स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (10 नवम्बर, 1899)
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(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द लिखा गया पत्र)
अमेरिका,
२० नवम्बर, १८९९
अभिन्नहृदय,
शरत् के पत्र से समाचार विदित हुए।… तुम्हारी हार-जीत के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, तुम लोग समय रहते अनुभव प्राप्त कर लो।… मुझे अब कोई बीमारी नहीं है। मैं पुनः… विभिन्न स्थलों में घूमने के लिए रवाना हो रहा हूँ। चिन्ता का कोई स्थान नहीं है, माभैः। तुम्हारे देखते-देखते सब कुछ दूर हो जायगा, केवल आज्ञा पालन करते जाना, सारी सिद्धि प्राप्त हो जायगी। – जय माँ रणरंगिणी! जय माँ, जब माँ रणरंगिणी! वाह गुरु, वाह गुरु की फतह!
… सच तो यह है कि कायरता से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है; कायरों का कभी उद्धार नहीं होता है – यह निश्चित है। और सारी बातें मुझसे सह ली जाती हैं, कायरता सहन नहीं होती। जो उसे नहीं छोड़ सकता, उसके साथ सम्बन्ध रखना क्या मेरे लिए सम्भव हो सकता है?… एक चोट सहकर वेग से दस चोटें जमानी होंगी… तभी तो मनुष्यता है। कायर लोग तो केवल दया के पात्र हैं!!
आज महा माँ का दिवस है, मैं आशीर्वाद दे रहा हूँ कि आज की रात्रि में ही माँ तुम लोगों के हृदय में नृत्य करे एवं तुम लोगों की भुजाओं में अनन्त शक्ति प्रदान करे! जब काली, जय काली, जय काली माँ अवश्य ही अवतरित होगी – महाबल में सर्वजय – विश्वविजय होगी; माँ अवतरित हो रही है, डरने की क्या बात है? किससे डरना है? जय काली, जय काली! तुम्हारे एक एक व्यक्ति की पद-चाप से धरातल कम्पित हो उठेगा।… जय काली! पुनः आगे बढ़ो, आगे बढ़ो! वाह गुरु, माँ, जय माँ; काली, काली, काली! तुम लोगों के लिए रोग, शोक, आपत्ति, दुर्बलता कुछ भी नहीं हैं! तुम्हारे लिए महाविजय, महालक्ष्मी, महाश्री विद्यमान हैं। माभैः-माभैः। विपत्ति की सम्भावना दूर हो चुकी है, माभैः! जय काली, जय काली!
विवेकानन्द
पुनश्च – मैं माँ का दास हूँ, तुम लोग भी माँ के दास हो – क्या हम नष्ट हो सकते हैं, भयभीत हो सकते हैं? चित्त में अहंकार न आने पावे, एवं हृदय से प्रेम दूर न होने पावे। तुम्हारा नाश होना क्या सम्भव है? माभैः! जय काली, जय काली!