“उद्बोधन” पत्र की स्थापना – इस पत्र के लिए स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी का अमित कष्ट तथा त्याग
स्थान – बेलुड़, किराये का मठ
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – “उद्बोधन” पत्र की स्थापना – इस पत्र के लिए स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी का अमित कष्ट तथा त्याग – स्वामीजी का इस पत्र कोप्रकाशित करने का उद्देश – श्रीरामकृष्ण की संन्यासी सन्तानों का त्याग तथाअध्यवसाय – गृहस्थों के कल्याण के लिए ही पत्र का प्रचार आदि – “उद्बोधन”पत्र का संचालन – जीवन को उच्च भाव से गढ़ने के लिए उपायों का निर्देश – किसी से घृणा करना या किसी को डराना निन्दनीय – भारत में अवसन्नताका कारण – शरीर को सबल बनाना आवश्यक।
जिस समय मठ आलम बाजार से लाकर बेलुड़ मे नीलाम्बर बाबू के बगीचे में स्थापित किया गया, उसके थोड़े दिन बाद स्वामीजी ने अपने गुरुभाइयों के सामने जनसाधारण में श्रीरामकृष्णजी के भावों के प्रचार के लिए बंगला भाषा में एक समाचार-पत्र निकालने का प्रस्ताव रखा। स्वामीजी ने पहले एक दैनिक समाचार-पत्र निकालने का प्रस्ताव किया था। परन्तु उसमें काफी धन की आवश्यकता होने के कारण एक पाक्षिक पत्र प्रकाशित करने का प्रस्ताव ही सर्वसम्मति से निश्चित हुआ और स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी को उसके संचालन का भार सौंपा गया। स्वामीजी के पास एक हजार रुपये थे; श्रीरामकृष्म के गृहस्थ भक्त1 ने और एक हजार रुपये ऋण के रूप में दिये, उसी धन से काम शुरू हुआ। एक छापाखाना2 खरीदा गया और श्यामबाजार के ‘रामचन्द्र मैत्र लेन’ में श्रीगिरीन्द्रनाथ बसक के घर पर वह प्रेस रखा गया। स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी ने इस प्रकार कार्यभार ग्रहण करके बंगला सन १३०५, माघ के प्रथम दिन उक्त ‘पत्र’ का प्रथम अंक प्रकाशित किया। स्वामीजी ने उस पत्र का नाम ‘उद्बोधन’ रखा और उसकी उन्नति के लिए स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी को अनेकानेक आशीर्वाद दिये। अथक परिश्रमी स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी ने स्वामीजी के निर्देश पर उसके मुद्रण तथा प्रचार के लिए जो परिश्रम किया था वह अवर्णनीय है। कभी भक्त-गृहस्थ के भिक्षान्न पर निर्वाह कर, कभी अभुक्त्त रहकर, कभी प्रेस तथा पत्र सम्बन्धी कार्य के लिए दस दस मील तक पैदल चलकर स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी उक्त पत्र की उन्नति तथा प्रचार के लिए प्राणपण से प्रयत्न में लग गये। उस समय पैसा देकर कर्मचारी रखना सम्भव न था और स्वामीजी का आदेश था कि पत्र के लिए एकत्रित धन में से एक पैसा भी पत्र के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में खर्च न किया जाय; इसीलिए स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी ने भक्तों के घर भिक्षा माँगकर जैसे तैसे अपने भोजन और वस्त्र का प्रबन्ध करते हुए उक्त निर्देश का अक्षरशः पालन किया था।
पत्र की प्रस्तावना स्वामीजी ने स्वयं लिख दी थी और निश्चय हुआ कि श्रीरामकृष्ण के संन्यासी तथा गृहस्थ भक्तगण ही इस पत्र में लेख आदि लिखेंगे तथा किसी भी प्रकार के अश्लील विज्ञापन आदि इस पत्र में प्रकाशित न होंगे। श्रीरामकृष्ण मिशन एक संघ का रूप धारण कर चुका था। स्वामीजी ने मिशन के सदस्यों से इस पत्र में लेख आदि लिखने तथा श्रीरामकृष्ण के धर्म सम्बन्धी मतों का पत्र की सहायता से जनसाधारण में प्रचार करने के लिए अनुरोध किया। पत्र का प्रथम अंक प्रकाशित होने पर एक दिन शिष्य मठ में उपस्थित हुआ। प्रणाम करके बैठ जाने पर उससे स्वामीजी ने उद्बोधन पत्र के सम्बन्ध में वार्तालाप प्रारम्भ किया –
स्वामीजी – (पत्र के नाम को हँसी हँसी में विकृत करके) – ‘उद्वन्धन’3देखा है?
शिष्य – जी, हाँ! सुन्दर है!
स्वामीजी – इस पत्र भाव भाषा सभी कुछ नये ढाँचे में गढ़ने होंगे!
शिष्य – कैसे?
स्वामीजी – श्रीरामकृष्ण का भाव तो सब को देना होगा ही; साथ ही बंगला भाषा में नया जोश लाना होगा। उदाहरणार्थ बार बार केवल क्रियापद का प्रयोग करने से भाषा की शक्ति घट जाती है; विशेषण देकर क्रियापदों का प्रयोग घटा देना होगा। तू ऐसी भाषा में निबन्ध लिखना शुरू कर दे। पहले मुझे दिखाकर फिर उद्बोधन में प्रकाशित होने के लिए भेजते जाना।
शिष्य – महाराज, स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी इस पत्र के लिए जितना परिश्रम कर रहे हैं, वह दूसरों के लिए असम्भव है।
स्वामीजी – तो क्या तू समझता है कि श्रीरामकृष्ण की ये सब संन्यासी सन्तान केवल पेड़ के नीचे धूनी लगाकर बैठे रहने के लिए ही पैदा हुई है? इनमें से जो जिस समय जिस कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होगा, उस समय उसका उद्यम देखकर लोग दंग रह जायेंगे। इससे सीख, काम कैसे करना चाहिए। यह देख, मेरे आदेश का पालन करने के लिए त्रिगुणातीत साधन-भजन, ध्यानधारणा तक छोड़कर कर्तव्यक्षेत्र में उतर पड़ा है। क्या यह कम त्याग की बात है? मेरे प्रति कितने प्रेम से कर्म की यह प्रेरणा उसमें आयी है देख तो, काम पूर्ण होने पर ही वह उसे छोड़ेगा! क्या तुम लोगों में है ऐसी दृढ़ता?
शिष्य – परन्तु महाराज, गेरुआ वस्त्र पहने संन्यासी का गृहस्थों के द्वार द्वार पर इस प्रकार घूमना फिरना हमारी दृष्टि में उचित नहीं है।
स्वामीजी – क्यों! पत्र का प्रचार तो गृहस्थों के ही कल्याण के लिए है। देश में नवीन भाव के प्रचार से जनसाधारण का कल्याण होगा। क्या तू इस फलाकांक्षारहित कर्म को साधन-भजन से कम महत्वपूर्ण समझता है? हमारा उद्देश्य है जीवों का कल्याण करना। इस पत्र की आमदनी से हमारा इरादा पैसा कमाने का नहीं है। हम सर्वत्यागी संन्यासी हैं – हमारे स्त्री-पुत्र नहीं हैं जो उनके लिए कुछ छोड़ जायेंगे। यदि काम सफल हो तथा आमदनी बढ़े तो इसकी सारी आमदनी जीवसेवा के उद्देश्य से खर्च होगी। स्थान स्थान पर संघ और सेवाश्रम स्थापित करने तथा अन्यान्य कल्याणकारी कार्यों में इससे बचे हुए धन का सदुपयोग हो सकेगा। हम लोग गृहस्थों की तरह धन संग्रह के उद्देश्य से यह काम नहीं कर रहे हैं। केवल परहित के लिए ही हमारे सभी काम है, यह जान लेना।
शिष्य – फिर भी सभी लोग इस भाव को समझ नहीं सकते।
स्वामीजी – न सही! इसमें हमारा क्या बनेगा या बिगड़ेगा? हम निन्दा या प्रशंसा की परवाह करके कार्य में अग्रसर नहीं हुए हैं।
शिष्य – महाराज, यह पत्र हर पन्द्रह दिनों के बाद प्रकाशित होगा; हमारी इच्छा है कि वह साप्ताहिक हो।
स्वामीजी – यह तो ठीक है, परन्तु उतना धन कहाँ है? श्रीरामकृष्ण की इच्छा से यदि रुपये की व्यवस्था हो जायगी तो कुछ समय के पश्चात् इसे दैनिक भी किया जा सकता है और प्रतिदिन इसकी लाखों प्रतियाँ छापकर कलकत्ते की गली गली में बिना मूल्य बाँटी जा सकती हैं।
शिष्य – आपका यह संकल्प बहुत ही उत्तम है।
स्वामीजी – मेरी इच्छा है कि इस पत्र को स्वावलम्बी बनाकर तुझे सम्पादक बना दूँ। किसी चीज को पहलेपहल खड़ा करने की शक्ति तो तुम लोगों में अभी नहीं आयी है। इसमें तो ये सब सर्वत्यागी साधु ही समर्थ हैं। ये लोग काम करते करते मर जायँगे, फिर भी हटनेवाले नहीं है। तुम लोग थोड़ी बाधा आते ही, थोड़ी निन्दा सुनते ही चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार देखने लगते हो।
शिष्य – हाँ, उस दिन हमने देखा भी था कि स्वामी त्रिगुणातीतानन्दजी ने पहले श्रीरामकृष्ण के चित्र की प्रेस में पूजा कर ली और तब काम प्रारम्भ किया। साथ ही काम की सफलता के लिए आपकी कृपा की प्रार्थना की।
स्वामीजी – हमारा केन्द्र तो श्रीरामकृष्ण ही हैं। हम एक एक व्यक्ति उसी प्रकाश-केन्द्र की एक एक किरण मात्र हैं। श्रीरामकृष्म की पूजा करके काम का आरम्भ किया, यह अच्छा किया। परन्तु उसने पूजा की बात तो मुझसे कुछ भी नहीं कही?
शिष्य – महाराज, वे आपसे डरते हैं। उन्होंने मुझसे कल कहा, “तू पहले स्वामीजी के पास जाकर जान आ कि पत्र के प्रथम अंक के बारे में उनकी क्या राय है, फिर मैं उनसे मिलूँगा।”
स्वामीजी – तू जाकर कह दे, मैं उसके काम से बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। उसे मेरा आशीर्वाद भी कहना और तुम लोग सब जहाँ तक हो सके उसकी सहायता करना। यह तो श्रीरामकृष्ण का ही काम है।
इतनी बातें कहकर स्वामीजी ने ब्रह्मानन्द स्वामीजी को पास बुलाया और आवश्यकतानुसार भविष्य में उद्बोधन के लिए त्रिगुणातीतानन्दजी को और अधिक धन देने का आदेश दिया। उस दिन रात को भोजन के पश्चात् स्वामीजी ने फिर शिष्य के साथ उद्बोधन पत्र के सम्बन्ध में चर्चा की।
स्वामीजी – उद्बोधन द्वारा जनसाधारण के सामने विधायक आदर्श रखना होगा। ‘नहीं, नहीं’ की भावना मनुष्य को दुर्बल बना डालती है। देखता नहीं, जो माता पिता दिन रात बच्चों के लिखने पढ़ने पर जोर देते रहते हैं, कहते हैं, ‘इसका कुछ सुधार नहीं होगा’, ‘यह मूर्ख है, गधा है’ आदि आदि – उनके बच्चे अधिकांश वैसे ही बन जाते हैं। बच्चों को अच्छा कहने से और प्रोत्साहत देने से, समय आने पर वे स्वयं ही अच्छे बन जाते हैं। जो नियम बच्चों के लिए हैं वे ही उन लोगों के लिए भी हैं जो भावराज्य के उच्च अधिकार की तुलना में उन शिशुओं की तरह हैं यदि जीवन को संगठित करनेवाले भाव उत्पन्न किये जा सके तो साधारण व्यक्ति भी मनुष्य बन जायगा और अपने पैरों पर खड़ा होना सीख सकेगा। मनुष्य भाषा साहित्य, दर्शन, कविता, शिल्प आदि अनेकानेक क्षेत्रों में जो प्रयत्न कर रहा है उसमें वह अनेकों गलतियाँ करता है। आवश्यक यह है कि हम उसे उन गलतियों को न बतलाकर उसे प्रगति के मार्ग पर धीरे धीरे अग्रसर होने के लिए सहायता दें। गलतियाँ दिखा देने से लोगों के मन में दुःख होता है तथा वे हतोत्साह हो जाते हैं। श्रीरामकृष्ण को हमने देखा है – जिन्हें हम त्याज्य मानते थे उन्हें भी वे प्रोत्साहित करके उनके जीवन की गति को लौटा देते थे। शिक्षा देने का उनका ढंग ही बड़ा अद्भुत था।
इसके पश्चात् स्वामीजी थोड़ा चुप हो गये। थोड़ी देर बाद फिर कहने लगे, “धर्म प्रचार के काम को बात-बात में किसी पर भी नाक भौं सिकोड़ने का काम न समझ लेना। शरीर, मन और आत्मा से सम्बद्ध सभी बातों में मनुष्य को विधायक भाव देना होगा, परन्तु घृणा के साथ नहीं। आपस में एक दूसरे से घृणा करते करते ही तुम लोगों का अधःपतन हो गया है। अब केवल सबल होने तथा जीवन को संगठित करने का भाव फैलाकर लोगों को उठाना होगा – उसके बाद दुनिया को उठाना होगा। असल में श्रीरामकृष्ण के अवतीर्ण होने का उद्देश्य यही था। उन्होंने जगत् में किसी के भाव को नष्ट नहीं किया। उन्होंने महापतित मनुष्य को भी अभय और उत्साह देकर उठा लिया है। हमें भी उनके चरणचिन्हों का अनुसरण कर सभी को उठाना होगा – जगाना होगा – समझा?
“तुम्हारे इतिहास, साहित्य, पुराण आदि सभी शास्त्र मनुष्य को केवल डराने का ही कार्य करते हैं। मनुष्य से केवल कह रहे हैं – ‘तू नरक में जायगा, तेरी रक्षा का कोई उपाय नहीं है।’ इसलिए भारत की नस नस में इतनी अवसन्नता प्रविष्ट हो गयी है। अतः वेद-वेदान्त के उच्च भावों को सरल भाषा में लोगों को समझा देना होगा। सदाचार, सद्व्यवहार और शिक्षा का प्रचार कर ब्राह्मण और चाण्डाल को एक ही भूमि पर खड़ा करना होगा। उद्बोधन पत्र में इन्हीं विषयों को लिखकर बालक, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी को उठा दे तो देखूँ। तब जानूँगा तेरा वे-वेदान्त पढ़ना सफल हुआ है। क्या कहता है बोल – कर सकेगा?”
शिष्य – मन कहता है, आपका आशीर्वाद और आदेश होने पर सभी विषयों में सफल हो सकूँगा।
स्वामीजी – एक बात और, तुम्हें शरीर को दृढ़ बनाना सीखना होगा और यही दूसरों को भी सिखाना होगा। देखता नहीं मैं अभी भी प्रतिदिन डम्बेल करता हूँ। रोज सबेरे शाम घूमना; शारीरिक परिश्रम करना – शरीर और मन साथ ही साथ उन्नत होने चाहिए। सभी बातों में दूसरों पर निर्भर रहने से कैसे काम चलेगा। शरीर को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता समझने पर तू स्वयं ही उस विषय में चेष्टा करेगा। इस आवश्यकता को समझने के ही लिए तो शिक्षा की जरूरत है।
- स्वर्गीय हरमोहन मित्र।
- यह छापाखाना स्वामीजी के जीवनकाल में ही कई कारणों से बेच दिया गया था।
- इस शब्द का अर्थ है – गले में फाँसी लगवाकर आत्मघात कर लेना।