धर्मस्वामी विवेकानंद

अमरत्व – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)

“अमरत्व” विषयक व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में दिया था। यह भाषण स्वामी जी की प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग में संकलित है। इसमें स्वामी जी समझा रहे हैं कि हमारा प्रकृत स्वरूप चैतन्य आत्मा है और वह आदि-अन्त से परे है। अमरत्व ही उसका स्वभाव है। सर्वव्यापक आत्मा में ही सारी शक्ति समाहित है। अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग हिंदी में

जीवात्मा के अमरत्व के प्रश्न के सिवा अन्य कौन-सा प्रश्न अधिक बार पूछा गया है, अन्य किस तत्त्व के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए मनुष्य ने सारे जगत् की इतनी अधिक खोज की है, अन्य कौन-सा प्रश्न मानव-हृदय को इतना प्रिय और उसके इतना निकट है, अन्य कौन-सा प्रश्न हमारे अस्तित्व के साथ इतने अच्छेद्य भाव से सम्बन्धित है? यह कवियों की कल्पना का विषय रहा है, साधु, महात्मा ज्ञानी सभी के गम्भीर चिन्तन का विषय रहा है; सिंहासन पर बैठे हुए राजाओं ने इस पर विचार किया है, पथ के भिखारियों ने भी इसका स्वप्न देखा है । श्रेष्ठतम मानवों ने इसका उत्तर पाया है और अति निकृष्ट मनुष्यों ने भी इसकी आशा की है। इस विषय में लोगों की रुचि अभी तक बनी हुई है और जब तक मानव- प्रकृति विद्यमान है, तब तक वह बनी रहेगी। विभिन्न लोगों ने इसके विभिन्न उत्तर दिये हैं । और यह भी देखा जाता है कि इतिहास के प्रत्येक युग में हजारों व्यक्तियों ने इस प्रश्न को बिलकुल अनावश्यक कहकर छोड़ दिया है, फिर भी यह प्रश्न ज्यों का त्यों नवीन ही बना हुआ है । जीवन-संग्राम के कोलाहल में हम प्रायः इस प्रश्न को भूल से जाते है, परन्तु जब अचानक कोई मर जाता है – एक ऐसा व्यक्ति जिससे हम प्रेम करते हैं, जो हमारे हृदय के अति निकट और अत्यन्त प्रिय है, अचानक हमसे छिन जाता है, तब हमारे चारों ओर का संघर्ष और कोलाहल क्षण भर के लिए मानो रुक सा जाता है, सब कुछ मानो निःस्तब्ध हो जाता है और हमारी आत्मा के गम्भीरतम प्रदेश से वही प्राचीन प्रश्न उठता है कि इसके बाद क्या है? देहान्त के बाद आत्मा की क्या गति होती है?

समस्त मानव ज्ञान अनुभव से उत्पन्न होता है, अनुभव के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से हम कुछ भी जान नहीं सकते। हमारा सारा तर्क सामान्यीकृत अनुभव पर आधारित है, हमारा सारा शान अनुभवों का समन्वय है । हम अपने चारों ओर क्या देखते हैं? सतत परिवर्तन। बीज से वृक्ष होता है और चक्र पूरा करके वह फिर बीजरूप में परिणत हो जाता है । एक जीव उत्पन्न हुआ, कुछ दिन जीवित रहा, फिर मर गया इस प्रकार मानो एक वृत्त पूरा हो गया। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही बात है। और तो और पर्वत भी धीरे-धीरे परन्तु निश्चित रूप से चूर-चूर होते जाते हैं, नदियाँ धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से, सूखती जाती हैं; समुद्र से बादल उठते हैं और वर्षा करके फिर समुद्र में ही मिल जाते हैं । सर्वत्र ही एक एक वृत्त पूरा हो रहा है – जन्म, वृद्धि और क्षय मानो गणितीय अपरिहार्यता के साथ ठीक एक के बाद एक आते रहते हैं। यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है । फिर भी, इस सब के अन्दर, क्षुद्रतम परमाणु से लेकर उच्चतम सिद्ध पुरुष तक लाखों प्रकार की, विभिन्न नाम-रूप-युक्त वस्तुओं के अन्तराल में हम एक अखण्ड भाव, एक एकत्व देखते हैं । हम प्रतिदिन देखते हैं कि वह दुर्भेद्य दीवार, जो एक वस्तु को दूसरी वस्तु से पृथक् करती प्रतीत होती थी, गिरती जा रही है और आधुनिक विज्ञान समस्त भूतों को एक ही पदार्थ मानने लगा है – मानो वही एक प्राणशक्ति नाना रूपों में नाना प्रकार से प्रकाशित हो रही है मानो । वह सब को जोड़नेवाली एक शृंखला के समान है और ये सब विभिन्न रूप मानो इस शृंखला की ही एक-एक कड़ी हैं – अनन्त रूप से विस्तृत, किन्तु फिर भी उसी एक शृंखला के अंश। इसी को क्रमविकासवाद कहते हैं। यह एक अत्यन्त प्राचीन धारणा है – उतनी ही प्राचीन जितना की मानव-समाज। केवल वह मानवी ज्ञान की वृद्धि और उन्नति के साथ-साथ मानो हमारी आँखों के सम्मुख अधिकाधिक उज्ज्वल रूप से प्रतीत होती जा रही है। एक बात और है, जो प्राचीन लोगों ने विशेष रूप से समझी थी, परन्तु जिसे आधुनिक विचारकों ने अभी तक ठीक-ठीक नहीं समझा है, और वह है, क्रमसंकोच। बीज का ही वृक्ष होता है, बालू के कण का नहीं। पिता ही पुत्र में परिणत होता है, मिट्टी का ढेला नहीं । अब प्रश्न यह है कि यह क्रमविकास किससे होता है? बीज पहले क्या था? वह उस वृक्षरूप में ही था। भविष्य में होने वाले वृक्ष की सभी सम्भावनाएँ बीज में निहित है । छोटे बच्चे में भावी मनुष्य की समस्त सम्भावनाएँ निहित है। किसी भी प्रकार के भावी जीवन की समस्त सम्भावनाएँ बीजाणु में विद्यमान हैं । इसका तात्पर्य क्या है? भारतवर्ष के प्राचीन दार्शनिक इसी को ‘क्रमसंकोच’ कहते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक क्रमविकास के पहले क्रमसंकोच का होना अनिवार्य है । किसी ऐसी वस्तु का क्रमविकास नहीं हो सकता, जो पूर्व से ही वर्तमान नहीं है । यहाँ पर फिर आधुनिक विज्ञान हमें सहायता देता है। गणितशास के तर्क से तुम जानते हो कि जगत् में दृश्यमान शक्ति का समष्टि-योग (sum-total) सदा समान रहता है। तुम जड्तत्त्व का एक भी परमाणु अथवा शक्ति की एक भी इकाई घटा या बढ़ा नहीं सकते। अतएव क्रमविकास कभी शून्य से नहीं होता। तब फिर वह हुआ कहाँ से? इसके पूर्व के क्रमसंकोच से। बालक क्रमसंकुचित या अव्यक्त मनुष्य है और मनुष्य क्रमविकसित बालक है । क्रमसंकुचित वृक्ष ही बीज है और क्रम विकसित बीज ही वृक्ष। जीवन की सभी सम्भावनाएँ उसके बीजाणु में हैं । अब समस्या कुछ अधिक स्पष्ट हो जाती है । इसके साथ जीवन के सातत्य की पिछली धारणा जोड़ दो। निम्नतम जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव पर्यन्त वस्तुतः एक ही सत्ता है – एक ही जीवन है । जिस प्रकार एक ही जीवन में हम शैशव यौवन, वार्धक्य आदि विविध अवस्थाएँ देखते हैं, उसी प्रकार जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव पर्यन्त एक ही अविच्छिन्न जीवन, एक ही शृंखला जीवन, विद्यमान है । इसी को क्रमविकास कहते हैं, और यह हम पहले ही देख चुके है कि प्रत्येक क्रमविकास के पूर्व एक क्रमसंकोच रहता है । यह समग्र जीवन, जो क्रमशः व्यक्त होता है अपने को जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव अथवा धरती पर आविर्भूत ईश्वरावतार के रूप में, क्रमविकसित कर है, एक शृंखला या श्रेणी है और यह सम्पूर्ण अभिव्यक्ति उसी जीविसार में संकुचित रही होगी। यह समस्त जीवन, मर्त्य लोक में अवतीर्ण यह ईश्वर तक उसमें निहित था; बस धीरे-धीरे – बहुत धीरे क्रमशः उस सब की अभिव्यक्ति मात्र हुई है । जो सर्वोच्च, चरम अभिव्यक्ति है, वह भी अवश्य बीज भाव से सूक्ष्माकार में उसके अन्दर विद्यमान रही होगी। अतएव यह शक्ति यह सम्पूर्ण शृंखला उस सर्वव्यापी विश्वजीवन का क्रमसंकोच है । बुद्धि की यह एक राशि ही जीविसार से पूर्णतम मनुष्य तक अपने को व्यक्त कर रही है। ऐसी बात नहीं कि वह थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ रही हो। बढ़ने की भावना को मन से एकदम निकाल दो । वृद्धि कहने से ही मालूम होता है कि बाहर से कुछ आ रहा है, कुछ बाहर है, और इससे यह सत्य झूठा हो जाएगा कि हर जीवन में अव्यक्त असीम किसी भी बाह्य परिस्थिति पर निर्भर नहीं है । उसमें वृद्धि नहीं हो सकती उसका अस्तित्व सदा रहता है, वह केवल अपने को व्यक्त कर देता है ।

कार्य कारण का व्यक्त रूप है । कार्य और कारण में कोई मौलिक भेद नहीं होता। उदाहरण के लिए यह एक गिलास है। यह अपने उपादानों और अपने निर्माता की इच्छा के सहयोग से बना है । ये दोनों उसके कारण हैं और उसमें वर्तमान हैं । निर्माता की इच्छाशक्ति अभी उसमें किस रूप में विद्यमान है? संहति-शक्ति (adhesion) के रूप में । यह शक्ति यदि न रहती, तो इसके परमाणु अलग अलग हो जाते । तो अब कार्य क्या हुआ? वह कारण के साथ अभिन्न है, केवल उसने एक दूसरा रूप धारण कर लिया है । हमें यह स्मरण रखना चाहिए। इसी तत्त्व को अपनी जीवन-सम्बन्धी धारणा पर प्रयुक्त करने पर हम देखते हैं कि जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव पर्यन्त सम्पूर्ण, श्रेणी अवश्य उस विश्वव्यापी जीवन के साथ अभिन्न है । पहले वह संकुचित और सूक्ष्मतर हुआ; और इस सूक्ष्मतर कारण से वह अपने को विकसित और व्यक्त करता तथा स्थूलतर होता रहा है । किन्तु अमृतत्त्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न था, वह अब भी नहीं सुलझा। हमने देखा कि जगत् के किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता। नूतन कुछ भी नहीं है और होगा भी नहीं। अभिव्यक्ति की एक ही शृंखला चक्र की भाँति बारम्बार उपस्थित होती रहती है । जगत् में जितनी गति है, वह समस्त तरंग के आकार में एक बार उठती है फिर गिरती है। विविध ब्रह्माण्ड सूक्ष्मतर रूपों से प्रसूत हो रहे है – स्थूल रूप धारण कर रहे हैं । फिर लीन होकर सूक्ष्म भाव में जा रहे है । वे फिर से इस सूक्ष्म भाव से स्थूल भाव में आते हैं – कुछ समय तक उसी अवस्था में रहते हैं और पुनः धीरे-धीरे उस कारण में चले जाते हैं । ऐसा ही जीवन के सम्बन्ध में सत्य है । जीवन की प्रत्येक अभिव्यक्ति आती है और फिर चली जाती है। तो फिर नष्ट क्या होता है? केवल रूप – आकृति। वह रूप नष्ट हो जाता है, किन्तु फिर आता है । एक अर्थ में तो सभी शरीर और सभी रूप नित्य हैं। कैसे? मान लो मैं पासा खेल रहा हूँ और वे ६-५-३-४ के अनुपात से पड़े मैं और खेलने लगा। खेलते खेलते एक समय ऐसा अवश्य आएगा, जब वही संख्याएँ फिर से पड़ेगी । और खेलो वही संयोग पुनः अवश्य आएगा। मैं इस जगत् के प्रत्येक कण, प्रत्येक परमाणु की एक-एक पासे से तुलना करता हूँ । उन्हीं को बार-बार फेंका जा रहा है और वे बार बार नाना प्रकार से गिरते हैं। तुम्हारे सम्मुख जो सारे पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के एक विशिष्ट प्रकार के संघात से उत्पन्न हुए हैं । यह गिलास, यह मेज, यह सुराही, ये सभी वस्तुएँ परमाणुओं के समवाय-विशेष हैं – क्षण भर के बाद शायद ये समवाय-विशेष नष्ट हो जा सकते हैं। पर समय ऐसा अवश्य आएगा, जब ठीक यही समवाय पुनः उपस्थित होगा – जब तुम सब इसी तरह बैठे होंगे और यह सुराही तथा अन्य सभी वस्तुएँ भी ठीक अपने अपने स्थान पर रहेंगी और ठीक इसी विषय की आलोचना होगी। अनन्त बार इस प्रकार हुआ है और अनन्त बार इसकी आवृत्ति होगी । तो फिर हमने स्थूल, बाह्य वस्तुओं की आलोचना से क्या तत्त्व पाया? यही कि इन भौतिक रूपों के विभिन्न समवायों की पुनरावृत्ति अनन्त काल होती रहती है ।

इस परिकल्पना से जो एक अन्यतम मनोरंजक निष्कर्ष निकलता है, वह है इस प्रकार के तथ्यों की व्याख्या; शायद तुममें से कुछ लोगों ने ऐसा व्यक्ति देखा होगा, जो मनुष्य के अतीत एवं भविष्य की सारी बातें बतला देता है । यदि भविष्य किसी नियम के अधीन न हो तो फिर किस प्रकार भविष्य के सम्बन्ध बताया जा सकता है? अतीत के कार्य भविष्य में घटित होंगे, और हम देखते हैं कि ऐसा होता है । हिंडोले का उदाहरण लो । वह लगातार घूमता रहता है । लोग आते हैं और उसके एक एक पालने में बैठ जाते है। हिंडोला घूमकर फिर नीचे आता है। वे उतर जाते हैं, तो एक दूसरा दल आ बैठता है । क्षुद्रतम जन्तु से लेकर उच्चतम मानव तक प्रकृति की प्रत्येक अभिव्यक्ति मानो ऐसा एक-एक दल है, और प्रकृति हिंडोले के चक्रसदृश है, तथा प्रत्येक शरीर या रूप इस हिंडोले के एक एक पालने जैसा है । नयी आत्माओं का एक एक दल उन पर चढ़ता है और ऊँचे से ऊँचे जाता रहता है, जब तक उसमें से प्रत्येक पूर्णता प्राप्त कर हिंडोले से बाहर नहीं आ जाती। पर हिंडोला निरन्तर चलता रहता है – हमेशा दूसरे लोगों को ग्रहण करने के लिए तैयार है। और जब तक शरीर इस चक्र के भीतर अवस्थित है, तब तक निश्चित रूप से, गणित के हिसाब से यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि अब वह किस ओर जाएगा। किन्तु आत्मा के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। अतएव प्रकृति के भूत और भविष्य निश्चित रूप से गणित की तरह ठीक-ठीक बतलाना असम्भव नहीं है । अतः हम देखते हैं कि उन्हीं भौतिक घटनाओं की पुनरावृत्ति निश्चित समयों पर होती रहती है और वही संयोजन चिरन्तन काल से होते चले आ रहे हैं । किन्तु यह आत्मा का अमरत्व नहीं है । किसी भी शक्ति का नाश नहीं होता, कोई भी जड़ वस्तु शून्य में पर्यवसित नहीं की जा सकती । तो फिर उनका क्या होता है? उनके आगे और पीछे परिणाम होते रहते हैं और अन्त में जहां से उनकी उत्पत्ति हुई थी वही वे लौट जाते हैं। सीधी रेखा में कोई गति नहीं होती । प्रत्येक वस्तु घूम-फिरकर अपने पूर्वस्थान पर लौट आती है, क्योंकि सीधी रेखा अनन्त भाव से बढ़ा दी जाने पर वृत्त में परिणत हो जाती है । यदि ऐसा ही हो तो फिर अनन्त काल तक किसी भी आत्मा का अधःपतन नहीं हो सकता – वैसा हो नहीं सकता। इस जगत् में प्रत्येक वस्तु शीघ्र हो या विलम्ब से अपनी-अपनी वर्तुलाकार गति को पूरा कर फिर अपनी उत्पत्तिस्थान पर पहुँच जाती है । तुम, मैं अथवा ये सब आत्माएँ क्या है? पहले क्रमसंकोच तथा क्रमविकास-तत्त्व की आलोचना करते हुए हमने देखा है कि तुम, हम उसी विराट् विश्वव्यापी चैतन्य या प्राण या मन के अंशविशेष हैं, जो हममें संकुचित या अव्यक्त हुआ है, और हम घूमकर, क्रमविकास की प्रक्रिया के अनुसार, उस विश्वव्यापी चैतन्य में लौट जाएँगे – और यह विश्वव्यापी चैतन्य ही ईश्वर है । लोग उसी विश्वव्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान्, ईसा, बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं – जड़वादी उसी की शक्ति के रूप में उपलब्धि करते हैं एवं अज्ञेयवादी उसी की उस अनन्त अनिर्वचनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं और हम सब उसी के अंश हैं।

यह दूसरा तथ्य हुआ, फिर भी अनेक शंकाएँ की जा सकती हैं। किसी शक्ति का नाश नहीं है, यह बात सुनने में तो बड़ी अच्छी लगती है पर हम जितनी भी शक्तियाँ और रूप देखते हैं, सभी मिश्रण हैं । हमारे सम्मुख यह रूप अनेक खण्डों का समन्वय है, इसी प्रकार प्रत्येक शक्ति अनेक शक्तियों का समवाय है । यदि तुम शक्ति के सम्बन्ध में विज्ञान का मत ग्रहण कर उसे कतिपय शक्तियों की समष्टि मात्र मानते हो, तो फिर तुम्हारे ‘मै- पन’ व्यक्तित्व का क्या होता है? जो कुछ समवाय या संघात है, वह शीघ्र अथवा विलम्ब से अपने कारणीभूत पदार्थ में लीन हो जाता है । इस विश्व में जो भी जड़ अथवा शक्ति के समवाय से उत्पन्न है, वह अपने अंशों में पर्यवसित हो जाता है । शीघ्र या विलम्ब से, वह अवश्य विशिष्ट हो जाएगा, भग्न हो जाएगा और अपने कारणीभूत अंशों में परिणत हो जाएगा। आत्मा भौतिक शक्ति अथवा विचारशक्ति नहीं है । वह तो विचारशक्ति की स्त्रष्टा है, स्वयं विचारशक्ति नहीं। वह शरीर की रचयित्री है, किन्तु वह स्वयं शरीर नहीं है । क्यों? शरीर कभी आत्मा नहीं हो सकता, क्योंकि वह बुद्धियुक्त नहीं है। शव अथवा कसाई की दुकान का मांस का टुकड़ा कभी बुद्धियुक्त नहीं है । हम ‘बुद्धि’ शब्द से क्या समझते हैं? प्रतिक्रिया-शक्ति । थोड़े और गम्भीर भाव से इस तत्त्व की आलोचना करो। मैं अपने सम्मुख यह सुराही देख रहा हूँ। यहाँ पर क्या हो रहा है? इस सुराही से कुछ प्रकाश-किरणें निकलकर मेरी आंख में प्रवेश करती हैं । वे मेरे नेत्रपटल (ratina) पर एक चित्र अंकित करती हैं । और यह चित्र जाकर मेरे मस्तिष्क में पहुँचता है। शरीर वैज्ञानिक जिसको संवेदक नाड़ी (Sensory nerves) कहते हैं, उन्हीं के द्वारा यह चित्र भीतर मस्तिष्क में ले जाया जाता है । किन्तु तब भी देखने की क्रिया पूरी नहीं होती, क्योंकि अभी तक भीतर की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मस्तिष्क में स्थित जो स्नायु-केन्द्र है, वह इस चित्र को मन के पास ले जाएगा, और मन उस पर प्रतिक्रिया करेगा। इस प्रतिक्रिया के होते ही सुराही मेरे सम्मुख प्रकाशित हो जाएगी। एक और अधिक सरल उदाहरण लो। मान लो तुम खूब एकाग्र होकर मेरी बात सुन रहे हो और इसी समय एक मच्छर तुम्हारी नाक पर काटता है, किन्तु तुम मेरी बातें सुनने इतने तन्मय हो कि उसका काटना तुमको अनुभव नहीं होता। ऐसा क्यों? मच्छर तुम्हारे चमड़े को काट रहा है, उस स्थान पर कितनी ही नाड़ियाँ हैं, और वे इस संवाद को मस्तिष्क के पास पहुंचा भी रही हैं, इसका चित्र भी मस्तिष्क में मौजूद है, किन्तु मन दूसरी ओर लगा है, इसलिए वह प्रतिक्रिया नहीं करता, अतएव तुम उसके काटने का अनुभव नहीं करते। हमारे सामने कोई नया चित्र आने पर यदि मन प्रतिक्रिया न करें, तो हम उसके सम्बन्ध में कुछ जान ही न सकेंगे। किन्तु प्रतिक्रिया होते ही उसका ज्ञान होगा और तभी हम देखने, सुनने और अनुभव आदि करने में समर्थ होंगे । इस प्रतिक्रिया के साथ साथ ही, जैसा सांख्यवादी कहते हैं, ज्ञान का प्रकाश होता है । अतएव हम देखते हैं कि शरीर कभी ज्ञान का प्रकाश नहीं कर सकता, क्योंकि जिस समय मनोयोग नहीं रहता, उस समय हम अनुभव नहीं कर पाते। ऐसी घटनाएँ सुनी गयी हैं कि किसी किसी विशेष अवस्था में एक व्यक्ति ऐसी भाषा बोलने में समर्थ हुआ है, जो उसने कभी नहीं सीखी । बाद में खोजने पर पता लगता है कि वह व्यक्ति बचपन में ऐसी जाति में रहा है, जो वह भाषा बोलती थी और वही संस्कार उसके मस्तिष्क में रह गया। वह सब वहाँ पर संचित था बाद में किसी कारण से उसके मन में प्रतिक्रिया हुई और त्योंही ज्ञान आ गया और वह व्यक्ति वह भाषा बोलने में समर्थ हुआ। इससे मालूम पड़ता है कि केवल मन ही पर्याप्त नहीं है, मन भी किसी के हाथ में यन्त्र मात्र है, उस व्यक्ति की बाल्यावस्था में उसके मन में वह भाषा गूढ़ रूप से निहित थी, किन्तु वह उसे नहीं जानता था, पर बाद में एक ऐसा समय आया, जब वह उसे जान सका। इससे यही प्रमाणित होता है कि मन के अतिरिक्त और भी कोई है – उस व्यक्ति के बाल्यकाल में इस ‘और कोई’ ने उस शक्ति का उपयोग नहीं किया, किन्तु जब वह बड़ा हुआ, तब उसने उस शक्ति का उपयोग किया। पहले है, यह शरीर उसके बाद है, मन अर्थात् विचार का यन्त्र, और फिर है, इस मन के पीछे विद्यमान वह आत्मा। आधुनिक दार्शनिक लोग विचार को मस्तिष्क में स्थित परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के परिवर्तन के साथ अभिन्न मानते हैं, अतएव वे ऊपर कही हुई घटनावली की व्याख्या नहीं कर पाते, इसीलिए वे साधारणतः इन सब बातों को बिलकुल अस्वीकार कर देते हैं। जो हो मन के साथ मस्तिष्क का विशेष सम्बन्ध है और शरीर का विनाश होने पर वह नष्ट हो जाता है । आत्मा ही एकमात्र प्रकाशक है – मन उसके हाथों यन्त्र के समान है, और इस यन्त्र के माध्यम से आत्मा बाह्य साधन पर अधिकार जमा लेती है । इसी प्रकार प्रत्यक्ष बोध होता है। बाह्य चक्षु आदि साधनों में विषय का संस्कार पड़ता है और वे उसको भीतर मस्तिष्क- केन्द्र में ले जाते हैं – कारण, तुमको यह याद रखना चाहिए कि चक्षु आदि केवल इन संस्कारों के ग्रहण करनेवाले हैं, अन्तरिन्द्रिय अर्थात् मस्तिष्क के केन्द्र ही कार्य करते हैं। संस्कृत भाषा में मस्तिष्क के इन सब केन्द्रों को इन्द्रिय कहते हैं – ये इन्द्रियाँ इन चित्रों को लेकर मन को अर्पित कर देती हैं, फिर मन इनको बुद्धि के निकट और बुद्धि उन्हें अपने सिंहासन पर विराजमान महामहिमाशाली राजराजेश्वर आत्मा को प्रदान करती है। ‘तब आत्मा उन्हें देखकर आवश्यक आदेश देती है । फिर मन तुरन्त इन मस्तिष्क- केन्द्रों अर्थात् इन्द्रियों पर कार्य करता है। और ये इन्द्रियाँ स्थूल शरीर पर। मनुष्य की आत्मा ही इन सब की वास्तविक अनुभवकर्ता, शास्ता, स्त्रष्टा, सब कुछ है।

हमने देखा कि आत्मा शरीर भी नहीं है मन भी नहीं। आत्मा कोई यौगिक पदार्थ (Compound) भी नहीं हो सकती। क्यों नहीं? इसलिए कि हर कुछ यौगिक पदार्थ हमारे दर्शन या कल्पना का विषय होता है । जिस विषय का हम दर्शन या: कल्पना कुछ भी नहीं कर सकते, जिसे हम पकड़ नहीं सकते, जो न भूत है,? न शक्ति जो कार्य कारण अथवा कार्य-कारण- सम्बन्ध कुछ भी नहीं है, वह यौगिक अथवा मिश्र नहीं हो सकता। यौगिक पदार्थों का क्षेत्र मनोजगत्-विचार-जगत् तक सीमित है। इसके परे वे सम्भव नहीं है। सभी यौगिक पदार्थ नियम के राज्य के अन्तर्गत है। नियम के परे यदि कोई वस्तु हो, तो वह कदापि यौगिक नहीं हो सकती। चूंकि मनुष्य की आत्मा कार्य-कारण-भाव के परे है अतः वह यौगिक नहीं है । यह सदा मुक्त है और नियमों के अन्तर्गत सभी वस्तुओं का नियमन करती है । उसका कभी विनाश नहीं हो सकता, क्योंकि विनाश का अर्थ है, किसी यौगिक पदार्थ का अपने उपादानों में परिणत हो जाना। और जो कभी यौगिक नहीं है, उसका विनाश कभी नहीं हो सकता। उसकी मृत्यु होती है या विनाश होता है, ऐसा कहना केवल कोरी मूर्खता है ।

अब हम सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर क्षेत्र में आ उपस्थित हुए है । सम्भव है तुमने से कुछ लोग भयभीत भी हो जाएँ। हमने देखा कि यह आत्मा भूत शक्ति एवं विचार-रूप क्षुद्र जगत् के अतीत एक मौलिक (Simple) पदार्थ है, अतः इसको विनाश असम्भव है । इसी प्रकार उसका जीवन भी असम्भव है । कारण जिसका विनाश नहीं उसका जीवन भी कैसे हो सकता है? मृत्यु क्या है? मृत्यु एक पहलू है और जीवन उसी का एक दूसरा पहलू है । मृत्यु का और एक नाम है जीवन, तथा जीवन का और एक नाम है मृत्यु । अभिव्यक्ति के एक रूपविशेष को हम जीवन कहते है और उसी के अन्य रूपविशेष को मृत्यु । जब तरंग ऊपर की ओर उठती है, तो मानो जीवन है और फिर जब वह गिर जाती है तो मृत्यु है । जो वस्तु मृत्यु के अतीत है, वह निश्चय ही जन्म के भी अतीत है । मैं तुमको फिर उस प्रथम सिद्धान्त की याद दिलाता हूँ कि मानवात्मा उस मर्वव्यापी जनान्मयी शक्ति अथवा ईश्वर का अंशमात्र है। तो हम देखते है कि वह जीवन और मृत्यु दोनों से परे है । तुम न कभी उत्पन्न हुए थे न कभी मरोगे। हमारे चारों ओर जो जन्म और मृत्यु दिखते है, वे फिर क्या है? वे तो केवल शरीर के है, क्योंकि आत्मा तो सदा-सर्वदा वर्तमान है। तुम कहोगे, “यह कैसे हम इतने लोग यहाँ पर बैठे हुए है और आप कहते है, आत्मा सर्वव्यापी है!” मैं पूछता हूँ, जो पदार्थ नियम के कार्य-कारण-सम्बन्ध के बाहर है, उसे सीमित करने की शक्ति किसमें है? यह गिलास एक सीमित पदार्थ है – यह सर्वव्यापक नहीं है, क्योंकि इसके चारों ओर की जडराशि इसको इसी रूप में रहने को बाध्य करती है – इसे सर्वव्यापी नहीं होने देती। यह अपने आसपास के प्रत्येक पदार्थ के द्वारा नियन्त्रित है, अतएव यह सीमित है। किन्तु जो वस्तु नियम के बाहर है, जिस पर कार्य करनेवाला कोई पदार्थ नहीं वह कैसे सीमित हो सकती है? वह सर्वव्यापक होगी ही। तुम सर्वत्र विद्यमान हो फिर ‘मैंने जन्म लिया है मैं मरनेवाला हूँ ‘ – ये सब भाव क्या हैं? वे सब अज्ञान की बातें मन का भ्रम है। तुम्हारा न कभी जन्म हुआ था, न तुम कभी मरोगे । तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ न कभी पुनर्जन्म होगा। आवागमन का क्या अर्थ है? कुछ नहीं। यह सब मूर्खता है । तुम सब जगह मौजूद हो । आवागमन जिसे कहते है? वह इस सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन के परिवर्तन के कारण उत्पन्न हुई एक मृगमरिचिका मात्र है । यह बराबर चल रहा है । यह आकाश पर तैरते हुए बादल के एक टुकड़े के समान है। जब वह चलता रहता है, तो प्रतीत होता है कि आकाश ही चल रहा है । कभी कभी जब चन्द्रमा के ऊपर से बादल हो निकलते है, तो भ्रम होता है कि चन्द्रमा ही चल रहा- है । जब तुम गाड़ी में बैठे रहते हो तो मालूम होता है कि पृथ्वी चल रही है और नाव पर बैठने वाले को पानी चलता हुआ सा मालूम होता है । वास्तव में न तुम जा रहे हो, न आ रहे हो, न तुमने जन्म लिया है न फिर जन्म लोगे । तुम अनन्त हो सर्वव्यापी हो – सभी कार्य-कारण- सम्बन्ध से अतीत नित्यमुक्त अज और अविनाशी। जन्म और मृत्यु का प्रश्न ही गलत है, महामूर्खता पूर्ण है । मृत्यु हो ही कैसे सकती है, जब जन्म ही नहीं हुआ?

किन्तु निर्दोष, तर्कसंगत सिद्धान्त पर पहुँचने के लिए हमें एक कदम और बढ़ना होगा। मार्ग के बीच में रुकना नहीं है। तुम दार्शनिक हो, तुम्हारे लिए बीच में रुकना शोभा नहीं देता। हाँ, तो यदि हम नियम के बाहर है, तो निश्चय ही हम सर्वज्ञ हैं, नित्यानन्दस्वरूप है, निश्चय ही सभी ज्ञान, सभी शक्ति और सर्वविध कल्याण हमारे अन्दर ही है। अवश्य, तुम सभी सर्वज्ञ, और सर्वव्यापी हो। परन्तु इस प्रकार की सत्ता या पुरुष क्या एक से अधिक हो सकते हैं? क्या लाखों-करोड़ों पुरुष सर्वव्यापक हो सकते हैं? कभी नहीं। तब फिर हम सब का क्या होगा? वास्तव में केवल एक ही है, एक ही आत्मा है और तुम सब वह एक आत्मा ही हो। इस तुच्छ प्रकृति के पीछे वह आत्मा ही विराजमान है। एक ही पुरुष है – वही एकमात्र सत्ता है, वह सदानन्द स्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, जन्मरहित और मृत्युहीन है। “उसी की आज्ञा से आकाश फैला हुआ है, उसी की आज्ञा से वायु बह रही है, सूर्य चमक रहा है, सब जीवित है। वही प्रकृति का आधारस्वरूप है, प्रकृति उस सत्यस्वरूप पर प्रतिष्ठित होने के कारण ही सत्य प्रतीत होती है। वह तुम्हारी आत्मा की भी आत्मा है। यही नहीं, तुम स्वयं ही वह हो, तुम और वह एक ही है।” जहाँ कहीं भी दो है, वहीं भय है, खतरा है, वही द्वन्द्व और संघर्ष है। जब सब एक ही है, तो किससे घृणा, किससे संघर्ष? जब सब कुछ वही है, तो तुम किससे लड़ोगे? जीवन-समस्या की वास्तविक मीमांसा यही है, इसी से वस्तु के स्वरूप की व्याख्या होती है। यही सिद्धि या पूर्णत्व है और यही ईश्वर है। जब तक तुम अनेक देखते हो, तब तक तुम अज्ञान में हो। “इस बहुत्वपूर्ण जगत् में जो उस एक को, इस परिवर्तनशील जगत् में जो उस अपरिवर्तनशील को अपने आत्मा की आत्मा के रूप में देखता है, अपना स्वरूप समझता है, वही मुक्त है, वहीं आनन्दमय हैं, उसी ने लक्ष्य की प्राप्ति की है।” अतएव जान लो कि तुम्हीं वह हो, तुम्हीं जगत् के ईश्वर हो – ‘तत्त्वमसि’ । ये धारणाएँ कि मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, रोगी हूँ, स्वस्थ हूँ, बलवान हूँ, निर्बल हूँ, अथवा यह कि मैं घृणा करता हूँ? मैं प्रेम करता हूँ अथवा मेरे पास इतनी शक्ति है – सब भ्रम मात्र है। इनको छोड़ो। तुम्हें कौन दुर्बल बना सकता है? तुम्हें कौन भयभीत कर सकता है? जगत् में तुम्हीं तो एकमात्र सत्ता हो। तुम्हें किसका भय है? अतएव उठो, मुक्त हो जाओ । जान लो कि जो कोई विचार या शब्द तुम्हें दुर्बल बनाता है, एकमात्र वही अशुभ है। मनुष्य को दुर्बल और भयभीत बनानेवाला संसार में जो कुछ है, वही पाप है और उसी से बचना चाहिए। तुम्हें कौन भयभीत कर सकता है? यदि सैकड़ों सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ें सैकड़ों चन्द्र चूर-चूर हो जाएँ, एक के बाद एक ब्रह्माण्ड विनष्ट होते चले जाएँ, तो भी तुम्हारे लिए क्या? पर्वत की भांति अटल रही, तुम अविनाशी हो। तुम आत्मा हो, तुम्हीं जगत् के ईश्वर हो। कहो ‘ शिवोऽहं शिवोऽहं मैं पूर्ण सच्चिदानन्द हूँ ।” पिंजड़े को तोड़ डालनेवाले सिंह की भांति तुम अपने बन्धन तोड़कर सदा के लिए मुक्त हो जाओ। तुम्हें किसका भय हैं, तुम्हें कौन बाँधकर रख सकता है? – केवल अज्ञान और भ्रम; अन्य कुछ भी तुम्हें बाँध नहीं सकता। तुम शुद्ध स्वरूप हो, नित्यानन्दमय हो।

यह मूर्खों का उपदेश है कि ‘तुम पापी हो, अतएव एक कोने में बैठकर हाय हाय करते रहो।?’ यह उपदेश देना मूर्खता ही नहीं, दुष्टता भी है, कोरी बदमाशी है। तुम सभी ईश्वर हो। तुम ईश्वर को नहीं देखते और उसी को मनुष्य कहते हो! अतएव यदि तुममें साहस है, तो इस विश्वास पर खड़े हो जाओ और उसके अनुसार अपना जीवन गढ़ डालो। यदि कोई व्यक्ति तुम्हारा गला काटे, तो उसे मना मत करना, क्योंकि तुम तो स्वयं अपना गला काट रहे हो। किसी गरीब का यदि कुछ उपकार करो, तो उसके लिए तनिक भी अहंकार मत लाना। वह तो तुम्हारे लिए उपासना मात्र है, उसमें अहंकार की कौन-सी बात? क्या तुम्हीं समस्त जगत् नहीं हो? कहीं ऐसी कोई वस्तु है, जो तुम नहीं हो? तुम जगत् की आत्मा हो। तुम्हीं सूर्य, चन्द्र, तारा हो, तुम्हीं सर्वत्र चमक रहे हो। समस्त जगत् तुम्हीं हो। किससे घृणा करोगे। और किससे झगड़ा करोगे? अतएव जान लो कि तुम वही हो, और इसी साँचे में अपना जीवन डालो। जो व्यक्ति इस तत्त्व को जानकर अपना सारा जीवन उसके अनुसार गठित करता है, वह फिर कभी अन्धकार में मारा मारा नहीं फिरता।

एक अमेज़न एसोसिएट के रूप में उपयुक्त ख़रीद से हमारी आय होती है। यदि आप यहाँ दिए लिंक के माध्यम से ख़रीदारी करते हैं, तो आपको बिना किसी अतिरिक्त लागत के हमें उसका एक छोटा-सा कमीशन मिल सकता है। धन्यवाद!

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!