स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (6 दिसम्बर, 1899)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
लॉस एंजिलिस,
६ दिसम्बर, १८९९
प्रिय मार्गट,
तुम्हारी छठी तारीख आ पहुँची है, किन्तु उससे भी मेरे भाग्य में कोई खास अन्तर नहीं हुआ है। क्या तुम यह समझती हो कि स्थान-परिवर्तन से कोई विशेष उपकार होगा? किसी किसी का स्वभाव ही ऐसा है कि दुःख-कष्ट भोगना ही वे पसन्द करते हैं। वस्तुतः जिन लोगों के बीच मैंने जन्म लिया है, यदि उनके लिए मैं अपना हृदय न्यौछावर नहीं कर देता, तो दूसरे के लिए मुझे वैसा करना ही पड़ता – इसमें कोई सन्देह नहीं है। किसी किसी का स्वभाव ही ऐसा होता है – क्रमशः यह मैं समझ रहा हूँ। हम सभी सुख के पीछे दौड़ रहे हैं – यह सत्य है; किन्तु कोई कोई व्यक्ति दुःख के अन्दर ही आनन्दानुभव करते हैं – क्या यह नितान्त अद्भुत नहीं है? इसमें हानि कुछ भी नहीं है; केवल विचार करने का विषय इतना ही है कि सुख-दुःख दोनों ही संक्रामक हैं। इंगरसोल ने एक बार कहा था कि यदि वे भगवान् होते, तो रोगों को संक्रामक न बना कर स्वास्थ्य को ही वे संक्रामक बनाते। किन्तु स्वास्थ्य भी रोगों की तुलना में समान भाव में संक्रामक है – यह महत्त्वपूर्ण बात एक बार भी उनके ध्यान में नहीं आयी। विपत्ति तो यही है! मेरे व्यक्तिगत सुख-दुःख से जगत् का कुछ बनताबिगड़ता नहीं है – केवल मुझे इतना ही देखना है कि वे दूसरों में संक्रमित न हों। यही एक महान् तथ्य है। ज्यों ही कोई महापुरुष दूसरे मनुष्य की अवस्था से दुःखित होते हैं, वे गम्भीर बन जाते हैं, अपनी छाती पीटने लगते हैं और सबको बुलाकर कहते हैं, ‘तुम लोग इमली का पना पिओ, अंगार फाँको, शरीर पर राख मलकर गोबर के ढेर पर बैठे रहो और आँखों में आँसू भरकर करुण स्वर से विलाप करते रहो।’ मुझे ऐसा दिखायी दे रहा है कि उन सभी में त्रुटियाँ थीं – वास्तव में थीं। यदि जगत् के बोझ को अपने कन्धों पर लेने के लिए तुम यथार्थतः प्रस्तुत हो, तो पूर्ण रूप से उसे ग्रहण करो; किन्तु यह ख्याल रखो कि तुम्हारा विलाप एवं अभिशाप हमें सुनायी न दे। तुम अपनी यातनाओं के द्वारा हमें इस प्रकार भयभीत न करो कि अन्त में हमें यह सोचना पड़े कि तुम्हारे निकट न जाकर अपने दुःख के बोझ को लेकर स्वयं बैठे रहना ही हमारे लिए कहीं उचित था। जो व्यक्ति यथार्थ में जगत् का बोझ अपने ऊपर लेता है, वह तो जगत् को आशीर्वाद देता हुए अपने मार्ग में अग्रसर होता रहता है। वह न तो किसी की निन्दा करता है और न समालोचन ही; इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जगत् में पाप का कोई अस्तित्व न हो; प्रत्युत उसका कारण यह है कि उसने स्वेच्छापूर्वक स्वतः प्रवृत्त होकर उसे अपने ऊपर लिया है। यह मुक्तिदाता ही है, जिसे ‘अपने मार्ग पर आनन्दपूर्वक चलना चाहिए, मुक्तिकामी के लिए यह आवश्यक नहीं हैं।’
आज प्रातःकाल केवल यही सत्य मेरे सम्मुख प्रकाशित हुआ है। यदि यह भाव स्थायी रूप से मेरे अन्दर आकर मेरे समग्र जीवन में छा जाय तब कहीं ठीक होगा।
दुःख के बोझ से जर्जरित जो जहाँ कहीं भी हो, चले जाओ, अपना सारा बोझ मुझे देकर तुम अपनी इच्छानुसार चलते रहो तथा सुखी बनो और यह भूल जाओ कि मेरा अस्तित्व किसी समय था।
सदा प्यार के साथ, तुम्हारा पिता,
विवेकानन्द