स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (10 अगस्त, 1899)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द लिखा गया पत्र)
लन्दन,
१० अगस्त, १८९९
अभिन्नहृदय,
तुम्हारे पत्र से बहुत समाचार विदित हुए। जहाज में मेरा शरीर ठीक था; किन्तु जमीन पर उतरने के बाद पेट में वायु की शिकायत होने के कारण कुछ खराब है। यहाँ पर बड़ी गड़बड़ी है – गर्मी के दिन होने के कारण मित्र लोग भी बाहर गये हुए हैं। इसके अलावा शरीर भी साधारणतया ठीक नहीं है एवं भोजन आदि के विषय में भी बहुत-सी असुविधाएँ हैं। अतः दो-चार दिन के अन्दर अमेरिका रवाना हो रहा हूँ। श्रीमती बुल को हिसाब भेज देना – जमीन, मकान तथा भोजन इत्यादि पर कितना . खर्च हुआ है, प्रत्येक विषय का विवरण पृथक-पृथक हो।
सारदा ने लिखा है कि पत्रिका अच्छी प्रकार से नहीं चल रही है। मेरे भ्रमणवृत्तान्त को पर्याप्त विज्ञापन देकर छापें तो सही – देखते-देखते ग्राहकों की बाढ़-सी आ जायेगी। पत्रिका के तीन-चौथाई हिस्से में केवल सिद्धान्त की बातें छापने से क्या वह लोकप्रिय हो सकती है?
अस्तु, पत्रिका पर सतर्क दृष्टि रखना। समझ लेना कि मानो मैं चल बसा हूँ। यह समझकर तुम लोग स्वतन्त्रता के साथ कार्य करते रहो। ‘रुपया-पैसा, विद्या-बुद्धि सब कुछ दादा पर निर्भर है’ – ऐसा समझने से सर्वनाश निश्चित है। यदि सब धन, यहाँ तक कि पत्रिका के लिए भी, मैं एकत्र करूँगा, लेख भी मेरे ही होंगे, तो फिर तुम सब लोग क्या करोगे? फिर अपने साहब लोग क्या कर रहे हैं? मैंने अपनी भूमिका अदा कर दी है। तुम लोगों से जो बने करो। वहाँ न तो कोई एक पैसा ला सकता है और न प्रचार ही कर सकता है, अपने ही कार्य को संचालित करने की बुद्धि किसी में नहीं है, एक पंक्ति भी लिखने में कोई समर्थ नहीं है एवं बेकार ही सब लोग महात्मा हैं!… तुम लोगों की जब यह दशा है, तब तो मैं चाहता हूँ कि छः महीने के लिए कागज-पत्र, रुपये-पैसे, प्रचार इत्यादि सब कुछ नवागतों को सौंप दो। वे भी यदि कुछ न कर सके, तो सब बेच-बाच कर जिनके जो रुपये हैं, उन्हें उनकी रकम वापस कर फकीर बन जाओ। मठ का कोई समाचार मुझे नहीं मिलता है। शरत् क्या कर रहा है? मैं कार्य चाहता हूँ। मरने से पहले मैं यह देखना चाहता हूं कि आजीवन कष्ट उठाकर मैंने जो ढाँचा खड़ा किया, वह किसी प्रकार चल रहा है। रुपये-पैसे के प्रत्येक मामले में समिति में परामर्श कर लेना। प्रत्येक खर्च के लिए समिति की स्वीकृति प्राप्त कर लेना। नहीं तो तुम्हें बदनामी मोल लेनी पड़ेगी! जो लोग रुपये देते हैं, वे एक-न-एक दिन हिसाब अवश्य जानना चाहेंगे – ऐसी ही रीति है। हर समय हिसाब तैयार न रखना बहुत ही खराब बात है।… प्रारम्भ में ऐसी शिथिलता से ही लोग बेईमान बन जाते हैं। मठ में जो लोग हैं, उनको लेकर एक समिति का गठन करो और प्रत्येक खर्च के लिए उनकी स्वीकृति ली जाय, उनके बिना कोई भी खर्च नहीं किया जा सकेगा। मैं कार्य चाहता हूँ, उद्यम चाहता हूँ – चाहे कोई मरे अथवा कोई जिये! संन्यासी के लिए मरना-जीना क्या है?
शरत् यदि कलकत्ते को जाग्रत न कर सके… तुम यदि इस वर्ष के अन्दर बुनियाद खड़ी न कर सके तो देखना कैसा तमाशा होगा! मैं कार्य चाहता हूँ – किसी प्रकार का पाखण्ड नहीं। परमाराध्या माता जी को मेरा साष्टांग प्रणाम।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द