ब्रह्म एवं जगत – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)
“ब्रह्म एवं जगत” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने 1896 में लंदन में दिया था। यह भाषण उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग में संकलित है। इसमें स्वामी जी ने ब्रह्म एवं जगत की विभिन्न व्याख्याओं यथा द्वैतवादी व्याख्या और अद्वैतवादी व्याख्या को समझाया है एवं इससे जुड़े सभी सिद्धान्तों का सूक्ष्म निरूपण किया है। ब्रह्म एवं जगत का क्या संबंध है और किस प्रकार ब्रह्म की जगत का आश्रय है, इसकी विवेचना भी की गयी है। अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – हिंदी में ज्ञानयोग।
अद्वैत वेदान्त की इस एक बात की धारणा करना अत्यन्त कठिन है कि जो ब्रह्म अनन्त है, वह सान्त अथवा ससीम किस प्रकार हुआ। यह प्रश्न मनुष्य सर्वदा करता रहेगा, पर जीवन भर इस प्रश्न पर विचार करते रहने पर भी उसके हृदय से यह प्रश्न कभी दूर न होगा और वह बारम्बार पूछेगा – जो असीम है, वह सीमित कैसे हुआ? मैं अब इसी प्रश्न को लेकर आलोचना करूँगा। इसको ठीक प्रकार से समझाने के लिए मैं नीचे दिये हुए चित्र की सहायता लूँगा।
इस चित्र में (क) है ब्रह्म और (ख) है जगत्। ब्रह्म ही जगत् हो गया है। यहाँ पर जगत् शब्द से केवल जड़ जगत् ही नहीं, किन्तु सूक्ष्म तथा आध्यात्मिक जगत् स्वर्ग, नरक, और वास्तव में जो कुछ भी है, सब को इसके अन्तर्गत लेना होगा। मन एक प्रकार के परिणाम का नाम है, शरीर एक दूसरे प्रकार के परिणाम का – इत्यादि, इत्यादि। इन सब को लेकर अपना यह जगत् निर्मित हुआ है। यह ब्रह्म (क) देश-काल-निमित्त (ग) में से होकर आने से जगत् (ख) बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है। हम देश-काल-निमित्त रूपी काँच में से ब्रह्म को देख रहे हैं, और इस प्रकार नीचे की ओर से देखने पर ब्रह्म हमें जगत् के रूप में दिखता है। इससे यह स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है, वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार । देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई बाह्य परिणाम नहीं है । जहाँ सत्ता केवल एक है वहाँ गति एवं निमित्त अथवा कार्य-कारण-भाव भी नहीं रह सकता। यह बात समझना और इसकी अच्छी तरह धारणा कर लेना हमारे लिए अत्यावश्यक है कि जिसको हम कार्य- कारण-भाव कहते हैं, वह तो (यदि हम इन शब्दों का प्रयोग कर सकें) ब्रह्म के प्रपंच रूप में अवनत होने के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं; और हमारी इच्छा वासना आदि जो कुछ है, वे सब उसके बाद ही आरम्भ होते हैं। मेरी राय में शौपेनहॉवर ने अपने दर्शन में वेदान्त की व्याख्या करते समय यहीं पर भूल की; और उन्होंने इस ‘इच्छा’ (Will) को ही सर्वस्व मान लिया। वे ब्रह्म के स्थान में इस ‘इच्छा’ को ही बैठाना चाहते हैं। किन्तु पूर्ण ब्रह्म को कभी ‘इच्छा’ नहीं कहा जा सकता क्योंकि इच्छा जगत्प्रपंच के अन्तर्गत है और इसलिए परिणामशील है, पर ब्रह्म में – (ग) के ऊपर अर्थात् देश-काल-निमित्त के ऊपर – किसी प्रकार की गति नहीं है, किसी प्रकार का परिणाम नहीं है, इस (ग) के नीचे ही गति है – बाह्य और आभ्यंतर सभी प्रकार की गति का आरम्भ इसके नीचे ही होता है, और इस आभ्यन्तरिक गति, को ही विचार कहते हैं । अतः (ग) के ऊपर किसी प्रकार की इच्छा रह ही नहीं सकती। अतएव ‘इच्छा’ जगत् का कारण नहीं हो सकती। और भी निकट आकर देखो, हमारे शरीर की सभी गतियाँ इच्छा से प्रेरित नहीं होती । मैं इस कुर्सी को उठाता हूँ। यहाँ पर अवश्य इच्छा ही उठाने का कारण है । यह इच्छा ही पेशियों की शक्ति के रूप में परिणत हो गयी है। यह बात ठीक है । पर जो शक्ति कुर्सी उठाने का कारण है, वही तो फेफड़ों को भी चला रही है पर ‘इच्छा’ के रूप में नहीं। इन दोनों शक्तियों को एक मान लेने पर भी जिस समय वह चेतना की भूमि में आती है, उसी समय ‘इच्छा’ कहलाती है पर इस भूमि में आरोहण करने के पहले उसे ‘इच्छा’ नाम से पुकारना भूल होगी। इसी से शौपेनहॉवर के दर्शन में बड़ी भ्रान्तियाँ पैदा हो गयी हैं ।
एक पत्थर गिरा और हमने प्रश्न किया – इसके गिरने का क्या कारण है? यह प्रश्न केवल तभी किया जा सकता है जब यह मान लिया जाए कि बिना कारण के कुछ घटित नहीं होता। मेरा अनुरोध है कि इस धारणा को तुम अपने मन में खूब स्पष्ट रखो, क्योंकि जब हम प्रश्न करते हैं कि यह घटना क्यों हुई तब हम यह मान लेते हैं कि सभी वस्तुओं का सभी घटनाओं का एक ‘क्यों’ रहता ही है । अर्थात् उसके घटने के पहले और कुछ अवश्य हुआ होगा, जिसने कारण का कार्य किया। इस पूर्ववर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम को ही ‘निमित्त’ अथवा ‘कार्य-कारण-भाव’ कहते हैं। जो कुछ हम देखते, सुनते और अनुभव करते है, संक्षेप में, जगत् का सभी कुछ एक बार कारण बनता है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने बाद आनेवाली वस्तु का कारण बनती है और वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है । इसी को कार्य-कारण का नियम कहते हैं। और यह हमारी समस्त विचार-प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। यह हमारा स्थिर विश्वास है कि जगत् का प्रत्येक अणु, वह फिर चाहे जो हो, अन्य सभी अणुओं के साथ सम्बद्ध है । हमारी यह धारणा किस प्रकार आयी इस बात को लेकर बहुत वाद-विवाद हो चुके हैं । यूरोप में अनेक अतीन्द्रियवादी (Intuitive) दार्शनिक हैं, जिनका विश्वास है कि यह धारणा मानव-जाति के स्वभाव में है, और बहुतों का विचार है कि वह अनुभवजनित है; पर इस प्रश्न का समाधान अभी तक नहीं हो सका। वेदान्त इसका क्या समाधान करता है, यह हम बाद में देखेंगे। पहले तो हमें यह समझना है कि यह ‘क्यों’ का प्रश्न ही इस धारणा पर निर्भर रहता है कि इसके पूर्व कुछ हो चुका है और इसके बाद भी कुछ होगा। इस प्रश्न में दूसरा यह विश्वास निहित है कि जगत् का कोई भी पदार्थ स्वतन्त्र नहीं, प्रत्येक पदार्थ पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है। अन्योन्याश्रयता अथवा परस्पर-सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। जब हम पूछते हैं, “ब्रह्म पर किस कारण ने कार्य किया?” तो हम कितनी बड़ी भूल करते हैं। यह प्रश्न करने का अर्थ है कि ब्रह्म भी अन्य किसी के अधीन है – वह निरपेक्ष ब्रह्मसत्ता भी अन्य किसी के द्वारा बद्ध है। अर्थात् ‘ब्रह्म’ अथवा ‘निरपेक्ष सत्ता’ शब्द को हम जगत् के समान समझते हैं – हम उसे जगत् के स्तर पर नीचे खींच लाते हैं; ब्रह्म में देश-काल-निमित्त हैं ही नहीं; क्योंकि वह एकमेवाद्वितीय है – अपनी सत्ता का जो स्वयं ही आधार है, उसका कोई कारण हो ही नहीं सकता। जो मुक्तस्वभाव है, स्वतन्त्र है, उसका कोई कारण नहीं हो सकता अन्यथा वह मुक्त नहीं रहेगा, बद्ध हो जाएगा। जिसमें सापेक्षभाव है, वह कभी मुक्तस्वभाव नहीं हो सकता। अतः हम देखते हैं कि अनन्त सान्त कैसे हुआ, यह प्रश्न ही भ्रमात्मक और स्वविरोधी है।
इन बारीकियों से उतरकर अपने सामान्य स्तर पर भी, जब हम यह जानना चाहते हैं कि निरपेक्ष सापेक्ष कैसे हुआ, इस प्रश्न को एक दूसरे ढंग से देखा जा सकता है । मान लो कि हमने इस प्रश्न का उत्तर जान लिया, तब क्या निरपेक्ष निरपेक्ष रह जाएगा? ऐसा होने पर तो वह सापेक्ष हो जाएगा। साधारण रूप से हम ज्ञान किसे कहते हैं? जो कोई विषय हमारे मन के विषयीभूत हो जाता है, अर्थात् मन के द्वारा सीमाबद्ध हो जाता है, हम उसी को जान सकते हैं और जब वह हमारे मन के बाहर रहता है अर्थात् मन का विषय नहीं रहता तब हम उसे नहीं जान सकते। अतः यह स्पष्ट है कि यदि यह ब्रह्म मन के द्वारा सीमाबद्ध हो गया, तो फिर वह निरपेक्ष नहीं रह जाएगा, वह सापेक्ष हो जाएगा। मन के द्वारा जो कुछ सीमाबद्ध है, वह सभी ससीम है। अतएव, ‘ब्रह्म को जानना’ यह बात भी स्वविरोधी ही है। इसीलिए इस प्रश्न का उत्तर अब तक नहीं मिला; क्योंकि यदि उत्तर मिल जाए, तो वह ब्रह्म नहीं रहेगा; यदि ईश्वर ‘ज्ञात’ हो जाए तो उसका ईश्वरत्व फिर नहीं रहेगा – वह हमारे ही समान एक व्यक्ति हो जाएगा। उसको जाना नहीं जा सकता, वह सर्वदा ही अज्ञेय है ।
पर अद्वैतवादी कहते हैं कि ईश्वर केवल ‘ज्ञेय’ से अधिक कुछ और भी है। अब हमें इस बात को समझ लेना होगा। तुम अज्ञेयवादियों के समान यह धारणा न बना लो कि ईश्वर अज्ञेय है । दृष्टान्तस्वरूप देखो – सामने यह कुर्सी है, इसे मैं जानता हूँ, यह मेरा ज्ञात पदार्थ है । और आकाशतत्त्व के परे क्या है, वहाँ लोग रहते है, या नहीं यह बात शायद बिलकुल अज्ञेय है । पर ईश्वर इन दोनों विषयों की भांति ज्ञात और अज्ञेय नहीं है । प्रत्युत वह तो ‘ज्ञात’ से और भी कुछ अधिक है । ईश्वर को अज्ञात या अज्ञेय कहने का बस यही तात्पर्य है। उसका वह अर्थ नहीं, जिस अर्थ में लोग कुछ प्रश्नों को अज्ञात या अज्ञेय कहते हैं । ईश्वर ज्ञात से और भी कुछ अधिक है । यह कुर्सी हमारे लिए ज्ञात है, पर ईश्वर तो इससे भी अधिक ज्ञात है, क्योंकि पहले उसे जानकर – उसी के माध्यम से – हमें कुर्सी का ज्ञान प्राप्त करना होता है । वह साक्षीस्वरूप है, समस्त ज्ञान का वह शाश्वत साक्षी स्वरूप है । हम जो कुछ जानते हैं, वह सब पहले उसे जानकर – उसी के माध्यम से – जानते हैं । वही हमारी आत्मा का सारसत्ता स्वरूप है। वही वास्तविक ‘अहं’ है और वह ‘अहं’ ही हमारे इस ‘अहं’ का सारसत्ता स्वरूप है; हम उस ‘अहं’ के माध्यम से जाने बिना कुछ भी नहीं जान सकते, अतएव सभी कुछ हमें ब्रह्म के माध्यम से ही जानना पड़ेगा। इस कुर्सी को जानना हो, तो उसे ब्रह्म में और ब्रह्म के माध्यम से ही जानना होगा। इस प्रकार ब्रह्म कुर्सी की अपेक्षा हमारे अधिक निकट है, पर तो भी वह हमसे बहुत दूर है। वह ज्ञात भी नहीं, अज्ञात भी नहीं, पर दोनों की अपेक्षा अनन्तगुना ऊँचा है। वह तुम्हारी आत्मा है। कौन इस जगत् में एक क्षण भी जीवन धारण कर सकता, एक क्षण भी साँस ले सकता, यदि वह आनन्द स्वरूप इसमें रम न रहा होता? कारण, उसी की शक्ति से हम श्वास-प्रश्वास ले रहे हैं, उसी के अस्तित्व से हमारा अस्तित्व है। ऐसी बात नहीं कि वह कोई एक स्थान पर बैठकर हमारा रक्त-संचालन कर रहा है । तात्पर्य यह है कि वही समुदय जगत् का सत्तास्वरूप है – हमारी आत्मा की आत्मा है। तुम किसी प्रकार यह नहीं कह सकते कि तुम उसे जानते हो, क्योंकि तब तो उसे बहुत नीचे गिराना हो जाता है । तुम अपने से बाहर नहीं आ सकते, अतएव उसे जान भी नहीं सकते। ज्ञान शब्द का अर्थ है – विषयीकरण’ (Objectification) वस्तु को बाहर लाकर विषय की भाँति (ज्ञेय वस्तु की भांति) प्रत्यक्ष करना। उदाहरण स्वरूप देखो, स्मरण करने में तुम बहुत सी वस्तुओं को ‘विषयीकृत’ करते हो – मानो उनको तुम अपने भीतर से बाहर प्रक्षिप्त करते हो। सभी प्रकार की स्मृति – जो कुछ मैंने देखा है और जो कुछ मैं जानता हूँ, सभी – मेरे मन में अवस्थित है। इन सभी वस्तुओं की छाप या चित्र मेरे भीतर मौजूद है। जब मैं उनके विषय में सोचने की इच्छा करता हूँ, उनको जानना चाहता हूँ, तो पहले इन सब को मानो बाहर प्रक्षिप्त करना पड़ता है । ईश्वर के सम्बन्ध में ऐसा करना असम्भव है, क्योंकि वह हमारी आत्मा की आत्मा है, हम उसे बाहर प्रक्षिप्त नहीं कर सकते। इस सम्बन्ध में वेदान्त का एक अन्यतम वचन है । छान्दोग्य उपनिषद् में कहा है – ‘स य एषोऽणिमैतदाल्ममिदं सर्व तत् सत्य स, आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो’, जिसका अर्थ है, ‘वह सारस्वरूप जगत् का कारण है, सकल वस्तुओं की आत्मा है, वही सत्यस्वरूप है, हे श्वेतकेतों, वही तू है । “तत्त्वमसि’ – ‘तू ईश्वर है’ – का अर्थ यही है। इसके अतिरिक्त और किसी भी भाषा द्वारा तुम ईश्वर का वर्णन नहीं कर सकते। भगवान् को माता, पिता, भाई या प्रिय मित्र कहने से उसको विषयीकृत करना पड़ता है – उसको बाहर लाकर देखना पड़ता है। पर ऐसा तो कभी हो नहीं सकता। वह तो सब विषयों का अनन्त विषयी है। जिस प्रकार मैं जब इस कुर्सी को देखता हूँ, तो मैं कुर्सी का द्रष्टा हूँ – मैं उसका विषयी हूँ, उसी प्रकार ईश्वर मेरी आत्मा का नित्यद्रष्टा है – नित्यज्ञाता है – नित्यविषयी है । किस प्रकार तुम उसको – अपनी आत्मा की अन्तरात्मा को – सब वस्तुओं की सारसत्ता को ‘विषयीकृत’ करोगे? इसीलिए मैं तुमसे फिर कहता हूँ कि ईश्वर ज्ञेय भी नहीं और अज्ञेय भी नहीं, वह इन दोनों से अनन्तगुना ऊँचा है । वह हमारे साथ अभिन्न है । और जो हमारे साथ एक है, वह हमारे लिए न ज्ञेय हो सकता है, न अज्ञेय, जैसी कि हमारी अपनी आत्मा। तुम अपनी आत्मा को नहीं जान सकते, तुम उसे बाहर नहीं ला सकते और न उसे ‘विषय’ के रूप में दृष्टिगोचर कर सकते हो, क्योंकि तुम स्वयं वही हो, तुम सपने को उससे पृथक् नहीं कर सकते। तुम उसको अज्ञेय भी नहीं कह सकते, क्योंकि अज्ञेय कहने से भी पहले उसे ‘विषय’ बनाना पड़ेगा – और यह हो नहीं सकता । तुम अपने निकट स्वयं जितने परिचित या ज्ञात हो, उससे अधिक कौन-सी वस्तु तुमको ज्ञात है? वास्तव में वह हमारे ज्ञान का केन्द्र है । ठीक इसी अर्थ में यह कहा जाता है कि ईश्वर ज्ञात भी नहीं है, अज्ञात भी नहीं वह इन दोनों की अपेक्षा अनन्तगुना ऊँचा है, क्योंकि वही हमारी यथार्थ आत्मा है ।
अतएव हमने देखा कि पहले तो यह प्रश्न ही स्वविरोधी है कि पूर्ण- ब्रह्मसत्ता से जगत् किस प्रकार उत्पन्न हुआ; और दूसरे हम देखते हैं कि अद्वैतवाद में ईश्वर की धारणा इसी एकत्व की धारणा है – अतः हम उसको ‘विषयीकृत’ नहीं कर सकते, क्योंकि जाने-अनजाने, हम सदैव उसी में जीवित हैं और उसी में रहकर समस्त कार्यकलाप करते है, हम जो कुछ करते हैं, सब उसके भीतर से ही करते हैं । अब प्रश्न यह है कि देश-काल-निमित्त क्या है? अद्वैतवाद का मर्म तो यह है कि वस्तु एक ही है, दो नहीं। पर यहाँ पर तो यह कहा जा रहा है कि वह अनन्त ब्रह्म देश-काल-निमित्त के आवरण में से नाना रूपों में प्रकाशित हो रहा है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ दो वस्तुएँ हैं, एक तो वह अनन्त ब्रह्म और दूसरी, देश-काल- निमित्त की समष्टि अर्थात् माया। ऊपर से तो यही प्रतीत होता है कि ये दो वस्तुएँ हैं। अद्वैतवादी इसका उत्तर देते हैं कि वास्तव में इस प्रकार दो नहीं हो सकते। यदि दो वस्तुएँ मानेंगे, तो ब्रह्म की भाँति, जिस पर कोई निमित्त कार्य नहीं कर सकता, दो स्वतन्त्र सत्ताएँ माननी पड़ेगी। पहले तो, यही नहीं कहा जा सकता कि काल, देश और निमित्त स्वतन्त्र सत्ताएँ हैं । हमारे मन के प्रत्येक परिवर्तन के साथ काल का भी परिवर्तन होता रहता है, अतः उसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। कभी-कभी हम स्वप्न में देखते हैं कि हम कई वर्ष जीवित रहे और कभी कभी ऐसा बोध होता है कि कई मास एक ही क्षण में गुजर गये। अतएव काल हमारे मन की अवस्था पर ही निर्भर है। दूसरे, काल का शान कभी कभी बिलकुल लुप्त हो जाता है । देश के सम्बन्ध में भी यही बात है। हम देश का स्वरूप नहीं जान सकते। उसका कोई निर्दिष्ट लक्षण करना असम्भव होने पर भी ‘वह है’ इस बात को अस्वीकार करने का कोई उपाय नहीं है। फिर, वह अन्य किसी पदार्थ से पृथक होकर नहीं रह सकता। निमित्त अथवा कार्य-कारण-भाव के सम्बन्ध में भी यही बात है।
इस देश, काल और निमित्त में हम एक विशेषता यह देखते है कि ये अन्यान्य वस्तुओं से पृथक होकर नहीं रह सकते। तुम शुद्ध ‘देश’ की कल्पना करो, जिसमें न कोई रंग है, न सीमा, और न चारों ओर की किसी भी वस्तु से कोई संसर्ग है । तो तुम देखोगे कि तुम इसकी कल्पना कर ही नहीं सकते। देशसम्बन्धी विचार करते ही तुमको दो सीमाओं के बीच अथवा तीन वस्तुओं के बीच स्थित देश की कल्पना करनी होगी। अतः हमने देखा कि देश का अस्तित्व अन्य किसी वस्तु पर निर्भर रहता है । काल के सम्बन्ध में भी यही बात है। शुद्ध काल के सम्बन्ध में तुम कोई धारणा नहीं कर सकते। काल की धारणा करने के लिए तुमको एक पूर्ववर्ती और एक परवर्ती घटना लेनी पड़ेगी और अनुक्रम की धारणा के द्वारा उन दोनों को मिलाना होगा। जिस प्रकार देश बाहर की दो वस्तुओं पर निर्भर रहता है उसी प्रकार काल भी दो घटनाओं पर निर्भर रहता है । और ‘निमित्त’ अथवा ‘कार्य-कारण-भाव’ की धारणा इस देश और काल पर निर्भर रहती है। ‘देश-काल-निमित्त’ के भीतर विशेषता यही है कि इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस कुर्सी अथवा उस दीवार का जैसा अस्तित्व है, उनका वैसा भी नहीं है। वे जैसे सभी वस्तुओं के पीछे लगी हुई छाया के समान हैं, तुम किसी भी प्रकार उन्हें पकड़ नहीं सकते। उनकी कोई सत्ता नहीं है – हम देख चुके हैं कि सचमुच उनका अस्तित्व ही नहीं है – अधिक से अधिक वे छाया के समान है । फिर, वे कुछ भी नहीं हैं यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उन्हीं में से जगत् का प्रकाश हो रहा है – वे तीनों मानो स्वभावतः मिलकर नाना रूपों की उत्पत्ति कर रहे हैं। अतएव, पहले हमने देखा कि देश-काल-निमित्त की समष्टि का अस्तित्व भी नहीं है, फिर वे बिलकुल असत् (अस्तित्वशून्य) भी नहीं हैं । दूसरे, ये कभी कभी बिलकुल अन्तर्हित हो जाते हैं । उदाहरणार्थ, समुद्र की तरंगों को लो। तरंग अवश्य समुद्र के साथ अभिन्न है फिर भी हम उसको तरंग कहकर समुद्र से पृथक् रूप में जानते हैं। इस विभिन्नता का कारण क्या है? – नाम और रूप। नाम अर्थात् उस वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मन में जो एक धारणा रहती है वह, और रूप अर्थात् आकार। पर क्या हम तरंग को समुद्र से बिलकुल पृथक् रूप में सोच सकते हैं? नहीं, कभी नहीं। वह तो सदैव इस समुद्र की धारणा पर ही निर्भर रहती है । यदि यह तरंग चली जाए, तो रूप भी अन्तर्हित हो जाएगा। फिर भी ऐसी बात नहीं कि यह रूप बिलकुल भ्रमात्मक था। जब तक यह तरंग थी, तब तक यह रूप भी था और तुमको बाध्य होकर यह रूप देखना पड़ता था। यही माया है!
अतएव यह सम्पूर्ण जगत् मानो उस ब्रह्म का एक विशेष रूप है। ब्रह्म ही वह समुद्र है और तुम और मैं, सूर्य, तारे सभी उस समुद्र में विभिन्न तरंग मात्र हैं। तरंगों को समुद्र से पृथक् कौन करता है? – यह रूप । और यह रूप है केवल देश-काल-निमित्त। ये देश-काल-निमित्त भी संपूर्ण रूप से इन तरंगों पर निर्भर रहते हैं। ज्योंही तरंगें चली जाती हैं, त्योंही ये भी अन्तर्हित हो जाते हैं। जीवात्मा ज्योंही इस माया का परित्याग कर देता है, त्योंही वह उसके लिए अन्तर्हित हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है । हमारी सारी चेष्टाएँ इस देश-काल-निमित्त के चंगुल से बाहर होने के लिए होनी चाहिए। ये सर्वदा हमारी उन्नति के मार्ग में बाधा डालते रहते हैं। ‘क्रमविकासवाद’ क्या है? इसके दो अवयव हैं । एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति जो अपने को प्रकट करने की चेष्टा कर रही है और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ जो उसे अवरुद्ध किये हुए हैं – परिवेश, जो उसे व्यक्त नहीं होने देता। अतः इन परिस्थितियों से युद्ध करने के लिए यह शक्ति नये नये शरीर धारण कर रही है। एक अमीबा इस संघर्ष में एक और शरीर धारण करता है और कुछ बाधाओं पर जय-लाभ करता है, और इस प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुए अन्त में मनुष्य रूप में परिणत हो जाता है । अब यदि इसी तत्त्व को उसके स्वाभाविक चरम सिद्धान्त पर ले जाया जाए, तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि एक समय ऐसा आएगा जब अमीबा के भीतर क्रीड़ा करने वाली शक्ति, जो अन्त में मनुष्य रूप में परिणत हो गयी, प्रकृति द्वारा प्रस्तुत सारी बाधाओं को पार कर जाएगी – और अपने समस्त परिवेश को पार कर लेगी। इसी बात को दार्शनिक भाषा में इस प्रकार कहना होगा – प्रत्येक कार्य के दो अंश होते हैं, एक विषयी और दूसरा विषय; और जीवन का लक्ष्य है, विषयी को विषय का स्वामी बनाना। मान लो एक व्यक्ति ने मेरा तिरस्कार किया और मैंने अपने को दुःखी अनुभव किया। तो मेरी चेष्टा अपने मन को इतना सबल बग लेने की होगी, जिससे परिस्थितियों पर मैं विजय प्राप्त कर लूँ? जिससे अपना तिरस्कार होने पर भी मैं किसी कष्ट का अनुभव न करूँ । बस, इसी प्रकार हम विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे है।। नैतिकता का क्या अर्थ है? विषयी को ब्रह्म से समसुरित करके दृढ़ बनाना, जिससे ससीम प्रकृति का अधिकार हम पर न चल सके । हमारे दर्शन का यह तर्कसंगत निष्कर्ष है कि एक समय ऐसा आएगा, जब हम सभी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर लेंगे; क्योंकि प्रकृति सीमित है।
हमें एक बात और समझनी होगी। हम कैसे जानते हैं कि प्रकृति ससीम है? दर्शन के द्वारा। प्रकृति उस अनन्त का ही सीमाबद्ध भाव मात्र है । अतः वह सीमित है। अतएव एक समय ऐसा आएगा, जब हम बाहर की परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर लेंगे। उनको पराजित करने का उपाय क्या है? हम समस्त बाह्य परिवेश पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते । यह असम्भव है । छोटी मछली जल में रहने वाले अपने शत्रुओं से अपनी रक्षा करना चाहती है । वह किस प्रकार यह कार्य करती है? पंख विकसित करके पक्षी बनकर । मछली ने जल अथवा वायु में कोई परिवर्तन नहीं किया – जो कुछ परिवर्तन हुआ, वह उसके अपने ही अन्दर हुआ। परिवर्तन सदा ‘अपने’ ही अन्दर होता है । समस्त क्रमविकास में तुम सर्वत्र देखते हो कि प्राणी में परिवर्तन होने से ही प्रकृति पर विजय प्राप्त होती है । इस तत्व का प्रयोग धर्म और नीति में करो तो देखोगे, यहाँ भी ‘अशुभ पर जय’ अपने’ भीतर परिवर्तन के द्वारा ही साधित होती है । सब कुछ ‘अपने’ ऊपर निर्भर रहता है । इस ‘अपने’ पर जोर देना ही अद्वैतवाद की वास्तविक दृढ़ भूमि है। ‘अशुभ, दुःख’ की बात कहना ही भूल है, क्योंकि बहिर्जगत् में इनका कोई अस्तित्व नहीं है । इन सब घटनाओं में स्थिर भाव से रहने का यदि मुझे अभ्यास हो जाए तो, फिर क्रोधोत्पादक सैकड़ों कारण सामने आने पर भी मुझमें क्रोध का उद्रेक न होगा। इसी प्रकार लोग मुझसे चाहे जितनी घृणा करें, पर यदि मैं उससे प्रभावित न होऊँ तो, मुझमें उनके प्रति घृणा-भाव उत्पन्न ही न होगा।
इस विजय को प्राप्त करने की प्रक्रिया यही है – स्वयं के माध्यम से, स्वयं को ही पूर्ण बनाना। अतएव मैं यह कहने का साहस कर सकता हूँ कि अद्वैतवाद ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के साथ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों दिशाओं में केवल मेल ही नहीं खाता, वरन् उनसे भी आगे जाता है, और इसी कारण वह आधुनिक वैज्ञानिकों को इतना भाता है । वे देखते हैं। कि प्राचीन द्वैतवादी धर्म उनके लिए पर्याप्त नहीं हैं, उनसे उनकी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती। मनुष्य को केवल श्रद्धा नहीं चाहिए, बुद्धिनिष्ठ श्रद्धा भी चाहिए। अब इस उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भी इस प्रकार की धारणा है कि हमारे बाप-दादों से आया हुआ धर्म ही एक मात्र सत्य है और अन्य स्थानों में जिन सब दूसरे धर्मों का प्रचार हो रहा है, वे सभी मिथ्या हैं । इससे यही प्रमाणित: होता है कि हमारे भीतर अभी भी दुर्बलताएँ हैं । हमें ये दुर्बलताएँ दूर करनी होंगी। मैं यह नहीं कहता कि यह दुर्बलता केवल इसी देश में (इंग्लैंड में) है – नहीं, यह सभी देशों में है, और जैसी मेरे देश में है, वैसी तो कहीं भी नहीं। वहाँ यह बहुत ही भयानक रूप में है । वहाँ अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों में कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग ही अरण्य में उसकी साधना करते थे, इसी कारण वेदान्त का एक नाम ‘आरण्यक’ भी हो गया। अन्त में भगवान् की कृपा से बुद्धदेव ने आकर सर्वसाधारण के बीच इसका प्रचार किया, और सारा देश बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। फिर बहुत समय बाद जब निरीश्वरवादियों और अज्ञेयवादियों ने सारे देश को ध्वंस करने की चेष्टा की, इस जड़वाद से भारत का परित्राण करने में अद्वैत फिर एकमात्र उपाय सिद्ध हुआ। इस प्रकार दो बार इसने जड़वाद से भारत की रक्षा की है । पहले, बुद्धदेव आने के पूर्व नास्तिकता अति प्रबल हो उठी थी – यूरोप, अमेरिका के विद्वानों में आजकल जैसी नास्तिकता है, वैसी नहीं, वरन् वह तो इससे भी भयंकर थी। मैं एक प्रकार का जड़वादी हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल एक ही वस्तु का अस्तित्व है । आधुनिक वैज्ञानिक जड़वादी भी यही कहते है पर वे उसे ‘जड़’ के नाम से पुकारते हैं और मैं उसे ‘ब्रह्म’ कहता हूँ। ये ‘जड़वादी’ कहते हैं कि इस ‘जड़’ से ही समस्त आशा धर्म तथा सभी कुछ प्रसूत हुआ है। और मैं कहता हूँ, ‘ब्रह्म’ से ही सब कुछ हुआ है । पर बुद्ध के आविर्भाव के पूर्व का जड़वाद असंस्कृत प्रकार का था, जो शिक्षा देता था – खाओ, पिओ और मौज उड़ाओ; ईश्वर आत्मा या स्वर्ग कुछ भी नहीं है; धर्म कुछ धूर्त, दुष्ट पुरोहितों की कपोल-कल्पना मात्र है – यावज्जीवेत् सुख जीवेत् ऋण कृत्वा पूत पिबेत्। ‘ और नास्तिंकता उस समय इतनी बढ़ गयी थी कि उसका एक नाम ही हो गया ‘लोकायत दर्शन’ । ऐसी अवस्था में बुद्धदेव ने आकर वेदान्त को प्रकाशित किया, और उसका जन-साधारण में प्रचार करके भारत वर्ष की रक्षा की। बुद्ध देव के तिरोभाव के ठीक एक हजार वर्ष पश्चात् फिर उसी प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न हुई। भीड़ की भीड़ जनसाधारण तथा अनेक जातियों ने बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया था। अतः जनता के घोर अज्ञानी होने के कारण बौद्धधर्म का अपक्षय होना स्वाभाविक था। बौद्धधर्म किसी ईश्वर या जगत् के शासक का उपदेश नहीं करता, अतः जनसाधारण शनैः शनैः अपने देवी-देवता, भूत-प्रेत पुनः ले आये और अन्त में भारतवर्ष में बौद्धधर्म नाना प्रकार के विषयों की खिचड़ी- सा हो गया। तब फिर से भौतिकता के बादलों से भारत का आकाश ढक गया – अच्छे परिवार के लोग स्वेच्छाचारी और साधारण लोग अन्धविश्वासी हो गये। ऐसे समय में शंकराचार्य ने उठकर फिर से वेदान्त की ज्योति को जगाया। उन्होंने उसका एक युक्तिसंगत, विचारपूर्ण दर्शन के रूप में प्रचार किया। उपनिषदों में विचार-भाग बड़ा ही अस्फुट है । बुद्धदेव ने उपनिषदों के नीतिभाग पर विशेष बल दिया था, शंकराचार्य ने उनके ज्ञान-भागा पर अधिक जोर दिया। उन्होंने उपनिषदों के सिद्धान्त युक्ति और विचार की कसौटी पर कसकर प्रणालीबद्ध रूप में लोगों के समक्ष रखे।
यूरोप में भी आजकल जड़वाद की पताका फहरा रही है । इन सन्देहवादियों के उद्धार के लिए भले ही तुम प्रार्थना करो पर ये विश्वास नहीं करने के; वे चाहते हैं युक्ति । यूरोप का उद्धार एक बुद्धिनिष्ठ धर्म पर निर्भर है, और द्वयतारहित, एकत्वप्रधान, निर्गुण ईश्वर का प्रतिपादन करनेवाला यह अद्वैतवाद ही एक ऐसा धर्म है, जो किसी बौद्धिक जाति को सन्तुष्ट कर सकता है । जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अन्तुत्थान होता है, तभी इसका आविर्भाव होता है । इसीलिए यूरोप और अमेरिका में प्रवेश प्राप्त कर यह दृढ़मूल होता जा रहा है।
इस दर्शन के सम्बन्ध में मैं एक बात और कहना चाहूँगा। प्राचीन उपनिषदों में हमें उदात्त काव्य मिलता है । उनके रचयिता कवि थे। प्लेटो ने कहा है – कविता के द्वारा अन्तःन्दुरण प्राप्त होता है । ऐसा लगता है, कविता के माध्यम से उच्चतम सत्यों को साक्षात् कराने के लिए ही मानो विधाता ने सत्यद्रष्टा इन प्राचीन ऋषियों को मानवता से इतना ऊँचा उठा दिया था। वे न तो प्रचार करते थे, न दार्शनिक ऊहापोह करते थे और न कभी लिखते ही थे। उनके हृदय-निर्झर से संगीत का उद्गम हुआ था। बुद्धदेव में हम पाते हैं – हृदय, महान् विश्वव्यापी हृदय और अनन्त धैर्य। उन्होंने धर्म को सर्वसाधारणोपयोगी बनाकर प्रचार किया। शंकराचार्य में हम अछूत बौद्धिक प्रतिभा पाते हैं, उन्होंने हर विषय पर बुद्धि का प्रखर प्रकाश डाला। आज हमको बुद्धि के इस प्रखर सूर्य के साथ बुद्धदेव का अछूत प्रेम और दयायुक्त अद्भुत हृदय चाहिए। इसी सम्मिलन से हमें उच्चतम दर्शन की उपलब्धि होगी। विज्ञान और धर्म एक दूसरे का आलिंगन करेंगे । कविता और विज्ञान मित्र हो जाएँगे। यही भविष्य का धर्म होगा। और यदि हम ऐसा ठीक-ठीक कर ले सकें, तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि यह सभी काल और सभी अवस्थाओं के लिए उपयोगी होगा। यही पथ आधुनिक विज्ञान को ग्राह्य हो सकता है, क्योंकि वह लगभग वहाँ पहुँच गया है। जब विज्ञान का अध्यापक कहता है कि सब कुछ उस एक शक्ति का ही विकास है तब क्या वह तुमको उपनिषदों में वर्णित उस ब्रह्म की याद नहीं दिलाता? –
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूप रूप प्रतिरूपो बभूव ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूप रूप प्रतिरूपो बहिस ।।1
‘जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में प्रविष्ट होकर नाना रूपों में प्रकट होती है, उसी प्रकार सारे जीवों की अन्तरात्मा वह एक ब्रह्म नाना रूपों में प्रकाशित हो रहा है, फिर वह जगत् के बाहर भी है ।’ विज्ञान किस ओर जा रहा है, यह क्या तुम नहीं देखते? हिन्दू जाति मनस्तत्त्व की आलोचना करते करते दर्शन और तर्क के द्वारा आगे बड़ी थी । यूरोपीय जातियों ने बाह्य प्रकृति से आरम्भ किया और अब दोनों एक स्थान पर पहुँच रही हैं। मनस्तत्त्व में से होकर हम उसी एक अनन्त सार्वभौमिक सत्ता में पहुँच रहे हैं, जो सब वस्तुओं की अन्तरात्मा है, जो सब का सार और सभी वस्तुओं का सत्य है, जो नित्यमुक्त, नित्यानन्द और नित्यसत्ता है। बाह्य विज्ञान के द्वारा भी हम उसी एक तत्त्व पर पहुँच रहे हैं। यह जगवपंच उसी एक का विकास है – जगत् में जो कुछ भी है वह उस सब की समष्टि है । और सारी मानवजाति मुक्ति की ओर अग्रसर हो रही है, बन्धन की ओर वह कभी जा ही नहीं सकती। मनुष्य नीतिपरायण क्यों हो? इसलिए कि नैतिकता ही मुक्ति का मार्ग है और अनैतिकता बन्धन का।
अद्वैतवाद की एक और विशेषता यह है कि अद्वैत सिद्धान्त अपने आरम्भकाल से ही अविध्वंसात्मक रहा है । वह यह प्रचार करने का साहस करता है –
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् ।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् मुक्त: समाचरन् ।।2
“ज्ञानियों को चाहिए कि वे अज्ञानी, कर्म में आसक्त व्यक्तियों में बुद्धिभेद उत्पन्न न करें, विद्वान व्यक्ति को स्वयं युक्त रहकर उन लोगों को सब प्रकार के कर्मों में नियुक्त करना चाहिए। “अद्वैतवाद यही कहता है – किसी की मति को विचलित मत करो, किन्तु सभी को उच्च से उच्चतर मार्ग पर जाने में सहायता दो। अद्वैतवाद जिस ईश्वर का प्रचार करता है, वह समस्त जगत् का समष्टिस्वरूप है । यदि तुम कोई ऐसा सार्वजनीन धर्म चाहते हो, जो सब के लिए उपयोगी हो, तो उसे केवल कुछ विशिष्ट भावों की नहीं बल्कि सभी भावों की समष्टि होना चाहिए। धार्मिक विकास के सभी स्तरों को अपने में समाविष्ट करना चाहिए।
अन्य किसी धर्म में यह समष्टि का भाव उतना स्पष्ट नहीं है। वे सभी उस समष्टि की ही प्राप्ति की चेष्टा में समान रूप से रत विभिन्न अंश है । अंशों का अस्तित्व केवल इसीलिए होता है । इसीलिए आरम्भ से ही अद्वैतवाद का भारतवर्ष के किसी भी सम्प्रदाय से कोई विरोध नहीं रहा है। भारत में आज अनेक द्वैतवादी है उनकी संख्या भी सर्वाधिक है। इसका कारण यह है कि कम शिक्षित लोगों को द्वैतवाद स्वभावतः अधिक अच्छा लगता है । द्वैतवादी कहते हैं कि यह द्वैतवाद जगत् की एक बिलकुल स्वाभाविक व्याख्या है । पर इन द्वैतवादियों के साथ अतिवादियों का कोई विवाद नहीं। द्वैतवादी कहते हैं, ईश्वर जगत् के बाहर है, वह स्वर्ग के बीच एक विशेष स्थान में रहता है । और अद्वैतवादी कहते हैं, जगत् का ईश्वर हमारा अपना ही अन्तरात्मा स्वरूप है, उसे दूरवर्ती कहना ही ईशनिन्दा है । उससे पृथक् होने का भाव मन में लाना भी भयानक है। वह तो निकट से भी निकटतम है । ‘तुम्हीं वह हो – इस एकत्व सूचक वाक्य को छोड़ किसी भी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जिसके द्वारा उसकी यह निकटता व्यक्त की जा सके । जिस प्रकार द्वेतवाद अद्वैतवादियों की बातों से डरते हैं और उसे नास्तिकता कहते हैं, अद्वैतवादी भी उसी प्रकार द्वैतवादियों की बातों से डरते हैं और कहते हैं कि मनुष्य किस प्रकार उसको (ईश्वर को) अपनी ज्ञेय वस्तु के समान सोचने का साहस करता है? ऐसा होने पर भी वे जानते है कि इस प्रकार के विचारों का होना अनिवार्य है। द्वैतवादी भी अपने दृष्टिकोण से ठीक ही बात कहते हैं, अतः उनसे उनका कोई विवाद नहीं। जब तक वे समष्टिभाव से न देखकर व्यष्टिभाव से देखते हैं, तब तक उन्हें अवश्य ‘अनेक’ देखना पड़ेगा। यह उनके दृष्टिकोण से अनिवार्य ही है । फिर भी अद्वैतवादी जानते हैं कि द्वैतवादियों के मत में चाहे कितनी ही अपूर्णता क्यों न हो, वे सब उसी एक लक्ष्य की ओर जा रहे हैं । इसी स्थान पर उनका द्वैतवादियों के साथ संपूर्ण प्रभेद है, क्योंकि द्वैतवादी अपने से भिन्न सभी मतों को प्रान्त मानने के लिए विवश हैं। संसार के सभी द्वैतवादी स्वभावतः एक ऐसे सगुण ईश्वर में विश्वास करते हैं, जो एक उच्च शक्तिसम्पन्न मनुष्य मात्र है, और एक लौकिक शासक की भांति कुछ से प्रसन्न तथा कुछ से अप्रसन्न होता है । वह बिना किसी कारण ही किसी जाति या राष्ट्र से प्रसन्न है और उन पर वरदानों की वृष्टि करता रहता है । अतः द्वैतवादी के लिए यह मानना स्वाभाविक हो जाता है कि ईश्वर के कुछ विशेष कृपापात्र होते हैं; और वह उनमें से एक होने की आशा करता है। तुम देखोगे की सभी धर्मों में यह विचार पाया जाता है, “हमीं ईश्वर के प्रिय पात्र है, हमारी ही तरह विश्वास करने से हमारा ईश्वर तुम पर कृपा करेगा। “और कितने ही द्वैतवादी तो ऐसे हैं, जिनका मत और भी भयानक है । वे कहते हैं, “ईश्वर पूर्वनियोजित रूप से जिनके प्रति दयालु है, केवल उन्हीं का उद्धार होगा, और शेष सब सिर पटककर मर भी जाएँ तो भी इस अन्तरंग दल में प्रवेश नहीं पा सकते । “तुम मुझे एक भी ऐसा द्वैतवादात्मक धर्म बता दो, जिसके भीतर यह संकीर्णता न हो। यही कारण है कि ये सब धर्म सदैव परस्पर युद्ध करते रहेंगे, और वे करते भी यही रहे है । फिर यह द्वैतवादियों का धर्म सर्वदा लोकप्रिय होता है, क्योंकि वह अशिक्षितों को तृप्त करता है । उसको यह सोचना अच्छा लगता है कि कुछ विशेषाधिकार उनके भी पास है, जो औरों के पास नहीं है । द्वैतवादी समझते हैं कि उनको मारने के लिए उद्यत एक दण्डधारी ईश्वर के बिना किसी प्रकार की नैतिकता ठहर ही नहीं सकती। विचार करने में असमर्थ साधारण लोग सभी देशों में द्वैतवादी होते हैं! इन बेचारों पर सदा ही अत्याचार होता रहा है । अतः उनकी मुक्ति की धारणा है दण्ड से छुटकारा पाना। एक बार अमेरिका में एक पाद्री ने मुझसे कहा, “क्या! तुम्हारे धर्म में शैतान नहीं है? यह कैसे?” किन्तु हम देखते हैं कि सभी देशों के चिन्तनशील महापुरुषों ने इस निर्गुण ब्रह्मभाव को लेकर ही कार्य किया है । इस भाव से अनुप्राणित होकर ही ईसा मसीह ने कहा है – ‘मैं और मेरे पिता एक है ।’ इसी प्रकार का व्यक्ति लाखों व्यक्तियों में शक्तिसंचार करने में समर्थ होता है । और यह शक्ति सहस्रों वर्ष तक मनुष्यों के प्राणों में परित्राण देनेवाली शुभ-शक्ति का संचार करती है । हम यह भी जानते है कि ये महापुरुष अद्वैतवादी थे, इसीलिए दूसरों के प्रति दयाशील थे। उन्होंने सर्व-साधारण को ‘हमारा स्वर्गस्थ पिता’ की शिक्षा दी थी । सगुण ईश्वर से उच्चतर अन्य किसी भाव की धारणा न कर सकनेवाले साधारण लोगों को उन्होंने स्वर्ग में रहनेवाले पिता से प्रार्थना करने का उपदेश दिया। जो कुछ अधिक सूक्ष्म भाव ग्रहण कर सकते थे, उनसे उन्होंने कहा, “मैं लता हूँ, तुम शाखाएँ हो। “किन्तु अपने जिन शिष्यों के प्रति उन्होंने अपने स्वरूप को अधिक पूर्णता से प्रकट किया, उनसे उन्होंने सर्वोच्च सत्य की घोषणा की – ‘मैं और मेरे पिता एक हैं ।’
बुद्धदेव ने द्वैतवादी देवता, ईश्वर आदि की किंचित् भी चिंता नहीं की । उनको नास्तिक तथा जड़वादी कहा गया है, पर वे एक साधारण बकरी तक के लिए प्राण देने को प्रस्तुत थे! उन्होंने मानवजाति में सर्वोच्च नैतिकता का प्रचार किया। जहाँ कहीं तुम किसी प्रकार का नीति-विधान पाओगे वहीं देखोगे कि उनका प्रभाव, उनका प्रकाश जगमगा रहा है। जगत् के इन सब विशालहदय व्यक्तियों को तुम किसी संकीर्ण दायरे में बाँधकर नहीं रख सकते विशेषतः आज, जब कि मनुष्यजाति के इतिहास में एक ऐसा समय आ गया है और सब प्रकार के ज्ञान की ऐसी उन्नति हुई है, जिसकी किसी ने सौ वर्ष पूर्व स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी, यहाँ तक कि पचास वर्ष पूर्व जो किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था, ऐसे वैज्ञानिक ज्ञान का स्रोत बह चला है। ऐसे समय में क्या लोगों को अब भी इस प्रकार के संकीर्ण भावों में आबद्ध करके रखा जा सकता है? हाँ लोग यदि बिलकुल पशुतुल्य, विचारहीन जड़पदार्थ के समान हो जाएँ, तो भले ही यह सम्भव हो। इस समय आवश्यकता है उच्चतम ज्ञान के साथ उच्चतम हृदय की, अनन्त ज्ञान के साथ अनन्त प्रेम के योग की। अतएव वेदान्ती कहते हैं, उस अनन्त सत्ता के साथ एकीभूत होना ही एकमात्र धर्म है। वे भगवान् के बस ये ही गुण बतलाते हैं – अनन्त सत्ता, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द और वे कहते हैं कि ये तीनों एक है। ज्ञान और प्रेम या आनन्द के बिना सत्ता कभी रह ही नहीं सकती । ज्ञान भी बिना आनन्द या प्रेम के नहीं रह सकता और आनन्द भी कभी ज्ञान बिना नहीं रह सकता। हमें अनन्त सत्ता, अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्द का समन्वय चाहिए। यही हमारा लक्ष्य है। हमें समन्वय चाहिए, एकपक्षीय विकास नहीं। शंकराचार्य की बुद्धि के साथ बुद्धदेव का हृदय रखना सम्भव है । मैं आशा करता हूँ कि इस मंगलमय समन्वय की उपलब्धि के निमित्त हम सभी प्रयत्न करेंगे।
- कठोनिषद् २ । २ । १
- गीता, ३ ।२६
एक अमेज़न एसोसिएट के रूप में उपयुक्त ख़रीद से हमारी आय होती है। यदि आप यहाँ दिए लिंक के माध्यम से ख़रीदारी करते हैं, तो आपको बिना किसी अतिरिक्त लागत के हमें उसका एक छोटा-सा कमीशन मिल सकता है। धन्यवाद!