स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (23 अगस्त, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
ल्यूकर्नि, स्विट्जरलैण्ड,
२३ अगस्त, १८९६
प्रिय श्रीमती बुल,
आपका अन्तिम पत्र मुझे आज मिला, आपके भेजे हुए ५ पौंड की रसीद अब तक आपको मिल चुकी होगी। आपने जो सदस्य होने की बात लिखी है, उसे मैं ठीक-ठीक नहीं समझ सका, फिर भी किसी संस्था की सदस्य-सूची में मेरे नामोल्लेख के सम्बन्ध में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु इस विषय में स्टर्डी का क्या अभिमत है, मैं नहीं जानता। मैं इस समय स्विट्जरलैण्ड में भ्रमण कर रहा हूँ। यहाँ से मैं जर्मनी जाऊँगा, बाद में इंग्लैण्ड जाना है तथा अगले जाडे में भारत। यह जानकर कि सारदानन्द तथा गुडविन अमेरिका में अच्छी तरह से प्रचार-कार्य चला रहे हैं, मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। मेरी अपनी बात तो यह है कि किसी कार्य के प्रतिदान स्वरूप मैं उस ५०० पौंड पर अपना कोई हक कायम करना नहीं चाहता। मैं तो यह समझता हूँ कि मैं काफी परिश्रम कर चुका। अब मैं अवकाश लेने जा रहा हूँ। मैंने भारत से एक और व्यक्ति माँगा है; आगामी माह में वह मेरे पास आ जायेगा। मैंने कार्य प्रारम्भ कर दिया है, अब दूसरे लोग उसको पूरा करें। आप तो देखती ही हैं कि कार्य को चालू करने के लिए कुछ समय के लिए मुझे रुपया-पैसा छूना पड़ा। अब मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मेरा कर्तव्य समाप्त हो चुका है। वेदान्त अथवा जगत् के अन्य किसी दर्शन अथवा स्वयं कार्य के प्रति अब मुझे कोई आकर्षण नहीं है। मैं प्रस्थान करने के लिए तैयारी कर रहा हूँ – इस जगत् में, इस नरक में, मैं फिर लौटना नहीं चाहता। यहाँ तक कि इस कार्य की आध्यात्मिक उपादेयता के प्रति भी मेरी अरुचि होती जा रही है। मैं चाहता हूँ कि माँ मुझे शीघ्र ही अपने पास बुला लें! फिर कभी मुझे लौटना न पड़े!
ये सब कार्य तथा उपकार आदि कार्य चित्तशुद्धि के साधन मात्र हैं, इसे मैं बहुत देख चुका। जगत् अनन्त काल तक सदैव जगत् ही रहेगा। हम लोग जैसे हैं, वैसे ही उसे देखते हैं। कौन कार्य करता है और किसका कार्य है? जगत् नामक कोई भी वस्तु नहीं है, यह सब कुछ स्वयं भगवान् हैं। भ्रम से हम इसे जगत् कहते हैं। यहाँ पर न तो मैं हूँ और न तुम और न आप – एकमात्र वही है, प्रभु – एकमेवाद्वितीयम्। अतः अब रुपये–पैसे के मामलों से मैं अपना कोई भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। यह सब आप लोगों का ही पैसा है, आप लोगों को जो रूपया मिले, आप अपनी इच्छा के अनुसार खर्च करें। आप लोगों का कल्याण हो।
प्रभुपदाश्रित, आपका
विवेकानन्द
पुनश्च – डॉक्टर जेन्स के कार्य के प्रति मेरी पूर्ण सहानुभूति है एवं मैंने उनको यह बात लिख दी है। यदि गुडविन तथा सारदानन्द अमेरिका में कार्य को बढ़ा सकते हैं तो भगवान् उन्हें सफलता दे। स्टर्डी के, मेरे अथवा अन्य किसी के पास तो उन्होंने अपने को गिरवी नहीं रखा। ‘ग्रीनएकर’ के कार्यक्रम में यह एक भारी भूल हुई है कि उसमें यह छापा गया है कि स्टर्डी ने कृपा कर सारदानन्द को वहाँ रहने की (इंग्लैण्ड से अवकाश लेकर वहाँ रहने की) अनुमति प्रदान की है। स्टर्डी अथवा और कोई एक संन्यासी को अनुमति देने वाला कौन होता है? स्टर्डी को स्वयं इस पर हँसी आयी और खेद भी हुआ। यह निरी मूर्खता है, और कुछ भी नहीं! यह स्टर्डी का अपमान है और यह समाचार यदि भारत में पहुँच जाता तो मेरे कार्य में अत्यन्त हानि होती है। सौभाग्यवश मैंने उन विज्ञापनों को टुकड़े-टुकड़े कर फाड़कर नाली में फेंक दिया है। मुझे आश्चर्य हैं कि क्या यह वही प्रसिद्ध ‘यांकी’ आचरण है जिसके बारे में बातें करके अंग्रेज लोग मजा लेते हैं? यहाँ तक कि मैं खुद भी जगत् के एक भी संन्यासी का स्वामी नहीं हूँ। संन्यासियों को जो कार्य करना उचित प्रतीत होता है, उसे वे करते हैं और मैं चाहता हूँ कि मैं उनकी कुछ सहायता कर सकूँ – बस, इतना ही उनसे मेरा सम्बन्ध है। पारिवारिक बन्धन रूपी लोहे की सांकल मैं तोड़ चुका हूँ – अब मैं धर्मसंघ की सोने की साँकल पहिनना नहीं चाहता। मैं मुक्त हूँ, सदा मुक्त रहूँगा। मेरी अभिलाषा है कि सभी कोई मुक्त हो जायें – वायु के समान मुक्त। यदि न्यूयार्क, बोस्टन अथवा अमेरिका के अन्य किसी स्थल के निवासी वेदान्त चर्चा के लिए आग्रहशील हों तो उन्हें वेदान्त के आचार्यों को आदरपूर्वक ग्रहण करना, उनकी देखभाल तथा उनके प्रतिपालन की व्यवस्था करनी चाहिए। जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो एक प्रकार से अवकाश ले चुका हूँ। जगत् की नाट्यशाला में मेरा अभिनय समाप्त हो चुका है!
भवदीय,
विवेकानन्द