स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी अखण्डानन्द को लिखित (30 जुलाई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी अखण्डानन्द को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
३० जुलाई, १८९७
प्रिय अखण्डानन्द,
तुम्हारे कथनानुसार डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट लेविंज साहब को मैंने एक पत्र लिख दिया है। साथ ही, तुम भी उनके विशेष कार्यों का उल्लेख कर डॉक्टर शशि के द्वारा संशोधन कराके ‘इण्डियन मिरर’ में प्रकाशनार्थ एक विस्तृत पत्र लिखना एवं उसकी एक प्रति उक्त महोदय को भेजना। हम लोगों में जो मूर्ख हैं, वे केवल दोष ही ढूँढ़ते रहते हैं, वे कुछ गुण भी तो देखें।
आगामी सोमवार को मैं यहाँ से रवाना हो रहा हूँ।…
अनाथ बालकों को एकत्र करने की क्या व्यवस्था हो रही है? नहीं तो मठ से चार-पाँच जनों को बुला लो, गाँवों में ढूँढ़ने से दो दिन में ही मिल जाएँगे।
स्थायी केन्द्र की स्थापना तो होनी ही चाहिए। और – दैव कृपा के बिना इस देश में क्या कुछ हो सकता है? राजनीति इत्यादि में कभी सम्मिलित न होना तथा उससे कोई सम्बन्ध न रखना। किन्तु उनसे किसी प्रकार का वाद-विवाद करने की आवश्यकता नहीं है। जो कार्य करना है, उसमें तन-मन-धन लगा देना चाहिए। यहाँ पर साहबों के बीच मैंने एक अंग्रेजी भाषण तथा भारतीयों के लिए एक भाषण हिन्दी में दिया था। हिन्दी में मेरा यह प्रथम भाषण था – किन्तु सभी ने बहुत पसन्द किया। साहब लोग तो जैसे हैं वैसे ही हैं, चारों ओर यह सुनायी दिया ‘काला आदमी’, ‘भाई, बहुत आश्चर्य की बात है।’ आगामी शनिवार को यूरोपियन लोगों के लिए एक दूसरा भाषण होगा। यहाँ पर एक बड़ी सभा स्थापित की गयी है। भविष्य में कितना कार्य होता है – यह देखना है। विद्या तथा धार्मिक शिक्षा प्रदान करना इस सभा का मुख्य उद्देश्य है।
सोमवार को यहाँ से बरेली रवाना होना है, फिर सहारनपुर तथा उसके बाद अम्बाला जाना है, वहाँ से कैप्टन सेवियर के साथ सम्भवतः मसूरी जाऊँगा, अनन्तर कुछ सर्दी पड़ने पर वापस लौटने का विचार है एवं राजपूताना जाना है।
तुम पूरी लगन के साथ कार्य करते रहो, डरने की क्या बात है? ‘पुनः जुट जाओ’ – इस नीति का पालन करना मैंने भी प्रारम्भ कर दिया है। शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है, फिर उसे आलस्य में क्यों नष्ट किया जाय? ‘जंग लगकर मरने से घिस-घिसकर मरना कहीं अधिक अच्छा है।’ मर जाने पर भी मेरी हड्डी-हड्डी से जादू की करामात दिखायी देगी, फिर अगर मैं मर भी जाऊँ तो चिन्ता किस बात की है? दस वर्ष के अन्दर सम्पूर्ण भारत में छा जाना होगा – ‘इससे कम में नशा ही न होगा।’ पहलवान की तरह कमर कसकर जुट जाओ – ‘वाह गुरु की फतह!’ रुपये-पैसे सब कुछ अपने आप आते रहेंगे, मनुष्य चाहिए, रुपयों की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य सब कुछ कर सकता हैं, रुपयों में क्षमता कितनी है? – मनुष्य चाहिए – जितने मिलें उतना ही अच्छा है।…‘म’ ने तो बहुत रुपया एकत्र किया था, किन्तु मनुष्य के बिना उसे सफलता कितनी मिली? किमधिकमिति।
सस्नेह
विवेकानन्द