स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (23 जून, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
वेदान्त सोसाइटी,
१४६ पूर्व ५५वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
२३ जून, १९००
प्रिय मेरी,
तुम्हारे सुन्दर पत्र के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। मैं अत्यन्त कुशलपूर्वक, प्रसन्न तथा पहले जैसा ही हूँ। उत्थान के पूर्व लहरें अवश्य उठती हैं। ऐसा ही मेरे साथ भी है। मुझे बड़ी ख़ुशी है कि तुम मेरे लिए प्रार्थना करने जा रही हो। तुम मेथाडिस्टों की एक शिविर-सभा क्यों नहीं आयोजित करतीं? मुझे यकीन है कि उसका शीघ्रतर प्रभाव पड़ेगा।
मैं समस्त भावुकता तथा संवेगात्मकता से छुटकारा पाने के लिए कटिबद्ध हूँ, और अब यदि कभी भी तुम मुझे भावुक देखो तो फाँसी पर चढ़ा देना। मैं अद्वैतवादी हूँ; हमारा लक्ष्य है ‘ज्ञान’ – कोई भावना नहीं, कोई ममता नहीं, क्योंकि ये सब जड़-पदार्थ, अन्धविश्वास तथा बन्धन के अन्तर्गत आते हैं। मैं केवल सत एवं ज्ञान हूँ।
ग्रीनेकर में तुम्हें ख़ूब आराम मिलेगा, मुझे पूरा विश्वास है। वहाँ तुम ख़ूब आनन्द मनाओ। एक क्षण के लिए भी मेरी ख़ातिर चिन्ता न करना। जगन्माता मेरी देखभाल करती हैं। वे मुझे तेजी से भावुकता के नरक से बाहर निकाल रही हैं और शुद्ध विवेक के प्रकाश में ले जा रही हैं। तुम्हारे सुख की अनन्त कामना सहित।
तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
पुनश्च – मार्गट २६ को चल रही है। एक दो हफ़्ते में मैं भी चल पड़ूँगा। किसीका मेरे ऊपर वश नहीं, क्योंकि मैं आत्मा हूँ। मेरी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं; यह सब जगन्माता का काम है, इसमें मेरा कोई योग नहींं।
वि.
मैं तुम्हारा पत्र नही ‘पचा’ सका, क्योंकि पिछले दिनों मेरी अजीर्ण की शिकायत बढ़ गयी थी।
वि.
अनासक्ति मेरे साथ सदैव रही है। वह एक क्षण में आयी है। बहुत शीघ्र ही मैं ऐसे स्थान पर जाऊँगा, जहाँ कोई संवेदना, कोई भाव मुझे नहीं छू सकेगा।
वि.