भक्त का वैराग्य प्रेमजन्य – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“भक्त का वैराग्य प्रेमजन्य” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी बता रहे हैं कि भक्त का वैराग्य प्रेमजन्य होता है अर्थात प्रेम से निःसृत होता है। यह वैराग्य अन्य मार्गों की तरह शुष्क प्रतीत नहीं होता है। इस किताब के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – स्वामी विवेकानंद की पुस्तक भक्तियोग हिंदी में।
प्रकृति में सर्वत्र हम प्रेम का विकास देखते हैं। मानव-समाज में जो कुछ सुन्दर और महान् है, वह समस्त प्रेम-प्रसूत है; फिर जो कुछ खराब, यही नहीं, बल्कि पैशाचिक है, वह भी उसी प्रेमभाव का विकृत रूप है। पति-पत्नी का विशुद्ध दाम्पत्य-प्रेम और अति नीच कामवृत्ति दोनों उस प्रेम के ही दो रूप हैं। भाव एक ही है, पर भिन्न अवस्था में उसके भिन्न भिन्न रूप होते हैं। यह एक ही प्रेम एक ओर तो मनुष्य को भलाई करने और अपना सब कुछ गरीबों को बाँट देने के लिए प्रेरित करता है, फिर दूसरी ओर वही एक दूसरे मनुष्य को अपने बन्धु-बान्धवों का गला काटने और उनका सर्वस्व अपहरण कर लेने की प्रेरणा देता है। यह दूसरा व्यक्ति जिस प्रकार अपने आपसे प्यार करता है, पहला व्यक्ति उसी प्रकार दूसरों से प्यार करता है। पहली दशा में प्रेम की गति ठीक और उचित दिशा में है, पर दूसरी दशा में वही बुरी दिशा में। जो आग हमारे लिए भोजन पकाती है, वह एक बच्चे को जला भी सकती है। किन्तु इसमें आग का कोई दोष नहीं। उसका जैसा व्यवहार किया जायगा, वैसा फल मिलेगा। अतएव यह प्रेम, यह प्रबल आसंगस्पृहा, दो व्यक्तियों के एकप्राण हो जाने की यह तीव्र आकांक्षा, और सम्भवतः, अन्त में सब की उस एक स्वरूप में विलीन हो जाने की इच्छा, उत्तम या अधम रूप से सर्वत्र प्रकाशित है।
भक्तियोग उच्चतर प्रेम का विज्ञान है। वह हमें दर्शाता है कि हम प्रेम को ठीक रास्ते से कैसे लगाये, कैसे उसे वश में लाये, उसका सद्व्यवहार किस प्रकार करें, किस प्रकार एक नये मार्ग में उसे मोड़ दे और उससे श्रेष्ठ और महत्तम फल अर्थात् जीवन्मुक्त अवस्था किस प्रकार प्राप्त करें। भक्तियोग कुछ छोड़ने-छाड़ने की शिक्षा नहीं देता; वह केवल कहता है, “परमेश्वर में आसक्त होओ।” और जो परमेश्वर के प्रेम में उन्मत्त हो गया है, उसकी स्वभावतः नीच विषयों में कोई प्रवृत्ति नहीं रह सकती।
“प्रभो, मैं तुम्हारे बारे में और कुछ नहीं जानता, केवल इतना जानता हूँ कि तुम मेरे हो। तुम सुन्दर हो! अहा, तुम अत्यन्त सुन्दर हो! तुम स्वयं सौन्दर्यस्वरूप हो!” हम सभी में सौन्दर्यपिपासा विद्यमान है। भक्तियोग केवल इतना कहता है कि इस सौन्दर्य-पिपासा की गति भगवान की ओर फेर दो। मानव-मुखड़े, आकाश, तारा या चन्द्रमा में जो सौन्दर्य दिखता है, वह आया कहाँ से? वह भगवान के उस सर्वतोमुखी प्रकृत सौन्दर्य का ही आंशिक प्रकाश मात्र है। उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित होते हैं।”1 उसी का तेज सब वस्तुओं में है। भक्ति की इस उच्च अवस्था को प्राप्त करो। उससे तुम एकदम अपने क्षुद्र अहंभाव को भूल जाओगे। छोटे छोटे सांसारिक स्वार्थों का त्याग कर दो। यह न समझ बैठना कि मानवता ही तुम्हारे समस्त मानवी और उससे उच्चतर ध्येयों का भी केन्द्र है। तुम केवल एक साक्षी की तरह, एक जिज्ञासु की तरह खड़े रहो और प्रकृति की लीलाएँ देखते जाओ। मनुष्य के प्रति आसक्ति-रहित होओ और देखो, यह प्रबल प्रेमप्रवाह जगत् में किस प्रकार कार्य कर रहा है! हो सकता है, कभी कभी एक-आध धक्का भी लगे, परन्तु वह परमप्रेम की प्राप्ति के मार्ग में होनेवाली एक घटना मात्र है। सम्भव है, कहीं थोड़ा द्वन्द्व छिड़े, अथवा कोई थोड़ा फिसल जाय, पर ये सब उस परमप्रेम में आरोहण के सोपान मात्र हैं। चाहे जितने द्वन्द्व छिड़ें, चाहे जितने संघर्ष आयें, पर तुम साक्षी होकर बस एक ओर खड़े रहो। ये द्वन्द्व तुम्हें कभी खटकेंगे, जब तुम संसार-प्रवाह में पड़े होगे। परन्तु जब तुम उसके बाहर निकल जाओगे और केवल एक दर्शक के रूप में खड़े रहोगे, तो देखोगे कि प्रेमस्वरूप भगवान अपने आपको अनन्त प्रकार से प्रकाशित कर रहे हैं।
“जहाँ कहीं थोड़ासा भी आनन्द है, चाहे वह घोर विषय-भोग का ही क्यों न हो, वहाँ उस अनन्त आनन्दस्वरूप भगवान का ही अंश है।”नीच से नीच आसक्ति में भी ईश्वरी प्रेम का बीज निहित है। संस्कृत भाषा में प्रभु का एक नाम ‘हरि’ है। उसका अर्थ यह है कि वे सब को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। असल में वे ही हमारे प्रेम के एकमात्र उपयुक्त पात्र हैं। यह जो हम लोग नाना दिशाओं में आकृष्ट हो रहे हैं, तो हम लोगों को खींच कौन रहा है? वे ही! – वे ही हमें अपनी गोद में लगातार खींच रहे हैं। निर्जीव जड़ क्या कभी चेतन आत्मा को खींच सकता है? नहीं – कभी नहीं। मान लो, एक सुन्दर मुखड़ा देखकर कोई उन्मत्त हो गया। तो क्या कुछ जड़ परमाणुओं की समष्टि ने उसे पागल कर दिया है? नहीं, कभी नहीं। इन जड़ परमाणुओं के पीछे अवश्य ईश्वरी शक्ति और ईश्वरी प्रेम का खेल चल रहा है। अज्ञ मनुष्य यह नहीं जानता। परन्तु फिर भी, जाने या अनजाने, वह उसी के द्वारा आकृष्ट हो रहा है। अतएव नीच से नीच आसक्ति भी अपनी आकर्षण की शक्ति स्वयं भगवान से ही पाती है। “हे प्रिये, कोई स्त्री अपने पति को पति के लिए प्यार नहीं करती; पति के अन्तरस्थ आत्मा के लिए ही पत्नी उसे प्यार करती है।”2 प्रेमिका, पत्नियाँ चाहे यह जानती हों अथवा नहीं, पर है यह सत्य। “हे प्रिये, पत्नी के लिए पत्नी को कोई प्यार नहीं करता परन्तु पत्नी के अन्तरस्थ आत्मा के लिए ही पति उसे प्यार करता है।”3 इसी प्रकार, संसार में जब कोई अपने बच्चे अथवा अन्य किसी से प्रेम करता है, तो वह वास्तव में उसके अन्तरस्थ आत्मा के लिए ही उससे प्रेम करता है। भगवान मानो एक बड़े चुम्बक है और हम सब लोहे की रेत के समान हैं। हम लोग उनके द्वारा सतत खींचे जा रहे है। हम सभी उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। संसार में हम जो नानाविध प्रयत्न करते हैं, वे सब केवल स्वार्थ के लिए नहीं हो सकते। अज्ञानी लोग जानते नहीं कि उनके जीवन का उद्देश्य क्या है। वास्तव में वे लगातार परमात्मस्वरूप उस बड़े चुम्बक की ओर ही अग्रसर हो रहे हैं। हमारे इस अविराम, कठोर जीवन-संग्राम का लक्ष्य है – अन्त में उनके निकट पहुँचकर उनके साथ एकीभूत हो जाना।
भक्तियोगी इस जीवन-संग्राम का अर्थ भलीभाँति जानता है। वह ऐसे संग्रामों की एक लम्बी परम्परा में से पार हो चुका है और वह जानता है कि उनका लक्ष्य क्या है। उनसे होनेवाले द्वन्द्वों से छुटकारा पाने की उसकी तीव्र आकांक्षा रहती है। वह संघर्षो से दूर ही रहना चाहता है और सीधे समस्त आकर्षणों के मूलकारणस्वरूप ‘हरि’ के निकट चला जाना चाहता है। यही भक्त का त्याग है। भगवान के प्रति इस प्रबल आकर्षण से उसके अन्य सब आकर्षण नष्ट हो जाते हैं। उसके हृदय में इस प्रबल अनन्त ईश्वर-प्रेम के प्रवेश कर जाने से फिर वहाँ अन्य किसी प्रेम की तिल मात्र भी गुंजाइश नहीं रह जाती। और रहे भी कैसे? भक्ति उसके हृदय को ईश्वररूपी प्रेम-सागर के दैवी जल से भर देती है और इस प्रकार उसमें फिर क्षुद्र प्रेमों के लिए स्थान ही नहीं रह जाता। तात्पर्य यह कि भक्त का वैराग्य अर्थात् भगवान को छोड़ समस्त विषयों में अनासक्ति भगवान के प्रति परम अनुराग से उत्पन्न होती है।
पराभक्ति की प्राप्ति के लिए यही सर्वोच्च साधन है – यही आदर्श तैयारी है। जब वह वैराग्य आता है, तो पराभक्ति के राज्य का प्रवेशद्वार खुल जाता है, जिससे आत्मा पराभक्ति के गम्भीरतम प्रदेशों में पहुँच सके। तभी हम यह समझने लगते हैं कि पराभक्ति क्या है। और जिसने पराभक्ति के राज्य में प्रवेश किया है, उसी को यह कहने का अधिकार है कि प्रतिमापूजन अथवा बाह्य अनुष्ठान आदि अब और अधिक आवश्यक नहीं है। उसी ने प्रेम की उस पर अवस्था की प्राप्ति कर ली है, जिसे हम साधारणतया विश्वबन्धुत्व कहते हैं; दूसरे लोग तो विश्वबन्धुत्व की कोरी बातें ही करते हैं। उसमें फिर भेदभाव नहीं रह जाता। यह अथाह प्रेमसिन्धु में निमग्न हो जाता है। तब उसे मनुष्य में मनुष्य नहीं दिखता, वरन् सर्वत्र उसे अपना प्रियतम ही दिखायी देता है। प्रत्येक मुख में उसे ‘हरि’ ही दिखायी देते हैं। सूर्य अथवा चन्द्र का प्रकाश उन्हीं की अभिव्यक्ति है। जहाँ कही सौन्दर्य और महानता दिखायी देती है, उसकी दृष्टि में वह सब भगवान की ही है। ऐसे भक्त आज भी इस संसार में विद्यमान हैं। संसार उनसे कभी रिक्त नहीं होता। ऐसे भक्तों को यदि साँप भी काट ले, तो वे कहते हैं, “मेरे प्रियतम का एक दूत आया था।” ऐसे ही पुरुषों को विश्वबन्धुत्व की बातें करने का अधिकार है। उनके हृदय में क्रोध, घृणा अथवा ईर्ष्या कभी प्रवेश नहीं कर पाती। सारा बाह्य, इन्द्रियग्राह्य जगत् उनके लिए सदा के लिए लुप्त हो जाता है। वे तो अपने प्रेम के बल से अतीन्द्रिय सत्य को सारे समय देखते रहते हैं। तो फिर उनमें क्रोध भला आये कैसे?
- तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।
कठोपनिषद्, २।२।१५ - न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनः तु कामाय पतिः प्रियो भवति।
बृहदारण्यक उपनिषद्, २।४ - न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवति, आत्मनः तु कामाय जाया प्रिया भवति।
बृहदारण्यक उपनिषद्, २।४
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