वित करूँगा।

कुष्ठरोग की औषधि के सम्बन्ध में मेरा वक्तव्य है कि उसमें मेरा उतना अधिक विश्वास नहीं है। कुष्ठरोग तथा अन्यान्य चर्म रोगों के लिए उन दोनों प्रकार के तेलों का प्रयोग बहुत प्राचीन काल से भारत में होता जा रहा है तथा सब कोई उन दोनों तेलों के बारे में जानते हैं। अस्तु, भारत से मुझे जो कुछ भी समाचार मिला है, उससे पता चला है कि मेरा गुरुभाई अब ठीक है।

मैं इस पत्र के साथ खेतड़ी के महाराजा का पत्र तथा उस कागज को, जिसमें कि कुष्ठरोग के लिए ‘गर्जन’ तेल विषयक विस्तृत विवरण है, भेज रहा हूँ।

कुमारी हैमलिन मेरी बहुत सहायता कर रही हैं, इसलिए मैं उनका विशेष कृतज्ञ हूँ। वे मेरे साथ बड़ा ही सदय व्यवहार कर रही हैं, और मेरी आशा है कि वे निष्कपट भी हैं। ‘उचित’ व्यक्तियों के साथ वे मेरा परिचय करा देना चाहती हैं, किन्तु मुझे भय है कि पहले जिस प्रकार एक बार मुझको यह शिक्षा दी गयी थी कि ‘सँभलकर रहो, जिस किसी से न मिलो’, यह घटना उसी का दूसरा संस्करण है। मेरे समग्र जीवन के अनुभव से मैं तो यही समझ पाया हूँ कि प्रभु जिनको मेरे पास भेजते हैं, वे ही ‘उचित’ व्यक्ति हैं। सचमुच वे ही सहायता कर सकते हैं तथा उनसे ही सहायता मिलेगी। और बाकी लोगों के बारे में मेरा यह कहना है कि प्रभु उन लोगों का तथा उनके साथियों का भला करे तथा उनसे मेरी रक्षा करे।

मेरे सभी मित्रों की यह धारणा थी कि इस प्रकार अकेले बस्ती में रहने से कुछ भी लाभ न होगा; और न कोई भद्र महिला कभी वहाँ उपस्थित ही होंगी। खासकर कुमारी हैमलिन ने तो यह सोचा था कि वह स्वयं या उसके मतानुसार जो ‘उचित’ व्यक्ति हैं, ऐसे लोग एक गरीब के रहने लायक कुटिया में एकान्तवासी किसी व्यक्ति के उपदेश सुनने के लिए वहाँ उपस्थित होंगे, यह कदापि संभव नहीं है। किन्तु वास्तव में जिनको ‘उचित’ व्यक्ति कहा जा सकता है, ऐसे ही लोग दिन-रात वहाँ आने लगे और इसके अलावा उक्त कुमारी साहबा भी स्वयं उपस्थित होने लगीं। हे प्रभु, तुझ पर तथा तेरी दया पर विश्वास रखना मानव के लिए कितना कठिन है!!! शिव! शिव! माँ, तुमसे मैं यह पूछना चाहता हूँ कि ‘उचित’ व्यक्ति कहाँ है और ‘अनुचित’ यानी असत् व्यक्ति ही कहाँ है? सबमें तो ‘वही’ विद्यमान है। हिंसापरायण व्याघ्र में भी ‘वही’ है, मृगशावक में भी ‘वही’ है, पापी तथा पुण्यात्मा में भी ‘वही’ है – सब कुछ तो ‘वही’ है!! देह, मन तथा आत्मा के सहित मैंने ‘उसमें’ शरण ली है। जीवन भर अपनी गोद में आश्रय देकर क्या ‘वह’ अब मुझे त्याग देगा? भगवान् की कृपादृष्टि के बिना समुद्र में जल की एक बूँद भी नहीं रह सकती, घने जंगल में एक टहनी भी नहीं मिल सकती तथा कुबेर के भण्डार में एक अन्न-कण मिलना भी सम्भव नहीं है; और यदि उसकी इच्छा हो, तो मरुस्थल में भी स्वच्छसलिना नदी प्रवाहित हो सकती है एवं भिक्षुक को भी महान् ऐश्वर्य मिल जाता है। एक छोटी-सी चिड़िया उड़कर कहाँ गिरती है – यह भी ‘उससे’ छिपा नहीं है। माँ, क्या यह सब कहने मात्र के लिए ही है अथवा अक्षरशः सत्य घटना है?

इन ‘उचित’ व्यक्तियों के साथ परिचयादि की बातें भाड़ में जाएँ। हे मेरे शिव, मेरे लिए तुम्हीं ‘सत्’ तथा ‘असत्’ हो। प्रभो, बाल्यावस्था से ही मैंने तेरी शरण ली है। चाहे मैं विषुवतरेखाय उष्ण देश में जाऊँ अथवा तुषारमण्डित ध्रुव प्रदेश में रहूँ, चाहे पर्वतशिखर हो या अतलस्पर्शी समुद्र, सर्वत्र ही तू मेरे साथ रहेगा। तू ही मेरी गति है, मेरा नियन्ता है, आश्रय है ; तू ही मेरा सखा, गुरु, ईश्वर तथा यथार्थ स्वरूप है। तू मुझे कभी भी नहीं त्यागेगा – कभी नहीं; यह मैं निश्चित रूप से जानता हूँ। हे मेरे प्रभु, कभी-कभी अकेला प्रबल बाधा-विघ्नों के साथ संग्राम करता हुआ मैं अपने को दुर्बल अनुभव करने लगता हूँ और उसके फलस्वरूप मनुष्यों से सहायता लाभ करने के लिए व्यग्र हो उठता हूँ। इन सारी दुर्बलताओं से मुझे सदा के लिए मुक्त कर, जिससे कि तेरे सिवा और किसी से मुझे कभी भी सहायता के लिए प्रार्थना न करनी पड़े। यदि कोई व्यक्ति किसी भले आदमी पर विश्वास रखे, तो वह कभी भी उसे नहीं त्यागता है अथवा उसके साथ विश्वासघात नहीं करता है। प्रभो, तू तो सब प्रकार की भलाई का सृष्टिकर्ता है – क्या तू मुझे त्याग देगा? तू तो यह जानता ही है कि मैं जीवन भर तेरा – एकमात्र तेरा ही दास हूँ। क्या तू मुझे त्याग देगा – जिससे कि दूसरे लोग मुझे ठगने लगें अथवा मैं असतों का शिकार बन जाऊँ?

माँ, मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि ‘वह’ कभी भी मुझे नहीं त्यागेगा।

आपका चिर आज्ञापालनकारी पुत्र,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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