स्वामी विवेकानंद की बाल्य व यौवन अवस्था की कुछ घटनाएँ तथादर्शन
स्थान – बेलुड़ – किराये का मठ
वर्ष – १८९८ ईसवी (फरवरी मास)
विषय – स्वामीजी की बाल्य व यौवन अवस्था की कुछ घटनाएँ तथादर्शन – अमरिका में प्रकाशित विभूतियों का वर्णन – भीतर से मानो कोईवत्तृताराशि को बढ़ाता है ऐसी अनुभूति – अमरीका के स्त्रीपुरुषों का गुणावगुण – ईर्ष्या के मारे पादरियों का अत्याचार – जगत् में कोई महत्कार्य कपट सेनहीं बनता – ईश्वर पर निर्भरता – नाग महाशय के विषय में कुछ कथन।
स्वामीजी मठ को बेलुड़ में, श्रीयुत नीलाम्बर बाबू के बाग में ले आये हैं। आलमबाजार में से यहाँ आने पर अभी तक सब वस्तुओं को ठीक से लगाया नहीं गया है। चारों ओर सब बिखरी पड़ी हैं। स्वामीजी नये भवन में आकर बड़े प्रसन्न हो रहे हैं. शिष्य के यहाँ उपस्थित होने पर बोले, “अहा! देखो कैसी गंगाजी है। कैसा भवन है! ऐसे स्थान पर मठ न बनने से क्या कभी चित्त प्रसन्न होता।” अब अपराह्न का समय था।
सन्ध्या के पश्चात् दुमंजिले पर स्वामीजी से शिष्य का साक्षात् होने से अनेक प्रकार की चर्चा होने लगी। उस गृह में उस समय और कोई भी नहीं था। शिष्य बीच बीच में बातचीत के सिलसिले में अनेक प्रकार के प्रश्न करने लगा। अन्त में उसने उनकी बाल्यावस्था के विषय में सुनने की अभिलाषा प्रकट की। स्वामीजी कहने लगे, “छोटी अवस्था से ही मैं बड़ा साहसी था। यदि ऐसा न होता तो निःसम्बल संसार में फिरना क्या मेरे लिए कभी सम्भव होता?”
रामायण की कथा सुनने की इच्छा उन्हें बचपन से ही थी। पड़ोस में यहाँ भी रामायणगान होता था, वहीं स्वामीजी अपना खेलकूद छोड़कर पहुँच जाते थे। उन्होंने कहा कि कथा सुनते सुनते किसी दिन उसमें ऐसे लीन हो जाते थे कि अपना घरबार तक भूल जाते थे। ‘रात बढ़ गयी है’ या ‘घर जाना है’ इत्यादि विषयों का स्मरण भी नहीं रहता था। किसी दिन कथा में सुना कि हनुमानजी कदली बन में रहते हैं। सुनते ही उनके मन में इतना विश्वास हो गया कि वे कथा समाप्त होने पर उस दिन रात में घर नहीं लौटे और घर के निकट किसी एक उद्यान में केले के पेड़ के नीचे बहुत रात तक भगवान हनुमानजी के दर्शन पाने की इच्छा से बैठे रहे।
रामायण के नायक नायिकाओं में से हनुमानजी पर स्वामीजी की अगाध भक्ति थी। संन्यासी होने पर भी कभी कभी महावीरजी के प्रसंग में मतवाले हो जाते थे और अनेक बार मठ में महावीर की एक प्रस्तर मूर्ति रखने का संकल्प करते थे।
छात्रजीवन में दिन भर अपने साथियों के साथ आमोदप्रमोद में ही रहते थे। रात को घर के द्वार बन्द कर अपना अध्ययन करते थे। दूसरे किसी को यह नहीं जान पड़ता था कि वे कब अपना अध्ययन कर लेते हैं।
शिष्य ने पूछा, “महाराज, स्कूल में पढ़ते समय क्या कभी आपको किसी प्रकार का दिव्यदर्शन (Vision) हुआ था?”
स्वामीजी – स्कूल में पढ़ते समय एक दिन रात में द्वार बन्द कर ध्यान करते करते मन भलीभाँति तन्मय हो गया। कितनी देर ऐसे भाव से ध्यान किया था, यह कह नहीं सकता। ध्यान भंग हो गया। तब भी बैठा हूँ। इतने में ही देखता हूँ कि दक्षिण दीवाल को भेदकर एक ज्योतिर्मय मूर्ति निकल आयी और मेरे सामने खड़ी हो गयी। उसके मुख पर एक अद्भुत ज्योति थी पर भाव मानो कोई भी न था – प्रशान्त संन्यासी मूर्ति। मस्तक मुण्डित था और हाथों में दन्ड-कमण्डल था। मेरे ऊपर टकटकी लगाकर कुछ समय तक देखती रही। मानो मुझसे कुछ कहेगी। मैं भी अवाक् होकर उसकी ओर देखने लगा। तत्पश्चात् मन कुछ ऐसा भयभीत हो गया कि मैं शीघ्र ही द्वार खोलकर बाहर निकल आया। फिर मैं सोचने लगा क्यों मैं इस प्रकार मूर्ख के समान भाग आया, सम्भव था कि वह कुछ मुझसे कहती। परन्तु फिर कभी उस मूर्ति के दर्शन नहीं हुए। कितने ही दिन चिन्ता की कि यदि फिर उसके दर्शन मिलें तो उससे डरूँगा नहीं वरन् वार्तालाप करूँगा; किन्तु फिर दर्शन हुआ ही नहीं।
शिष्य – फिर इस विषय पर आपने कुछ चिन्ता भी की?
स्वामीजी – चिन्ता अवश्य की, किन्तु ओर-छोर नहीं मिला। अब ऐसा अनुमान होता है कि मैंने तब भगवान बुद्धदेव को देखा था।
कुछ देर बाद स्वामीजी बोले, “मन के शुद्ध होने पर अर्थात् मन से काम और कांचन की लालसा शान्त हो जाने पर, कितने ही दिव्य दर्शन होते हैं। वे दर्शन बड़े ही अद्भुत होते हैं, परन्तु उन पर ध्यान रखना उचित नहीं है। रात दिन उनमें ही मन रहने से साधक और आगे नहीं बढ़ सकते हैं। तुमने भी तो सुना है कि श्रीगुरुदेव कहा करते थे, ‘मेरे चिन्तामणि की ड्योढ़ी पर कितने ही मणि पड़े हुए हैं’। आत्मा का साक्षात्कार करना ही उचित है। उन सब पर ध्यान देने से क्या होगा?”
इन कथाओं को कहते ही स्वामीजी तन्मय होकर किसी विषय की चिन्ता करते हुए कुछ समय तक मौन भाव से बैठे रहे। फिर कहने लगे, “देखो, जब मैं अमरीका में था, तब मुझमें अद्भुत शक्तियों का स्फुरण हुआ था। क्षण मात्र में मैं मनुष्य की आँखों से उसके मन के सब भावों को जान जाता था। किसी के मन में कोई कैसी ही बात क्यों न हो, वह सब मेरे सामने ‘हस्तामलकवत्’ प्रत्यक्ष हो जाती थी। कभी किसी किसी से कह भी दिया करता था। जिन जिन से मैं ऐसा कहा करता था उनमें से अनेक मेरे चेले बन जाते थे – और यदि कोई किसी बुरे अभिप्राय से मुझसे मिलने आता था, तो वह इस शक्ति का परिचय पाकर फिर कभी मेरे पास नहीं आता था।
“जब मैंने शिकागो आदि शहरों में वक्तृता देना आरम्भ किया तब सप्ताह मे बारह बारह, तेरह तेरह, और कभी इससे भी अधिक वक्तृताएँ देनी पड़ती थीं। शारीरिक और मानसिक परिश्रम बहुत अधिक होने के कारण मैं बहुत थक जाता था और अनुमान होता था कि मानो वत्तृताओं के सब विषय समाप्त होने वाले ही हैं। ‘अब मैं क्या करूँगा, कल फिर नयी बातें क्या कहूँगा’ बस ऐसी ही चिन्ता मन में आया करती थी। ऐसा अनुमान होता था कि कोई नया भाव नहीं उठेगा। एक दिन वक्तृता देने के बाद अन्त में लेटे हुए चिन्ता कर रहा था, ‘बस, अब तो सब कह दिया, अब क्या उपाय करूँ?’ ऐसी चिन्ता करते करते कुछ तन्द्रासी आ गयी। उसी अवस्था में सुनने में आया कि मानो कोई मेरे पास खड़े होकर वक्तृता दे रहे हैं, उसमें कितने ही नये भाव तथा नयी कथाओं के वर्णन हैं – मानों वे सब इस जन्म में कभी मेरे सुनने में या ध्यान में आये ही नहीं। सोकर उठते ही उन सब बातों का स्मरण रखता था और वत्तृताओं में वे ही बातें कहा करता था। ऐसा कितनी ही बार हुआ है, कहाँ तक गिनाऊ? सोते सोते ऐसी वक्तृताएँ कितनी ही बार सुनी! कभी कभी तो वक्तृताएँ इतने जोर से दी जाती थीं कि दूसरे कमरों में भी औरों को शब्द सुनायी पड़ता था। दूसरे दिन वे लोग पूछते थे, ‘स्वामीजी, कल रात में आप किससे इतनी जोर से वार्तालाप कर रहे थे?’ उनके इस प्रश्न को किसी प्रकार टाल दिया करता था। वह बड़ी ही अद्भुत घटना थी।”
शिष्य स्वामीजी की बातों को सुन निर्वाक् होकर चिन्ता करते हुए बोला, “महाराज, ऐसा अनुमान होता है कि आप ही सूक्ष्म शरीर में वक्तृताएँ दिया करते थे और स्थूल शरीर से कभी कभी प्रतिध्वनि निकलती थी।”
यह सुनकर स्वामीजी बोले, “सम्भव है।”
इसके बाद अमरीका की बात फिर छिड़ी। स्वामीजी बोले, “उस देश में पुरुषों से स्त्रियाँ अधिक शिक्षिता होती हैं। विज्ञान और दर्शन में बड़ी पण्डिता हैं, इसीलिए वे मेरा इतना मान करती थीं। वहाँ पुरुष रात दिन परिश्रम करते हैं, तनिक भी विश्राम लेने का अवसर नहीं पाते। स्त्रियाँ स्कूलों में पढ़कर और पढ़ाकर विदुषी बन गयी हैं। अमरीका में जिस ओर भी दृष्टि डालो, स्त्रियों का ही साम्राज्य दिखायी देता है।”
शिष्य – महाराज, ईसाइयों में से जो संकीर्ण हृदय के (कट्टर) थे, वे क्या आपके विरुद्ध नहीं हुए?
स्वामीजी – हाँ, हुए कैसे नहीं? फिर जब लोग मेरा बहुत मान करने लगे, तब वे पादरी लोग मेरे बड़े पीछे पड़े। मेरे नाम पर कितनी ही निन्दा समाचार पत्रों में लिखने लगे। कितने ही लोग उनका प्रतिवाद करने को मुझसे कहते थे, परन्तु मैं उन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया करता था। मेरा यह दृढ़ विश्वास था कि कपट से जगत् में कोई महान् कार्य नहीं होता, इसीलिए उन अश्लील निन्दाओं पर ध्यान न देकर मैं धीरे धीरे अपना कार्य किये जाता था। अनेक बार यह भी देखने में आता था कि जिसने मेरी व्यर्थ निन्दा की वही फिर अनुतप्त होकर मेरी शरण में आता था और स्वयं ही समाचार पत्रों में प्रतिवाद कर मुझसे क्षमा माँगता था। कभी कभी ऐसा भी हुआ कि यह सुनकर कि किसी घर में मेरा निमन्त्रण है, वहाँ कोई जा पहुँचा और मेरे बारे में घरवालों से मिथ्या निन्दा कर आया और घरवाले भी यह सुनकर द्वार बन्द करके कहीं चल दिये। मैं निमन्त्रण पालन कर वहाँ गया, देखा सब सुनसान, कोई भी वहाँ नहीं है। फिर कुछ दिन पीछे वे ही लोग सत्य समाचार को जानकर बड़े दुःखित हो मेरे पास शिष्य होने को आये। बच्चा, जानते तो हो कि इस संसार में निरी दुनियादारी है। जो यथार्थ साहसी और ज्ञानी है, वह क्या ऐसी दुनियादारी से कभी घबड़ाता है? ‘जगत् चाहे जो कहे, क्या परवाह है, मैं अपना कर्तव्य पालन करता चला जाऊँगा’ यही वीरों की बाते हैं। यदि ‘वह क्या कहता है, क्या लिखता है’, ऐसी ही बातों पर रात दिन ध्यान रहे तो जगत् में कोई महान् कार्य हो ही नहीं सकता। क्या तुमने यह श्लोक नहीं सुना –
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु।
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्॥
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा।
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥
लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपावती हों या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या युग भर बाद, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। कितने ही तूफान पार करने पर मनुष्य शान्ति के राज्य में पहुँचता है। जो जितना बड़ा हुआ है, उसके लिए उतनी ही कठिन परीक्षा रखी गयी है। परीक्षारूपी कसौटी पर उसके जीवन के घिसने के पश्चात् जगत् ने उसको बड़ा कहकर स्वीकार किया है। जो भीरु कापुरुष होते हैं, वे ही समुद्र की लहरों को देखकर किनारे पर ही नाव रखते हैं। जो महावीर होते हैं वे क्या किसी बात पर ध्यान देते हैं? ‘जो कुछ होना है सो हो, मैं अपना इष्टलाभ अवश्य करके रहूँगा’ यही यथार्थ पुरुषकार है। इस पुरुषकार के हुए बिना सैकड़ों दैव भी तुम्हारे जडत्व को दूर नहीं कर सकते।
शिष्य – तो दैव पर निर्भर होना क्या दुर्बलता का चिह्न है?
स्वामीजी – शास्त्र में निर्भरता को पंचम पुरुषार्थ कहकर निर्देश किया है; परन्तु हमारे देश में लोग जिस प्रकार दैव पर निर्भर रहते हैं, वह मृत्यु का चिह्न है, महाकापुरुषता की चरम अवस्था है। ईश्वर की एक अद्भुत कल्पना कर उसके माथे अपने दोषों को थापने की चेष्टा मात्र है। श्रीरामकृष्ण द्वारा कथित गोहत्यापाप की कहानी1 तो तुमने सुनी होगी; अन्त में वह पाप उद्यानस्वामी को ही भोगना पड़ा। आजकल सभी ‘यथा नियुक्त्तोऽस्मि तथा करोमि’ कहकर पाप तथा पुण्य दोनों को ईश्वर के माथे मढ़ते हैं। मानो आप जल के कमलपत्रों के समान निर्लिप्त हैं! यदि वे लोग ऐसे ही भाव पर सर्वदा जमे रह सकें तो वे मुक्त हैं; किन्तु अच्छे कार्य के समय ‘मैं’ और बुरे के समय ‘तुम’ इस प्रकार की दैव पर निर्भरता का क्या कहना है। जब तक पूर्ण प्रेम या ज्ञान नहीं होता, तब तक निर्भरता की अवस्था हो ही नहीं सकती। जो ठीक ठीक निर्भर हो गये हैं, उनमें भले-बुरे की भेदबुद्धि नहीं रहती। हममें (श्रीरामकृष्ण के शिष्यों में) नागमहाशय ही ऐसी अवस्था के उज्ज्वल दृष्टान्त हैं।
अब बात बात में नागमहाशय का प्रसंग चल पड़ा। स्वामीजी बोले, “ऐसा अनुरागी भक्त और भी दूसरा कोई है? अहा! फिर कब उनसे मिल सकूँगा?”
शिष्य – माताजी (नागमहाशय की पत्नी) ने मुझे लिखा है कि आपके दर्शन-निमित्त वे शीघ्र ही कलकत्ता आयेंगे।
स्वामीजी – श्रीरामकृष्णजी राजा जनक से उनकी तुलना किया करते थे। ऐसे जितेन्द्रिय पुरुष का दर्शन होना तो बड़े भाग्य की बात है। ऐसे लोगों की कथा सुनने में भी नहीं आती। तुम उनका सत्संग सर्वदा करना। वे श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्तों में से एक हैं।
शिष्य – उस देश में अनेक लोग उनको पागल समझते हैं, परन्तु मैंने तो पहले से ही उनको एक महापुरुष समझा है। वे मुझसे बहुत प्रेम करते हैं और मुझ पर उनकी कृपा भी बहुत है।
स्वामीजी – तुमने ऐसे महापुरुष का सत्संग किया है फिर तुम्हें क्या चिन्ता है? अनेक जन्मों की तपस्या से ऐसे महापुरुषों का सत्संग मिलता है। श्री नागमहाशय घर में किस प्रकार से रहते हैं?
शिष्य – महाराज, उन्हें तो मैंने कभी कोई काम-काज करते नहीं पाया। केवल अतिथि-सेवा में लगे रहते हैं। पाल बाबू आदि जो कुछ रुपया दे देते हैं उसके अतिरिक्त उनके खाने पीने का और कोई सहारा नहीं है। परन्तु धनिकों के भवन में जैसी धूम-धाम रहती है वैसी ही उनके घर भी देखी। परन्तु वे अपने भोग के निमित्त एक भी पैसा व्यय नहीं करते। जो कुछ व्यय करते हैं केवल परसेवार्थ। सेवा – सेवा – यही उनके जीवन का महाव्रत मालूम होता है। ऐसा अनुमान होता है कि प्रत्येक जीव में, प्रत्येक वस्तु में आत्मदर्शन करके वे अभिन्न ज्ञान से जगत् की सेवा करने को व्याकुल हैं। सेवा के लिए अपने शरीर को शरीर नहीं समझते। वास्तव में मुझे भी सन्देह होता था कि उन्हें शरीर ज्ञान है या नहीं। आप जिस अवस्था को ज्ञानातीत अवस्था (superconscious state) कहते हैं, मेरा अनुमान है कि वे सर्वदा उसी अवस्था में रहते हैं।
स्वामीजी – ऐसा क्यों न हो? श्रीगुरुदेव उनसे कितना प्रेम करते थे। वे ही उनके एक साथी हैं जिन्होंने पूर्व वंग में जन्म लिया था। उन्हीं के प्रकाश से पूर्व वंग प्रकाशित हुआ है।
- एक दिन किसी मनुष्य के बगीचे में एक गाय घुस गयी और उसने उसका एक बड़ा सुन्दर पौधा रौंदकर नष्ट कर डाला। इससे वह मनुष्य बहुत ही क्रुद्ध हुआ और उसने उस गाय को इतना मारा कि वह मर गयी। यह खबर सारे गाँव भर में फैल गयी। वह मनुष्य यह देखकर कि उस पर गोहत्या लग रही है कहने लगा, “अरे, ‘मैंने गाय को कब मारा है? इसका दोषी तो मेरा हाथ है और चूँकि हाथ इन्द्र के अधीन है इसलिए सारा दोष इन्द्र का है।” इन्द्र ने जब यह सुना तो उसने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उस मनुष्य के पास जाकर पूछा, “क्यों भाई, यह सुन्दर बगीचा किसने बनाया है?” वह मनुष्य बोला, “मैंने”। इन्द्र ने फिर पूछा, “और भाई, ये सब बड़िढया बड़िढया पेड़, फल-फूल के पौधे आदि किसने लगाये हैं?” वह मनुष्य बोला, “मैंने ही।” फिर इन्द्र ने मरी हुई गाय की ओर दिखाकर पूछा, “और इस गाय को किसने मारा?” वह मनुष्य बोला, “इन्द्र ने!” यह सुनकर इन्द्र हँसे और बोले, “बगीचा तुमने लगाया, फल-फूल के पौधे तुमने लगाये और गाय मारी बेचारे इन्द्र ने! – क्यों यही बात है न?”