स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (25 अगस्त, 1900)

(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)

६, प्लेस द एतात युनि, पेरिस,
२५ अगस्त, १९००

प्रिय निवेदिता,

अभी अभी तुम्हारा पत्र मिला – मेरे प्रति तुमने जो सहृदय वाक्यों का प्रयोग किया है, तदर्थ अनेक धन्यवाद। मैंने श्रीमती बुल को मठ से रूपये उठा लेने का अवसर दिया था, किन्तु उन्होंने उस बारे में कुछ भी नहीं कहा, और इधर ट्रस्ट के दस्तावेज दस्तख़त के लिए पड़े हुए थे; अतः ब्रिटिश कौन्सिल आफिस में जाकर मैंने उन पर हस्ताक्षर कर दिये हैं। अब उन दस्तावेजों को भारत भेज दिया गया है एवं सम्भवतः वे अभी मार्ग में ही होंगे। अब मैं स्वतन्त्र हूँ, किसी बन्धन में नहीं हूँ, क्योंकि रामकृष्ण मिशन के कार्यो में अब मेरा कोई अधिकार, कर्तृत्व या किसी पद का उत्तरदायित्व नहीं है। मैं उसके सभापति पद को भी त्याग चुका हूँ। अब मठ आदि सब कुछ का उत्तरदायित्व श्रीरामकृष्ण देव के अन्यान्य साक्षात् शिष्यों पर है, मुझ पर नहीं। ब्रह्मानन्द अब सभापति निर्वाचित हुए हैं, उनके बाद क्रमशः प्रेमानन्द इत्यादि पर उसका उत्तरदायित्व होगा।

अब यह सोचकर मुझे आनन्दानुभव हो रहा है कि मेरे मस्तक से एक भारी बोझ दूर हो गया! मैं अब अपने को विशेष सुखी समझ रहा हूँ।

लगातार बीस वर्ष तक मैंने श्रीरामकृष्ण देव की सेवा की – चाहे उसमें भूलें हुई हों अथवा सफलता मिली हों – अब मैंने कार्य से छुट्टी ले ली है। अपने अवशिष्ट जीवन को मैं अब निजी भावनाओं के अनुसार व्यतीत करूँगा।

अब मैं किसीका प्रतिनिधि नहीं हूँ या किसीके प्रति उत्तरदायी नहीं हूँ। अब तक अपने मित्रों के प्रति मेरी जो एक प्रकार से वशीभूत रहने की भावना थी, वह मानो एक दीर्घस्थायी बीमारी जैसी थी। अब पर्याप्त रूप से सोचने-विचारने के बाद मुझे यह पता चला कि मैं किसीका भी ऋणी नहीं हूँ; प्रत्युत अपने प्राणों की बाजी लगाकर मैंने अपना सब कुछ प्रदान किया है; किन्तु उसके बदले में उन लोगों ने मुझे गालियाँ दी हैं, मुझे नुकसान पहुँचाने की चेष्टा की है और मुझे हमेशा तंग तथा परेशान किया है। यहाँ पर या भारत में सभी के साथ मेरा सम्बन्ध समाप्त हो गया है।

तुम्हारे पत्र से ऐसा विदित होता है कि तुमको इस प्रकार का भान हुआ है कि तुम्हारे नवीन मित्रों के प्रति मैं द्वेष-भाव रखता हूँ। किन्तु सदा के लिए मैं तुमको यह बतला देना चाहता हूँ कि चाहे मुझमें और दोष भले ही हों, परन्तु जन्म से ही मुझमें द्वेष, लोभ तथा कर्तृत्व की भावना नहीं है।

मैंने पहले भी कभी तुमको कोई आदेश नहीं दिया है, अब तो किसी भी कार्य के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है – अब फिर क्या आदेश दूँगा! मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि जब तक तुम हार्दिकता के साथ माँ के कार्य करती रहोगी, माँ तब तक अवश्य ही तुम्हें ठीक मार्ग पर चलाती रहेंगी।

तुमने जिनको अपना मित्र बनाया है, उनमें से किसीके भी प्रति मुझमें कभी कोई द्वेष-भाव उत्पन्न नहीं हुआ है। किसीसे मिलने का कारण मैंने कभी भी अपने भाइयों की समालोचना नहीं की है। किन्तु मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि पाश्चात्य लोगों में यह एक विशेषता है कि जिसे वे स्वयं अच्छा समझते हैं, उसे दूसरों पर लादने का प्रयत्न करते हैं – वे यह भूल जाते हैं कि जो एक के लिए लाभदायक है, वह दूसरे के लिए लाभदायक नहीं भी हो सकता है। मुझे यह डर था कि अपने नवीन मित्रों से मिलने के फलस्वरूप तुम्हारा हृदय जिस ओर झुकेगा, तुम बलपूर्वक दूसरों में उस भावना को प्रविष्ट करने के लिए सचेष्ट होगी। एकमात्र इसी कारण मैंने कभी कभी किसी विशेष व्यक्ति के प्रभाव से तुम्हें दूर रखने का प्रयास किया था, इसके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं था। तुम स्वयं स्वतन्त्र हो, जो तुम्हें पसन्द हो, उसे ही करती रहो, अपना कार्य स्वयं चुन लो।…

अब की बार पूर्ण अवकाश ग्रहण करने की मेरी इच्छा थी। किन्तु अब देख रहा हूँ कि माँ की ऐसी इच्छा है कि अपने आत्मीय वर्ग के लिए मैं कुछ करूँ। ठीक है, बीस वर्ष पहले मैं जो त्याग चुका था, आनन्द के साथ उसका उत्तरदायित्व मैं अपने कन्धों पर ले रहा हूँ। मित्र अथवा शत्रु, ‘उनके’ हाथ के यन्त्र हैं और वे हम लोगों को सुख अथवा दुःख के माध्यम से अपने कर्मों को निःशेष करने में सहायक हैं। अतः ‘माँ’ उन सभी व्यक्तियों को आशीर्वाद दें। तुम मेरी प्रीति तथा आशीर्वाद इत्यादि जानना।

तुम्हारा चिरस्नेहबद्ध,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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