स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (12 दिसम्बर, 1899)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
१२ दिसम्बर, १८९९
प्रिय श्रीमती बुल,
आपने ठीक ही समझा है – मैं निष्ठुर हूँ, वास्तव में बहुत ही निष्ठुर हूँ। किन्तु मुझमें जो कोमलता आदि है, वह मेरी दुर्बलता है। काश! यह दुर्बलता यदि मुझमें कम होती, बहुत कम होती! हाय! यही है मेरी दुर्बलता तथा यही है मेरे सभी दुःखों का कारण। अच्छा, नगरपालिका हम लोगों से कर वसूल करना चाहती है – ठीक है; वह मेरी गलती है कि मैंने ‘मठ’ को एक न्यास-प्रलेख (deed of trust) द्वारा जनता की सम्पत्ति नहीं बनाया। अपने वत्सों के प्रति मैं कटु भाषा का प्रयोग करता हूँ, इसके लिए मैं दुःखित हूँ; किन्तु वे लोग भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि संसार में और किसी की अपेक्षा मैं ही उन्हें अधिक प्यार करता हूँ।
यह सच है कि मुझे दैवी सहायता मिली है! किन्तु ओह! उस दैवी सहायता के एक एक कण के लिए मुझे अपना एक एक सेर खून देना पड़ा है। उसके बिना शायद मैं अधिक सुखी होता और अच्छा मनुष्य हुआ होता। वर्तमान परिस्थिति बहुत ही अंधकारमय प्रतीत होती है; किन्तु मैं योद्धा हूँ, युद्ध करते करते ही मैं मरूँगा, हार नहीं मानूँगा, इसी कारण तो बच्चों पर मैं नाराज हो जाता हूँ। मैं तो उन्हें युद्ध करने के लिए नहीं बुला रहा हूँ – मैं तो सिर्फ यह चाहता हूँ कि वे लोग मेरे युद्ध में बाधा न खड़ी करें।
अपने भाग्य के प्रति मुझे कोई भी द्वेष नहीं है। किन्तु हाय! मैं चाहता हूँ कि कोई व्यक्ति, मेरे बच्चों में से एक भी मेरे साथ रहकर सभी प्रतिकूल अवस्थाओं में संग्राम करता रहे।
आप किसी प्रकार की दुश्चिन्ता न करें; भारतवर्ष में किसी भी कार्य के लिए मेरी उपस्थिति आवश्यक है। पहले की अपेक्षा मेरा स्वास्थ्य अब काफी अच्छा है; शायद समुद्र-यात्रा से और भी अच्छा हो जाय। खैर, इस समय अमेरिका में पुराने मित्रों से मिलने के सिवाय और कुछ काम मैंने नहीं किया। मेरी यात्रा का खर्च ‘जो’ के पास से मिल जायेगा, इसके अतिरिक्त श्री लेगेट के पास मेरे कुछ पैसे हैं। भारत में कुछ दान मिलने की मुझे आशा है। भारत के विभिन्न प्रान्तों के अपने मित्रों में से किसी से भी मैं नहीं मिल पाया। मुझे आशा है कि पन्द्रह हजार रुपये एकत्र हो जायेंगे, जिससे पचास हजार पूरे हो जायेंगे। फिर इसको जन-सम्पत्ति करार दे देने से नगरपालिका के कर से मुक्ति मिल जायगी। यदि मैं पन्द्रह हजार नहीं एकत्र कर सकता हूँ, तो यहाँ पर प्राणोत्सर्ग कर देना बेहतर है, बजाय अमेरिका में समय गँवाने के। जीवन में मैंने अनेक गलतियाँ की हैं; किन्तु उनमें प्रत्येक का कारण रहा है अत्यधिक प्यार। अब प्यार से मुझे घृणा हो गयी है! हाय! यदि मेरे पास भक्ति बिल्कुल न होती! वास्तव में मैं निर्विकार और कठोर वेदान्ती होना चाहता हूँ! जाने दो, यह जीवन तो समाप्त ही हो चुका। अगले जन्म में प्रयत्न करूँगा। मुझे इस बात का दुःख है – खासकर आजकल – कि मेरे बन्धुओं को मेरे पास से आशीर्वाद की अपेक्षा कष्ट ही अधिक मिला है। जिस शान्ति और निर्जनता की खोज मैं बहुत समय से कर रहा हूँ, मैं कभी प्राप्त न कर सका।
अनेक वर्षों पूर्व मैं हिमालय गया था, मन में यह दृढ़ निश्चय कर कि मैं वापस नहीं आऊँगा। इधर मुझे समाचार मिला कि मेरी बहन ने आत्महत्या कर ली। फिर मेरे दुर्बल हृदय ने मुझे उस शान्ति की आशा से दूर फेंक दिया!! उसी दुर्बल हृदय ने, जिन्हें मैं प्यार करता हूँ, उनके लिए भिक्षा माँगने मुझे भारत से दूर फेंक दिया, और आज मैं अमेरिका में हूँ! शान्ति का मैं प्यासा हूँ; किन्तु प्यार के कारण मेरे हृदय ने मुझे उसे न पाने दिया। संग्राम और यातनाएँ, यातनाएँ और संग्राम! खैर, मेरे भाग्य में जो लिखा है वहीं होने दो, और जितने शीघ्र यह समाप्त हो जाय, उतना ही अच्छा है। लोग कहते हैं कि मैं भावुक हूँ, किन्तु परिस्थितियों के बारे में सोचिए तो सही!! आप मुझसे कितना स्नेह करती हैं – आप मुझ पर कितनी कृपा रखती हैं! फिर भी मैं आपके दुःखों का कारण बना! इस कारण मैं बहुत दुःखी हूँ, किन्तु जो होना था, हो गया – जब उसका कोई उपाय नहीं! अब मैं ग्रंथियाँ काटना चाहता हूँ या इसी प्रयत्न में मर जाऊँगा।
आपकी सन्तान,
विवेकानन्द
पुनश्च – महामाया की इच्छा पूर्ण हो! सैन फ़्रैंसिस्को होकर भारत जाने का खर्च मैं ‘जो’ से माँगूँगा। यदि वह देगी तो शीघ्र ही मैं जापान होते हुए भारत के लिए प्रस्थान करूँगा। इसमें एक माह लग जायेगा। आशा है कि भारत में काम चलाने लायक या उसे सुप्रतिष्ठित करने लायक दान वहाँ इकट्ठा कर सकूँगा।… काम की आखिरी अवस्था बहुत ही अंधकारमय और बहुत ही विशृंखल दिखायी दे रही है – अवश्य मुझे ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। किन्तु आप यह कदापि न सोचें कि मैं एक क्षण के लिए भी रण छोड़ दूँगा। भगवान् आपको आशीर्वाद दें। काम करते करते आखिर रास्ते में मरने के लिए प्रभु मुझे यदि अपने छकड़े का घोड़ा भी बनायें, तो भी ‘उनकी’ इच्छा पूर्ण हो। अभी आपका पत्र पाकर मैं अति आनन्दित हूँ, जो मुझे बहुत वर्षों तक नहीं मिला। वाह गुरु की फतह! गुरुदेव की जय हो!! हाँ, जैसी भी अवस्था क्यों न आये – जगत् आये, नरक आये, देवगण आयें, माँ आये – मैं संग्राम में लड़ता ही रहूँगा, हार कदापि नहीं मानूँगा। रावण ने साक्षात् भगवान् के साथ युद्ध कर तीन जन्म में मुक्तिलाभ किया था! महामाया के साथ युद्ध करना तो गौरव की बात है!
भगवान् आपका एवं आपके सभी इष्ट-मित्रों का मंगल करे। मैं जितना योग्य हूँ, उससे अधिक, अत्यधिक आपने मेरे लिए किया है।
क्रिश्चिन तथा तुरीयानन्द को मेरा प्यार।
आपका,
विवेकानन्द