स्वामी विवेकानंद द्वारा शिष्य को व्यापार वाणिज्य करने के लिए प्रोत्साहित करना
स्थल – बेलुड़; किराये का मठ-भवन
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – स्वामीजी द्वारा शिष्य को व्यापार वाणिज्य करने के लिए प्रोत्साहित करना – श्रद्धा व आत्मविश्वास न होने के कारण ही इस देश केमध्यम श्रेणी के लोगों की दुर्दशा – इंग्लैण्ड में नौकरीपेशा लोगों को छोटामानकर उनके प्रति जनता की घृणा – भारत में शिक्षा के अभिमानी व्यक्त्तियोंकी निष्क्रियता – वास्तविक शिक्षा किसे कहते हैं – दुसरे देशों के निवासियोंकी क्रियाशीलता और आत्मविश्वास – भारत के उच्च जातीय लोगों की तुलनामें निम्नजातीय लोगों की जागृति तथा उनका उच्च जाति के लोगों से अपनेअधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न – उच्च जाति के लोग इस विषय में यदि उनकीसहायता करें तो भविष्य में दोनों जातियों का लाभ – निम्नजातियों के व्यक्त्तियों को यदि गीता के उपदेश के अनुसार शिक्षा दी जाय तो वे अपने अपने जातीयकर्मों का त्याग न करके उन्हें और भी गौरव के साथ करते रहेंगे – यदिउच्चवर्गीय व्यक्ति इस समय इस प्रकार निम्नजातियों की सहायता न करेंगेतो उनके भविष्य के निश्चय ही अन्धकारपूर्ण होने की सम्भावना।
शिष्य आज प्रातःकाल मठ में आया है। स्वामीजी के चरणकमलों की वन्दना करके खड़े होते ही स्वामीजी बोले, “नौकरी ही करते रहने से क्या होगा। कोई व्यापार क्यों नहीं करते?” शिष्य उस समय एक स्थान पर एक गृहशिक्षक का कार्य करता था। उस समय तक उसके सिर पर परिवार का भार न था। आनन्द से दिन बीतते थे। शिक्षक के कार्य के सम्बन्ध में शिष्य ने पूछा तब स्वामीजी ने कहा, “बहुत दिनों तक मास्टरी करने से बुद्धि बिगड़ जाती है। ज्ञान का विकास नहीं होता। दिनरात लड़कों के बीच रहने से धीरे धीरे जड़ता आ जाती है; इसलिए आगे अब अधिक मास्टरी न कर।”
शिष्य – तो क्या करू?
स्वामीजी – क्यों? यदि तुझे गृहस्थी ही करनी है और यदि धन कमाने की आकांक्षा है, तो जा अमरीका में चला जा। मैं व्यापार का उपाय बता दूँगा। देखना पाँच वर्षों में कितना धन कमा लेगा।
शिष्य – कौनसा व्यापार करूँगा? और उसके लिए धन कहाँ से आयगा?
स्वामीजी – पागल की तरह क्या बकता है? तेरे भीतर अदम्य शक्ति है। तू तो ‘मैं कुछ नहीं’ सोच सोच कर वीर्यविहीन बना जा रहा है। तू ही क्यों? – सारी जाति ही ऐसी बन गयी है। जा एक बार घूम आ; देखेगा भारतवर्ष के बाहर लोगों का जीवनप्रवाह कैसे आनन्द से, सरलता से, प्रबल वेग के साथ बहता जा रहा है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? इतनी विद्या सीख कर दुसरों के दरवाजे पर भिखारी की तरह ‘नौकरी दो, नौकरी दो’ कहकर चिल्ला रहे हो। दूसरों की ठोकरें खाते हुए – गुलामी करके भी तुम लोग क्या अभी मनुष्य रह गये हो? तुम लोगों का मूल्य एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। ऐसी सुजला सुफला भूमि, जहाँ पर प्रकृति अन्य सभी देशों से करोड़ों गुना अधिक धनधान्य पैदा कर रही है, वहाँ पर जन्म लेकर भी तुम लोगों के पेट में अन्न नहीं, तन पर वस्त्र नहीं! जिस देश के धनधान्य ने पृथ्वी के अन्य सभी देशों में सभ्यता का विस्तार किया है, उसी अन्नपूर्णा के देश में तुम लोगों की ऐसी दुर्दशा! तुम लोग घृणित कुत्तों से भी बदतर हो गये हो! और फिर भी अपने वेद वेदान्त की डींग हाँकते हो! जो राष्ट्र आवश्यक अन्न-वस्त्र का भी प्रबन्ध नहीं कर सकता और दूसरों के मुँह की ओर ताक कर ही जीवन व्यतीत कर रहा है उस राष्ट्र का यह गर्व! धर्म कर्मों को तिलांजलि देकर पहले जीवनसंग्राम में कूद पड़ो। भारत में कितनी चीजें पैदा होती हैं। विदेशी लोग उसी कच्चे माल के द्वारा ‘सोना’ पैदा कर रहे हैं। और तुम लोग बोझ ढोनेवाले गधों की तरह उनके सामानों को उठाते उठाते मरे जा रहे हो। भारत में जो चीजें उत्पन्न होती हैं, विदेशी उन्हीं को ले जाकर अपनी बुद्धि से अनेक प्रकार की चीजें बनाकर सम्पत्तिशाली बन गये; और तुम लोग! अपनी बुद्धि सन्दूक में बन्द करके घर का धन दूसरों को देकर ‘हा अन्न’ ‘हा अन्न’ करके भटक रहे हो!
शिष्य – अन्न-समस्या कैसे हल हो सकती है, महाराज?
स्वामीजी – उपाय तुम्हारे ही हाथों में है। आँखों पर पट्टी बाँधकर कह रहे हो, “मैं अन्धा हूँ, कुछ देख नहीं सकता!’ आँख पर की पट्टी अलग कर दो, देखोगे – दोपहर सूर्य की किरणों से जगत् आलोकित हो रहा है। रुपया इकट्ठा नहीं कर सकता, तो जहाज का मजदूर बनकर विदेश में चला जा। देशी वस्त्र, गमछा, सूप, झाडू सिर पर रखकर अमरीका और युरोप की सड़कों और गलियों में घूम-घूम कर बेच। देखेगा, भारत में उत्पन्न चीजों का आज भी वहाँ कितना मूल्य है। हुगली जिले के कुछ मुसलमान अमरीका में ऐसा ही व्यापार कर धनवान बन गये हैं। क्या तुम लोगों की विद्या बुद्धि उनसे भी कम है? देखना, इस देश में जो बनारसी साड़ी बनती है, उसके समान बड़िढया कपड़ा पृथ्वी भर में और कहीं नहीं बनता इस कपड़े को लेकर अमरीका में चला जा। उस देश में इस कपड़े से स्त्रियों के गाऊन तैयार करने लग जा, फिर देख कितने रुपये आते हैं।
शिष्य – महाराज, वे लोग क्या बनारसी साड़ी का गाऊन पहनेंगी? सुना है, रंगबिरंगे कपड़े उनके देश की औरतें पसन्द नहीं करतीं।
स्वामीजी – लेंगे या नहीं, यह मैं देखूँगा। हिम्मत करके चला तो जा! उस देश में मेरे अनेक मित्र हैं। मैं उनसे तेरा परिचय करा दूँगा। आरम्भ में कह सुनकर उनमें उन चीजों का प्रचार करा दूँगा। उसके बाद देखेगा, कितने लोग उनकी नकल करते हैं। तब तो तू उनकी माँग की पूर्ति करने में भी अपने को असमर्थ पायगा।
शिष्य – पर व्यापार करने के लिए मूलधन कहाँ से आयगा?
स्वामीजी – मैं किसी न किसी तरह तेरा काम शुरू करा दूँगा। परन्तु उसके बाद तुझे अपने ही प्रयत्न पर निर्भर रहना होगा। ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ – इस प्रयत्न में यदि तू मर भी जायगा तो भी बुरा नहीं। तुझे देखकर और दूसरे दस व्यक्ति आगे बढेंगे। और यदि सफलता प्राप्त हो गयी, तो फिर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करेगा।
शिष्य – परन्तु महाराज, साहस नहीं होता।
स्वामीजी – इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि भाई, तुममें श्रद्धा नहीं है – आत्मविश्वास भी नहीं। क्या होगा तुम लोगों का? न तो तुमसे गृहस्थी होगी और न धर्म ही। या तो इस प्रकार के उद्योगधन्धे करके संसार में यशस्वी, सम्पत्तिशाली बन, या सब कुछ छोड़-छाड़ कर हमारे पथ का अनुसरण करके लोगों को धर्म का उपदेश देकर उनका उपकार कर; तभी तू हमारी तरह भिक्षा पा सकेगा। लेन-देन न रहने पर कोई किसी की ओर नहीं ताकता। देख तो रहा है; हम धर्म की दो बातें सुनाते हैं, इसीलिए गृहस्थ लोग हमें अन्न के दो दाने दे रहे हैं। तुम लोग कुछ भी न करोगे, तो लोग तुम्हें अन्न भी क्यों देंगे? नौकरी में, गुलामी में इतना दुःख देखकर भी तुम लोग सचेत नहीं हो रहे हो! इसलिए दुःख भी दूर नहीं हो रहा है। यह अवश्य ही दैवी माया का छल है। उस देश में मैंने देखा, जो लोग नौकरी करते हैं उनका स्थान पार्लमेंट (राष्ट्रीय सभा) में बहुत पीछे होता है। पर जो लोग प्रयत्न करके विद्या-बुद्धि द्वारा स्वनामधन्य हो गये हैं उनके बैठने के लिए सामने की सीटें रहती हैं। उन सब देशों में जाति-भेद का झंझट नहीं है। उद्यम व परिश्रम द्वारा जिन पर भाग्य-लक्ष्मी प्रसन्न है, वे ही देश के नेता और नियन्ता माने जाते हैं। और तुम्हारे देश में जातिपाँति का मिथ्याभिमान है, इसीलिए तुम्हे अन्न तक नसीब नहीं। तुममें एक सुई तक तैयार करने की योग्यता नहीं है और फिर तुम लोग अंग्रेजों के गुणदोषों की आलोचना करने को उद्यत होते हो! मूर्ख! जा उनके पैरो पड़; जीवनसंग्राम के उपयुक्त विद्या, शिल्पविज्ञान और क्रियाशीलता सीख, तभी तू योग्य बनेगा और तभी तुम लोगों का सम्मान होगा। वे भी उस समय तुम्हारी बात मानेंगे। केवल काँग्रेस बनाकर चिल्लाने से क्या होगा?
शिष्य – परन्तु महाराज, देश के सभी शिक्षित लोग उसमें सम्मिलित हो रहे हैं।
स्वामीजी – कुछ उपाधियाँ प्राप्त करने या अच्छा भाषण दे सकने से ही क्या तुम्हारी दृष्टि में वे शिक्षित हो गये! जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवनसंग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्य में चरित्र-बल, परहित-भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? जिस शिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही है शिक्षा। आजकल के इन सब स्कूल-कालेजों में पढ़कर तुम लोग न जाने कैसी एक प्रकार के अजीर्ण के रोगियों की जमात तैयार कर रहे हो। केवल मशीन की तरह परिश्रम कर रहे हो और ‘जायस्व म्रियस्व’ इस वाक्य के साक्षी रूप में खड़े हो! ये जो किसान, मजदूर, मोची, मेहतर आदि हैं इनकी कर्मशीलता और आत्मनिष्ठा तुममें से कई लोगों से काफी अधिक है। ये लोग चिरकाल से चुपचाप काम किये जा रहे हैं, देश का धन-धान्य उत्पन्न कर रहे हैं, पर अपने मुँह से कभी आवाज नहीं निकालते। ये लोग शीघ्र ही तुम लोगों से ऊपर उठ जायेंगे। धन उनके हाथ में चला जा रहा है – तुम्हारी तरह उनमें कमी नहीं है। वर्तमान शिक्षा से तुम्हारा सिर्फ बाहरी परिवर्तन होता जा रहा है। – परन्तु नयी नयी उद्भावनी शक्ति के अभाव के कारण तुम लोगों को धन कमाने का उपाय उपलब्ध नहीं हो रहा है। तुम लोगों ने इतने दिन इन सब सहनशील निम्नजातियों पर अत्याचार किया है। अब ये लोग उसका बदला लेंगे और तुम लोग ‘हा! नौकरी’ ‘हा! नौकरी’ करके लुप्त हो जाओगे।
शिष्य – महाराज, दूसरे देशों की तुलना में हमारी उद्भावनी शक्ति कम होने पर भी भारत की अन्य सभी जातियाँ तो हमारी बुद्धि द्वारा ही संचालित हो रही हैं। अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि उच्च जातियों को जीवनसंग्राम में पराजित कर सकने की शक्ति और शिक्षा अन्य जातियाँ कहाँ से पायेंगी?
स्वामीजी – माना कि उन्होंने तुम लोगों की तरह पुस्तके नहीं पढ़ी हैं, तुम्हारी तरह कोट कमीज पहनकर सभ्य बनना उन्होंने नहीं सीखा, पर इससे क्या होता है? वास्तव में वे ही राष्ट्र की रीढ़ हैं। यदि ये निम्नश्रेणियों के लोग अपना अपना काम बन्द कर दे तो तुम लोगों को अन्न-वस्त्र मिलना कठिन हो जाय! कलकत्ते में यदि मेहतर लोग एक दिन के लिए काम बन्द कर देते हैं तो ‘हाय तोबा’ मच जाती है; यदि तीन दिन वे काम बन्द कर दें तो सांक्रमिक रोग से शहर बर्बाद हो जाय! श्रमिकों के काम बन्द करने पर तुम्हें अन्न-वस्त्र नहीं मिल सकते। इन्हें ही तुम लोग नीच समझ रहे हो और अपने को शिक्षित मानकर अभिमान कर रहे हो।
जीवनसंग्राम में सदा लगे रहने के कारण निम्न श्रेणी के लोगों में अभी तक ज्ञान का विकास नहीं हुआ। ये लोग अभी तक मानवबुद्धि द्वारा परिचालित यन्त्र की तरह एक ही भाव से काम करते आये हैं, और बुद्धिमान चतुर व्यक्ति इनके परिश्रम तथा कार्य का सार तथा निचोड़ लेते रहें हैं। सभी देशों में इसी प्रकार हुआ है। परन्तु अब वे दिन नहीं रहे। निम्न श्रेणी के लोग धीरे धीरे यह बात समझ रहे हैं और इसके विरुद्ध सब सम्मिलित रूप से खड़े होकर अपने समुचित अधिकार प्राप्त करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो गये हैं। यूरोप और अमरीका में निम्न जातीय लोगों ने जागृत होकर इस दिशा में प्रयत्न भी प्रारम्भ कर दिया है, और आज भारत में भी इसके लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे हैं। निम्न श्रेणी के व्यक्तियों द्वारा आजकल जो इतनी हडताले हो रही है, वह इनकी इसी जागृति का प्रमाण है। अब हजार प्रयत्न करके भी उच्च जाति के लोग निम्न श्रेणियों को अधिक दबाकर नहीं रख सकेंगे। अब निम्न श्रेणियों के न्यायसंगत अधिकार की प्राप्ति में सहायता करने में ही उच्च श्रेणियों का भला है।
इसीलिए कहता हूँ कि तुम लोग ऐसे काम में लग जाओ, जिससे साधारण श्रेणी के लोगों में विद्या का विकास हो। इन्हें जाकर समझा कर कहो – ‘तुम हमारे भाई हो – हमारे शरीर के अंग हो – हम तुमसे प्रेम करते हैं – घृणा नहीं।’ तुम लोगों की यह सहानुभूति पाने पर ये लोग सौ गुने उत्साह के साथ काम करने लगेंगे। आधुनिक विज्ञान की सहायता से इनमें ज्ञान का विकास कर दो। इतिहास, भूगोल, विज्ञान, साहित्य और साथ ही साथ धर्म के गम्भीर तत्त्व इन्हें सिखा दो। उससे शिक्षकों की भी दरिद्रता मिट जायगी और लेन-देन से दोनों आपस में मित्र जैसे बन जायेंगे।
शिष्य – परन्तु महाराज, इनमें शिक्षा का प्रचार होने पर ये लोग भी तो फिर समय जाने पर हमारी ही तरह बुद्धिमान किन्तु निश्चेष्ट तथा आलसी बनकर अपने से निम्न श्रेणी के लोगों के परिश्रम से लाभ उठाने लग जायेंगे।
स्वामीजी – ऐसा क्यों होगा? ज्ञान का विकास होने पर भी कुम्हार कुम्हार ही रहेगा – मछुआ मछुआ ही बना रहेगा – किसान खेती का ही काम करेगा। कोई अपना जातीय धन्धा क्यों छोड़ेगा? ‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्’ – इस भाव से शिक्षा पाने पर वे लोग अपने अपने व्यवसाय क्यों छोडेंगे? विद्या के बल से अपनी जाति के कर्म को और भी अच्छी तरह से करने का प्रयत्न करेंगे। समय पर उनमें से दस-पाँच प्रतिभाशाली व्यक्ति अवश्य उठ खड़े होंगे। उन्हें तुम अपनी उच्च श्रेणी में सम्मिलित कर लोगे। तेजस्वी विश्वामित्र को जो ब्राह्मणों ने ब्राह्मण मान लिया था इससे क्षत्रिय जाति ब्राह्मणों के प्रति कितनी कृतज्ञ हुई थी – कहो तो? उसी प्रकार सहानुभूति और सहायता प्राप्त करने पर मनुष्य तो दूर रहा, पशु पक्षी भी अपने बन जाते हैं।
शिष्य – महाराज, आप जो कुछ कह रहे हैं वह सत्य तो है, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अभी भी उच्च तथा निम्न श्रेणी के लोगों में बड़ा अन्तर है। भारतवर्ष की निम्न जातियों के प्रति उच्च श्रेणी के लोगों में सहानुभूति की भावना लाना बड़ा ही कठिन काम ज्ञात होता हैं।
स्वामीजी – परन्तु ऐसा न होने से तुम्हारा (उच्च जातियों का) भला नहीं है। तुम लोग हमेशा से जो कुछ करते आ रहे हो, वह तुम्हारा पृथकता का प्रयत्न रहा है। आपस की मारकाट ही करते हुए मर मिटोगे! ये निम्न श्रेणी के लोग जब जाग उठेंगे और अपने ऊपर होनेवाले तुम लोगों के अत्याचारों को समझ लेंगे, तब उनकी फूक से ही तुम लोग उड़ जाओगे! उन्होंने तुम्हें सभ्य बनाया है, उस समय वे ही सब कुछ मिटा देंगे। सोचकर देखो न – रोमन सभ्यता गाल जाति के पंजे में पड़कर कहाँ चली गयी। इसीलिए कहता हूँ, इन सब निम्नजाति के लोगों को विद्यादान, ज्ञानदान देकर उन्हें नींद से जगाने के लिए सचेष्ट हो जाओ! जब वे लोग जागेंगे – और एक दिन वे अवश्य जागेंगे – तब वे भी तुम लोगों के किये उपकारों को नहीं भूलेंगे और तुम लोगों के प्रति कृतज्ञ रहेंगे।
इस प्रकार वार्तालाप के बाद स्वामीजी ने शिष्य से कहा – ये सब बातें अब रहने दे, तूने अब क्या निश्चय किया, कह। मैं तो कहता हूँ, जो कुछ भी हो, तू कुछ कर अवश्य। या तो किसी व्यापार के लिए चेष्टा कर, नहीं तो हम लोगों की तरह ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगधिताय च’ – यथार्थ संन्यास के पथ का अनुसरण कर। यह अन्तिम पथ ही निस्सन्देह श्रेष्ठ पथ है, व्यर्थ ही गृहस्थ बनने से क्या होगा? समझा न, सभी क्षणिक है – ‘नलिनीदलगतजलमतितरलं, तद्वज्जीवनमतिशयचपलम्।’ अतः यदि इसी आत्मविश्रास को प्राप्त करने को उत्कण्ठित है, तो फिर समय न गँवा! आगे बढ़। ‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्।’ दूसरों के लिए अपने जीवन का बलिदान देकर लोगों के द्वार द्वार पर जाकर यह अभय वाणी सुना – “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।”