स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (27 अगस्त, 1901)
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(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
बैलूड़ मठ,
हावड़ा, बंगाल,
२७ अगस्त, १९०१
प्रिय मेरी,
मैं मनाता हूँ कि मेरा स्वास्थ्य तुम्हारी आशा के अनुरूप हो जाय, कम से कम इतना अच्छा कि तुम्हें एक लम्बा पत्र ही लिख सकूँ। पर यथार्थ यह है कि वह दिनप्रतिदिन गिरता ही जा रहा है ; इसके अतिरिक्त भी अनेक परेशानियाँ और उलझने साथ लगी हैं। मैने तो अब उन पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है।
स्विट्जरलैण्ड के अपने सुन्दर काष्ठगृह में सुख-स्वास्थ्य से परिपूर्ण रहो, यही मेरी कामना है। यदाकदा स्विट्जरलैण्ड अथवा अन्य स्थानों की प्राचीन वस्तुओं का हल्का अध्ययन – निरीक्षण करते रहने से चीजों का आनन्द थोड़ा और भी बढ़ जायगा। मैं बहुत प्रसन्न हूँँ कि तुम पहाड़ों की मुक्त-वायु में साँस ले रही हो। लेकिन दुःख है कि सैम पूर्णतः स्वस्थ नहीं है। ख़ैर, इसमें कोई चिन्ता की बात नहीं, उसकी काठी वैसे ही बड़ी अच्छी है।…
‘स्त्रियों का चरित्र और पुरूषों का भाग्य, इन्हें स्वयं ईश्वर भी नहीं जानता, मनुष्य की तो बात ही क्या।’ चाहे यह मेरा स्त्रियोचित स्वभाव ही मान लिया जाय, पर इस क्षण तो मेरे मन में यही आता है कि काश तुम्हारे भीतर पुरूषत्व का थोड़ा अंश होता। ओह मेरी! तुम्हारी बुद्धि, स्वास्थ्य, सुन्दरता, सब उस एक आवश्यक तत्त्व के बिना व्यर्थ जा रहे हैं, और वह है – व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा! तुम्हारा दर्प, तुम्हारी तेजी सब बकवास है, केवल मजाक। अधिक से अधिक तुम एक बोर्डिग-स्कूल की छोकरी हो – रीढ़हीन! बिल्कुल ही रीढ़हीन!
आह! यह जीवनपर्यन्त दूसरों को रास्ता सुझाते रहने का व्यापार! यह अत्यंत कठोर है, अत्यंत क्रूर! पर मैं असहाय हूँ इसके आगे। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, मेरी, ईमानदारी से, सच्चाई से, मैं तुम्हें प्रिय लगनेवाली बातों से छल नहीं सकता। न ही यह मेरे वश का रोग है।
फिर मैं एक मरणोन्मुख व्यक्ति हूँ, मेरे पास छल करने के लिए समय नहीं। अतः ऐ लड़की, जाग! अब मैं तुमसे ऐसे पत्रों की आशा करता हूँ, जिनमें खड़ी धार जैसी तेजी हो, उसकी तेजी बनाये रखो, मुझे पर्याप्त रूप से जाग्रति की आवश्यकता है।
मुझे मैक्वीग परिवार के विषय में, जब वे यहाँ थे, कोई समाचार नहीं मिला। श्रीमती बुल या निवेदिता से कोई सीधा पत्र-व्यवहार न होने पर भी श्रीमती सेवियर से मुझे बराबर उनके विषय में सूचना मिलती रही है, और अब सुनता हूँ कि वे सब नार्वे में श्रीमती बुल के अतिथि हैं।
मुझे नहीं मालूम कि निवेदिता भारत कब वापस आयेगी, या कभी आयेगी भी या नहीं।
एक तरह से मैं एक अवकाशप्राप्त व्यक्ति हूँ; आन्दोलन कैसा चल रहा है, इसकी कोई बहुत जानकारी मैं नहीं रखता। दूसरे आन्दोलन का स्वरूप भी बड़ा होता जा रहा है और एक आदमी के लिए उसके विषय में सूक्ष्मतम जानकारी रखना असभव है।
खाने-पीने, सोने और शेष समय में शरीर की शुश्रूषा करने के सिवा मैं और कुछ नहीं करता। विदा मेरी। आशा है इस जीवन में कहीं न कहीं हम तुम अवश्य मिलेंगे। और न भी मिलें तो भी, तुम्हारे इस भाई का प्यार तो सदा तुम पर रहेगा ही।
विवेकानन्द